कथाकार और लेखक। एक उपन्यास ‘पहाड़ गाथा’। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में सहायक प्राध्यापक।
जोभियापाट हाट जगमग था। बलनापानी, लटेहर, सोहनकुंडा, बेहलकांटा और दसगाटोली जैसे गांव-खेड़े की दुकानें सजी थीं। कोई मुर्गी तो कोई बकरे के बदले चावल, दाल, नमक, प्याज और हल्दी ले रहा था। हाट में मुर्गी, बत्तख और सिरोइल के अंडे बिक रहे थे। छह अंडों के बदले दो सेर चावल या सेर भर दाल मिल रहा था। हाट में पैसे से भी समान खरीदने की सुविधा थी। मुरुंग का साग, झुरगा, मक्का, ज्वार, सावां, कोदो, कुटकी, तिकुर, सूखा महुआ, इमली, केकड़ा, मछलियां, मुर्गियां और गांव में पैदा होने वाली हरी तरकारियां जैसे भिंडी, नेनुआ, तरोई और खेकसी पालक की दुकानें लगी थीं।
रीना ओइके की दुकान पर रौनक थी। कचिया महुआ और हड़िया लोगों के सिर चढ़के बोल रहा था। कुछ लोग पी रहे थे, कुछ लोग पिला रहे थे। कुछ लोग बेसुरे आवाज में गा रहे थे। रीना की बेटी बेबी ओइके नागपुरी गाने की शौकिन थी। उसने डेग लगा दिया था। नगपुरिया गाना बज रहा था-
दिल चुराई लेले
मन के मोह लेले
दिल के धड़कन तोएं बढ़ाले
मोर निंदिया तोए उड़ाले
का जेर कई देले मोके…
इतवार का दिन। खदान की छुट्टी का दिन। सप्ताह की मजूरी से मजदूरों के पॉकेट के गरम रहने का दिन। वे दिल खोलकर हड़िया, कल्ल, सल्फी और महुआ पी रहे थे। वे थिरक रहे थे। कुछ घंटों के लिए पृथ्वी के रंक, राजा बन गए थे। धरती का सबसे फटेहाल कोना, कुछ घंटों के लिए सबसे खुशहाल कोना बना हुआ था। हर तरफ हँसी-ठिठोली। मेला रंकों के दरबार से गुलजार था।
खदान के बड़े बाबू रामजस के लायक कोई चीज नहीं रहती थी हाट में। दो महीना पहले उनका ट्रांसफर नोखियाबारा खदान से यहां हुआ था। वह नेमी-धर्मी शाकाहरी आदमी थे। रोज सूरज देवता को जल चढ़ाने वाले पवित्र जीव। वह खाने-पीने की चीजें डेगरी बाजार से लाते थे। बात-बे-बात वह कह दिया करते थे -आदिवासी केवल तन से मानुष दिखते हैं। खान-पान, रहन-सहन में पूरे वनमानुष हैं। पिछले जनम में कोई खराब काम किया होगा मैंने, जो इन नरपशुओं के बीच खपना पड़ रहा है। आदिवासियों से बेपनाह नफरत होने के बावजूद इतवार वाले दिन उनकी साइकिल हाट में नजर आने लगती। हाट उनके लिए वैसे ही मन बहलाव का साधन था, जैसे बच्चों के लिए चिड़ियाखाना।
पुनेम ठाना (गोंड आदिवासी समुदाय का पूजा स्थल, जहां बड़ा देव और पारी कुपार लिंगो की पूजा होती है) के मैदान में हाट लगा था। मैदान इफराद बड़ा था। पोखरा, इमली और पाकड़ के कई छायादार पेड़ हाट को हसीन बना रहे थे। लोग छांहा रहे थे, दुख-सुख बतिया रहे थे। औरतें गले मिल रही थीं। हाट आकर दूसरे गांव-खेड़े का हाल-समाचार मिल जाता। यहीं पर पोरा-पोरी (युवा लड़के-लड़कियां) के लगन-बियाह की बातें तय होतीं। यहां आकर छाती का गुबार निकल जाता। गांव-खेड़ों के मिलने-जुलने का केंद्र था हाट। देखते-ताकते घंटा-डेढ़ घंटा निकल जाता और पता भी न चलता।
बड़े बाबू के जानने वाले हाट में भी मिल जाते। चार बातें हो जातीं। अकेले आदमी का मनबहलाव हो जाता। हालांकि वह विचित्र किस्म के नर-मादाओं का मेला देखने हाट आते थे। वह घूम रहे थे। मसरब की चीज कहीं थी नहीं। मन उकता रहा था। पैडल पर पांव रखने वाले ही थे कि मिस्री सी आवाज कान में खनक गई। वह आवाज वाली की ओर मुड़े। नजर एक औरत पर पड़ी- ऊंचा कद, लोहे सा पक्का पानी, भरापूरा शरीर। साइकिल किनारे लग गई। बड़े बाबू खुद को औरत की दुकान पर खड़ा पाए। पहली बार वह हाट में मोलभाव कर रहे थे- ‘कितने सेर है चिरौजी?’
‘पचास रुपिया सेर बाबू जी’, औरत ने तपाक से जवाब दिया।
‘चिरौजी बेच रही हो कि देश?’ रामजस ने रस लिया।
‘मैं तो चिरौजी ही बेच रही। देश-बखार बेचना आप लोगन के जिम्मे।’ औरत ने उसी ठसक से जवाब दिया।
‘बड़ी तेज मालूम पड़ती हो। किस गांव की हो?’ कागज-पतरा बांचने वाले बड़े बाबू दुकानदारिन को बांचने लगे।
‘सोहनकुंड की पैदाइश हूँ बाबू जी। जोभियापाट में घर है।’ दुकानदारिन बोली।
‘पैदाइश माने?’ रामजस तह तक उतरना चाह रहे थे।
‘पैदाइश माने, पैदाइश। बात शंख नदी की पानी की तरह साफ है।’ दुकानदारिन दुलत्ती चला रही थी।
रामजस का पानी ढीला पड़ चुका था। उन्होंने औरत को एक बार फिर ध्यान से देखा, तीस-बत्तीस की लुगाई। छांट ऐसे रही है, जैसे तमखुई की रानी!
‘कितना तौलूं?’ दुकानदारिन समझ चुकी थी कि बतरस का लोभी टाइम खोट कर रहा है।
बड़े बाबू भी समझ चुके थे कि टेंट ढीला करना पड़ेगा, नहीं तो अगली बार का ठौर नहीं। बेमन से बोले- ‘पाव भर दे दो। अकेला राम सेर भर का करेगा?’
‘जरा ठहरो। कुप्पी जला लेने दो। सांझ हो गई है। ठीक से तौलने दो, नहीं तो कहोगे कि दिकू जानके ठग लिया?’ इतना कहते हुए दुकानदारिन ने कुप्पी जला दी। रोशनी ने दायरा बना लिया। दायरे में चिरौजी, दुकान, दुकानदारिन और बड़े बाबू समा गए।
पाव भर चिरौजी बांधकर उसने रामजस को पकड़ा दिया।
चिरौजी लेकर रामजस खड़े हो गए। वह दुकानदारिन को देखते रहे। दुकानदारिन से दूसरा ग्राहक मोलभाव कर रहा था। थोड़ी देर बाद वह साइकिल की ओर बढ़ गए। साइकिल के पास पहुंचे तो पाया कि मंगल प्रधान खड़ा है। रामजस जी से नजर मिलते ही वह बोला- ‘जोहार बड़े बाबू, सौदा-सुलुफ किन रहे थे का?’
‘हां, हो।’ साइकिल की मुठिया पकड़ते बड़े बाबू ने कहा।
मंगल प्रधान खदान प्रबंधन और आदिवासी मजदूरों के बीच की कड़ी था। खनन इंजीनियर साहब से लेकर मैनेजर साहब तक के बीच उसका उठना–बैठना था। उसकी नजर में बड़े बाबू, अर्दली और मेठ की कोई खास औकात नहीं थी। चलता पुर्जा आदमी था। लिखा–पढ़ी की ताकत समझता था। एक की डेढ़ करने में चपरासी से लेकर बड़े बाबू की अहमियत जानता था। बड़े बाबू से बनाकर रखता था। इसलिए बड़े बाबू को देखते ही जोहार किया और साथ हो लिया।
दोनों चलते-चलाते पाकड़ के पेड़ के पास पहुंच गए। दूर से ही लड़ने-झगड़ने की आवाज आ रही थी- ‘मनसेधू हूँ। घर का मालिक हूँ। इज्जत खोट करने वाली तिवई (औरत) से बड़ा देव बचाएं।’
पेड़ की छांव में बीस-बाईस लोग उंकड़ूं बैठे थे। एक आदमी अपनी घरैतिन पर बिफर रहा था। रामजस और मंगल ठमक गए।
सरपंच ने पुरुष को बैठने का इशारा किया। पुरुष बैठ गया था। घरैतिन खड़ी हुई। उसने पंचों को जोहार की और कहने लगी- ‘बूढ़ आत्मा हम दोनों कमासुत हैं। इसकी कमाई हड़िया पीने में जाती है। मेरी कमाई से घर चलता है। मैं इस पर शक नहीं करती। यह करता है। मैं ओसियर साहब का चूल्हा-चौका करती हूँ। यह खदान में मजूरी करता है। रोज रीना के यहां जाता है। खाता चलता है, इसका वहां। महीना पूरा होते ही खाता पुजाता है। यह खाली हाथ घर आता है, मैं ओसियर साहब के यहां से बचा खाना घर ले आती हूँ। बच्चों का पेट भरना मेरे जिम्मे है। मां होने के नाते बच्चे मुझे पकड़ते हैं। भात, स्कूल का ड्रेस और कपड़ा-लत्ता मुझसे मांगते हैं। बच्चों के लिए खाना ले आने पर यह मुझ पर हाथ उठाता है। जो कमा कर लाती हूँ, उसमें से भी खसोट लेता है। खुद को मनसेधू कहता है। घर का मालिक कहता है। पूछो इससे कि बच्चों से बात किए कितने मास बीत गए। कच्ची-पक्की कई बाते हैं। मैं मां के बंधन से बंधी हूँ। यह मानवाल का मानवाल रहा (यह पुरुष का पुरुष ही रहा)। क्या कहूं, क्या न कहूं। अब पंच ही फैसला करें।’
पंचों ने दोनों पक्ष का फैसला सुन लिया था। सरपंच खड़े हुए। सभी ने हाथ जोड़ लिया।
भीड़ और पेन ठाना पर नज़र डालते हुए सरपंच बोलने लगे – ‘जै बड़ा देव, जय काली कंकाली, जय लिंगो, जय पेन, जय आकाश-पाताल, जय पत्थर-पानी। हम लोग कोया हैं। कोया माने कोख। कोख महत्तपूर्ण होता है। इसीलिए कोख का सम्मान है। औरत की वफादारी कोख से पैदा हुए बच्चों के साथ होती है। वह संतानों से प्रेम के रूप में कोख की सार्थकता पा लेती है। पुरुष के सामने बड़ी चुनौती है। पुरुष से महापुरुष बनना आसान नहीं होता। अधिकांश शिश्न के शिश्न ही बने रहते हैं।’
पेन ठाना की ओर देखकर वह फिर बोलने लगे- ‘मनसेधू कोख भरता है। वह भतार है। घरैतिन कोख में जीव सींचती है। वह कर्तार है। बड़ा देव ने ही स्त्री शरीर देकर औरत को नैसर्गिक रूप से ऊंचे स्थान पर बैठा दिया है। भतार सहायक है। कोखजायों को संभालना और बढ़ाना उसका काम है। अगर वह ऐसा नहीं कर पाता तो औरत की परेशानी बढ़ जाती है। उसे मां-बाप दोनों की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है। ऐसी औरत का सम्मान होना चाहिए। परिवार कर्तार और भतार के सहयोग से बनता है, दुर्योग से नहीं। कोख के सम्मान का मतलब घरैतिन का संपूर्ण सम्मान। हड़िया पीने वाला बेसुध मनसेधू कर्तार पर हाथ नहीं उठा सकता। यह कोयतुर धरम के विरुद्ध है। लखिया निर्दोष है। सारा दोष सौरूं के मत्थे दिखाई पड़ रहा है। उसे लखिया के लायक साबित होना होगा। इसके वास्ते सौरूं को तीन महीना दिया जाता है। नब्बे दिन बाद पंचायत फिर बैठेगी। अंतिम फैसला उसी समय दिया जाएगा।’ इतना कहकर सरपंच ने अपना स्थान लिया।
रामजस विस्फारित नेत्रों से सरपंच को सुनते रहे। उन्हें यकीन नहीं हो रहा था कि जंगली वनमानुष इतने सुलझे हुए हो सकते हैं। उनके पूर्वाग्रह कमजोर पड़ने लगे। तभी जनेऊ पर हाथ पड़ा। हाथ पड़ते ही तंद्रा भंग हुई। सनसनाती हुई फन उठा कर खड़ी हो गई। नफरत की बोरसी फिर से सुलगने लगी। उनका हृदयनद जहर से लबालब भर गया।
वह मंगल प्रधान की ओर मुड़े। ‘बढ़िया फैसला दिया सरपंच ने।’
मंगल प्रधान अंतर्यामी आदमी ठहरा। उसने समुद्र की अथाह गहराई में सुलगती कुंठा को त्रिकालदर्शी की तरह देख लिया। बड़े बाबू कलमदार थे। वह कलम की ताकत को जानता था। उसे बड़े बाबू से कई काम निकलवाने थे।
वह बड़े बाबू के घाव पर फाहा लगाते कहने लगा- ‘हमारे समाज में घुन लग गया है बड़े बाबू। सरपंच जो बोला, सो बोला। लाख टके की बात यह कि कोया समुदाय की औरतें धांगिन (पर पुरुष के संपर्क में आने वाली औरतें) न बनें तो क्या बनें? रास्ता है किधर? खदान के आने से खेती-बारी सरकती जा रही है। घरैतों (पुरुषों) के हाथ नकद रुपया आने लगा है। रुपया से आदमी बमक जाता है। वह हड़िया-ताड़ी में पैसा गवां देता है। घर चलाने के लिए औरतें बाहर निकलने लगी हैं। मर्द उन्हें जाने देते हैं। मगर चोट खाए नाग की तरह करवटें भी लेते रहते हैं। मामूली बातों में घरैतिन के चरित्र पर शक करने लगते हैं। घर से निकाल देते हैं। औरतें मां-बाप के यहां चली जाती हैं। रिश्तेदार पंचायत बुलाते हैं। मान-मनौवल के बाद घरैतिन घर जाती है। कुछ गुस्से में आकर नदी-नाले में कूद मरती हैं। कहीं-कहीं तो अपनों के हाथ औरतें दिकुओं तक सप्लाई की जाती हैं। अब दिकू बाहरी नहीं, अपने ही होने लगे हैं। नफा-नुकसान की गाड़ी औरत के शरीर से गुजरने लगी है बड़े बाबू।’
मंगल प्रधान की बात से बड़े बाबू को बड़ी राहत मिली। वे मानते थे कि वह नारी को सम्मान देने वाले समाज से हैं। उनके यहां के पुरुष नारियों की लाज बचाने के लिए प्राण तक त्याग देते हैं। यह बात इन आदिम जमातों में कहां!
दोनों हाट के दायरे से बाहर निकलने लगे। तालाब के उत्तर में मझोले किस्म की सात-आठ चट्टानें और उतने ही सखुआ के किशोर पेड़ थे। हवा बह रही थी। पेड़ झूम रहे थे। चट्टानों पर चूना किया हुआ था। ऐसा लगता था, मानों सफेद कफन ओढ़कर चट्टानें सो रही हों। बड़े बाबू ने एक नजर उधर देखा, फिर आगे बढ़ गए।
बोलते–बतियाते मारकुंडी खोह आ गया। अभी भी यहां आते ही बड़े बाबू के रोंगटे खड़े हो जाते थे। आज भी दहशत की एक लकीर उनके जेहन में खिंच गई। यहां से मंगल का रास्ता अलग होता था। दुआ–सलाम करने के पहले न जाने कैसे बड़े बाबू की जबान से यह सवाल फिसल गया– ‘तुम किसके साथ हो मंगल?’
मंगल सावधान हो गया। बड़े बाबू की आंखों को पढ़ते हुए बोला– ‘खदान रोटी–पानी देता है। रोटी–पानी के साथ हूँ बड़े बाबू। पुरानी जिंदगी पीछे छूट गई है। बाल–बच्चों के भविष्य की चिंता करने वाला बाप हूँ बड़े बाबू।’ बड़े बाबू के चेहरे का खिंचाव कम हुआ।
बड़े बाबू और मंगल प्रधान में छनने लगी। मंगल ने कांक पाटा के मजूरों को काम पर लगा दिया। मैनेजर साहब के अनुमोदन, मजदूर यूनियन के समर्थन और बड़े बाबू की कलम से हर मजदूर से दस टका फिक्स हो गया। मंगल प्रधान की सोहबत ने बड़े बाबू को थोड़ा-सा हिला दिया था। कभी-कभार वह उसके घर जाने लगे थे। खान-पान भी शुरू हो गया था। घर का कचिया महुआ भी कभी-कभी पी लेते थे बड़े बाबू।
वह जनवरी की शाम थी। बड़े बाबू को गिलास थमाते मंगल बोला- ‘आप रोज चले आया करें। यहीं से खा-पीकर जाया करें।’
बड़े बाबू ने विनम्रतापूर्वक इंकार कर दिया। तब मंगल बोला- ‘किसी को रखवा देता हूँ। कपड़ा-लत्ता, चूल्हा-चौका कर दिया करेगी। उसका भी भला होगा। उसे भी दो रोटी का आसरा हो जाएगा। बड़े बाबू कुछ नहीं बोले।’
दो दिन बाद सिगड़ी खड़की। दरवाजा खुला। मंगल के साथ हाट की वही दुकानदारिन खड़ी थी।
बड़े बाबू अंदर से दो मन हो गए। एक मन नेम-धरम, संस्कार और जात-कुजात के साथ खड़ा हो गया। वह आदिवासी औरत से चूल्हा-चौका कराने से रोक रहा था। दूसरे मन में करुणा भरी थी। दूसरा मन पहले वाले मन को दुत्कार रहा था- ‘आदमी से आदमी का कैसा भेद! इसके हाथ से बना खाना विष थोड़े हो जाएगा। दो पैसा कमाएगी, अपना घर चलाएगी। इसमें हरज की क्या बात! आखिर आदमी ही आदमी के काम आता है।’ बड़े बाबू की काया में कोई दूसरा बोल रहा था। वह सोचने लगे- ‘अब तक कहां थी यह आवाज?’ करुणा से भरे मन ने जात-पांत, धरम-करम वाले मन को पछाड़ दिया। सात सौ रुपया महीना और खाना-कपड़ा पर दुकानदारिन काम पर रख ली गई। वह रोज काम पर आने लगी। उसका नाम पल्लो था। बड़े बाबू ने जब पल्लो का मतलब पूछा तो जवाब आया- ‘पल्लो माने रीति-रिवाज।’
रोज दोनों बखत चूल्हा जलने लगा। हाट वाले दिन हाट के बाद खाना बनता। बड़े बाबू को खाने-पीने की सुविधा हो गई। दस दिन में ही चेहरे पर चमक की परत चढ़ गई।
पूजा-ध्यान करके बड़े बाबू चौकी पर बैठ जाते। पल्लो गरम-गरम खाना परोस कर पास ही बैठ जाती। बड़े बाबू खाते जाते और पल्लो रेडियो की तरह गांव-खेड़े का हालचाल, इतिहास, भूगोल बताती जाती। खाने का समय, बातचीत और सुख-दुख कहने-सुनने का समय हो गया। महीना पूजते-पूजते हेल-मेल गाढ़ा हो गया। पल्लो को आने में दस मिनट की देरी में बड़े बाबू बीस बार घड़ी देख डालते। पल्लो भी नहा-धोकर काम पर आती। कोई टोकता तो बोल देती- ‘नेमी-धरमी आदमी हैं। साफ-सफाई रखना पड़ता है।’ हाट वाले दिन पल्लो हाट से कटहल और कभी कलिया- कभी मछली ले आती। मन लगाकर बनाती। पल्लो का चेहरा उजास से भरा रहने लगा। उस दिन मीना ओइके ने टोक दिया था हाट में- ‘बबूर के पेड़ पर खोता मत बनाव पल्लो। परदेसी मनई के का भरोसा?’ साथ में आरती, सोना, चिंता और शांति भी थीं। सबने मीना के हां में हां मिलाया।
‘जेकर शृंगार लुट गया, वह चिड़िया खोता नहीं बनाती। हर हास में हास नहीं होता, कुछ में आग भी हुआ करता है।’ धधकती हुई पल्लो बोली।
‘आग की बात तुम जानो। खोता बनाने की सोचना भी मत। नदी-नार और खोह के अलावा कहीं आस नहीं मिलेगा। बाघ और बकरी में कभी दोस्ती नहीं होती।’ शांति प्रधान ने समझाया।
‘यह तो बड़ा देव ही बताएंगे कि कौन बाघिन और कौन बकरी।’ पल्लो ने गुस्से से कहा।
पल्लो का चित शांत रहने लगा था। हर समय बड़े बाबू का चेहरा पुतरी में नाचता रहता। उसकी पुतरी नागिन की पुतरी हो गई थी। दिन-प्रतिदिन वह खोह में गिरती जा रही थी। उस दिन वह बड़े बाबू का लाया अलता और कांच की चूड़ियां पहनकर सोई थी। बड़े बाबू ने आवाज दी। उसने किवाड़ खोल दिया। बड़े बाबू बांह पकड़कर सालवन में ले गए। साल के फूलों से जंगल गुलजार था। बड़े बाबू ने पल्लो के जूड़ा में साल के फूलों का गुच्छा खोंस दिया। जंगल धधकने लगा। पल्लो ने बड़े बाबू को जंगल में ठेल दिया। बड़े बाबू आग में मिल गए। वह बांह पसार कर नाचने लगी। तभी किसी ने तेजी से झकझोरा। वह जाग गई। शरीर पसीने से तर था। सामने सास-ससुर खड़े थे।
‘सपने से बाहर आओ। बड़ी खुशी मना रही थी सपने में। असल में मत मनाने लगना।’ लोटा भर पानी थमाते सास बोली। सास दनदनाती हुए निकल गई। पल्लो भुनभुनाती सास को देखती रही।
खान-पान होते रात हो जाती। बड़े बाबू बातें खूब करते, मगर कभी ऊंच-नीच नहीं हुआ। पल्लो ऐसे लहराते चलती, जैसे मस्त नागिन पथरीले रास्तों पर लहराती चलती है। अधिक टोका-टाकी होने पर वह बड़े बाबू का बचाव करती, जैसे शेरनी अपने शिकार का। उस दिन मरजाद वाली बात पर उसने मीना को टोक भी दिया- ‘पोढ़ आदमी हैं बड़े बाबू। मादा को देख, लार चुआने वाले नर नहीं हैं।’
‘संभल कर। शेर के मांद से हिरनी बचके नहीं निकलती। बड़ा देव करें कि नशाने से पहले चेत आ जाए।’ शांति प्रधान बोली।
सास-ससुर, सखियां, अड़ोस-पड़ोस, सब पल्लो को टोक दिया करते। वह हँसती-मुस्कराती सब सुन लेती। उसकी आंखों की चमक गाढ़ी हो जाती।
‘भई रामजस सब ठीक-ठाक?’ एक दिन फोरमैन साहब ने टोक दिया।
‘हां, सर। बहुत दिन बाद इस तरह से हालचाल पूछा जा रहा है!’ बड़े बाबू ने हँसते हुए पूछा।
‘रामजस हमारे बीच एक दूसरा रिश्ता भी है। हम दोनों हमवतन हैं, सजातीय हैं। इसलिए साफ बात करना चाहते हैं। हालांकि मर्जी तुम्हारी, मानों या मत मानो। हम–तुम अकेले रहते हैं। कुछ जरूरतें होती हैं, पूरी करनी होती हैं। बस यहां का बर्तन घर मत ले जाना। यहां चाहे जितना बनाओ खाओ। गोत्र को मिलावट से बचाना किसी युद्ध से कम नहीं।’ फोरमैन साहब ने इशारे में बात कह दी।
‘बिलकुल। गोड़ की चीज माथे पर नहीं चढ़ाई जाती। वह दुकानदारिन, मैं ग्राहक। चूल्हा जलाती है, खिलाती-पिलाती है। बाकी वह अपने रास्ते, मैं अपने। बड़े बाबू रामजस ने कहा। हालांकि फोरमैन साहब की बात से बड़े बाबू के कान जरूर खड़े हो गए।
उस दिन रात में खा-पीकर जब बड़े बाबू सोए, बहुत देर तक वे पल्लो के विषय में सोचते रहे। उसके एक-एक इशारे का अर्थ निकालते रहे। उसका हँसना-बोलना और जबरन माछ-झोल और भात थाली में डाल देना। घंटों सोच-विचार के बाद आंखें बोझिल होने लगीं। नींद में जाने से पहले वह बुदबुदाए- ‘हाथ बढ़ाने की देरी है बस।’
सुबह हुई। सूरज निकला। कोयल बोली। पल्लो आई। नास्ता के बाद बड़े बाबू रुपया थमाते बोले- ‘नहाने-धोने का साबुन और पावडर ले लेना।’
हल्का सा ना-नुकुर करते हुए पल्लो ने रुपए ले लिए। ना-नुकुर करने में जो स्पर्श हुआ वह खदान जाने के बाद भी बड़े बाबू के साथ बना रहा। घर जाते समय पल्लो का सांवला चेहरा लोहे की तरह ठोस हो गया। उसके अंदर अग्निकुंड धधकने लगा।
तीन दिन बाद हाट लगा। दुकानें सजीं। बड़े बाबू का मन नहीं था हाट जाने का। मगर हाट का रास्ता पकड़ लिया। वह अनर्गल बात को पनपने नहीं देना चाहते थे। हाट में खूब भीड़ थी। खदान के मजूर- सुखराम, बल्ली, शिवनाथ, बुद्धन, सेवाराम और बिषुन से मुलाकात हुई। सबने जोहार किया। हाट में मंगल भी भेंटा गया। मिलते ही उलाहाना दिया- ‘घर का रास्ता ही भूल गए बड़े बाबू! इतना बेगाना हो गए हम?’
‘खदान पर भेंट हो ही जाती है। अपने कभी बेगाने नहीं होते मंगल भाई।’ बड़े बाबू अब मंगल को भाई कहने लगे थे।
‘हमेशा अपना समझते रहें! कृपा बनी रहे!’ मंगल ने हाथ जोड़ दिया।
‘कृपा तो छप्पर फार के बरस रही है। आमदनी बढ़ गई। दोनों लड़के शहर में पढ़ने लगे। सुना है ट्रैक्टर निकाल रहे हो। अब कितनी कृपा चाहिए बंधू?’ बड़े बाबू ने चुटकी ली।
‘भाई-बंधू कहे हैं, तो हमेशा निगाह में रखना पड़ेगा। बाकी अपनी ओर से कोई गलती नहीं होगी।’ मंगल प्रधान ने हाथ जोड़ दिया।
चलते-चलाते दोनों रीना की दुकान की ओर निकल गए। कुछ देर तक दोनों दुकान की ओर देखते रहे। मंगल ने कहा भी- ‘ले आऊं दो दोना?’
‘नहीं। मरजाद की बात है। घर की बात और है।’ बड़े बाबू में बरज दिया।
‘पल्लो ठीक से काम-धाम करती है न बड़े बाबू?’ मंगल ने पूछा।
‘हूँ।’ बड़े बाबू ने हामी भरी।
‘मुसुमात है। मरद के मरे सात साल हो गए। हाट के भरोसे बूढ़े सास-ससुर की जिम्मेदारी उठा रही थी। आपने काम दिया। सुविधा हो गई।’ मंगल ने बताया। मंगल ने कृतज्ञता प्रकट की।
‘गांव-खेड़े की औरतें खदान पर आती हैं। पल्लो कभी दिखी नहीं खदान पर?’ बड़े बाबू ने पूछा।
‘कैसे दिखती। खदान से ही तो इसकी बर्बादी शुरू हुई। सलखान वहीं तो मारा गया था।’ मंगल प्रधान की आवाज तल्ख हो गई।
बड़े बाबू ने साइकिल रोक दिया- ‘मारा गया था, कैसे?’
‘लंबी कहानी है। उसका मारा जाना जरूरी था। जिंदा रहता, तो खदान चल नहीं पाता।’ मंगल की बात लगातार रहस्यमय होती जा रही थी।
‘क्या बात करते हो मंगल भाई!’
‘अजब आदमी था। गजब मांग थी उसकी बड़े बाबू।’
‘कैसी मांग?’ बड़े बाबू हलकान होने लगे थे।
‘वह खदान की आमदनी में गांव वालों का हिस्सा मांग रहा था। उसकी मांग थी कि यहां प्राइमरी से लेकर डिग्री तक की पढ़ाई के लिए स्कूल-कॉलेज खोले जाएं। यहां से पढ़े-लिखे लोगों को काम पर रखा जाए। वह चाहता था कि दस में सात हाकिम गांव-खेड़े से भर्ती हों। थोड़ा पढ़ा-लिखा था। कानून को लागू कराने के लिए लिखा-पढ़ी से लेकर लड़ाई तक छेड़ दिया था। गांव-खेड़ों के रंगरूट गोलियाने लगे थे। गिरोह बनता जा रहा था। सरकार को प्रदेश भर में जगह-जगह खदान शुरू करना था। सरकार एक जगह झुकती तो सभी जगह झुनता पड़ता। सलखान सरकार के रस्ते में आ गया था। सरकार गिरोह को तोड़ने की फिराक में लग गई। बिहोर सिंह प्रधान थानेदार बनकर आया तो पासा पलटने लगा।’ बात पूरी करते-करते मंगल की सांस उखड़ने लगी थी।
‘एस.पी. बिहोर सिंह प्रधान?’ बड़े बाबू ने पूछा।
‘जी, वही।’ मंगल ने हामी भरा।
‘गांव-खेड़े में बिहोर सिंह की रिश्तेदारी थी। सलखान उसके दूर के मामा का लड़का था। थाना प्रभारी बनते ही उसने सलखान गैंग में तोड़-फोड़ शुरू कर दी। सलखान के बाएं हाथ अजर सिंह मुंडा को मिला लिया।’ मंगल प्रधान बोला।
‘ठिकेदार अजर सिंह मुंडा?’ रामजस बड़े बाबू की आंखों में सवाल था।
‘हां।’ थोड़ा ठहर कर मंगल फिर बोलने लगा- ‘देखते ही देखते सलखान का गिरोह छिजता गया। केवल सात लोग बचे थे गिरोह में। सातों प्रचंड लड़ाकू। खदान प्रबंधन उन्हें जड़ से उखाड़ना चाहता था। इसी मैदान में पूस की रात में तड़-तड़ गोलियां चलीं बड़े बाबू। यहीं सातों मारे गए। पोखर के बगल में, रात में सातों को पेट्रोल छिड़ककर जला दिया गया।’ तालाब की दूसरी दिशा में सातों सफेद चट्टानों और सातों सखुआ के पेड़ों की ओर इशारा करते मंगल बोला।
बड़े बाबू चट्टानों और सुखाआ के पेड़ों को पहले भी देखते आ रहे थे। आज उनके इतिहास से परिचित हुए। उन्होंने चट्टानों को देखा। चट्टानों को गिना। चट्टानें सात थीं। सखुआ के पेड़ भी सात थे। चट्टानों को चूना से रंगा गया था, जिन्हें देखकर लग रहा, मानो सफेद कफन ओढ़े सात लाशें पड़ी हुई हों। सातों सखुआ के पेड़ झूम रहे थे।
बड़े बाबू को मंगल प्रधान की आवाज़ सुनाई पड़ने लगी थी- ‘पल्लो उसे पत्थलगड़ी मानती है। उसने वहां सखुआ के पौधे लगा दिए। खाद-पानी देकर पौधों को जिलाया। आप देख ही रहे हैं कि पौधे पेड़ बन गए हैं। आप ही बताएं कि वह खादान में मजूरी करने कैसे जा सकती है!’
महीनों बाद बड़े बाबू रामजस के चेहरे का तनाव फिर बढ़ गया था।
संपर्क : सहायक प्राध्यापक, हिंदी एवं आधुनिक भारतीय भाषा विभाग इलाहाबाद विश्वविद्यालय, प्रयागराज, उत्तर प्रदेश-211002 मो.9026258686