युवा आदिवासी लेखिका, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता।
पीछे से कब वार हुआ उस पर पता नहीं। छुरी से उसका गला रेत दिया सोमा ने। खून फव्वारे की तरह कमरे में फैलने लगा। सोमा का चेहरा खून के छींटे से भर गया। कुछ देर बाद ही तड़प-तड़प कर शकुन ने दम तोड़ दिया। पर सोमा गुस्से में उसकी देह पर न जाने कितनी बार वार करता रहा। गला काटने के बाद उसने उसका सीना चीरा। फिर पेट, गुप्तांग, जांघ। फिर उसके पैर तोड़ डाले। उसका पूरा शरीर क्षत-विक्षत कर देने के बाद उसने दरवाजा खोला और लड़खड़ाते हुए जंगल की तरफ भागा।
गांव के चारों तरफ जंगल था। एक नदी पास में बहती थी। सोमा जाकर नदी में कूद गया। देह पर लगे खून के छींटे नदी में धुलने लगे। वह नदी में डूबा रहा। सुनसान रात में हड़हड़… हड़हड़… नदी की आवाज गूंज रही थी। सोमा का सारा गुस्सा और नशा दोनों घुल रहा था पानी में। उसके भीतर का सारा जहर भी। सिर्फ उसका डर नहीं घुल पा रहा था पानी में। उसकी धड़कनें अब भी तेज थीं। वह हांफ रहा था। पानी के भीतर भी कांप रहा था। चांदनी रात थी। उसे अचानक नदी का पानी लाल दिखने लगा। पिछले दिनों बारिश हुई थी। पानी का रंग मटमैला होना चाहिए। पर उसे पूरी नदी खून से सनी हुई क्यों दिख रही थी? एक पल को उसे लगा कि शकुन कहीं मरने के बाद नदी में तो नहीं बदल गई? शकुन नदी बनकर उसके भीतर उतर रही हो जैसे। कहीं पूरी नदी उसके भीतर न समा जाए। उसे लील न ले। वह हड़बड़ाकर नदी से बाहर निकला और बालू में रेंगता हुआ पीछे सरकने लगा। चांदनी रात में लाल नदी को देखना और भी डरावना था। एक पल को लगा कि नदी उसकी तरफ ही बढ़ रही है। वह डर से और पीछे सरकने लगा। वह बार-बार आंख मलने लगा। खून तो उसने किया है। नदी लाल क्यों है फिर?
सहसा उसने सुना। नदी उसके पास आकर रोने लगी थी। फिर कोई आवाज गूंजी ‘गला रेतने से तो मैं मर ही चुकी थी रे सोमा। वो मेरी देह पर बाकी चीरा क्यों लगा रहे थे तुम?’ सोमा नदी की तरफ बालू उलीछने लगा। नदी अब जैसे गुस्से में दहाड़ रही हो ‘तुम्हें छोड़कर चली गई तो किसी दूसरी जात के मरद के साथ संबंध में हूँ, बस इसी शक में मार डाला रे मुझे। उस शक में तो तुमने गला रेत ही दिया था, पर मेरे मर जाने के बाद भी मेरी देह क्यों चीर रहे थे? तुम्हारी संस्कृति नहीं बचा सकी। क्या दूसरा चीरा उसके लिए था? तुम्हारी कमियों के खिलाफ बोलने के लिए ही वह तीसरा चीरा था न? मेरे मरने के बाद भी तुमने मेरे पैर तोड़े कि कहीं मरने के बाद भी फिर से उठकर मैं कहीं चल न दूं किसी के साथ। है न!’
‘चुप..चुप…बहुत बोलती है। तुम्हारी जीभ नहीं काटी। इसलिए मरकर भी तुम्हारा मुंह चल रहा है।’ सोमा गुस्से में चिल्लाया। वह गुस्से में कम और डर से ज्यादा कांप रहा था। नदी और जोर से रोने लगी। ‘क्या किया रे सोमा? तुम्हारा क्या होगा अब? जेहल जाएगा रे…जेहल।’ सोमा ने अपना माथा पकड़ लिया और वह भी नदी के साथ-साथ रोने लगा। फिर बड़बड़ाया ‘चुप… चुप… तुम्हारे इस तरह रोने से ही जेहल जाऊंगा मैं।’ ‘तुमने मुझे नहीं समझा सोमा। कैसे तुम्हारे साथ रहती? चली गई कि तुम कुछ तो सोचोगे। पर नशे में तुम डूबे रहे’, नदी से आवाज आई। सोमा सुबकते-सुबकते बोलने लगा, ‘अकाल पड़ा था। खेती-बारी कुछ नहीं। शहर चला गया। शहर में मजदूरी की। धक्के खाए। लोगों की गालियां सुनीं। सब तरफ अपमान ही अपमान मिला। भागकर गांव आया। नशे में डूब गया। तुम सब संभाल लोगी, सोचता रहा। मेरे पास तुम्हारे सिवा कुछ नहीं था। एक दिन तुम चली गई। कोई न कोई दूसरी जात का मरद धर लोगी। यह सोचकर मेरा कलेजा कांप गया। मेरे पास एक तुम थी। मैं वह भी हार गया। चारों तरफ से एक हारे आदमी ने तुम्हें मार दिया रे। वह खुद मर गया। खुद मर गया…’ वह तेज-तेज नदी के चेहरे पर बालू फेंकने लगा। ‘तू जा रे जा… मरकर अब मेरा पीछा छोड़ दे। मेरा जो होगा सो होगा।’ फिर अचानक उठकर जंगल की तरफ बेतहाशा दौड़ने लगा। फिर पता नहीं वह अंधेरे में कहां गायब हो गया।
उधर गांव में सुबह तक घर का दरवाजा खुला पड़ा था। उस दिन फिर आंधी-धुका आने का अंदेशा था। सांय-सांय खिड़की से हवा कमरे में घुस रही थी। दरवाजा ढाक-ढाक बज रहा था। गांव का रास्ता सोमा के घर से होकर गुजरता था। पड़ोस की कुसुम काकी ऐसे ही उधर किसी काम से चली आई थी सुबह। उसने दरवाजे को धक्का दिया तो खून के निशान दिखे बरामदे पर। खून से सने पैरों के निशान थे। बरामदा पार कर कमरे में गई तो देखा शकुन की लाश क्षत-विक्षत अवस्था में पड़ी थी। स़िर्फ उसका चेहरा पहचान में आ रहा था। देह के बाकी हिस्से बुरी तरीके से काट दिए गए थे। पूरा कमरा खून के छींटों से भरा था। कुसुम काकी एकदम से बाहर भागी। रोने का समय नहीं था। उसका दिल जोर से धड़क रहा था। अथाह दुख में डूबी उसकी आंखें सूख रही थीं। उसे समझ में न आ रहा था कि किस पर रोए वह। सोमा, जो कभी सीधा-साधा आदमी था, उस पर तरस खाए या शकुन, जो प्यारी-सी स्त्री थी मीठा बोलने वाली, उस पर। कुछ ही दिन हुए थे, वह सोमा को छोड़कर चली गई थी। अभी ठीक से पता भी नहीं था कि वह किसी और के साथ रह रही है या अकेले है। पर उसके किसी दूसरी जात का कोई मरद धर लेने के शक में सोमा पागल रहता था। कल ही तो हाट में दोनों फिर मिले थे। सोमा ने शकुन को एक दिन अपने घर पर रुकने को कहा ताकि कुछ बात कर सके। और सुबह शकुन की लाश इस तरह पड़ी मिली। इस तरह से रिश्ते का अंत होगा। उसने कभी नहीं सोचा था।
शकुन की लाश को देख पाना मुश्किल था। कुसुम काकी ने जाकर गांव के लोगों को खबर की। लोग जुटने लगे। लोगों ने हत्या का बीभत्स रूप देखकर अपनी आंखें बंद कर लीं। गमछे से बहुतों ने अपना चेहरा ढंक लिया। कुछ स्त्रियां तो बाहर भागीं उल्टियां करने। फूल-सी लड़की शकुन का चेहरा भर छोड़ दिया गया था। शेष शरीर इस तरीके से चीर दिया गया था कि खुली आंखों से देख पाना मुश्किल था। जल्दी से लाश पर कपड़ा डाल दिया गया। बहुतों के लिए लाश को इस हालत में देख पाना कठिन था।
गांव के युवा और बच्चों को कमरे में घुसने नहीं दिया गया। बुजुर्ग स्त्रियों ने बाहर ही बाहर फफकना शुरू कर दिया। उन्हें भी कमरे में जाने से रोक दिया गया। कुछ लोगों को छोड़कर सब कमरे से बाहर निकल आए और उन्होंने बाहर का दरवाजा ढंक दिया। बाहर पिंडा में बैठकर आपस में खुसुर-फुसुर करने लगे। दबी जबान में एक ने गुस्से से कहा ‘के कर गलती हिके? जनी मन केर गलती हिके। अपन मरद के छोइड़ के दूसर जात कर मरद धरबाएं तो का होवी?’ (किसकी गलती है? स्त्रियों की गलती है। अपना आदमी छोड़कर किसी दूसरी जात का आदमी पकड़ेगी तो क्या होगा उसके साथ?) दूसरे ने कहा ‘ई सोमा हों पी खाए के जनी के पिटत रहे। जनी मन गरू हिकंए का? धइर लेलक दूसर मरद। अब ई गूइठ लगिन अइसन जानवर लेखन कि जनी के काटएं न। जुग-जमाना बदइल गलक।’ (यह सोमा भी पी खाकर अपनी पत्नी को पीटता रहता था। गाय हैं क्या औरतें? पकड़ लिया कोई दूसरा आदमी। अब इतनी सी बात के लिए क्या कोई जानवर की तरह पत्नी को काटता है? समय बदल गया है।) तीसरे ने कहा ‘मरद मन हो तो का करबयं? सोब बट से तो कुटाथाएं। नौकरी-चाकरी नहीं। षहर जायकर दिहाड़ी मजदूर होइं जाथएं। इ व्यवस्था तो चइरो कोना से कूइट देवाथे मरद मन के। जनी भी उकर नहीं। कहां खीस निकलाबाएं? व्यवस्था के तो कुटेक नी पाराथाएं। सोबकर खीस जनी केर देह के कईट के निकलाथाएं।’ (पुरुष लोग भी क्या करें? चारों तरफ से कुटा रहे हैं। नौकरी-चाकरी नहीं। शहर जाकर दिहाड़ी मजूदर बन जा रहे हैं। इस व्यवस्था ने चारों तरफ से पुरुषों को कूट दिया है। स्त्री भी उसकी नहीं। कहां गुस्सा निकालें? व्यवस्था को कूटने में असमर्थ सारा गुस्सा स्त्रियों पर ही उतार रहे हैं।)
स्त्रियां दबी हुई जुबान में आपस में बातें कर रही थी। ‘एके धोर गला रेतेक से तो आदमी मोइर जाए न। ई चेईर बेर काटेक केर मतलब का हिके? जनी मन दिन-राईत मेहनत-मजूरी कईर के छउवा-पुता देखबाएं। घर दुरा जोइड़ के रखबाएं। मरद मन हड़िया-दारू पीके इ बाटे-उ बाटे घूरत रहबाएं। चईर ठो जनी धईर रहबाएं। के काटेक जाथाएं उन मनके?’ (एक बार गला रेतने से तो आदमी मर जाता है। यह चार बार काटने का मतलब क्या है? स्त्रियां दिन-रात मेहनत-मजूरी कर बाल-बच्चा संभालती हैं। घर-परिवार सबकुछ जोड़कर रखती हैं। आदमी पीकर इधर-उधर घूरता फिरता है। चार जगह चार औरतें रखता है। उनको तो कोई काटने-मारने नहीं जाता।) कुसुम काकी कह रही थी और बीच-बीच में सिसकती जाती थी। कुछ स्त्रियां कह रही कि आदिवासी समाज को किसी की नजर लग गई है।
पूरे इलाके में खबर आग की तरह फैल गई। उधर चौराहे पर पुष्पा काकी की चाय की दुकान पर बस्ती के लोग बैठकर चाय की चुस्कियों के साथ बहस कर रहे थे। कुछ आदिवासी थे और कुछ यूपी, बिहार, बंगाल से आकर इधर बसे हुए लोग। कुछ इधर नौकरियों में थे। सबका पुष्पा काकी की चाय की दुकान पर आना होता था। वहीं देश-दुनिया की बातों पर चर्चा होती थी। सबकी जुबान पर सोमा कांड था। एक आदमी कहने लगा ‘देखिए, क्या कहा जाए? आदिवासी समाज चारों तरफ से घिर गया है। मामले को सिर्फ स्त्री-पुरुष एंगल से मत देखिए। व्यवस्था में कैसे आदिवासी पिस गया है, ऐसे देखिए। उसमें अंतिम वार स्त्री पर ही होना है।’ दूसरे ने कहा ‘ई आदिवासी स्त्रियों को भी समाज-संस्कृति की कोई चिंता नहीं। पढ़-लिखकर और शहर जाकर इनका माथा खराब रहता है। इनको टाइट रखना चाहिए।’
सबको सुनते हुए एक सेवानिवृत्त बुजुर्ग आदिवासी शिक्षक ने कहा ‘देखिए, आदिवासी समाज में स्त्रियां बाकी समाज की तुलना में ज्यादा स्वतंत्र ही रही। पर अब आदिवासी इलाके में कंपनी घुस रही है। खूब खदान खुल रहे हैं। आदिवासी इलाकों में देश के चारों तरफ से आकर दूसरे समुदायों के लोग बस रहे हैं। नौकरी-चाकरी कर रहे हैं। बिल्डिंग ठोक रहे हैं। आदिवासी अपनी जमीन छोड़कर शहर चला जाए तो वहां आदिवासी नहीं रह जाता, दिहाड़ी मजदूर बन जाता है। जमीन ही उसकी जाति है। जंगल ही उसका ग्रंथ, दर्शन है। जमीन-जंगल गया कि आदिवासी खत्म। दूसरे समाज जिस सिस्टम से चलता है, जिस ग्रंथ से चलता है उसकी पूरी नींव ही स्त्रियों के नियंत्रण पर टिकी है। अब वही सब आदिवासी समाज के भीतर घुस रहा है। ऐसे देखिए इसको।’
चौथे ने कहा ‘हां, मामला खाली औरत-मरद का नहीं है। बाबा ठीके कह रहे हैं। आदिवासी समाज में दस तरह से विवाह होता था। संबंध बहुत बड़ा मसला नहीं था। अब आदिवासी समाज के भीतर भी पूरी ताक़त औरत के संबंधों को नियंत्रित करने में लगाया जाएगा। उसे ढाल और हथियार दोनों की तरह इस्तेमाल किया जाएगा। सोमा कांड यही सब है। और क्या है?’
पांचवें ने कहा ‘यह भी देखा जाए कि कई इलाकों में आदिवासी जब आंदोलन हार गए तब स्त्रियां दिकुओं के देवा-देवी की पूजा करने लगीं। उन्हें लगता है कि दिकुओं का भगवान ताकतवर है। बहुत सारी आदिवासी स्त्रियों ने गायत्री मंत्र पढ़ना शुरू कर दिया। मंदिर भी जाती हैं थाली सजाकर। आदिवासी समाज चारों तरफ से जूझ रहा है। जमीन भी हाथ से जा रही, भाषा-संस्कृति सब चौपट। स्त्रियां भी उनकी नहीं। पूरा खेल तो पावर का है। संसाधन की लड़ाई भी है। सत्ता के बल पर यह सब चल रहा है। सत्ता ताकतवरों के साथ है। नियम-कानून उनके ही हिसाब से बनते हैं। आदिवासी जाएं तो कहां जाएं? समाज के भीतर भयंकर बदलाव आ रहे हैं।’ इस बातचीत के बाद चाय पीते हुए बहुत देर लोग मौन रहे।
कुछ लोग सोमा पर तरस खा रहे थे। कुछ लोग उसकी ऐसी हरकत पर उसे कोस रहे थे। पर उसे कोसते-कोसते भी उन कारणों की पड़ताल कर रहे थे जिसने सोमा को इस हाल में पहुंचा दिया था। शकुन की लाश सफेद चादर से ढंक दी गई थी। सारे घाव उसके नीचे छिप गए थे। पर वे सारे घाव जो नदी, जंगल, पहाड़, आदिवासी समाज को रोज-रोज चारों तरफ से मिल रहे हैं, उससे बचने का रास्ता क्या है। यह कोई समझ नहीं पा रहा था।
संपर्क : सी/ओ मनोज प्रवीण लकड़ा, म्युनिसिपल स्कूल के बग़ल में, ओल्ड एच.बी रोड, खोरहटोली, कोकर, रांची, झारखंड ८३४००१ मो. ७२५०९६०६१८
Paintings by : Abrar Ahmed
Great ,a very wonderful and meaning story
युवा लेखिका जसिंता की कहानी, अंतिम वार,एक भोगे हुए यथार्थ के धागे से रची,बुनी सशक्त और सामाजिक विद्रूपताओं पर एक तीखा प्रहार से कम नहीं है।इनके विचार,कथ्य, कथा के पात्र सभी, समाज में पैठ बनाए बहुरूपिए व छल-छद्म को जीवनाधार बनाए मानुषों की बखिया उधेड़ने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ते।और तो और इनके विचार व कथानक के दर्शन निर्विवाद रूप से साहित्य के अमूल्य धरोहर हैं।
निःशब्द हूं, लूट जारी है। यह कहानी क्या हो रहा, क्यो हो रहा खोज कर रही है।
वर्तमान व्यवस्था पर ज्वलंत प्रश्न है यह कहानी।बदलते सांस्कृतिक
सामाजिक,आर्थिक ,पारिवारिक जीवन मूल्यों का विघटन के परिणाम और बौखलाहट का जीवंत दस्तावेज है।
निशब्द,आदिवासी समाज की पहचान और पर्याय है-जल,जंगल और जमीन।
इन्ही ज्वलंत प्रश्नों को उठाती यह कहानी👌