सौरभ सिंह: ‘वागर्थ’ दिसंबर 2021 अंक| वैश्विक बाजार ने गांवों में अपरंपार इच्छाएं पैदा की हैं| परंतु लोगों के पास इसे पूरा कर सकने का कोई साधन नहीं है| इस अंतर्विरोध ने असह्य अवसाद और अवसन्नता पैदा की है| अतिरिक्त उत्पादन की चाहत ने प्रकृति का नाश कर दिया| व्यक्तिवादी महत्वाकांक्षाओं ने सामुदायिकता और सहकार को नष्ट कर दिया| भो़ंडे सांस्कृतिक उद्योग ने जनमानस के दुख-सुख को समोने-सोखने वाली लोकसंस्कृति को नष्ट कर दिया| इसका परिणाम यह है कि कवि केशव की स्मृतियों में बसा सुंदर छबीला गांव अब एकदम पटरा हो चुका है| और ग्लोबल गांव के विज्ञापनों के नीचे गांव की सिसकी, अनुताप और अवसाद का अनुनाद सुनाई पड़ रहा है| इसे शायद वही कवि सुन सकता है जिसके सूक्ष्म संवेदी तंतु लोकहृदय तक फैले हुए हों| कविता की पंक्तियों के बीच फैले इस हाहाकार को दर्ज़ करने के लिए आशीष मिश्र की आलोचना-दृष्टि का भी महत्व है| ‘मंज़रकसी’ क्या है, समझ नहीं आया|

संजय जायसवाल, नैहाटी: वागर्थ के दिसंबर अंक में मल्टीमीडिया के तहत बहुत प्रभावी आवृत्ति| दृश्य और ध्वनि का उम्दा संयोजन| ऐसे अभिनव प्रयोग और प्रस्तुति की पहल वागर्थ पत्रिका की पहचान बनती जा रही है| अपने समय के बदलावों को शामिल करते हुए पत्रिका का यह नवाचार प्रशंसनीय है| सभी को बधाई |

रामभरोस झा, दरभंगा: मूल्यवान से मूल्यवान चीज को यदि कोई महत्व न दिया जाए तो वह हमारे पास से ऐसे गायब हो जाती है जैसे कि वह हमारे पास कभी थी ही नहीं| आज हम हिंदी साहित्य और साहित्यिक पत्रिकाओं की स्थिति को लेकर यदि साकांक्ष और सजग न हुए और इन पत्रिकाओं में नई जीवन-ऊर्जा फूंकने के संकल्प के साथ आगे नहीं बढ़े, तो वह दिन दूर नहीं कि एक-एक कर सभी पत्रिकाओं का अस्तित्व बस इतिहास बनकर रह जाए| वैश्वीकरण और डिजिटल क्रांति ने हमारे समाज और संस्कृति की चूलें हिला दी हैं| सबसे अधिक चिंतित करने वाली जो बात है वो ये कि दिन-प्रतिदिन हमारे देश और समाज में तर्कों, मूल्यों, सच और न्याय के लिए स्पेस कम होता जा रहा है| हम दिनों-दिन और अधिक असहिष्णु और अधिक प्रतिक्रियावादी होते जा रहे हैं| इस पतनोन्मुख समय में मीडिया, जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कहा गया है, पतनोन्मुखता की सारी हदें पार कर गया है|

विश्वनाथ किशन भालेराव:‘वागर्थ’ के जून-नवंबर अंक में मनीषा झा ने अपनी कविता में- नारी जन्म से ही हमारे समाज में प्रचलित जो व्यवस्था है, उसे बेबाक ढंग से व्यक्त करने का प्रयास किया है| हर्षदेव माधव की संस्कृत कविता बहुत मार्मिक है- बहरी त्वचा/पीड़ा से आहत हृदय/टूटा-छूटा मन/शोषित संवेदना/लंगड़ा लहू/बयां कर सकते हैं/घाव से निर्मित रिक्तता का| ये पंक्तियां वर्तमान समय के यथार्थ को दर्शाती हें| जिंदगी के टूटते रिश्तों, सपनों और अपनों के व्यवहार की कहानी बयां करती हैं|

प्रियंका सिंह: नवंबर के ‘वागर्थ’ में मनीषा झा की  कविता वर्तमान समय का सच्चा दस्तावेज है| बहुत अच्छा लगा पढ़कर|