
अजय प्रकाश, इलाहाबाद:‘वागर्थ’ के नवंबर अंक में समीक्षा संवाद के अंतर्गत शेखर जोशी से जुड़े प्रश्न और उत्तर दोनों लाजवाब हैं।शेखर जोशी जब दिल्ली से इलाहाबाद आए तो ज्ञान प्रकाश जी के साथ गुड़ की मंडी में रहते थे और हर शनिवार को इंडियन काफी हाउस जाते थे।इसलिए पत्रकारों ने लेखकों के लिए शनिचरी पीढ़ी नाम ही रख दिया था।इन लोगों के लिए कोने का टेबिल रिजर्व कर दिया गया था।उसी समय शेखर जोशी का ‘कोसी का घटवार’ और ज्ञान प्रकाश का ‘अंधेरे का सिलसिला’ कहानी संग्रह प्रकाशित हुए थे।दोनों चर्चित हुए।इस अंक में संस्कृत कवियों को छापकर नया प्रयोग किया गया है।रचनाएं स्तरीय हैं।
‘वागर्थ’ का अगस्त २०२२ अंक।शेखर जोशी की रम्य रचना ‘प्रकृति वैभव उर्फ श्रीपर्णा’ अद्भुत है।लेकिन यह कहानी शैली से अलग हटकर है।समीक्षा संवाद अच्छा है।इसके अलावा ‘रामविलास शर्मा : वे मूलतः कविता थे’ एक विवाद को जन्म देगा, क्योंकि वे स्थापित तौर पर आलोचक थे।
शेखर जोशी संबंधों का निर्वाह भी करना जानते थे।वे ‘रमाकांत स्मृति कहानी सम्मान’ में सपत्नीक दिल्ली आए थे और समारोह के बाद मुझे बधाई दी थी, जब ‘प्रसंगहीन’ कहानी पर मेरा सम्मान हुआ था।उन्हें शतायु होना था, लेकिन काल ने उन्हें हमसे छीन लिया।इससे हिंदी साहित्य की क्षति हुई है। ‘रेत समाधि’ पर अच्छी समग्री है इस अंक में।
मंजू श्रीवास्तव, कोलकाता: वागर्थ के अक्टूबर २०२२ अंक में अवधेश प्रसाद सिंह की ‘तीजी’ कहानी हमारे गांवों की रग-रग में व्याप्त बुराइयों, गरीबी, अत्याचार, शोषण, स्त्रियों पर जोर-जबर्दस्ती किए जाने वाले अपमानजनक और जानलेवा कारनामों, पैसे वालों के दबदबे और पुलिस महकमे की गैर-जिम्मेदाराना हरकतों, लोभ और गिरे हुए चरित्र का सीधा- सच्चा प्रतिबिंब है।यह हमारी सोई हुई संवेदना को ललकारती एक बेहतरीन, मार्मिक कहानी है।एक सिद्धहस्त कहानीकार के रूप में अवधेश जी को हार्दिक बधाई।
विश्वनाथ किशन भालेराव:‘वागर्थ’ के दिसंबर २०२२ में प्रकाशित संपादकीय उच्च और निम्न, महान और लघु, हाई कल्चर और लो कल्चर पर आधारित है।मनुष्य नकाब पहनकर जीवन जीने में आज सहजता महसूस कर रहा है, क्योंकि आज वैश्विक स्तर पर हो या राष्ट्रीय स्तर पर सोचने के स्तर बदलते गए हैं।मनुष्य आत्मकेंद्रित हो चुका है।सोशल मीडिया के द्वारा नई-नई समस्या का निर्माण हो रहा है।संस्कृति संकुचित हुई है।
छोटे चित्त के बड़े बुद्धिजीवी आज वर्तमान समय में अपने आप को सभ्य कहते हैं। ‘महान परंपरा’ और ‘लघु परंपरा’ की तरह ‘उच्च संस्कृति’ और ‘निम्न संस्कृति’ की धारणा समाज में सैकड़ों सालों से चल रही है।संस्कृति को राजनीति के चंगुल में फंसाकर मनुष्य-मनुष्य में विषमता के बीज बोए गए है।
यहां भेदभाव दिखाकर विषमता फैलाना एक उद्देश्य हो सकता है।हमें मानवीय मूल्यों को स्थापित करने के लिए तैयार रहना चाहिए।भारत हम सभी का देश है। ‘वसूधैवकुटुंबकम्’ ही हमारी पहचान है।मानवता ही सबसे बड़ा धर्म है।
इंदिरा किसलय, नागपुर:‘वागर्थ’ का दिसंबर अंक।औपनिवेशिक मानसिकता के अवशेष बुद्धिजीवियों में ही नहीं, सामान्य जनमानस में भी विद्यमान हैं।यह सापेक्ष वैचारिकी है।लोगों में विश्वास है कि ज्ञान, विज्ञान और चिंतन की उत्कृष्टता अंग्रेजीदां बुद्धिजीवियों में पाई जाती है।हिंदी में प्रस्तुत जो कुछ है वह सेकेंड हैंड है।
इंडिया और भारत का वर्गीकरण निश्चय ही आर्थिक स्तर पर किया गया है।पर यह विभाजन इस सोच का शिकार है कि उच्च शिक्षाप्राप्त उच्च पदस्थ अभिजात वर्ग सर्वहारा या सामान्य के प्रति मौलिक सोच नहीं रखता।किसी हद तक यह सत्य है- जाके पांव न फटी बिवाई वो क्या जाने पीर पराई।यहीं से दूरियां परिभाषित होने लगती हैं।
निश्चय ही बुद्धिजीविता किसी विशिष्ट भाषा- भाषी की बपौती नहीं है।दुर्भाग्य से भक्तिकालीन कवियों से लेकर पाश, फैज और महाश्वेता देवी, अरुंधति राय, जेसिंता केरकेट्टा आदि जनमानस से सीधे जुड़ाव रखने में कामयाब हुए हैं।
अव्वल तो हिंदी साहित्य से ५% लोगों का वास्ता है।फिर तंत्र का आतंक।कुछ सहमे हुए हैं, तो कुछ व्यक्ति मुखर प्रतिरोध को उद्यत हैं।एक अव्यक्त भय की कालिमा ने अधिकांश को घेर रखा है।यही वजह है कि आपको बुद्धिजीवी और समाज के बीच दूरी को परिभाषित करने के लिए परिचर्चा आयोजित करनी पड़ी।
निरंकुश व्यवस्थाएं सृजन को अघोषित रूप से प्रभावित करती हैं।सभी में सीधे टकराने का माद्दा नहीं होता।फिर कौन कह सकता है कि प्रत्यक्षतः जाति, धर्म, संप्रदायवाद और अधिनायकतंत्र के खिलाफ लिखने-बोलने वाला व्यक्ति यदि अपने भीतर उनका महीन स्वर छिपाए बैठा है तो वह डरकर समझौता नहीं कर लेगा।
सोहन लाल:‘वागर्थ’ का नवंबर अंक।धु्रवीकरण राजनीति में सदैव अनिवार्य तत्व रहा है, लेकिन वह किस क़दर इतिहास और साहित्यिक वैचारिकी में भी प्रवेश कर जाता है, उसका हिस्सा बन जाता है, यह हमें पढ़ने को मिला।
लेख में जिस तरह शास्त्रीयता और लोक के संबंध को दिखाया गया है, उसे हर किसी को पढ़ना चाहिए।यह एक जरूरी लेख है इस समय में।
विवेक प्रियदर्शी:‘वागर्थ’ का दिसंबर अंक।अनुराधा ओस ने अपने जिन खूबसूरत भावों को कविता में पिरोया है वे बेहद भावपूर्ण बना देते हैं।बेहद सधी कलम से, बिना एक भी लफ्ज फालतू खर्च किए उन्होंने संतुलित और अर्थवत्ता वाली कविताएं लिखी हैं।
जमाल बाशा: दिसंबर २०२२ अंक में रमेश यादव ने अविवाहित रह जाती बेटियों के दुख का सुंदर चित्रा खींचा है।
केशव शरण: दिसंबर २०२२ अंक में ‘नज़ीर अकबराबादी की हिंदी परंपरा’ पर एस के साबिरा का अच्छा आलेख है।नज़ीर अकबराबादी का निधन अगस्त १८३० में हो गया।उनका काव्य पढ़ते हुए आधुनिक हिंदी के निर्माता के रूप में वे नज़र आते हैं।लेकिन इसका श्रेय उनके बहुत बाद के साहित्यकार भारतेंदु को दिया जाता है।नजीर अकबराबादी का नाम नहीं लिया जाता है, यह बात अजीब लगती है।