युवा कवि।विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।संप्रति शिक्षा निदेशालय, दिल्ली के अधीन शिक्षक।
चाह
अगर जमना ठंडी बर्फ होना है
तो मैं मोम बनकर पिघलना चाहता हूँ
किसी कंदील में धीमे-धीमे जलना चाहता हूँ
अगर उठना पहाड़ होना है
तो मैं गिरना चाहता हूँ
अपने भीतर पत्थर नहीं एक झरना चाहता हूँ
अगर विस्तार का मतलब
समुंदर सा खारा हो जाना है
तो मैं सिकुड़ना चाहता हूँ
कुएं का पानी होकर कंठ से जुड़ना चाहता हूँ
अगर उड़ना भाप हो जाना है
तो मैं बीज की तरह गड़ना चाहता हूँ
नए पौधों में फूट पड़ना चाहता हूँ
अगर जड़ होना देवता हो जाना है
तो मैं चलना चाहता हूँ
दरिया बनकर बहना चाहता हूं
मैं वह आंख चाहता हूँ
जिससे सुंदर दिखे सारी दुनिया
मैं हृदय चाहता हूँ जो मानचित्र हो भारत का
मैं वह भाव चाहता हूं जो जन्मता है राष्ट्र को
अगर राष्ट्र मसनद पर बिठाकर
देश में चौड़ी होती खाइयों पर आंख चुराना
और मौन रहना सिखाता है
तो मैं जनता की अदालत में खड़ा रहकर
बयान की सतरों में दर्ज होना चाहता हूँ।
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