ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि।

कवि, अनुवादक।कविता-संग्रह: ‘लोहा बहुत उदास है’ प्रकाशित।बांग्ला से हिंदी में अनूदित 13 पुस्तकें प्रकाशित।इंदौर में निवास।

1-आया हूँ सूर्यास्त से

सूर्यास्त से आया हूँ सूखे पत्तों की धरती पर
जिन सब पेड़ों के पत्ते एक बार झड़कर
फिर कभी नहीं लौटे
जलाए जानेवाले उन सब पेड़ों में
आज मैं क्लोरोफ़िल जगाने आया हूँ
टहनियो, तुम झुक जाओ
टीले, तुम सिर उठाकर
चांद को गूंथ लो शिखर पर-
नहीं चांद, मैं नहीं चाहता
आज सारी रात जुन्हाई की रेत पर
होता रहे मेरा दहन
लो यह मैंने सेमल की डाल को दी भुतहा हवा
विधवा के मेघनिद्राजल में डाल दिया सिंदूर
नहीं मेघ, मैं नहीं चाहता
तेरा स्मृतिभू्रण आकर मारे मुझे
हरेक निषिद्ध स्वप्न में
मैं नहीं चाहता वे मुझे दूर के घाट पर बहा दें
‘सांप ने काटा था’ कहकर
मुझे पता है, जिसने मुझे काटा था
आज भी किसी ने उस सर्पिणी की देह का
सत्कार नहीं किया
वे उसे फेंक गए हैं निर्जन श्मशान में
‘तुम जीवित हो क्या?
बोलो, तुम क्या जीवित हो’ कहकर
मैंने जितने दिन
उसे नींद से जगाने की कोशिश की
पत्थर से टकराकर वह और भी नीचे चली गई
लेकिन जंगल में लौटने पर
पत्तियों के भीतर सांय-सांय करती
उसकी सांसें सुनाई देती हैं
मैं आज उतर जाऊंगा नींद के उस गड्ढे में
जिसमें सूर्यास्त के रंग से रंगा देश का रास्ता
है कई घुमाओं के साथ
पहाड़ों से घिरे गांव की ओर
जिस देश में आकर फिर से डंसेगी सर्पिणी
मेरी देह में वह जलाएगी पत्तियां-
मैं आज ढूंढ़ लूंगा वह देश
घने अंधेरे में सारी रात भटकता रहूंगा
पर्वतों खाइयों में
मेरी ही चिता की लकड़ी आज मेरी मशाल होगी।

2-देश विभाजन : पचास साल

गाएं पुकार रही हैं
हमारे पुराने घर की सारी गाएं :
मुग्ली, घेंटी, लक्ष्मी और कमला नामवाली
हमारे पुराने घर की सारी गाएं
पुकार रही हैं
दो सौ मील दूर से पुकार रही हैं
सिर्फ गाएं ही नहीं
गाय के चरवाहे भी पुकार रहे हैं
घर का मालिक भी पुकार रहा है
दूध दुहनेवाले करीम भाई
कंडे थापनेवाली वह कुंआरी लड़की
पुकार रही है
केवल वे लोग ही नहीं
उस लड़की के लंगड़े पिता
मालिक के बच्चे
चरवाहे की छोटी-सी पत्नी
बिल्ली का नाम है मिठू, वह भी पुकार रही है
कुत्ते का नाम है भोला, वह भी पुकार रहा है
हंस मुर्गी डबरे-खोह
हमारी धूप बारिश आंधी पेड़
चीख़-चीखकर पुकार रहे हैं सभी
पचास वर्ष दूर से
कंठ चीरे जा रहे हैं
तुम्हें क्या सुनाई नहीं दे रहा?

3-चंद्राहत

चांद के बदन पर
गिरी हुई उल्काओं के गड्ढे हैं
चांद के बदन पर हैं
धूल हो चुकी करोड़ों वर्षों की उल्काएं
चांद के खप्पर पर
दाग हजारों मील तक
चांद के मगज में सूखकर रेत हो चुका
समुद्र है
छत पर चांद से आहत एक आदमी
जिसकी नाक कान और मुंह से
लगातार झर रही थी धूल और रेत
एक रोज उस रेत पर
छोटी उंगली के बल संतुलन बना
सोई थी एक स्त्री
बदन से उतारकर
रेत पर फेंक दिए थे उसने
जुन्हाई के कपड़े
उस दिन रेत पर बहा था
गर्जन करता समुद्र
हजारों फीट उठ गया था पानी का स्तंभ
वह स्त्री, फुफकारती
समुद्र के साथ विलीन हो गई है हवा में
अब कभी-कभी उस आदमी के
नाक और मुंह से झरती रेत के साथ निकलकर
जमीन पर गिर जाती है एक दीठ
कभी-कभी एक चुंबन
कभी भुजा की एक भंगिमा
दबे होंठों की एक मुस्कान
तो कभी एक दुबली जंघा
जमीन पर आ गिरती है
या फिर
सीधे-सीधे आ गिरती है
जमीन पर बिछाकर रखी गई कविता पर
कविता की देह पर
गिरी हुई उल्काओं के गड्ढे हैं
कविताओं के बीच में हैं
धूल हो चुकी तमाम स्त्री-उल्काएं…

4-दूर चांदमारी

दूर चांदमारी
चांदमारी यानी क्षत-विक्षत एक चांद
गोल, किनारों पर गड्ढे और गोलियों से छलनी-
हम जो-जो न पा सके
टूटी हड्डी-पसलियों वाली वे सारी आकांक्षाएं
उसकी सारी दरारों में पड़ी हुई हैं
उनके लोहे के हाथ-पैरों में जंग लग गया है
उनके आंखों के गड्ढों में आंसुओं के बदले
ठंडी रेत है
इतने दिनों में
पुरुष-आकांक्षाओं के लिंग झर गए हैं
स्त्री-आकांक्षाओं के गर्भ में
भर गई है सूखी मिट्टी
रात जब उगता है चांद
फ्लैटों की खिड़कियों से
रेलवे क्वार्टरों से
भाड़े के मकानों के सार्वजनिक आंगनों से
साफ-साफ दिखता है कि
चांद की देह पर दरारों ने
किस तरह मुंह खोल रखे हैं
क्योंकि उनके भीतर से अंग खो चुके
प्रत्यंगविहीन
वे सब लोहे के शरीर
चांद की ऊपरी सतह पर चले आए हैं
वे लंगड़ा रहे हैं, कराह रहे हैं-
हम जो-जो नहीं कर सके
उन सब आकांक्षाओं के प्रेत
हमसे पानी मांग रहे हैं
हम लोग यानी, मैं और उसकी मां
हम लोग यानी, मैं और उसके पिता
हमने इसके बाद क्या किया?
हमने अपने बेटे-बेटियों को
बंदूक की नलियों में ठूंसकर
एकत्र करके धनुष पर-
इच्छा के विरुद्ध नहीं
उनमें इच्छा जन्म लेने से पहले ही-
पूरी जान लगाकर कान तक खींची है प्रत्यंचा
उंगली रखी है घोड़े पर
और निशाना साध रखा है, दूर-
दूर चांदमारी…

5-आज : मई 2002

मेरे सारे वाक्य आग में झोंक दिए गए बच्चे हैं
मेरी सारी आवाजें
जयध्वनियां हैं, मारणास्त्रों की दक्षता
मेरे सारे छंद हत्या में उठाई गई तलवारें हैं
मेरा सारा काव्य
तलवार की नोंक में बिंधा हुआ भ्रूण है
मेरा समूचा प्रेम कुछ नहीं
अब कुछ भी नहीं
बस बच्चे की आंखों के सामने
उसकी मां का बलात्कार है
अब भी, अब भी यदि घर में बैठकर
मैं खुद को बचाता रहूँ
अगर बाधा न डालूं
बस खोजबीन करता रहूँ
कि किसकी गलती से क्या हुआ
यदि मैं यह सब न रोकूं
आज भी यदि मैं न कूद पड़ूं
तो मेरा सारा शिल्प आज से सामूहिक हत्यारा है!

संपर्क:​ उत्पल बैनर्जी, डेली कॉलेज कैम्पस, भारती हाउस सीनियर, इन्दौर 452001, मध्यप्रदेश। मो. 9425962072