शंभुनाथ
साहित्य हमेशा सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों का मामला है।आज समाज में साहित्य की जरूरत कितनी महसूस की जाती है, शिक्षित लोगों के जीवन में साहित्यिक कृतियों का कितना स्थान है और साहित्य के नाम पर जो कुछ घटित हो रहा है, वह कितना साहित्य है- ये चुनौतीपूर्ण प्रश्न हैं।कहीं साहित्य का अर्थ इतना फैल गया है कि विज्ञापन भी साहित्य है।कहीं साहित्य का अर्थ कविता के पास आकर सिकुड़ गया है और कहीं ऐसी बेस्ट सेलर किताबों के पास जिनसे सफर अच्छी तरह कट जाए।कई बार बड़े पुरस्कार बताते हैं, क्या साहित्य है।साहित्य साहित्यकारों के पास कई बार एक लावारिस चीज होती है।यह भी जरूर महसूस होता है कि संस्कृतियां साहित्य के कारण ही बची रहती हैं।
इस समय यह समझना कठिन है कि साहित्य के पक्ष में कौन है, साहित्य के पक्ष में होने का क्या अर्थ है और क्या साहित्य प्रतिपक्ष है।वैश्वीकरण के बाद साहित्यिक दुनिया की उदासीनता तोड़ने के लिए कई नई चीजों का प्रवेश हुआ है।उदाहरण के तौर पर, कुछ दशकों से प्रबंधन और तकनीक के पाठ्यक्रम में साहित्य शामिल हुआ है, क्योंकि इससे उन विषयों को मानवीय चेहरा मिलता है, जिस तरह योग से उन्हें आध्यात्मिक चेहरा मिलता है।
साहित्य मानवीय भावों का संवाहक है और योग को तनावरोधक बताया जाता है।इधर इन्हें उत्पादक संस्थाओं में महत्व दिया जा रहा है, क्योंकि ये विकास से पैदा होने वाली उन खास मानसिक जटिलताओं को सुलझा सकते हैं जो तेज अर्थव्यवस्था के कारण पैदा होती हैं।यही वजह है, मैनेजमेंट गुरु सृजनात्मकता को महत्व देने लगे हैं।कहना न होगा कि व्यापारिक कंपनियां मानवीय भावनाओं और सृजनात्मकता को भौतिक वस्तु के रूप में देखती हैं।उनको लगता है कि साहित्य उन्हें एक विनम्र सांस्कृतिक चेहरा दे सकता है।इसलिए वे साहित्यिक सेवाओं के क्षेत्र में भी कदम रखती हैं।वे पुरस्कारों का बंदोबस्त, कवि-सम्मेलन, लिटरेरी मीट और फेस्टिवल करती रहती हैं या पार्टनर बनती हैं।
आज लोगों की निगाह में साहित्य का कितना महत्व है, वे विचारधारा और मूल्यों की कितनी जरूरत महसूस करते हैं, इसपर कुछ सोचने की जरूरत है।हम ऐसे समय में हैं, जो बहुराष्ट्रीय कंपनियों की बड़ी पूंजी की दिग्विजय का है।५-१० करोड़ की छोटी पूंजी वालों की कोई आवाज नहीं है।दुनिया के मजदूर एक न हो सके, पर दुनिया के पूंजीपति एक हो गए हैं।उन्होंने एक लुभावना बाजार जाल तैयार कर लिया है, जिसका एक हिस्सा सांस्कृतिक चक्रव्यूह है।इसमें घुसना आसान है, निकलना कठिन है।
साहित्य क्यों है?
हम जिस सभ्यता में सांस ले रहे हैं, वह एक सर्वभक्षी सभ्यता है।इसे डायनासोर सभ्यता कह सकते हैं।हर तरफ अदृश्य डायनासोर हैं, सामान्य मानवीय सौहार्द समेत सारी अच्छाइयों और मूल्यों को तहस-नहस कर देने वाले।यह सभ्यता अंधा अनुकरण को प्रेरित करती है, जबकि साहित्य पाठक में स्वतंत्र सोच और सौंदयबोध की क्षमताएं विकसित करता है।
फिलहाल राष्ट्रीय स्तर का पहले-सा कोई आंदोलन नहीं है, कोई बड़ी अंतर्दृष्टि नहीं है।एक तरफ, उत्थानशील परंपराओं और आधुनिकताओं के ध्वंसावशेष हैं, दूसरी तरफ, नई चमक से भरे ऐसे नगर हैं, जिन्हें धर्म, बाजार और राजनीति की मिलीभगत द्वारा आत्मविहीन किया जा रहा है।अब पहले सा प्रेम-मुहब्बत नहीं है, वैचारिक रीढ़ नहीं है।तर्क पर उन्माद और मूल्यों पर मजेदार चीजें हावी हैं।
अंग्रेजी–शिक्षित नौजवानों के लिए अब फिल्म, राजनीति और सेवा क्षेत्रों के वे रोल मॉडल हैं जो कुछ भी खोकर ज्यादा से ज्यादा में बिकते हैं।उन्हें विचारधारा या ऊँचे आदर्श आकर्षित नहीं करते।भीड़ वहां है जहां मजा है, अफवाह है या चमकता झूठ है।वहां नहीं, जहां साहित्य है या कोई तर्क है।२१वीं सदी में भेदभाव की राजनीतिक संस्कृति ने जाति, धर्म, प्रांतीयता सहित ताश के सभी पत्ते चल दिए, बल्कि जोकर भी महाबली हो गए!
प्रेमचंद ने कहा था ‘साहित्य देशभक्ति और राजनीति के आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है।’ उनकी आवाज बहुत कम सुनी गई।साहित्य राजनीति नहीं, बल्कि राजनीतिक नेतृत्व के पीछे चलने लगा।ऐसे साहित्य में ‘नवोन्मेषों’ के लिए ज्यादा स्पेस नहीं रह गया, उच्चतर मानवीय अपील नहीं रह गई।कहना न होगा कि साहित्य का तभी से सामाजिक विस्थापन शुरू हो गया।
प्राचीन काल में दर्शन थे, सिद्धांत थे, धर्मशास्त्र थे और राजनीति भी थी।फिर साहित्य की जरूरत क्यों हुई? साहित्य उसे अग्रभूमि में लाता है जो दर्शन, सिद्धांत, धर्म और राजनीति में पृष्ठभूमि में फेंक दिए जाते हैं।साहित्य मजा लेने की चीज नहीं, उत्पीड़ित मनुष्यता की आवाज है।यह एक बिंदु पर बने-बनाए इतिहास, प्रचलित सिद्धांत और प्रचारित झूठ से विद्रोह है।यह हमारे मन को बड़ा बनाता है, मिथ्या विभाजनों से मुक्त करता है।साहित्य और कट्टरवाद दोनों एक साथ संभव नहीं है।दरअसल हमारे युग में साहित्य के अलावा दूसरी कोई चीज नहीं है, जो मनुष्य को एहसास करा सके कि वह भोगपशु से कुछ अधिक है।
आज की संस्कृति धार्मिक और आधुनिक विकृतियों का भंडार इसलिए बनती जा रही है कि वह साहित्य से कटी हुई है।आम लोगों की रुचि का व्यावसायिक विकृतिकरण हो रहा है।इससे साहित्य-विमुखता ही नहीं बढ़ी है, तर्क, संवेदना और कल्पनाशीलता का भी ह्रास हुआ है।आज वैश्वीकरण है, पर लोगों के पास विश्व मन नहीं है।ज्यादातर लोगों का जातिवादी मन है, सांप्रदायिक मन है, क्षेत्रीय मन है।लोग समाज से निराश्रित होकर तेजी से समुदाय में लौटने लगे हैं।इस समय सभी को अपने-अपने धार्मिक-जातिवादी-प्रांतीय समुदाय में सुरक्षा नजर आती है।इस तरह ‘कॉमन प्लेस’ की कमी हो गई है।लोकतंत्र की इससे बड़ी विफलता नहीं हो सकती।
साहित्य कौन लोग पढ़ते हैं? जो अकेले हैं, जो जीवन को समझने, जीने और हो सके तो उसे थोड़ा-बहुत बदलने के लिए बेचैन रहते हैं।इधर के कट्टर सामुदायिक अभियानों और मनोरंजन उद्योगों ने मुनष्य का अकेलापन छीना है।उसको असंतोषों और बेचैनियों से मुक्त रखने के लिए तरह-तरह के छलावे निर्मित कर दिए गए हैं और आवेश से भरे अनगिनत झुंड बन गए हैं।फिर भी, यह समझने की जरूरत है कि साहित्य की आवश्यकता उन्हें नहीं है जो विकास की आसमान छूती मंजिलों पर हैं।उन्हें है, जो विकास की नींवों में गाड़े जा रहे हैं।
हिंदी संसार की मुश्किलें
आज हर तरफ लोग मनोरंजन खोज रहे हैं।वे रंग-बिरंगी घटनाओं की ताक में रहते हैं।वे बाजार द्वारा गुब्बारे की तरह फुलाए गए सेलिब्रिटी के दीवाने हैं।वे तमाशा और मस्ती चाहते हैं, हमेशा कुछ उत्तेजक होना चाहिए।उनके लिए सादगी असहनीय है, प्रेम अनुत्पादक है।धर्म, राजनीति, फिल्म, मीडिया हर जगह बाजार के खेल हैं।हमें कहना होगा, साहित्य निरा व्यावसायिक माल नहीं है।जीवन तभी मनुष्य का जीवन है, जब इसमें गैर-व्यावसायिक के लिए भी थोड़ी जगह हो।
यह भी देखने की चीज है कि साहित्य खुद साहित्यकार के आचरण को कितना तर्कसंगत और मानवीय बना पाता है।साहित्य का पहला काम है अनुदार भावों को दिमाग से उखाड़ फेंकना, पर देखा जाता है कि कई लेखक खुद संकीर्ण होते हैं और व्यक्तिगत पसंद-नापसंद वाले हैं।लेखक का लेखक ही सिस्टम से ज्यादा बड़ा शत्रु है।कहां तो ज्यादा शिक्षित और बुद्धिवान लोगों के बीच आपस में मतभेद के बावजूद मित्रता होनी चाहिए, आपसी समझ होनी चाहिए और परस्पर न्यायपूर्ण आचरण होना चाहिए, लेकिन ये चीजें दुर्लभ हैं।
हिंदी संसार की मुश्किल यह है कि यहां कोई साहित्यिक संस्कृति विकसित नहीं की जा सकी।साहित्यिक संस्कृति का निर्माण लेखकों, पत्रकारों, शिक्षकों, प्रकाशकों, साहित्यप्रेमियों और साहित्य के विद्यार्थियों के मिलकर कुछ सोचने से होता है।यह साझा स्वप्न देखने से होता है।साहित्यिक संस्कृति उदार हो, इसके लिए कुछ त्याग की जरूरत होती है।ऐसी संस्कृति का विकास नहीं हो सका।इसलिए खाइयां हैं, संवादहीनता है, अपने को श्रेष्ठ और दूसरों को तुच्छ समझने का दंभ है और व्यक्तिवाद है।
इस युग की अराजकता ’६० के बाद की उस आधुनिकतावादी अराजकता से भिन्न है, जो मरी हुई आत्माओं को ढो रही व्यवस्था के विरुद्ध एक प्रतिवाद थी, एक मूल्य थी।यह अराजकता आत्मविसर्जन के लिए होड़ या शब्द और कर्म के बीच दूरी के मामलों में है।देखा जा सकता है कि इधर के दशकों में धर्म, म्युजिक, क्रिकेट-फुटबाल, फिल्म, टीवी सीरियल का आकर्षण बढ़ा है- इनका ग्लैमर बढ़ा है।इन संसारों में स्पर्धा के बावजूद पर्याप्त ‘सहकार भावना’ है।धर्म या राजनीतिक दल में लोग एक छाते के नीचे इकट्ठे हो जाते हैं।साहित्य के संसार में पांच लेखकों के हाथ में दस छाते हैं।इस दुनिया में बिखराव, कलह-कलरव और दूसरे का नकार ज्यादा है।सभी प्रायः अकेले हैं, इसलिए वेध्य हैं।
संस्कृति का काम जोड़ना है, लेकिन
संस्कृति का काम है जोड़ना- एक बड़ी समझ देना।लेकिन सत्ता की राजनीति ने संस्कृति को लड़ाने के औजार में रूपांतरित कर दिया है।इसके लिए नए सिद्धांत बने हुए हैं।हमारे सामने चुनौती है कि संस्कृति को किस नजरिये से देखा जाए।भारत की संस्कृति क्या है, कैसे बनी है, दुनिया की संस्कृतियों से इसका कैसा इंटरैक्शन रहा है, सामाजिक आलोड़नों के दौर में कौन-सी निकृष्ट चीजें त्याग दी गईं, क्या अच्छी चीजें ली गईं- इन मुद्दों पर सोचने की जरूरत है।क्रिकेट की सुंदर पिच का लगातार संस्कार न हो तो वहां जंगली घास उग आती है।देखा जा सकता है कि साहित्य हर युग में संस्कृतियों में नवोन्मेष ले आया है और इनकी जड़ता से टकराया है।
इधर लंबे समय से संस्कृति के अर्थ में जो भारी काट–छांट होती रही है, उसका असर साहित्य पर पड़ा है।कटी–छंटी संस्कृति में साहित्य का आकाश हमेशा छोटा हो जाता है।
इस जमाने में शुद्धतावाद और अंध-बुद्धिवाद काफी नुकसान पहुंचा रहे हैं।यही वजह है कि एक तरफ, धार्मिक अतीत का पुनरुत्थान है, दूसरी तरफ, मुक्त बाजार द्वारा बौद्धिक सतहीकरण के अभियान हैं।एक तरफ से बर्बरता और दूसरी तरफ से भुक्खड़ता छा रही है।हम देख सकते हैं कि एक तरफ सामाजिक भिन्नता की राजनीति है, जिसने संस्कृति को सत्ता के चिह्नों में रिड्यूस कर दिया है, दूसरी तरफ, लोकप्रियतावादी वस्तुएं हैं, जिन्होंने मनुष्य की सोचने और कल्पना करने की क्षमता को रोक दिया है।
यदि समाज पूरी तरह बाजार में बदल जाएगा तो समाज में लोकतंत्र के नहीं, बाजार के नियम चलेंगे।बाजार में बाजार के नियम चलेंगे, कई बार भले राजनीतिक मुखौटे में।इसलिए एक बड़ी चुनौती सामुदायिक विमर्शों को बहुराष्ट्रीय कंपनियों की तानाशाही के प्रति जागरूकता से जोड़कर साझा जमीन बनाने की है।बाजार की घुड़दौड़ में शामिल होने की जगह बाजार में समाज के लिए अधिकाधिक जगह बनाने के प्रयत्न होने चाहिए।यह सनसनीखेज कथनों से नहीं होगा।यह सिर्फ सहृदयता और समावेशी बुद्धिपरकता से संभव है।
इसमें संदेह नहीं है कि इस युग के साहित्य में बहुलता है, ‘कन्फ्लिक्टिंग रियलिटीज’ हैं, पर एक साझी आवाज भी होनी चाहिए।यह नदारद है।
साहित्य में कभी स्थिरता नहीं थी।यह बिलकुल संभव है कि कल जो रचना नई लगती थी, आज नई नहीं लगे।कल जो प्रगति थी, आज प्रगति न हो।कल जो विमर्श था, आज वह आत्मकैद हो।कभी ‘वर्ग’ कहा जाता था, कभी ‘वंचित ‘समुदाय’ कहा जा रहा हो।यह भी संभव है कि आज अपने को ‘भारतीय’ कहकर गर्व महसूस करने पर अपने ही देश में पराया हो जाने का खतरा हो।फिर भी, इतिहास में लड़ाई की जगहें बदलती हैं, लड़ाई नहीं रुकती।
साहित्य जब एक आंदोलन नहीं है
आज साहित्य एक अनोखे मोड़ पर खड़ा है।इस समय जो जितना अधिक लोकप्रिय है, उतना अधिक हास्यास्पद है।हिंदी समाज कुमार विश्वास जैसे लोगों को साहित्यकार मानता है जो प्रसाद और अज्ञेय की कविताओं की आवृत्ति करते-करते रामकथा का रसमय प्रवचन करने लगे और एक कंपनी बन गए।साहित्य से ज्यादा धर्म मुनाफा देने लगा।
दूसरी तरफ, साहित्य अब एक आंदोलन नहीं है।अब उसका समाज में पहले की तरह सम्मान नहीं है।आखिर डिजिटल दुनिया में कितने लोग हैं जो लेखक के सम्मान को समझते हैं या उसकी कृतियों के इंतजार में होते हैं।नगर के नगर साहित्य से शून्य होते जा रहे हैं।अब पढ़े-लिखे लोगों के लिए भिन्न आकर्षण हैं, उनको आनंद नहीं मजा चाहिए।
इस दौर में साहित्यिक किताब की दुकानें बंद होती जा रही हैं, पढ़ना कम होता जा रहा है और लिटरेरी फेस्ट बढ़ते जा रहे हैं।एक जानकारी के अनुसार, देश में बड़े-छोटे उत्सवों की संख्या ३५० पार कर गई है।हर बड़े उत्सव में ऐसे कलाकार, लेखक और बुद्धिजीवी बड़ी संख्या में होते हैं, जो भीतर से ‘सर्व सत्ता-सम भाव’ रखते हैं।
पिछले कुछ दशकों से मनोरंजन उद्योगों ने साहित्यिक लेखकों को ‘नगण्य’ बना दिया है।कुछ दूसरे कारणों से भी उनकी समाज से विच्छिन्नता बढ़ी है, भले कुछ लेखक ५५ करोड़ की आबादी वाले हिंदी समाज में अपनी २–४ हजार प्रतियां बिक जाने पर अपने को लोकप्रिय समझने के भ्रम में हों।
हिंदी लेखकों में आलोचकों द्वारा सटीक मूल्यांकन न होने की तकलीफ रहती है, क्योंकि आलोचक नामधारी जीव विचारधाराओं, सिद्धांतों और अपने वैचारिक मुद्दों को संभालने में लगे रहे हैं।पुरस्कारों पर राजनीतिक पार्टियों का कब्जा हो गया है।बड़े लिटरेरी फेस्टिवल में आमंत्रण ही अब सबसे बड़ा मूल्यांकन है! जिस समाज में सत्ता, पैसे और ख्याति के लिए कोई कुछ भी करने के लिए तैयार हो, लेखकों के लिए सांस्कृतिक विकल्प नहीं बन पा रहे हों और बड़े-बड़े बयान काफी माने जाते हों, उस समाज में लेखकों को साहित्यिक प्रचार और स्वीकृति के लिए ऐसे फेस्टिवल आकर्षित करेंगे।
इधर पढ़ते कम लोग हैं, ज्यादातर लेखक अपने को पढ़ाने में लगे रहते हैं! कई वजहें हैं जिनसे लेखकों में निराशा किसी भी दौर से आज ज्यादा है।वे ज्यादा समय साहित्यिक उपवास में नहीं रह सकते।साहित्य को एक पब्लिक मंच चाहिए, जो लेखक खुद नहीं बना पा रहे हैं।फिर चलो फेस्टिवल, भले वह ‘आजतक’ और रजनीगंधा पान मसाला वालों का हो! कुछ लेखक कहते हैं कि कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, बहिष्कार अलग-थलग करता है।कई लेखक विलासिता और रचनात्मकता के बीच नट की तरह संबंध साधे रहते हैं।
साहित्य उत्सव में कंट्रोवर्सियल ही बिकता है
निश्चय ही भारत में बड़े साहित्य उत्सव की शुरुआत जयपुर लिटरेरी फेस्ट से हुई है, जो आलीशान डिग्गी पैलेस में होता रहा है।यह साहित्य को राजाश्रय और बाजार-आश्रय में ले आना है, जहां साहित्य से ज्यादा पैसा और सेलिब्रिटी महत्वपूर्ण हैं।मूल्यबोध से ज्यादा मनोरंजन महत्वपूर्ण है।हर बड़ा साहित्य उत्सव मुख्यतः मनोरंजन पार्क होता है।
जयपुर उत्सव में अंग्रेजी वर्चस्व रहा है।ऐसे साहित्य उत्सवों में अंग्रेजीदां लेखक यही कहते रहे हैं कि भारतीय साहित्य का मतलब अंग्रेजी में लिखा गया भारतीय लेखकों का साहित्य है।समारोह के आयोजक आरोप से बचने के लिए हिंदी और कुछ दूसरी भाषाओं के लेखकों और वंचित समुदाय के कुछ लेखकों को भी प्रतीक के रूप में दिखा देते हैं।बड़े फेस्टिवल आमतौर पर ऐसे चेहरों को चुनते हैं, जो नरम हों या फेंस पर खड़े हों।जिस कौशल से हो, निराशाजनक साहित्यिक संसार में बड़े साहित्य उत्सवों ने जगमगाहट पैदा कर दी है।
लिटरेरी फेस्ट के उद्देश्य को सिर्फ बाजार के प्रसार तक सीमित मानना एक भोलापन कहा जाएगा।इसका लक्ष्य सांस्कृतिक उपभोग के लिए वातावरण बनाना तो है ही, मीडिया और व्यापार में जो चीजें अपराध की श्रेणी में आनी चाहिए, उन्हें सांस्कृतिक वैधता देना भी है।
बड़ा साहित्य उत्सव आमतौर पर खाए-पिए-अघाए लेखकों और समाज वैज्ञानिकों का जमघट होता है।इसमें एलीट लोग ज्यादा पहुंचते हैं।उनके चेहरों पर अभिजात भद्रता और चिकनाई होती है, गुस्से की बदसूरती नहीं।इन उत्सवों में न सार्त्र की तरह प्रभावी ढंग से सड़क पर उतरने वाले बुद्धिजीवी होते हैं और न नागार्जुन और रेणु की तरह जेल जाने वाले रचनाकार।
ऐसे फेस्टिवल में सबसे मजेदार आकर्षण होते हैं कंट्रोवर्सियल बयान।अब हर तरफ कंट्रोवर्सियल ही बिकता है, सच खोजते रहिए!
देखा गया है कि विवाद ही साहित्य-उत्सव की जान है।लिटरेरी फेस्टिवल के आयोजक कई बार विवाद की केंद्रीय थीम सोचकर लेखक और कलाकार चुनते हैं।ये विवाद मिथ्या ध्रुवीकरण के उद्देश्य से होते हैं।इन दिनों लगता ही नहीं है कि उत्तेजक विवादास्पद कथनों के बाहर भी साहित्य है।पढ़े-लिखों के संसार में तथ्यों और तर्कों पर आधारित गैर-सनसनीखेज साहित्य का महत्व नहीं है, इस संसार का इतना बौद्धिक सतहीकरण हो चुका है।
विवादों के कारण साहित्य उत्सव खुद साहित्य से बड़ा हो जाता है।उत्सव उछलता है तो लेखक उछलता है।लेखक एक बार उछलता है तो फिर उछलने का चस्का लग जाता है और लेखक के उछलने के साथ साहित्य के गिरने का दौर शुरू हो जाता है।लेखकों–बुद्धिजीवियों और कलाकारों का इतना बड़ा जमावड़ा, करोड़ों का खर्च, दुर्लभ वैश्विक दृश्य।फिर भी हर बार यही होता है कि बड़े साहित्य उत्सव के बौद्धिक पहाड़ से कोई मरा हुआ चूहा ही निकलता है।
देश में बड़ी संख्या में साहित्य उत्सव हो रहे हैं।ये आकर्षण और गौरव की जगहें बन रहे हैं।अब पहले की तरह सभागारों में होने वाली साहित्यिक गोष्ठियां, कवि सम्मेलन या छोटे साहित्यिक मेले पिज्जा के बरक्स लिट्टी-चोखा लगते हैं।यदि ये स्थितियां हैं, किस लेखक का मन बड़े साहित्य उत्सव में भाग लेने का नहीं करेगा!
साहित्य उत्सव का संबंध पढ़ने की संस्कृति से हो
किसी लिटरेरी फेस्ट से बुलावा आता है तो मन में फुरफुरी होती है, अपना महत्व समझ में आता है।लेखक सबकुछ भूलकर उसमें शामिल होते हैं।इसमें बुराई नहीं है।साहित्य उत्सव लेखकों को एक राहत देता है।फेस्ट अपनी प्रतिष्ठा और विस्तार के अनुसार लेखक को कुछ अधिक लोगों की निगाह में लाता है।बहुतों से मिलना-जुलना होता है।हैसियत के अनुसार ७ स्टार से लेकर ३ स्टार तक स्वागत-सत्कार होता है।बड़ा कठिन है वर्तमान उदासीन माहौल में इन सबके आकर्षण से बचना।इसपर सोचा जा सकता है कि सामान्यतः प्रलोभन जागरूकता को खा जाता है।
आज हम व्यवस्थित जीवन जी रहे लेखकों से बोहेमियन स्वभाव की अपेक्षा नहीं कर सकते, उसके कुछ तत्व भले कहीं बचे हों।आमतौर पर अब लेखक बड़ा नाप-तौल कर चलने वाला साहित्यिक प्राणी है।ऊपर से राजनीतिक संसार में स्याह और सफेद का विभाजन धूमिल हुआ है।मुख्य बात यह नहीं है कि व्यापारिक या सरकारी साहित्य उत्सवों में कौन लेखक गया और किसने बहिष्कार किया।अगर कोई गया तो उसे लज्जित करने और नहीं गया हो तो इसपर गर्व करने से ज्यादा महत्वपूर्ण यह है कि हर लेखक इसपर सोचे कि वह खुद इसका विकल्प कितना तैयार कर पा रहा है।हमें जब झाड़ा लगता है, तो दूसरे को शैचालय नहीं भेजते हैं।क्या अब विकल्प के मुद्दे पर सोचना बिलकुल संभव नहीं रह गया है?
आमतौर पर इधर के बड़े लिटरेरी फेस्टिवल बाजार के कुछ गुब्बारा लेखकों और कलाकारों को आइटम बनाकर उपस्थित कर देने, बौद्धिक मनोरंजन देने या कोई नकली विवाद खड़ा कर देने तक सीमित रहे हैं।उनके पास कोई विजन नहीं होता।फेस्ट का अंततः कोई बड़ा सामाजिक असर नहीं होता।उसका मकसद साहित्य को एक आवरण और तमाशे में सीमित कर देना है।
वर्तमान युग में साहित्य उत्सवों की उपयोगिता से इंकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि ये एक हद तक साहित्यिक बिरादरी का अहसास कराते हैं, साहित्य की शक्ति का भी अहसास कराते हैं।ये अधिक उपयोगी बनाए जा सकते हैं, यदि एलीटवर्गीयता से अपना दायरा बढ़ाकर सीमांत के लेखकों तथा युवा पाठकों तक पहुंच बढ़ाएं।साहित्य उत्सव ज्यादा अर्थपूर्ण होंगे, यदि लेखक और पुस्तक प्रकाशक किसी अच्छे दैनिक अखबार या साहित्यप्रेमी स्पांसरों का सहयोग लेकर इसका खुद आयोजन करें।क्योंकि तब लिटरेरी फेस्टिवल का संबंध पढ़ने की संस्कृति से बनेगा और मामला लिटरेरी चाट तक सीमित नहीं रहेगा।ऐसे उत्सव या मेले से पढ़ने की संस्कृति का विकास होगा।निश्चय ही ऐसी शुरुआतों के लिए आत्मविश्वास की जरूरत होती है।
इस मामले में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के जवाब में प्रिंट मीडिया, अखबारों को भी पहल करनी चाहिए, इससे उनके पाठक वर्ग का विस्तार होगा।इस समय इलेक्ट्रोनिक मीडिया की तुलना में प्रिंट मीडिया अधिक विश्वसनीय है।
सांस्कृतिक क्षय के युग में कारपोरेट रस
हम जानते हैं कि राजनीतिक वजहों से साहित्यिक दुनिया में कुछ लेखकों को अस्पृश्य मानने की परंपरा रही है।इसी तरह कुछ लेखकों को सीढ़ी पर चढ़ाकर महान ठहराने की कोशिश हुई है।आज भी कला-साहित्य की दुनिया में सरकारी-व्यावसायिक फैसले सौ फीसदी राजनीतिक होते हैं, पारदर्शिता नहीं होती।ऐसे फैसलों में हमने देखा है कि गदहों पर जीन रखकर उन्हें घोड़ा बनाया जाता है।हमने इस तरह घोषित किए गए महान लेखकों को समय के प्रवाह में धूलिसात होते देखा है और आगे भी देखेंगे।
इन दिनों साहित्य उत्सव फिल्मी हस्तियों, प्रवचनकर्ताओं और पॉप कल्चर के नर्तकों-गायकों को बुलाकर ‘एब्सर्ड’ बना दिया जा रहा है।ऐसे व्यक्तियों का साहित्य से क्या लेना-देना? यह साहित्य का सांस्कृतिक क्षय के एक आवरण के रूप में इस्तेमाल है।
लिटरेरी फेस्ट में सरकारी लोगों का स्वागत भले हो, पर कोई तो जगह ऐसी हो जहां वे थोड़ी देर बैठकर सिर्फ सुनें।एक अच्छे लोकतंत्र में नेताओं को कभी-कभी साहित्यकारों को भी सुनने की आदत डालनी चाहिए।
बड़े लिटरेरी फेस्ट साहित्य के कॉरपोरेट युग का अहसास कराते हैं।इनमें कई मंच, कई स्क्रीन होते हैं।बीसों गोल टेबल घेरकर खाते–पीते हुए लेखक–श्रोता बैठे होते हैं तो एक अभिजात दृश्य बनता है।इसे साहित्य की दुनिया में कॉरपोरेट रस का आगमन समझना चाहिए।
एक बड़ी समस्या तब खड़ी होती है, जब लेखक, प्रकाशक और पाठक के बीच चौथा आदमी घुसता है।यह चौथा आदमी ‘आजतक’ अर्थात ‘सत्य’ का सबसे तेज चैनल है।यह चौथा आदमी पान मसाला बेचकर कैंसर फैलाने वाला है।यह चौथा आदमी अपनी राजनीतिक पक्षधरता की सांस्कृतिक वैधता के लिए साहित्य के संसार में आता है और निश्चय ही ‘साहित्य उत्सव’ के कई दूसरे आयोजकों से विशिष्ट है।यह सवाल भी है कि जिस ‘आजतक’ न्यूज चैनल में हिंदी के बड़े साहित्यकारों की मृत्यु की सूचना तक नहीं आती, वह साहित्य का इतना बड़ा प्रेमी कैसे बन गया है?
ऐसे साहित्य उत्सवों में लेखक जाते रहेंगे और ज्यादातर लेखकों में उपर्युक्त मुद्दों पर चिंता भी होगी।यह माद्दा हो सकता है कि वे वहां जाकर अपनी बात रखेंगे।किसी का यह स्टैंड भी हो सकता है कि ऐसी विवादास्पद जगहों पर नहीं जाना है।यह जरूर समझने की जरूरत है कि इस दौर में लिटरेरी फेस्ट का एक प्रच्छन्न राजनीतिक रूप हो सकता है।यह अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अप्रत्यक्ष नियंत्रण रखेगा और लेखकों को अपने उद्देश्यों के अनुरूप ढालेगा।लेखक उत्पीड़न और छलावा के कई व्यापक रूपों से कतराने लगेंगे तथा धीरे-धीरे अपने को अनुकूलित कर लेंगे।मुझे लगता है हमने जो लिखा है, उसके पास ज्यादा से ज्यादा खड़ा रहने का अभ्यास करना चाहिए, भले नुकसान हो।
लेखक के पास राजनीतिक शक्ति नहीं होती, उसकी आवाज सुनी नहीं जाती।पर वह जहां भी जाएगा, बोलेगा क्यों नहीं? हाँ, कुछ भी तर्क और शालीनता से बोलने की जरूरत है।क्योंकि हम सुने जा रहे हैं, भले खुद न जानें कि हम सुने जा रहे हैं।हम जब किसी मामले पर मौन साधे होते हैं, तब भी सुने जा रहे होते हैं!
असहमतों की आमराय
वैश्वीकरण के मुद्दों पर आमराय बन जाती है, लेकिन साहित्य की दुनिया में जो लेखक बंधुत्व, स्वतंत्रता और समानता में विश्वास करते हैं, उनके बीच ‘आम असहमति’ का निर्माण नहीं हो पाता।वाल्मीकि के समय से साहित्य का संबंध असहमति से है, यह उनके क्रौंच वध के प्रथम श्लोक से स्पष्ट है।
इस युग में ‘असहमतों की आमराय’ की बहुत जरूरत है।इतनी विकसित बौद्धिक दुनिया में ‘समानांतर आमराय’ नहीं बन पा रही है, जबकि तर्क, बुद्धिपरकता और पारदर्शिता से सोचने का दावा किसी भी जमाने से आज ज्यादा है।स्मरण रखना चाहिए, सत्ता की आकांक्षा लेखक की मृत्यु है।इसी तरह स्वप्न भी अंततः बच नहीं पाते, जब वे महज स्वप्न होकर रह जाते हैं!
हर लेखक में चेतना का एक क्रुद्ध प्रेत होता है, जो स्वर्ण पिंजड़े में बंद नहीं रखा जा सकता।यह किसी भी नए युग में उसी तरह जग सकता है, जिस तरह क्रौंच वध देखकर एक बार वाल्मीकि में जगा था।
महाभारत में एक दूसरी चिड़िया है।द्रोणाचार्य के कहने पर अर्जुन उसकी सिर्फ आंख देख रहे थे।इस तरह की एकायामिता या खंडित चेतना नहीं चाहिए।हमें ऐसी शिक्षा और साहित्य की जरूरत है जो पूरी चिड़िया, बल्कि उस पेड़ को भी दिखा सके जिसपर चिड़िया बैठी हुई है!
बेहद उम्दा विचार _चिंतन सर
साहित्य के घटते लोकप्रियता, और थामते वैचारिक सौंदर्यता निसंदेह सोचनीय है।सस्ती लोकप्रियता के लिए मंच पर कविता पाठ महज एक फैशन बनता जा रहा है। ऐसे दृश्य केवल कवितायि चादर लपटे हुए साहित्य को ढकने का प्रयास भर है इससे साहित्य मर्म खत्म होता जान पड़ रहा है।साहित्य अध्येताओं को मायूसी के कगार पर ला खड़ा कर रहा है।
आप जैसे उर्वर साहित्य मर्मज्ञों की बेहद दरकार है।आज और आने वाले समाज को।