वरिष्ठ कवयित्री। पेशे से चित्रकार और कत्थक नर्तकी।

चैती (कोयल तोरी बोलिया)

मुझे अंदाजा है
कोयल नहीं बोली होगी-
आधी रात
केवल गहराती आई होगी
जीवन के आने और
बेलौस चले जाने से हतप्रभ
कोई पुरातन बेचैनी

जो दुख मन में नहीं अंटता
उसे लपेट लिया होगा तुमने
एक गीत में
और रख आई होगी अहाते के पीछे
किसी आम के पेड़ पर

अक्सर जब तुम गुनगुनाती हो
पिघलते दिनों के अवसाद तले
सुख की कल्पनाएं
आम के पेड़ पर कोयल चुगती है
तुम्हारा वही शोकगीत।

ईश्वर रोपती स्त्रियां (छठ पर्व के गीतों में)

हे दीनानाथ!
देखते हो
कमर भर पानी में खड़ी
भीगी, कंपकंपाती देह
आंखें डबडबातीं
क्षितिज टटोल, मुंद जातीं बार-बार
गला रुंध जाता

सुनो
आर्त स्वर उठते एक साथ
झींगुरों की जीवट तान जैसे
और उठकर फड़फड़ाते गिर जाते
किसी घायल पंछी-से

सुनो तो!
गीतों में स्त्रियां मांगती हैं
सोहाग, संतान और काया का सुख
लिखती हैं
नदी के बिछलते पानी पर
अपनी अनकही आत्मकथाएं
मारती हैं सेंध तुम्हारे दहकते एकांत में
और अर्घ्य के साथ
रोप देती हैं अनंत के अग्निपिंड में
ईश्वर का बीज
हे दीनानाथ!

बारहमासा

पृथ्वी कहती नहीं खुद उससे
अपने मन की बात
हां, पलाश की सुलगती उंगलियां
उसकी ओर इंगित कर
लजा जाती हैं
छेड़ती हैं फाग-सा कुछ
बिना उसकी ओर देखे
आसमान में बहुत-से नीले कमल
खिले होते हैं तब

धूप चढ़ाती है
धरती की देह पर कनक के वरक
आसमान नाचता है
धुल के ढोल बजाता हुआ
हांफते हैं पहाड़-जंगल
थके भूरे बैल-से
मटमैली नदी रात भर खोजती है
तारों में चैती का धीमा राग

प्रकृति रोपती है
धान के साथ
एक किसान के हिस्से का अवसाद
एक मौसम गुजरता है
बादलों से कुशल क्षेम पूछते हुए
जंगल भीगी हुई बरसाती में
झींगुरों की फौज लिए सीले खड़े रहते हैं
पूरे भादो
पेड़ों की जड़ों में उग आती
खिले हरे रंग के मखमल पर
कुकुरमुत्तों की बारात
कि मंत्रमुग्ध कोई गाता है कजरी
आसमान को पिघलता देखकर

दरवेश-सी नाचती है पृथ्वी
लगातार अपनी धुरी पर
किसी अनहद नाद के आनंदातिरेक में
अंतरिक्ष में टंकी कविताएं
गिरने लगती हैं उसकी ओर
मौसमी उल्काओं-सी
कि सहसा एक स्त्री उन्हें उठाकर
गाने लगती है कोई मीठा गीत।

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