प्रस्तुति : अनूप कुमार, युवा लेखक एवं विद्यार्थी

जायसी ने अपने महाकाव्य ‘पद्मावत’ की रचना 500 साल पहले शुरू की थी, ‘सन नौ सौ सत्ताइस अहै, कथा आरंभ बैन कवि कहै’| वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार नौ सौ सत्ताईस हिजरी, अर्थात- 1521 ईसवी| ‘पद्मावत’ की पंचशती के अवसर पर यह परिचर्चा प्रस्तुत है|

‘पद्मावत’ में लौकिक प्रेम के आधार पर आध्यात्मिक प्रेम दिखाया गया है| इसमें रहस्यवादी प्रवृत्तियां भी हैं| परमात्मा प्रिया के रूप में है| संसार के सभी रूपों को उसकी छाया के रूप में रखा गया है| फिर भी सूफी काव्य के मूल में प्रेम तत्व ही है| प्रेम ही सूफी दर्शन और काव्य का प्राण है| यह भी देखा जा सकता है कि सूफी कवि प्रेम का शुद्ध मार्ग दिखाते हुए अपने समाज के भेदभाव और विद्वेष को खत्म करने तथा सामंजस्य स्थापित करने का प्रयत्न कर रहे थे| उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता की समस्या को मधुरता, कोमलता और काव्यमयता के साथ सुलझाना चाहा था| कहना न होगा कि सामाजिक भेदभाव मिटाने वालों में जायसी का नाम आगे है| उन्होंने दोनों संस्कृतियों को अपनाते हुए हिंदू तथा सूफी प्रेम कथा द्वारा आध्यात्मिक तत्व की अभिव्यंजना के लिए ‘पद्मावत’ जैसा महाकाव्य रचा|

‘पद्मावत’ में प्रेम, सौंदर्य, प्रकृति, दर्शन, अध्यात्म और रहस्यात्मकता के साथ-साथ भारतीय समाज की सांस्कृतिक रीतियों, परंपराओं और लोकाचारों के बहुत से चित्र देखने को मिलते हैं| यह वह काव्य है जिसमें भारतीयता की महत्वपूर्ण अवधारणा अभिव्यक्त है|

माना जाता है कि अतीत का अध्ययन हमें वर्तमान और भविष्य के बारे में मार्गदर्शन दे सकता है या कहें, जब-जब वर्तमान चोटिल हुआ है तब-तब इतिहास ने उसे संभालने की प्रेरणाशक्ति दी है| साहित्य में यह बात अधिक उजागर है| आज स्त्री, धार्मिक सौहार्द, सत्ता और हिंसा को लेकर और सबसे जरूरी मुद्दा ‘प्रेम के स्वरूप’ को लेकर कई तरह की बहसें हैं| प्रतिदिन दुनिया हिंसात्मक रूप ले रही है| आज के समय में सबसे ज्यादा जरूरत यदि किसी चीज की है तो वह है- ‘प्रेम’|

इस परिचर्चा में हिंदी के जिन विद्वानों ने ‘पद्मावत’ से जुड़े नए प्रश्नों पर अपने विचार प्रस्तुत किए हैं, वे हैं- विनोद शाही, अवधेश प्रधान, अजय तिवारी और वैभव सिंह|

सवाल
(1) जायसी ने ‘पद्मावत’ में चित्रित स्त्री में ईश्वर को देखा, जो अनोखी बात है| स्त्री केंद्रिकता की वजह से ‘पद्मावत’ में क्या विशिष्टताएं आई हैं?
(2) ‘पद्मावत’ में भारतीयताबोध के उल्लेखनीय बिंदु क्या हैं?
(3) हिंदी भक्तिकाव्य में राधा और सीता के साथ-साथ पद्मावती की स्त्री श्रृंखला को कैसे देखा जा सकता है?
(4) पद्मावत क्लासिकल, धर्मशास्त्रीय और नगरीय प्रभुत्व के समानांतर देशज बौद्धिकता को किस तरह प्रतिध्वनित करता है?
(5) सूफी प्रेम किस तरह सत्ता के भेदभाव और हिंसा का प्रतिपक्ष है? सूफी उदारवाद के संबंध में सत्ता का वैश्विक रुख क्या रहा है?
(6) क्या प्रेम ही संपूर्ण भक्तिकाव्य का मूल संदेश है? किस प्रकार?

विनोद शाही
वरिष्ठ आलोचक और नाटककार| आलोचना की लगभग तीस पुस्तकें| अद्यतन पुस्तक संस्कृति और राजनीति’|

पद्मावतप्रतिसत्ता की रचनाधर्मिता का भारतीय महाख्यान है

(1) स्त्री में ईश्वर को देखना, स्त्री के ईश्वर हो जाने का पर्याय नहीं है| जिस अर्थ में सगुण भक्तिधारा के कवि तुलसी और सूर राम और कृष्ण को परब्रह्म के अवतार के रूप में प्रस्तुत करके उनका लीला गायन करते हैं, वैसा कुछ भी पद्मावत के संदर्भ में दिखाई नहीं देता|

दूसरी बात यह है कि पद्मावत में स्त्री में ईश्वर को देखना एक बात है और ‘पद्मावत’ का स्त्री-केंद्रित होना दूसरी बात| अगर ये दोनों बातें एक मान ली जाएंगी, तो ‘पद्मावत’ एक ईश्वर केंद्रित कृति में बदल जाएगा, जबकि ऐसा नहीं है| वहां केंद्र में अगर कुछ है, तो प्रेम है|

तीसरी बात यह ध्यान देने लायक है कि सूफी काव्यधारा निर्गुण काव्यधारा की तरह उस अर्थ में भक्ति केंद्रित नहीं है, जिस अर्थ में राम भक्ति और कृष्ण भक्ति वाली सगुण काव्यधाराएं हैं|

निर्गुण धारा प्रेम को ज्ञानदशा की तरह उपलब्ध करती है, तो सूफी धारा अपनी साधनाओं को प्रेम में ‘फना’ होने के ‘मारग’ की तरह देखती है|

सूफी और निर्गुण काव्यधाराओं में भक्ति के लिए जरूरी दास्य भाव का अभाव है| दास्य भाव के बिना यह संभव नहीं कि कोई कृति ईश्वर की भक्ति पर केंद्रित हो सके| ‘भक्ति’ शब्द उस दौर के सारे काव्य पर इतना अतिव्याप्तिमूलक आरोपण है कि पद्मावत जैसे अलग तरह के काव्य के सम्यक विवेचन और मूल्यांकन का रास्ता अवरुद्ध हो गया है| अगर हम भक्तिवादी नजरिए को एक ओर रख सकें, तो देख सकेंगे कि ‘पद्मावत’ एक काव्य कृति के रूप में स्त्री को किस रूप में हमारे सामने लाता है|

यदि हम यह कहते हैं कि ‘पद्मावत’ का नायक रतनसेन, पद्मावती को पाने के लिए जी-जान की बाजी लगा देता है, इसलिए यह कृति स्त्री केंद्रित है, तो सवाल उठता है कि फिर ‘रामचरितमानस’ एक स्त्री केंद्रित कृति क्यों नहीं? वहां राम अपनी महानता को अर्जित करने के लिए जो संघर्ष करते हैं, वह सीता को छुड़ाने और पुनः हासिल करने से ताल्लुक रखता है| कथा की प्रबंध योजना में स्त्री दोनों महाकाव्यों के केंद्र में है| अंतर अगर है, तो इस बात का है कि इन कृतियों के नायक और नायिका के चरित्र ईश्वरत्व का आलंबन किसे बनाते है? यहां दिक्कत यह है कि राम ईश्वर के पर्याय हैं, पर पद्मावती में ईश्वर की ‘छाया’ भर है| उसमें वही ‘ज्योति’ है, जो ‘रवि ससि नखत’ को देदीप्यमान करती है| इसलिए उससे किया प्रेम ‘मानुषी प्रेम’ होकर भी ‘बैकुंठी’ मालूम पड़ता है|

भक्तिवाद को आधार बना कर मध्यकाल की व्याख्या करने का नुकसान यह होता है कि उस दौर का साहित्य, साहित्य के रूप में हाशिये पर धकेल दिया जाता है| कृति की मूल संरचना उस भक्तिवादी अर्थ को पुष्ट करती है या नहीं, यह बात विवेचनीय नहीं रह जाती| भक्तिवाद के इस आरोपण को हटाए बिना मुमकिन नहीं कि ये कृतियां अपने तौर पर बोलना आरंभ कर सकें|

एक स्त्री के रूप में पद्मावती पर विचार करें, तो पाएंगे कि वह लोक की जमीन से ऊपर उठकर मिथक होने की असफल कोशिश करने वाली स्त्री है| उसे लोक की जातीय स्मृतियों का हिस्सा बनाने के लिए उसमें सौंदर्य ‘ज्योति’ के ऐसे आविर्भाव की बात की गई है कि वह अलौकिक लगने लगती है| ‘पद्मावत’ के स्तुति खंड से लेकर उपसंहार तक कोई अध्याय ऐसा नहीं, जहां इस ज्योति के विविध रूपों को सृष्टि के तमाम पदार्थों, मनुष्यों और उनके व्यवहारों में अनेकविध रूपों में अभिव्यक्त होते न देखा गया हो| रूप सौंदर्य की इस अलौकिक ज्योति की अभिव्यंजना पद्मावती में सर्वाधिक नजर आती है| वह ईश्वरत्व के बोध या स्मृति को जागृत करती है| इसके बावजूद वह एक सामान्य स्त्री जैसी ही एक स्त्री है| उसके व्यवहार और आचरण लीला नहीं हैं| वह भी सामान्य स्त्रियों की तरह सुख-दुख, प्रेम-ईष्या, हर्ष-विषाद आदि सभी अनुभवों से होकर गुजरती है| उसे पाना रतनसेन को ईश्वर को पाने जैसा लगता है, तो वह एक पुरुष का मनोभाव है, जो इस कृति के केंद्र में चला गया है| अलाउद्दीन का पुरुषोचित मनोभाव उसी पद्मिनी को एक बहुमूल्य उपभोग वस्तु बनाता है| यह कृति, इन दो पुरुषोचित मनोभावों के बीच संघर्ष की कृति है|

रतनसेन के पराजित होने पर पद्मिनी का सती होना क्या है? क्या वह एक स्त्री को एक स्त्री के रूप में बचाता है? या वह पितृसत्तात्मक समाज के मर्यादा भाव को बचाता है? क्या एक स्त्री का स्त्री होना, उसके रूप सौंदर्य की देवी होने लायक स्थिति तक महदूद होना है? ठीक से खोज की जाए तो पद्मावती अपने स्त्री होने के अर्थ को वहां अधिक गरिमा प्रदान करती है, जब पति के बंदी बना लिए जाने पर, उसकी मुक्ति के लिए प्रयास करती है| जौहर करने और युद्धभूमि में उतर कर स्वयं जौहर दिखाने वाली स्त्रियों में जो अंतर है, वह स्त्रियों के वस्तुतः होने के अर्थ के उत्तरोत्तर बदलने और विकसित होने की आधारभूमि है|

सूफी कवियों ने भारत में आकर अरबी-फारसी की जिन कथाओं को आधार बनाया, उनकी स्त्रियां भी अपने प्रेमियों के निकट होने के लिए अनेक तरह के जोखिम मोल लेती हैं| उनके मुकाबले पद्मावती उतनी संघर्षशील नजर नहीं आती| हालांकि नैतिक और सामाजिक मर्यादाओं की बेड़ियां इन सभी कथाओं में एक जैसी हैं| इन्हें तोड़ कर प्रेम को चुनने का परिणाम सब कहीं वही है, मृत्यु को अंगीकार करना| पर जब बात जौहर की आती है, तो अगर हम उसे उसके सामंतीय महिमामंडन से अलग करके देखते हैं, तो वह आत्मघात जैसी दिखाई देने लगती है| इसे हम अपने समय की स्त्री के अपने सच तक पहुंचने के लिए आधार नहीं बना सकते| मतलब साफ है, स्त्री केंद्रित साहित्य के लिखे जाने के हालात हमारे अपने समय से पहले कभी इतनी पुख्ता जमीन नहीं पकड़ते|

(2) पद्मावत जैसी कृतियों के साथ जुड़ने का मतलब है, उस भारतीयताबोध के साथ जीने की हिम्मत दिखाना, जो भारत के परंपरागत परिदृश्य को ही नहीं, मध्य एशिया तक के सांस्कृतिक परिवेश को पुनर्नवा होने की चुनौती देता है|

वह जितना इस्लाम को बदलता है, उससे अधिक भारतीय संस्कृति को किसी महासंवाद के लिए न्यौता देता है| इसका संबंध उस भारतीयता के बोध से है, जो अपनी मूल प्रकृति में बहुलताधर्मी, प्रजातांत्रिक और वैश्विक है|

इसलिए अगर आप जायसी के ‘पद्मावत’ और वारिस शाह की ‘हीर’ जैसे विश्वस्तरीय महाकाव्यों में भारतीयता के बोध की तलाश में हैं, तो वहां भारतीय संस्कृति के परंपरागत रूपों की मौजूदगी के सुबूत खोजकर आत्ममुग्ध होने की प्रवृत्ति को अपने घर पर छोड़ कर इन कृतियों के पास आइए| इस बात को ठीक से पकड़ने के लिए जायसी की ये पंक्तियां हमारी थोड़ी मदद कर सकती हैं-

तुरकी अरबी हिंदुई, भाषा जेती आहि|
जेहि महँ मारग प्रेम कर, सबै सराहैं ताहि॥

मामला तुरकी, अरबी और हिंदुई के सार तक पहुंचने का है| उस तक पहुंचने के लिए कवि ने ‘प्रेम मार्ग’ को पकड़ लिया है, लेकिन ध्यान रहे, मार्ग का अर्थ मार्ग ही होता है| मंज़िल दूर है, बहुत दूर| वह जो मुकाम है, परम अर्थ है, वह ‘भाषा’ के बहुविध विस्तार के पीछे छिपा पड़ा है| जायसी जिस दौर में हुए, वहा भाषा का विस्तार तुरकी, अरबी और हिंदुई तक सीमित था| आज वही जायसी हमें अपनी इस बात की व्यंजना में क्या अन्य विश्व भाषा संसारों को जोड़ने के लिए कहते दिखाई नहीं दे रहे हैं?

जायसी विश्व भर के ज्ञान को भारतीयता के बोध के रूप में पुनरुपलब्ध करने की दिशा खोलने वाले कवि मालूम पड़ते हैं| इसका अर्थ यह है कि जिसे हम भारतीयताबोध कहते हैं, वह स्वरूपतः वैश्विक है| इसके अभाव में वह भारतीयता का बोध नहीं रह जाता| भारतीयता का बुनियादी या तात्विक रूप, उसके वैश्विक होने से नष्ट नहीं होता| आंतरिकता का प्राधान्य उसे विविधताओं को आत्मसात करने लायक बनाता है|

इस प्रकार भारतीयता एक तरह की समन्वय चेतना का पर्याय है| उपनिषदों में सभी ऋषि इस खोज पर निकलते हैं कि वह क्या है, जिसमें सभी परस्पर विरोधी बातें समाहित हो जाती हैं| हमारी मूल प्रकृति समाहिति है, जो हमें भारतीय बनाती है|

सूफी लोग इस्लाम के रूढ़ रूप से बहिष्कृत होकर आखिर भारत का रुख करते हैं| चिश्तिया धारा के उदार सूफी कवि, जिनमें जायसी हिंदी में प्रमुख हैं और बुल्ले शाह व वारिस शाह पंजाबी में, ऐसी कथाएं लेकर आते हैं जो तुरकी, अरबी और हिंदुई का महासम्मेलन हो जाती हैं| उनसे पहले कबीर और नानक जैसे कवि भारतीयता के तत्कालीन आंतरिक विकास को हमारे बोध का हिस्सा बनाने के लिए नए रास्तों की खोज पर निकल चुके थे| इनके काव्य में नाथ, योगी, सिद्ध और सूफी एकतानू होकर वह ज़ुबान बोल रहे थे, जो पूरे भारत की नई ज़ुबान हो गई थी| यह बौद्धों और वैष्णव तथा शैव ब्राह्मणों के महासंवाद वाले अध्याय का अगला आख्यान रचने जैसी बात है| यहां ज्ञान और प्रेम की बात केंद्र में है| इस बात को देखते-समझते हुए भी उसे १६वीं शती के उत्तरार्द्ध में वर्चस्वी हो गई सगुण भक्तिधारा के गले में घंटे की तरह लटका लिया गया|

रामचंद्र शुक्ल ने ठीक पहचाना था कि भक्ति अपनी दास्य भाव वाली मूल प्रकृति के कारण पराजित हिंदू जाति की सांस्कृतिक क्षतिपूर्ति के लिए संबल बन कर आई थी| इसके बावजूद, भक्ति के बोध में भारतीयता को तलाशा गया, जो अंततः पुनरुत्थान की आधारभूमि होकर शनैः शनैः हमारे सामने अपनी अंतर्वस्तु को उद्घाटित करती जाती है| हालात यहां तक पहुंच गए हैं कि समाज के एक बड़े तबके को कुछ लोग, ‘भक्त’ ही नहीं, ‘अंध-भक्त’ तक कहने लग गए हैं|

‘मानस’ के बरक्स ‘पद्मावत’ को भारतीयता की इस मूलभूमि पर रखकर पुनः देखा-परखा जाएगा, तो यह समझ पाना कठिन नहीं होगा कि हमारी महानता को तय करने की कसौटियों की क्या सीमाएं रही हैं? भारत एक के साथ सांस्कृतिक पुनरुत्थान की ओर जाता है और दूसरे के साथ खड़ा होकर पूरे विश्व के साथ संवाद रचीने के लिए खुलता है|

(3) राधा और सीता की भक्तिकाव्य-गत परिकल्पना, कृषि सभ्यता से संबद्ध स्त्री समाज का, मर्यादामूलक पितृसत्ता के मुताबिक अनुकूलन करती है| वहां कृष्ण और राम को एकमात्र आराध्य बना कर, स्त्री के स्वेच्छा से प्रेम करने की आजादी को निरस्त कर दिया गया है| अन्य पुरुष के लिए वहां कहीं कोई गुंजायश नहीं है| आराध्य से प्रेम ही उपासना है| वह एक विकल्पहीन अनिवार्यता या नियति है| प्रेम के दैवीकरण का ऐसा आलम है जिसमें राधा के लिए कृष्ण, अनेक कृष्ण होकर उपलब्ध हैं| स्त्री के प्रेम करने की विविधता और स्वतंत्रता को वहां पुरुष की लीला बना कर नष्ट कर दिया गया है| प्रेम के सर्वतोमुखी पितृ-सत्ताकरण का यह एक अपूर्व अद्वितीय दृष्टांत है| इसे हम पुरुष भाव का सांस्कृतिक वंध्याकरण भी कह सकते हैं| यह प्रेम करने की नहीं, उसे किसी एक की दासी बना कर अपनाने की विधि है| इसीलिए कृष्ण भक्ति परंपरा में बाद में चोर दरवाजे से रास के बहाने कितना व्यभिचार और विलास दाखिल हुआ, वह क्या हमारी आंख खोलने के लिए पर्याप्त नहीं है?

इसीलिए शुक्ल जी तुलसी के मर्यादित प्रेम को भक्ति की आदर्श भूमि बताते दिखाई देते हैं| पर भक्त समाज का निर्माण करने के लिए मर्यादा का स्थान प्रेम से ऊपर होता है| इसलिए राम सीता के प्रेम की परिणति सीता के परित्याग के रूप में सामने आती है|

सीता के हृदय का पितृसत्तात्मक रूपांतर मर्यादामूलक है| परपुरुष ङरा किया गया उसका अपहरण उसके हृदय के एकनिष्ठ पातिव्रत्य में हस्तक्षेप करने में असमर्थ दिखाया गया है| इस तरह मर्यादा, नैतिकता, एकनिष्ठता और अन्य तमाम भाव स्त्री के स्त्री की तरह सहज प्रेम कर सकने से अधिक महत्वपूर्ण हो जाते हैं| इसे हम प्रेम का भक्ति में पूर्ण पर्यवसान कह सकते हैं|

पद्मावती के रूप में, राधा और सीता के उलट, एक पुरुष की प्रेम-साधना अपनी मंज़िल को पाती है| हम राम और कृष्ण की बाबत यह नहीं कह सकते कि सीता और राधा के प्रेम को पा लेना, उनके लिए अपने जीवन के अर्थ को पा लेना है| भक्ति की विचारधारा की यह एक बड़ी सीमा है| वह भक्त का आत्मसातीकरण करके, उसके अपने तौर पर होने के अर्थ और महत्व को नष्ट कर देती है| एक भक्त के तौर पर वह ईश्वर से भी बड़ा है, ‘राम ते बड़ा राम का नाम’| अगर उसके हृदय में राम नहीं, तो उसका होना न होना एक बराबर है|

पद्मावती और रतनसेन, इसके उलट, प्रेम मार्ग के पथिक हैं| इसलिए दोनों का अपनी-अपनी जगह और अपनी तरह का अर्थ और महत्व है| रतनसेन के जीवन में पद्मावती ही नहीं, नागमती भी है| उन दोनों पत्नियों में सौतिया डाह तक है| रतनसेन तब पद्मावती को, जो अन्योक्ति में आत्मा और ईश्वर की ज्योति का बिंब है, एक नीतिज्ञ गुरु की तरह सलाह देता है कि जैसे धूप और छांव एक दूसरे से मिलजुल कर रहती हैं, वैसे ही उसे भी रहने की आदत डाल लेनी चाहिए| इस तरह यह कृति अलौकिक अर्थों की अन्योक्ति भर होकर रह जाने की स्थिति से खुद को उबार लेती है| भक्त और भगवान के बीच जिस तरह के रिश्ते होते हैं, उनकी छाया यहां दिखाई नहीं देती| फिर कैसे कोई पद्मावतको भक्तिकाव्य की संज्ञा से अभिहित कर सकता है?

एक बात गौरतलब है| ‘पद्मावत’ का पूर्वार्ध तुरकी-अरबी समाज संरचनाओं के अधिक करीब है| वहां रतनसेन, रांझा और फरहाद में कोई फर्क नहीं है, हालांकि तीनों तीन अलग भूखंडों में प्रकट हुए| पर ‘पद्मावत’ का उत्तरार्द्ध भारत की पितृसत्तात्मक समाज की तरह, मर्यादा के ऐकांतिक रूप की वजह से पद्मावती के जौहर के लिए गुंजायश बनाता है| जबकि रांझे को इससे फर्क नहीं पड़ता कि जिस हीर में उसे खुदाई नूर दिखाई देता है, उसका जबरन विवाह किसी और से कर दिया गया है| वहां प्रेमपूर्ण हृदय, दूर की बात लगने वाली सीमाओं से आजाद है|

वारिस शाह की हीर पितृसत्तात्मक दमन का विकल्प खोजने की दिशा में अधिक गहराई में जाती है, जबकि जायसी की पद्मावती के लिए जरूरी है कि अगर उसे अपने प्रेमपूर्ण हृदय को बचाना है, तो उसे अपनी देह को चिता में जला कर राख कर देना होगा| तथापि हम पद्मावती को हीर तक पहुंचने-पहुंचाने वाले प्रेम मार्ग में मील का पत्थर कह ही सकते हैं|

(4) पद्मावत में क्लासिकल धर्मशास्त्रीय और नगरीय प्रभुत्व के बरक्स देशज बौद्धिकता की मौजूदगी वाला जो पहलू है, उसकी जड़ें सूफियों और नाथ-योगियों के बीच संभव हो पाए महासंवाद के कारण हैं|

यह महासंवाद उस दौर के हिसाब से वैश्विक होने के बावजूद देशज इस अर्थ में है कि यह भारत में मुमकिन हुआ|

नगर और धर्मशास्त्र की जो दुरभिसंधि है, इसने उस दौर में मौलवी-मुल्लाओं के इस्लाम, विहारों, तीर्थों, मंदिरों और मठों के आधार पर बौद्धों, वैष्णवों और शैवों को वहां ले जाकर खड़ा कर दिया था, जहां लोक अपनी मुक्ति के लिए समानांतर मार्गों को खोजने लगा था| देशज बौद्धिकता ऐसे मार्गों के भीतर से अपनी अभिव्यक्ति के लिए जगह बना रही थी| यह वह दौर था जब कबीर, नानक और रैदास के पीछे-पीछे ऐसे पंथ निकल आए, जो संगठित धर्मों के संप्रदाय से अलग तरह के लोक संस्कृति-मूलक यथार्थ से संबद्ध थे| इन्हें उस दौर में गठित हो रहे बल्लभ, रामानंद आदि के संप्रदायों से ही नहीं चिश्ती, सुहरावर्दी आदि सूफी सिलसिलों से भी भिन्न रूप में देखने की जरूरत है|

जायसी अशरफ पीर या मोहिउद्दीन की बात करने के बावजूद अपनी विचारधारा में उनसे बहुत अलग और आजाद ख्याल नजर आते हैं| यह वैसे ही है, जैसे कबीर को रामानंद से जोड़ने की लाख ब्राह्मणवादी कोशिशों के बावजूद वे स्वतंत्रचेता दिखाई देते हैं| उन्होंने सायास पंथ या मार्ग नहीं चलाए, परंतु लोक में उनकी स्वीकृति का सहज परिणाम ऐसे पंथों के रूप मे सामने आया|

निर्गुण संत और सूफी, शास्त्र और नगर की दुरभिसंधि को तोड़ कर लोक को और उसमें भी मनुष्य की केंद्रीय स्थिति को, समांतर प्रति-सत्ता की तरह स्थापित करते दिखाई देते हैं|

रामचंद्र शुक्ल इस बात को देख रहे थे, पर अपनी ब्राह्मणवादी, परंपरावादी और सांप्रदायिक दृष्टि के चलते इसे स्वीकार करने से हिचकिचा भी रहे थे| जायसी के बहाने निरगुनियों को लेकर उनकी दुविधा को निम्न पंक्तियों में देखिए-

‘साधारण धर्म और विशेष धर्म दोनों के तत्व को ये समझते थे| लोकमर्यादा के अनुसार जो सम्मान की दृष्टि से देखे जाते हैं उनके उपहास और निंदा ङरा निम्न श्रेणी की जनता की ईर्ष्यामय और अहंकार वृत्ति को तुष्ट करके यदि चाहते तो ये भी एक नया ‘पंथ’ खड़ा कर सकते थे पर इनके हृदय में यह वासना न थी| पीरों, पैगंबरों, मुल्लों और पंडितों की निंदा करने के स्थान पर इन्होंने ग्रंथारंभ में इनकी स्तुति की है और अपने को ‘पंडितों का पछलगा’ कहा है|’

शुक्ल जी जायसी की जिस विनम्रता को सत्य-तथ्य कथन बना कर पेश कर रहे हैं, उसका, यानी पंडित का पिछलग्गू होने का कोई प्रमाण जायसी में खोजे से नहीं मिलेगा| वे योगी रतनसेन को ‘भिखारी’ और रावण जैसे ‘ठग’ की तरह पेश करके भी उसे प्रेम से मालामाल कर देते हैं| यह ‘योग मार्ग’ का ‘प्रेम मार्ग’ की तरह अंतःरूपांतर है| ऐसा करने के लिए पद्मावती के मुख से जायसी जो बातें कहलवाते हैं, वे देखने लायक हैं-

हौं रानी तुम जोगि भिखारी| जोगिहि भोगिहि कौनि चिन्हारी॥ जोगी सबै छंद अस खेला| तू भिखारि तिन्ह माँह अकेला॥ एही भाँति सिष्टि सब छरी| एही भेख रावन सिय हरी॥

लोक की देशज बौद्धिकता का इससे अधिक सहज, साहसी और ईमानदार होना कठिन है|

इसकी तुलना सूर के ‘भ्रमर गीत’ प्रसंग से करें| वहां योग को निरस्त करके भक्ति को स्थापित करने का जो सांप्रदायिक प्रयास हुआ है, वह ज्ञान मार्ग की बौद्धिकता को खारिज करके दास्य भाव वाली भक्ति को स्थापित करने की बात है| इसका प्रयोजन यह है कि प्रेम मार्ग को भी सत्ता के पक्ष में नियोजित किया जा सके| सत्ता, यानी मथुरा नगर के शासक हो गए कृष्ण के भगवद स्वरूप पर और वैष्णववाद पर मोहर लगाई जा सके| कृष्ण भक्त मानसिकता वाले हमारे सुधी आलोचक कृष्ण और राम की सम्यक आलोचना को टालते रहने के लिए, भक्ति को लोकचित्त के कंठहार की तरह  प्रस्तुत करके, विश्वसनीय बनाए रखते हैं| इस मनोवृत्ति से हमारा अभी तक छुटकारा नहीं हो पा रहा है|

(5) हमारा सूफी काव्य सत्ता के भेदभाव और हिंसा के प्रतिपक्ष को खड़ा कर पाया, क्योंकि उसे हमारे देश में अपेक्षाकृत स्वतंत्रता प्रदान करने वाले हालात मिल सके| वैश्विक स्तर पर वैसे हालात उदार सूफीवाद को कहीं और नहीं मिले| सुदूर मध्य एशिया तक के इस्लामी देशों में इस्लाम के मुल्लों की कट्टरता का ऐसा वर्चस्व रहा है कि उसे चुनौती देने वाले को काफिर कहकर मनसूर की तरह सूली पर चढ़ाया जाता रहा है| यह भी एक वजह है कि मध्य एशिया से विस्थापित उदारमना सूफी भारत में अभी पूरी तरह पैर न जमा पाने वाले शासक समर्थित मुल्लाओं के इस्लाम से कुछ बेपरवाह रह सके| वे विविधताधर्मी लोक में अपने मूल स्थानों से अधिक मकबूल हो सके| हालांकि बाद के समय में चिश्तिया सरमद और दारा शिकोह जैसे लोगों का भी वैसा ही हश्र हुआ| तथापि यह भी हुआ कि उनके प्रभाव की वजह से अनेक मुसलमान शासक अकबर की तरह अगर धर्मनिरपेक्ष होने के करीब नहीं जा सके, तब भी अपनी नकेल मौलवी के हाथ में देने से खुद को बचाने की जब-तब कोशिश करते रहे|

जहां तक ‘पद्मावत’ का सवाल है, सत्ता के भेदभाव और हिंसा के प्रतिपक्ष की बात कृति के उत्तरार्ध में ही नहीं है, जैसा कि अमूमन समझा जाता है, अपितु पूरी कृति में अंतर्वस्तु की तरह मौजूद है| इस वजह से यह महाकाव्य अपने पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में किसी तरह की दरार का शिकार नहीं होता| कृति की संरचनात्मक एकता को अन्यत्र देखने की वजह से इस कृति पर अकसर अनेक प्रश्नचिह्न लगाए गए हैं| प्रेम और युद्ध के आख्यानों में विभाजन को इस कृति की एक सीमा या कमजोरी तक कह दिया जाता है| इसका निराकरण पूरी कृति को सत्ता के मानवीय प्रतिपक्ष के विविध रूपों की खोज की कृति के रूप में देखते हुए किया जा सकता है|

सुए के ङरा पद्मावती के अलौकिक रूप सौंदर्य के बखान के साथ हम सत्ता के बाहर के उस संसार में दाखिल होते हैं, जिसे सत्ता का परित्याग करके योगी हुए बिना पाना संभव नहीं| यह सत्ता की अपर्याप्तता की वजह से स्वेच्छा से चुना हुआ प्रतिपक्ष है| योगी की उच्चतर चेतना-भूमि सिंहलद्वीप के सत्ता परिदृश्य में हस्तक्षेप करते ही दंडनीय अपराध में बदल जाती है| पद्मावती के लिए योग्य वर सत्ता की दुनिया का राजकुमार ही हो सकता है, योगी नहीं| यहां योगी होना सत्ता की महत्वाकांक्षा से ऊपर उठ सकने वाले बेशर्त प्रेमी की भूमिका में आने जैसा है| भेदभाव वाली सत्ता एक योगी को राजकुमारी के प्रेम में पाकर हिंसक हो जाती है और उसे सूली पर चढ़ा देने को अपना न्याय बताती है| कथा के उत्तरार्द्ध में इन्हीं स्थितियों का तार्किक अंतर्विकास है| पद्मावती जैसी अद्वितीय सुंदरी का पति एक छोटे राज्य का स्वामी कैसे हो सकता है| आगे चलकर सत्ता की इसी भेदभाव वाली दृष्टि के कारण दिल्ली के बादशाह के अलावा और कोई नहीं है, जो पद्मावती का पति होने लायक है| प्रेम मार्ग के पथिक रतनसेन और पद्मिनी वस्तुतः इस सत्ता-न्याय का प्रतिपक्ष बन कर अपनी जान पर खेल जाते हैं| भेदभाव और हिंसा की प्रतिमूर्ति सत्ता जीत कर भी हारती है, और प्रेम मार्ग वाला प्रतिपक्ष हार कर भी जीत जाता है|

(6) अगर हम कहते हैं कि प्रेम ही संपूर्ण भक्ति काव्य का मूल संदेश है, तो हमें पहले यह तय कर लेना चाहिए कि भक्ति काव्य से हमारा अभिप्राय क्या है? भक्ति अगर किसी काव्यधारा की मूलभूमि है, तो केवल सगुण रामभक्ति और कृष्णभक्ति धारा की है| निर्गुण संत और सूफी भक्त नहीं हैं| ग्रियर्सन और रामचंद्र शुक्ल औपनिवेशिक दौर की मनोभूमि के मुताबिक लिखे-लिखवाए गए हिंदी साहित्य के इतिहास में भक्ति आंदोलन की अतिव्याप्ति दिखाने के लिए निरगुनियों और सूफियों को भक्त बनाने का भ्रामक प्रयास करते हैं| ज्ञानधारा और प्रेमधारा के निर्गुण और सूफी साहित्य में भक्ति की लेशमात्र उपस्थिति नहीं है| वे भक्ति करेंगे भी, तो किसकी? निर्गुण की भक्ति संभव ही नहीं है, उससे तो एकाकार ही हुआ जा सकता है| भक्ति के लिए द्वैत चाहिए, ऐसा द्वैत, जिसे अंत तक बचाया जा सके|

दूसरे, भक्ति का स्थायी भाव दास्य भाव है| प्रेम करने के लिए बराबरी चाहिए| स्वामी के प्रति समर्पण हो सकता है, पर आप उससे प्रेम नहीं कर सकते|

प्रेम अगर किसी काव्यधारा का मूलस्वर है, तो वह सूफी काव्य का है| वहां वह अपने सर्वाधिक सहज और लोकव्यापी रूप में हमारे सामने आता है| निर्गुण धारा में प्रेम वैयक्तिक चेतना के उत्कर्ष की तरह गहराई में उतरता है| गहराई और व्यापकता को एक दूसरे का पूरक कहा जाए, तो सूफी काव्य और निर्गुण काव्यधारा मिल कर हमारे मध्यकालीन प्रेम वृत्त को उसके मुकाम तक इसलिए ले जाते हैं, क्योंकि वे प्रेम को भक्ति के चंगुल में फंसने से बाल-बाल बचा लेते हैं|

 

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अजय तिवारी

प्रसिद्ध आलोचक|अद्यतन आलोचना पुस्तक इतिहास की रणभूमि और साहित्य’|

जायसी हिंदी मानस के पारखी हैं

(1) कबीर ‘राम की बहुरिया’ थे| वहां ब्रह्म पुरुष था, कहीं-कहीं परम-पुरुष था, लेकिन सूफियों के यहां पुरुष जीव हुआ और स्त्री ब्रह्म| यह नई बात थी| इसके कारणों पर विचार नहीं हुआ, वह अलग प्रसंग है| संभव है, जिस काबाइली समाज में इस्लाम का जन्म हुआ, स्त्रियों पर वहां जिस तरह की पाबंदियां थीं, उसकी प्रतिक्रिया सूफी कवियों की इस कल्पना में हो| लेकिन स्त्री-केंद्रिकता के कारण ‘पद्मावत’ मध्यकालीन समाज में स्त्री की भौतिक दशा और मनोदशा का बृहद दस्तावेज बन गया है, इसमें संदेह नहीं|

‘पद्मावत’ का संसार ठेठ भारतीय है| वह मध्यकाल के अंतिम चरण और आधुनिक काल के प्रारंभिक चरण की संधिरेखा पर स्थित समाज का वृत्तांत है| इस वृत्तांत में स्त्री की नाना छवियां और अनुभूतियां एक जगह दिखाई देती हैं| ऐसा किसी अन्य काव्य में नहीं है| एक तरफ नागमती का विरह सामंती संबंधों में घुटती स्त्री की वेदना का वृत्तांत है, तो दूसरी तरफ मानसरोदक वर्णन विवाह संस्था में स्त्री की यातना का और स्त्री की अपनी स्वच्छंद काम-केलि का उदाहरण है|

रत्नसेन के रनिवास में पद्मावती और नागमती का कलह, उनके बीच का सौतिया डाह स्त्री जीवन की विडंबना का एक और पक्ष है| जितना मार्मिक नागमती का विरह है, उतना ही विद्रूप दोनों का झगड़ा है| ‘मोह न नारि नारि के रूपा’, इस कथन का क्रियात्मक रूप ‘पद्मावत’ में है| नागमती अपनी प्रशंसा करती है, बदले में पद्मावती कहती है-

पदुमावति सुन उतर न सही| नागमती नागिन जिमि गही॥…
दुऔ नवल भर जोबन गाजीं| अछरी  जानु  अखारें  बाजीं॥
भा बाँहनि बाँहनि सौं जोरा| हिया हिया सों बाग न मोरा॥

अर्थात पद्मावती ने नागमती की बातों का जवाब नहीं दिया, नागिन की तरह उसे पकड़ लिया| दोनों युवतियां एक-दूसरे पर गरज रही थीं, मानो अप्सराएं अखाड़े में उतरी हों| पहले बाहें मिलीं, फिर हृदय की हृदय से टक्कर हुई, कोई बाग मोड़कर हटती नहीं थीं| स्त्रियों के मल्लयुद्ध का ऐसा वर्णन मध्यकालीन साहित्य में अन्यत्र दुर्लभ है| विरह की व्यथा में नागमती जैसे अपना रानीपन भूल गई थी, वैसे ही मल्लयुद्ध में पद्मावती भी अपना रानीपन भूल गई, बल्कि उसका ब्रह्मत्व भी विस्मृत हो गया| विचार कीजिए कि ब्रह्म का प्रतीक पद्मावती और दुनिया धंधा का प्रतीक नागमती साधारण नारियों की तरह गुत्थमगुत्था हो रही हैं! इसे भी लोकजीवन का एक पक्ष समझिए, भले यह उज्ज्वल पक्ष न हो|

स्त्री की वेदना, उसकी यातना, उसकी यौनिकता और उसकी परस्पर ईर्ष्या, इन बातों का संबंध पितृसत्ता के ढाँचे, पुरुष की प्रधानता और स्त्री की दासता से है| दोनों रानियों के लड़ने का समाचार पाकर रत्नसेन दौड़े आए| रत्नसेन को देखकर दोनों नारियाँ शांत हो गईं| रत्नसेन उन्हें समझा रहे हैं कि एक बार पति का मन जान लेने पर दोनों आपस में क्यों लड़ेंगी? उनके आपसी संबंध का कोई अर्थ नहीं है, उन्हें पति के मन से चलना है| पति का मन है कि दोनों उसकी पत्नियां रहें, इसलिए उन्हें आपस में प्रतिस्पर्धा और झगड़ा नहीं करना चाहिए|

पद्मावती के रूप का वर्णन सुनने के बाद रत्नसेन का मन हुआ कि वह उसे प्राप्त करे| वह योगी बनकर निकल पड़े| नागमती उसकी पत्नी थी| राजा का मन जानकर वह विलाप करने लगी| वह राजा के साथ जोगिनी बनने का प्रस्ताव करती है| इसपर रत्नसेन कहते हैं- तुम्ह तिरिया मति हीन तुम्हारी| मूरुख सो जो मतै घर नारी/राघौ जौं सीता सँग  लाई| रावन हरी कवन सिधि पाई| (पद्मावत)

अर्थात स्त्री की मति हीन होती है, उसकी बात मानने वाला पुरुष मूर्ख होता है| सीता की बात मानकर राघव अपने साथ उन्हें ले गए, आखिर रावण ने उनका हरण कर लिया, राम को कौन-सी सिद्धि मिली?

यह सामंती पितृसत्ता का स्त्री-संबंधी दृष्टिकोण है| जायसी इस विवशता को भली भाँति पहचानते हैं| इसलिए वे स्त्रियों के संघर्ष और स्वप्न को, उनके स्वतंत्र संसार को भी बड़ी सहानुभूति से चित्रित करते हैं| तुलसी से पहले स्त्री की भयावह दासता को जायसी ने लक्षित किया था| तुलसी के राम जायसी के रत्नसेन नहीं हैं| इसलिए वे स्त्री की मति को हीन नहीं मानते, बल्कि अधम मानी जाने वाली नारियों का सम्मान और उद्धार करते हैं| इस दृष्टि से भक्ति साहित्य अपने विभिन्न स्वरूपों में स्त्रियों के प्रति सामंती आग्रहों का प्रतिकार करता है| यह प्रतिवाद अवध की आख्या परंपरा से संबद्ध जायसी और तुलसी अधिक सचेत रूप में करते हैं| अपनी स्त्री-केंद्रिकता के नाते ‘पद्मावत’ में स्त्रियों के जीवन की जो अंतरंग करुण झांकी दिखाई देती है, वह उसे मध्यकालीन समाज में आधुनिकता का प्रारंभिक दस्ताबेज बनाता है|

(2) ऊपर जिस लोक जीवन के प्रसंग का उल्लेख हुआ है, वह भारतीयताबोध का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है| इसके अतिरिक्त जिस लोकप्रचलित कथा पर ‘पद्मावत’ आधारित है, वह इसका अत्यंत निर्णायक पक्ष है| लोककथाएं किसी समाज की सांस्कृतिक स्मृति का मूल्यवान दस्तावेज होती हैं| जायसी की विचारधारा पर सूफी प्रभाव के कारण उनके संदर्भ में भारतीयता-अभारतीयता का यह प्रश्न बहुत पहले से उठाया जाता रहा है| किंतु यह प्रश्न निरर्थक है| स्वयं सूफी चिंतनधारा पर भारतीय दर्शन, विशेषतः वेदांत, का प्रभाव स्वीकार किया जाता है| गीता के ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का मंसूर के ‘अनलहक़’ पर सीधा प्रभाव माना जाता है| इसलिए सांस्कृतिक जीवन में भारतीयता-अभारतीयता का प्रश्न उपादेय नहीं है| दूसरे, जन्म से मुसलमान होने के कारण जायसी पर सूफी प्रभाव सहज ही मान लिया जाता है| हालांकि रसखान भी मुसलमान थे और उनके बारे में यह समस्या नहीं उठती, क्योंकि वे कृष्ण के भक्त थे| जायसी पर सूफियों का प्रभाव था, इसे स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती| फिर भी विजयदेव नारायण साही ने काफी परिश्रम यह सिद्ध करने में लगाया है कि जायसी कवि थे, सूफी नहीं| मानो सूफी होने और कवि होने में अपरिहार्य विरोध है| इसपर बहस की गुंजाइश यहां नहीं है, लेकिन साही के लिए सूफी एक मतवाद है और मतवाद का संबंध विचारधारा से है, इसलिए उनके दृष्टिकोण से किसी सच्चे कवि में विचारधारा का प्रवेश नहीं हो सकता|

‘पद्मावत’ में जिन प्रसंगों, प्रतीकों और उपकथाओं का उपयोग किया गया है, उनका स्रोत जायसी का देखा-जाना हुआ समाज और जीवन है| कवि जहां का निवासी है, वह है ‘जायस नगर धरम अस्थानू|’ स्वभावतः उसमें अभारतीयता का प्रश्न नहीं है| जिस सिंहल द्वीप की कथा है, उसका पहला परिचय उसके बाजार से मिलता है| बाजार में तोते से पहले वेश्याएं हैं, ‘पुनि सिंगार हाट धनि देसा| कइ सिंगार तहँ बैठी बेसा॥’ धन हो, वेश्याएं न हों, यह असंभव है| भौतिक जीवन में जैसे धन के साथ वेश्याएं हैं, वैसे ही सूफी साधना के साथ योग साधना का प्रसंग लगा हुआ है| पद्मावती रूपी ब्रह्म को पाने के लिए नायक योगी बनकर घर से जाता है| उसके चित्रण में ही नहीं, साधना के वर्णन में भी योग और हठयोग का पूरा रूपक खड़ा किया गया है|

पूरी कृति पर सूफी धर्मसाधना का रूपक भले घटित न होता हो, सिंहलद्वीप के प्रतीक विधान में और रत्नसेन की साधना में योग का रूपक पूरी तरह लागू हुआ है| इसकी सुंदर व्याख्या वासुदेवशरण अग्रवाल ने की है|

भारतीय धर्मसाधना की चर्चा बहुत की जाती है लेकिन संस्कृति के आत्मिक मूल्यों पर जरा कम ध्यान दिया जाता है| पद्मावती इस महाकाव्य के केंद्र में है| उसका रूप-वर्णन सुनकर रत्नसेन उसे पाने के लिए विह्वल हो जाते हैं, वही रूप-वर्णन सुनकर अलाउद्दीन भी उसे पाने के लिए व्याकुल हो जाते हैं| जिस सिंहलगढ़ में पद्मावती रहती है, उसे रत्नसेन घेरते हैं और जिस चित्तौड़ में पद्मावती आई है, उसे अलाउद्दीन घेरते हैं| दोनों में यहां तक समानता है कि दोनों हठी हैं और एक प्रकार के हठ से काम लेते हैं| लेकिन हठ में अलग-अलग मूल्य की चेतना निहित है|

रत्नसेन हठयोग करते हैं, अपने को गलाकर शून्य कर लेते हैं| अलाउद्दीन शक्ति के गर्व से उपजा हठ करते हैं| एक में ‘प्रेम की पीर’ है, इसलिए आत्मत्याग की भावना है| दूसरे में ‘झूँठ हठ’, है इसलिए बलपूर्वक प्राप्त करने का अहंकार है| इसी फर्क के नाते रत्नसेन पद्मावती रूपी सिद्धि पाते हैं और अलाउद्दीन सिर्फ एक मुट्ठी राख़ पाता है – ‘छार उठाइ लीन्हि एक मूँठी| दीन्हि उड़ाइ पिरिथिमी झूठी॥ दोनों का अंतर भारतीय जीवन मूल्य और आक्रांता के मूल्यों का अंतर है| इसलिए जायसी की कृति में वर्णित जीवन यथार्थ से लेकर मूल्य-प्रणाली के गहन स्तर तक भारतीयता अंतर्निहित है|

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि तत्कालीन भारतीय समाज का निर्णायक प्रश्न था दो संस्कृतियों का संघर्ष और सामंजस्य| जायसी प्रेम के कवि हैं, ‘मुहमद कवि जो प्रेम का’, इसलिए उसकी कविता सुनने वाले को प्रेम की पीर ही मिलती है, ‘सुना जो पेम पीर गा पावा|’ लेकिन इस प्रेम की उपलब्धि के मार्ग का एक माध्यम युद्ध है, ‘हिंदू तुरकहिं भई लराई|’ यह हिंदू और मुसलमान की लड़ाई नहीं है, हिंदू (हिंदी) और तुर्क की लड़ाई है! मुसलमान जायसी भी थे, लेकिन यहां शासकों के लिए तुर्क कहा गया है, जिन्होंने प्रेम का मर्म नहीं समझा| इस रूप में यहां हिंदी और तुर्क के साथसाथ लोकजीवन और शासक संस्कृति का फर्क भी है|

हिंदू-मुसलमान तो एक समाज में घुल-मिल गए, एक संस्कृति के अंग बन गए; जैसे जायसी और तुलसी अवध की संस्कृति से तथा सूर और रसखान ब्रज की संस्कृति से अभिन्न हैं| किंतु शासकों के वंशज तुर्कपन नहीं भूले| दो संस्कृतियों के टकराव और सामंजस्य का यह प्रश्न स्वाधीनता आंदोलन के समय भी एक निर्णायक प्रश्न बना हुआ था| इसका फायदा औपनिवेशिक शासकों ने उठाया| जायसी की प्रेमकथा में दोनों के मिलन और टकराव का प्रसंग उनके दृष्टिकोण की ऐतिहासिकता का साक्ष्य प्रस्तुत करता है| यह ऐतिहासिकता अपने भारतीय समाज से अनन्य संबंध का द्योतक है| जायसी को किसी और तरह से अपनी भारतीयता का प्रमाण देने की जरूरत नहीं है|

इस संदर्भ में यह भी कहा जाना चाहिए कि जायसी ने अचेत रूप में, अनजाने ही ऐसा नहीं किया| वे अपनी विषयवस्तु की तरह अपनी कला के बारे में भी अत्यंत सचेत हैं| जैसे अपनी विषयवस्तु के बारे में उन्होंने कहा कि यह प्रेम के पीर की कथा है, वैसे ही अपनी कला के बारे में उन्होंने लिखा है, ‘बरन क दरपन भाँति बिसेखा| जेहि जस रूप सो तैसेहि देखा॥’

‘साहित्य समाज का दर्पण है’, यहां इस मान्यता की पूर्व घोषणा देखिए| वर्णन की विशेषता दर्पण की भांति होती है, जिसका रूप जैसा है, वह वैसा ही दिखाई देता है! यह एक प्रकार का यथार्थवाद है, जिसका अनुसरण जायसी कर रहे थे| इस यथार्थवाद का संबंध भारतीय-अभारतीय के विवाद से नहीं है, कवि की स्वाभाविक अनुभूति से है| इसी कारण प्रसंगों के विधान में ‘पद्मावत’ का षडऋतु वर्णन और नागमती वियोग का बारहमासा किसी और संस्कृति का आयात नहीं है| यह शुद्ध भारतीय परंपरा, मुख्यतः लोकसंस्कृति का उदाहरण है, जिसमें जायसी रचे-बसे थे| इसलिए उनके बारे में हमें भारतीयता-अभारतीयता के मुद्दे से छुटकारा पा लेना चाहिए|

(3) राधा, सीता और पद्मावती तीनों भारतीय समाज की विभिन्न नारी छवियां हैं| उनकी अपनी विशेषताएं हैं| एक स्तर पर तीनों आध्यात्मिक सत्ता हैं और दूसरे स्तर पर तीनों सामान्य स्त्री भी हैं| आध्यात्मिक सत्ता के रूप में वे कवि के विश्वास का वहन करती हैं, स्त्री-अस्तित्व के रूप में वे अपने समय की विशिष्ट भारतीय नारियां हैं| उनमें ग्रामीण समाज से सबसे कम संबंध पद्मावती का है| दिव्यता का आरोपण सबसे कम राधा के व्यक्तित्व पर है| प्रेम और शृंगार भाव का संयमित-मर्यादित रूप सीता में है| किंतु तीनों के चरित्र में अनेक बातें हैं जो उन्हें अपने समय के आगे, आज के लिए प्रतिनिधि चरित्र बनाती हैं| इसका मूल सूत्र प्रेम है|

राधा कृष्ण की विवाहिता नहीं हैं, उनका संबंध प्रेम का है| पद्मावती रत्नसेन की पटरानी नहीं है, प्रेम के वशीभूत उसे प्राप्त करने का तप किया जाता है| सीता न परकीया हैं, न दूसरी पत्नी, वे राम की ‘अतिशय प्रिय’ हैं| राधा को पाने के लिए कृष्ण कोई साहसी प्रयत्न नहीं करते; पद्मावती के लिए रत्नसेन को चिता पर बैठना पड़ता है, ‘ककनूँ पंखि जैस सर साजा| सर चढ़ि तबहिं जरा चह राजा/विरह आगि बज्रागि असूझा| जरै सूर न बुझाएँ बूझा|

अर्थात ककनू पक्षी की तरह राजा ने अपनी ही चिता बनाई, फिर उस पर चढ़कर जलना चाहा; विरह की आग अपार वज्राग्नि की तरह जल रही है| उसमें सूर (शूर/सूर्य) रत्नसेन जल रहा है| वह आग बुझाने से भी नहीं बुझती|

सीता के लिए राम को अपने आराध्य शिव का धनुष तोड़ना पड़ता है| सीता से राम का प्रेम पहले हुआ, विवाह बाद में| पुष्प वाटिका दर्शन के समय सीता के नूपुरों की ‘कंकन किंकिन’ ध्वनि सुनकर राम के हृदय में कामदेव अपनी दुंदुभि बजा चुके थे| (विचार कीजिए, राम के आसक्त मन में नूपुर की ध्वनि दुंदुभि की तरह बजती है!) प्रेयसी को पाने के लिए आराध्य के धनुष को तोड़ना बहुत साभिप्राय प्रसंग है| शिव का धनुष प्रयोग में नहीं था| प्रयोग से च्युत होकर कोई भी वस्तु पूज्य या प्रासंगिक नहीं रहती| वह रूढ़ि बन जाती है| जीवित सत्य सीता को पाने के लिए शिव के रूढ़ि बन चुके धनुष को तोड़ना राम का साहसी कार्य है| इसीलिए इस प्रसंग पर तुलसी ने लक्ष्मण-परशुराम संवाद की रचना की है| इसमें राम के कार्य का औचित्य स्थापित किया गया है| इस प्रकार, राधा, सीता और पद्मावती तीनों ही प्रेम के ऐसे प्रतिमान हैं, जो सामंती समाज के संपत्ति संबंधों से पृथक मानवीय संबंध की प्रस्तावना करते हैं|  

(4) भक्ति साहित्य के अध्ययन में ऐसा बंटवारा उचित नहीं है| देशज बौद्धिकता कवि के विचारों, प्रसंगों और चरित्रों से ही पहचानी जाएगी| सूर का काव्य-संसार किस अर्थ में कम देशज या अधिक क्लासिकल और धर्मशास्त्रीय है? बालपन की लीला का वर्णन सहज अनुभूति की निशानी है या शास्त्रीयता की? सूर की गोपियां हर प्रकार के बंधन से स्वतंत्र इतनी सहज हैं कि आचार्य रामचंद्र शुक्ल को उनमें शेली जैसा स्वच्छंद संसार दिखाई दिया| सीता राजकुल से संबद्ध हैं लेकिन गांव और जंगल में भटकते हुए क्या देशज नहीं हो जातीं?

तुलसी ने ‘रामचरितमानस’ के उत्तरकांड में बहुत-सा उपदेश दिया है, उसमें शास्त्रों की बातें दोहराई हैं| लेकिन अयोध्याकांड में, जहां उनकी सर्वश्रेष्ठ कविता है, उन्होंने ग्रामवासियों और वनवासियों के साहचर्य में किसी प्रकार की शास्त्रीयता की गुंजाइश नहीं रखी है| वहां अनुभव, कला और सौंदर्यबोध का देशज स्वरूप अपने उत्कर्ष पर है| जायसी का संसार तुलसी से कुछ पहले का अवध है, भाषा में अपेक्षाकृत अधिक देशज| लेकिन ‘पद्मावत’ के आरंभ में, स्तुतिखंड के प्रारंभिक दोहों में, दर्शन का जो सार प्रस्तुत किया गया है, वह कम धर्मशास्त्रीय नहीं है| कबीर और तुलसी के सगुण-निर्गुण की तरह जायसी का ब्रह्म भी ‘अलख अरूप अबरन’ है, प्रकट और अप्रकट सबमें व्याप्त है – अलख अरूप अबरन सो कर्ता| वह सब सों सब ओहि सों बरता/परगट गुपुत सो सरब बियापी| धरमी चीन्ह चीन्ह नहिं पापी|

राम भी सबके हृदय में नहीं रहते! जायसी का ‘कर्ता’ संसार की सारी चीज़ें बनाता है, फिर उनके आस्वादन के साधन ज्ञानेंद्रियां भी देता है| वास्तव में सभी भक्त कवि, वे किसी भी पंथ या धारा के हों, अपने युग की संवेदनशीलता के अनुरूप नई चिंताधारा लेकर चलते हैं| इसी तरह पारंपरिक ज्ञान को वर्तमान संदर्भ से जोड़कर जीवंत बनाया गया है| इसलिए वह देशज भी और आधुनिक भी| भक्ति की सभी शाखाएं धर्मशास्त्रीय रूढ़ियों से मुक्त होने का संघर्ष करती हैं| वे ब्रह्म, जीव और जगत के नए संबंधों की प्रस्तावना करती हैं जो देशज बौद्धिकता का उत्कृष्ट प्रमाण है| सूफी कवि जायसी इसका अपवाद नहीं हैं|

(5-6) दोनों प्रश्न संबद्ध हैं| इसलिए इनपर एक साथ विचार करना उपयुक्त है| युद्ध, हिंसा और शक्तिमद सामंती सत्ता की विशेषताएं हैं| इनका विकल्प है प्रेम| संपूर्ण भक्ति साहित्य इस प्रेम की महिमा का बखान करता है, ‘एकै आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय’, कबीर से लेकर ‘रामहि केवल प्रेम पियारा| जानि लेहु जो जाननिहारा’ तुलसी के राम तक| सर्वत्र प्रेम की महिमा के दर्शन होते हैं| सूफी कवि और जायसी तो प्रेममार्गी ही कहे जाते हैं| इस प्रेम का सामंती सत्ता से अंतर्विरोध है|

कट्टर इस्लामी शासक औरंगज़ेब ने सूफी संत सरमद को जामा मस्जिद के सामने क़त्ल कराया था और राजपूताने के हिंदू सामंत ने अपने सैनिकों द्वारा विष दिलाकर मीराँ की हत्या कराई थी| यह संघर्ष आज के सांप्रदायिक टकराव की तरह हिंदू-मुसलमानों के बीच नहीं था, बल्कि हिंदू शासक हिंदू भक्तों का क़त्ल कर रहे थे और मुस्लिम शासक मुस्लिम भक्तों का| यह सत्ता और संत का संघर्ष था| आजकल के सत्तासेवी संतों से वे अलग प्रकार के संत थे| सत्ता जितनी कट्टर होती जाती थी, उतना ही व्यापक समाज के हितों से विमुख होकर निहित स्वार्थों में सिमट रही थी; समाज की भावनाओं का प्रतिनिधित्व संत-भक्त-सूफी करते थे| प्रारंभिक आधुनिकता के दौर में यह एक प्रकार का वर्ग संघर्ष ही था|

कुछ सूफी सिद्धांतकार ज़रूर सत्ता के निकट हुए, लेकिन वे कवि नहीं हुए| सिद्धांतकारों का संबंध सामान्यतः विचारों से होता है, कवियों का संबंध मनुष्य के आपसी रिश्तों और अपनी भावनाओं से होता है| जैसे संत अपनी मनमर्ज़ी के मालिक होते हैं, वैसे ही कवि भी| वे सत्ता की परवाह नहीं करते| ‘संतन को कहा सीकरी सो काम’ कुंभनदास ने मानो सभी संतों की ओर से कहा था| तुलसी ने भी कहा था, ‘अब तुलसी का होहिंगे नर के मनसबदार|’ जायसी ने कहा था, ‘मोहि पर हँसै कि हँसै कुम्हारा|’ भक्त-संत-सूफी यह जानते थे कि समाज को जोड़ने वाली शक्ति घृणा नहीं, प्रेम है| रतनसेन ने प्रेम के द्वारा जो सजीव चित्तौड़ आबाद किया था, उसे बादशाह अलाउद्दीन की लिप्सा ने मरघट में बदल दिया –

जौहर मई इस्तिरी पुरुख मए संग्राम|
पातसाहि गढ़ चूरा चितउर भा इस्लाम॥

अर्थात जायसी उपदेशक की भूमिका नहीं अपनाते, लेकिन संकेत में अपनी बात अत्यंत व्यंजक ढंग से कह देते हैं| कथानक के ‘उपसंहार’ का यह अंश बहुत अर्थपूर्ण है-

धनि सो पुरुख जस कीरति जासू| फूल मरै पर मरै न बासू॥
केइं न जगत जस बेंचा केइं न लीन्ह जस मोल|
जो  यह  पढ़े  कहानी  हम  सँवरे   दो  बोल॥

अर्थात यश बेचा-खरीदा नहीं जाता, कमाया जाता है| जिसने कीर्ति अर्जित की है, वह पुरुष धन्य है| वह तो नहीं रह जाता, उसकी कीर्ति रह जाती है| जैसे फूल मर जाता है लेकिन उसकी सुगंध नहीं मरती| प्रेम की पीर का अनुभव कराने वाली इस कहानी को पढ़िए तो कवि के लिए दो शब्द जरूर कहिए!

यह अपने कवित्व पर दृढ़ विश्वास है| उस कवित्व में प्रेम की पीड़ा का निवास जायसी के दृष्टिकोण का सबल उदाहरण है|

 

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अवधेश प्रधान

प्रसिद्ध समालोचक| पूर्व प्रोफेसर, बनारस हिंदू विश्वविद्यालय| अद्यतन पुस्तक सीता की खोज’|

पद्मावत क्लासिक प्रभुत्व के समानांतर देशज बौद्धिकता को प्रतिध्वनित करता है

(1) जायसी ने ‘पद्मावत’ के आरंभ में ‘अलख अरूप अबरन सो करता’ की स्तुति की है| इस महाकाव्य के जन्म खंड में राजा गंधर्व सेन की कन्या के रूप में रानी चंपावती के गर्भ से जिस पद्मावती के जन्म का वर्णन किया गया है, वह ज्योति पहले आकाश में निर्मित हुई (प्रथम सो जोति गगन निरमई), फिर वही पिता के माथे की मणि हुई, फिर माता के घट में आई! जैसे झीने आंचल में दिया चमकता है, वैसे ही वह उजियाला मां के हृदय में से दिखाई देने लगा- ‘जस अंचल झीने मंह दिया, तस उजियार देखावै हिया’| जो शिव लोक की मणि थी वही सिंहलद्वीप का दीपक बनकर पैदा हुई थी (५०/३/१)|

स्त्री के रूप में ईश्वर के सौंदर्य का परम अधिष्ठान ‘पद्मावत’ में हुआ है| पद्मावती बारह बरस की किशोरी हुई तो पिता ने उसके साथ ‘रस केलि’ करने वाली सखियां-सहेलियां जुटा दीं| उसके अंगों की सुवास संसार में भिद गई- ‘जग बेधा तेइ अंग सुबासा’| तमाम परोक्ष और सूक्ष्म आध्यात्मिक संकेतों के साथ जायसी द्वारा पद्मावती का मांसल सौंदर्य वर्णन बहुत स्पष्ट है| ‘पद्मावत’ में स्त्री के रूप में ईश्वर केवल अलौकिक सौंदर्य की सजीव मूर्ति ही नहीं, प्रेम का आलंबन भी हुआ है| राजा रत्नसेन उसके प्रेम में जोगी हो गया| सोलह सौ जोगी साथियों के साथ उसका सिंहलद्वीप के लिए निकल पड़ना, तरह-तरह की बाधाओं, कष्टों और परीक्षाओं से गुजरना उसकी तपस्या है| पार्वती ने जिस तरह उसके प्रेम की परीक्षा ली, उसी तरह लक्ष्मी ने पद्मावती के प्रेम की भी ली| भक्त जैसे भगवान के लिए तड़पता है, वैसे ही भगवान भी भक्त के लिए|

इश्क हकीकी (आध्यात्मिक प्रेम) को जाने वाला रास्ता इश्क मजाजी (सांसारिक प्रेम) से होकर जाता है| संसार में उसी ‘एक’ की सौंदर्य-विभा विविध रूपों में छाई है|  संसार के सारे प्रेम संबंध उसी ‘एक’ प्रेम-सागर की एक बूंद से सराबोर हैं| तरह-तरह की व्याख्याओं के बावजूद ‘पद्मावत’ में ईश्वर जब एक बार आसमान से उतर कर धरती पर स्त्री के रूप में जन्म ले लेता है तो फिर उसके रूप, यौवन, पूर्वराग, उत्कंठा, मिलन, विरह – सब पर धरती के ऐहिक-दैहिक नियम लागू होने लगते हैं|

हीरामन द्वारा रत्नसेन के आगे और राघव चेतन द्वारा बादशाह अलाउद्दीन के आगे पद्मावती के सौंदर्य का शिख-नख वर्णन हो, चाहे पद्मावती और रत्नसेन की सुहागरात का सरस प्रसंग हो, चाहे देवपाल की दूती के बहलाने-फुसलाने पर पद्मावती की फटकार और अपनी पति-भक्ति की घोषणा हो, चाहे अपनी सौत रानी नागमती से उसका लड़ना-झगड़ना हो, चाहे नागमती के साथ पति की चिता पर बैठकर सती हो जाना हो – सबमें सांसारिकता का रंग ही प्रगाढ़ है, यह ईश्वर को स्त्री रूप में ला कर ही संभव था| सूफी रहस्यवाद ने पद्मावती को प्राय: उदात्त के धरातल पर ऊंचे उठा रखा है, लेकिन ऐहिकता के रंग में जायसी की वाणी कई बार अश्लील हो उठी है| उसी तरह जैसे कृष्ण भक्तिकाव्य या रामभक्ति काव्य परंपरा के रसिक संप्रदाय में|

(2) पद्मावत का भारतीयताबोध सबसे पहले तो उसकी कहानी में है जो फारस की यूसुफ-जुलेखा, शीरी-फरहाद या लैला-मजनूं के बजाय ठेठ हिंदुस्तान से ली गई है| दूसरे, प्रेम कहानी में प्रेम की तीव्रता और व्याकुलता फारसी कविता की तरह केवल नायक में ही नहीं, वरन भारतीय काव्य परंपरा के अनुकूल नायिका में भी दिखाई गई है| आचार्य शुक्ल ने लक्ष्य किया है कि ‘पद्मावत’ की प्रेमगाथा फारसी प्रेमागाथाओं की तरह लोकपक्ष शून्य नहीं है| न केवल उसकी मुख्य कथा लोककथा पर आधारित है, बल्कि उसकी काव्य पद्धति, छंदबंध, अलंकार विधान, बाह्य परिवेश और सांस्कृतिक मूल्य-मान पर भी भारत की छाप लगी हुई है| हीरामन सुए के मुंह से पद्मावती के रूप की प्रशंसा सुनकर रत्नसेन का जोगी के भेष में उसको पाने की जुगत में निकल पड़ना, महादेव और पार्वती द्वारा दोनों का प्रेम में सहयोग करना, रत्नसेन के प्रेम की परीक्षा के लिए पार्वती का अप्सरा रूप धारण करना, सिद्धि-गुटिका, महादेव-पार्वती का भांट-भांटिनी का रूप धारण करना, पक्षी द्वारा नागमती का संदेश लेकर चित्तौड़ से सिंहलद्वीप जाना, समुद्र का याचक और ब्राह्मण रूप धरकर आना, लक्ष्मी द्वारा पद्मावती का रूप धरकर रत्नसेन की परीक्षा लेना आदि कथानक-रूढ़ियों का कुशल प्रयोग भी जायसी के भारतीयताबोध का सबूत है| उनका सहजयानी सिद्धों और नाथपंथी योगियों की साधना से परिचय है| भारतीय वास्तु, योग, रसशास्त्र, व्रत-पूजा, देवमाला, ॠतुचक्र, ग्रह-नक्षत्र आदि से अच्छी तरह परिचित हैं| पद्मावत में रामकथा के भी अनगिनत संदर्भ हैं| नखशिख वर्णन, युद्ध और सेना, बादशाह भोज, विवाह आदि के वर्णन भारतीय काव्य परंपरा के अनुसार हैं| चित्तौड़ से कलिंग के रास्ते में पड़ने वाले चंदेरी, विजयगढ़, गोंडवाना, गढ कंटक, रतनपुर आदि स्थानों और प्रदेशों का जिस क्रम से उल्लेख किया है उससे पता चलता है कि जायसी को राजस्थान से उड़ीसा के बीच के भूगोल की ठीक-ठीक जानकारी थी| अलाउद्दीन का चित्तौड़ आक्रमण, आल्हा-ऊदल का प्रतिरोध और पद्मिनी का जौहर – इस इतिहास का भी उनको सही ज्ञान था|

‘पद्मावत’ के भारतीयता-बोध का सबसे मजबूत आधार है उसकी ठेठ अवधी भाषा में अनुस्यूत अवधी लोकजीवन और अवधी लोक संस्कृति| इस महाकाव्य में अभिव्यक्त वृक्ष-वनस्पति, बाग-बगीचे, कुएं, बावड़ी-तालाब, फूल-फल- अन्न, पनघट, पक्षी, हाट-बाट, घर-बार और उसके संबंध, ॠतुचक्र – वर्षा, गर्मी, जाड़ा, बारहमासा, तीज-त्योहार, नीति-रीति, खान-पान, वस्त्राभूषण, मान्यताएं, सूक्तियां और लोकोक्तियां- सब कुछ मिलकर एक ऐसी जनपदीय सांस्कृतिक भूमि का निर्माण करती हैं जिस पर हिंदू और मुसलमान, वेदांत और सूफीमत एक दूसरे से गले मिलते हैं|

पद्मावत का सिंहलद्वीप वर्णन बीच-बीच में तमाम आध्यात्मिक रहस्य-छायाओं के बावजूद अवध जनपद के रंग में रंगा हुआ दिखाई देता है| उनकी सूफी प्रेम-साधना भारतीय धर्म साधना का ही एक और अध्याय है|

(3) तुलसीदास की सीता, सूरदास और कृष्ण भक्त कवियों की राधा और जायसी की पद्मावती – हिंदी भक्तिकाव्य के तीन विशिष्ट स्त्री-चरित्र हैं, जिनकी रचना एक दीर्घ कवि परंपरा ने की है| इनमें सीता का चरित्र तो वाल्मीकि के समय से ही संस्कृत कविता में रामचरित का अविच्छिन्न अंग रहा (सीतायाश्चरितं महत्) है और लोक परंपरा में भी वह कई बार केंद्र में स्थापित दिखाई देता है| राधा की खोज सीता के बहुत बाद हुई| श्रीमद्भागवत में राधा का कोई उल्लेख नहीं है| वह एक बारगी जयदेव के गीतगोविंद में प्रकट होती हैं और फिर तो उनको लेकर भारतीय साहित्य में गीत-काव्य की वह स्रोतस्विनी बह चलती है जो चंडीदास-विद्यापति से होती हुई सूरदास के यहां रस का सागर बन जाती है| पंडितों का कहना है कि राधा का उद्गम बंगाल के लोकमानस से हुआ है| जो हो, अब जनमानस में राम और कृष्ण विष्णु के अवतार हैं और सीता राम की और राधा कृष्ण की शक्ति के रूप में प्रतिष्ठित हैं|

पद्मावती पूरी तरह जनपदीय जनमानस की उपज है| उसकी कथा इतिहास में घट चुकी है और लोक में तरह-तरह से कही और गाई जाती रही है| जायसी ने उसके जन्म से लेकर सती होने तक उसके समूचे चरित्र में दिव्य ज्योति की झलक दिखलाई है, तो भी वह देवी के बजाय मानुषी ही अधिक दिखलाई देती है| जायसी ने उसे अलौकिक सौंदर्य की उस ‘पारस ज्योति’ के रूप में प्रस्तुत किया है जिसके स्पर्श से विश्व सौंदर्य के समस्त रूप उद्भासित हो उठते हैं| फिर भी इतने से ही संतोष न करके उन्होंने उसके अंग-प्रत्यंग का विधिवत शिख-नख वर्णन किया है| पति-निष्ठा और सती-धर्म में भी वह खरी उतरती है, लेकिन सीता के उदात्त व्यक्तित्व तक पद्मावती क्या, किसी भी स्त्री चरित्र की पहुंच नहीं हो सकती| सीता गौरी का पूजन करके राम को ही वर के रूप में पाने की प्रार्थना करती हैं; पद्मावती भी शिवमंडप में तीन बार प्रणाम करके अपने लिए योग्य वर की प्रार्थना करती है| सीता रावण को फटकारती हैं, उसकी कैद में भी प्रलोभन और आतंक के आगे अडिग रहती हैं| पद्मावती राजा देवपाल की ब्राह्मणी दूती को फटकारती है| वह बादशाह की जोगिनी दूती के जाल-फरेब में नहीं आती|

पद्मावती राजा रत्नसेन को बादशाह की कैद से छुड़वाने के लिए गोरा-बादल से निवेदन करती है| सीता हनुमान की सहायता से रावण की कैद से छूट निकलने का प्रस्ताव अस्वीकार कर देती हैं| सीता मर्यादा की पराकाष्ठा हैं तो राधा प्रेम की| राधा का प्रेम ‘कुल की कानि’ और ‘वेद की मर्यादा’ दोनों का अतिक्रमण कर जाता है| उनका प्रेम किसी भी सामाजिक-पारिवारिक संबंध की परिभाषा से परे है|

उनके जैसा ‘लिरिकल’ व्यक्तित्व शायद ही किसी स्त्री का हो| वह किसी प्रबंध काव्य के चौखटे में फिट न हो सका और शताब्दियों तक गाई जाने के बावजूद राधा की प्रेमलीला नि:शेष न हो सकी| राधा और सीता की परंपरा साहित्य में सूर-तुलसी के बाद भी चलती रही, लेकिन ‘पद्मावत’ के बाद पद्मावती फिर दिखाई नहीं पड़ी!

(4)‘पद्मावत’ क्लासिकल प्रभुत्व के समानांतर देशज बौद्धिकता को सबसे पहले तो इस अर्थ में प्रतिध्वनित करता है कि जायसी ने उसकी रचना अभिजात वर्ग की भाषा फारसी में न करके गांव-देहात की बोली ठेठ अवधी में की| फारसी तब बादशाहों, मौलवियों और विद्वानों की मान्य भाषा थी| समाज, सरकार और दरबार में इस भाषा का दबदबा था| दूसरे, पद्मावत फारसी की ‘शाहनामा’ और ‘युसूफ-जुलेखाँ’ जैसी क्लासिक मसनवियों से भी अलग है| उसके उत्तरार्द्ध में अलाउद्दीन खिलजी की चित्तौड़-विजय की गाथा का स्वर अमीर खुसरो के फारसी आख्यान ‘खजायनुल-फतूह’ से भिन्न ही नहीं, बिलकुल उलटा है| कहां खुसरो की विजय-गाथा की गर्व-भावना से ओतप्रोत निष्करुण सांप्रदायिक द़ृष्टि और कहाँ पद्मावत की प्रेम और करुणा से ओतप्रोत मानवीय विषाद-द़ृष्टि!

जायसी न किसी मठ या खानकाह के दायरे में थे, न किसी दरबार के| न राजसत्ता के पाबंद, न धर्मसत्ता के| किसी मान्यता प्राप्त सूफी सिलसिले की मान्य सूची में भी उनका नाम अब तक नहीं पाया गया| किसी भी धर्म और शास्त्र की मर्यादा के परे वे एक ऐसी प्रेम-वाटिका के वासी थे जिसमें संसार भर के पक्षी किसी एक पक्ष के पैरोकार न होकर अपनी-अपनी भाषा में एक ही ईश्वर का नाम लेते थे|

‘पद्मावत’ की कहानी सिंहलद्वीप, चित्तौड़ और दिल्ली के तीन नगरीय छोरों को छूती हुई चलती है लेकिन उसकी आत्मा का विस्तार अवध के गांवों में है| वर्णन तो उसमें गढ़ का, बाजार का, घोड़ों-हाथियों-हथियारों सहित सेना का, युद्ध का भी है और बड़े विस्तार से है, लेकिन बाग-बगीचे, पेड़-पालों, सरोवर, वन, षड् ॠतु और बारहमासे के साथ सखियों-सहेलियों की किलोल और पद्मावती का रूप, हिरामन सुअटा का संदेसा, नागमती का विरह और संदेसा और अंत में तमाम युद्ध-कोलाहल के बाद पद्मावती और नागमती का जल कर राख हो जाना, रीति-रिवाज, बोली-बानी – सब कुछ इतना देशज है, इतना ‘घरू’ है कि नगर के सोना-चांदी के बजाय गांव-देहात की सोंधी मिट्टी का ही वैभव यहां से वहां तक छाया हुआ दिखाई देता है| नगर का प्रभुत्व दिल्ली के बादशाह की प्रचंड और उद्दंड शक्ति में है, चित्तौड़-विजय के बाद उसके हाथ एक मुट्ठी राख के सिवा कुछ नहीं लगता|

(5) विद्वानों ने सूफी मत के विकास में कुरान, मुहम्मद साहब का जीवन, ईसाई धर्म, नव-अफलातूनी मत, जरथुस्त्र धर्म के अलावा वेदांत और बौद्ध धर्म के प्रेरणा-स्रोतों का उल्लेख किया है| सूफियों ने सबसे रस ग्रहण किया और मनुष्य के हृदय को तृप्त करने वाली प्रेमभावना को लेकर अपनी साधना का मार्ग बनाया| इस प्रेमभावना का उद्गम कुरान के इस वचन में है, ‘वह (ईश्वर) उन्हें (बंदों के) प्यार करता है और वे उसे प्यार करते हैं; इसीलिए उसका एक नाम वदूद (प्रेमी) भी है|’ सूफियों ने प्रेम को ही सत्यज्ञान, आध्यात्मिक अनुभूति और नैतिकता का आधार बताया| उनके लिए ईश्वर निराकार है और साकार भी| उन्होंने संसार की सभी वस्तुओं और क्रियाओं में ईश्वर की विभूति के दर्शन किए| उन्होंने कठोर न्यायकर्ता और सृष्टि के स्वामी ईश्वर के प्रति भय और आतंक पैदा करने के स्थान पर परम सौंदर्य और आनंद का अधिष्ठान किया| उन्होंने ईश्वर के प्रति प्रेम और आकर्षण का धर्म चलाया, इसीलिए ईश्वर की अवतारणा परम रूपवती युवती के रूप में हुई, हालांकि राबिया और उनकी सहेली स्त्री-साधिकाओं ने ईश्वर को प्रिय पति के रूप में देखा|

संगीत सूफियों की प्रेम-साधना में सहायक था| इसलिए सूफियों ने संगीत को साधना का अंग बना लिया| संगीत की एक नई शैली ही सूफी संगीत के रूप में विकसित हो गई|

सूफियों ने किसी मत का खंडन नहीं किया और सत्य की खोज में कई सूफी भारत में आते रहे| कहा जाता है कि हल्लाज मंसूर भारत आए थे| सूफियों ने कुरान, अल्लाह और मुहम्मद साहब पर अपनी आस्था बार-बार दुहराई, फिर भी इस्लाम ने उन्हें कभी पक्की सनद न दी| धर्म के आसन से उन्हें ‘जिन्दीक’ घोषित करके प्राणदंड दिया गया| जितना ही उन्हें सताया गया, जनता में उनकी लोकप्रियता उतनी ही बढ़ती गई| सत्ता ने उनका रक्त बहाया और उन्होंने अपने रक्त से संसार को और भी अनुरक्त करके प्रेम का प्रसार करना जारी रखा|

आचार्य शुक्ल ने लिखा है, ‘खलीफा लोगों के कठोर धर्मशासन के बीच भी सूफियों की प्रेममयी वाणी ने जनता को भावमग्न कर दिया|’ हल्लाज मंसूर ने अपनी प्रगाढ़ आध्यात्मिक अनुभूति की दशा में स्वयं का परमात्मा से तादात्म्य अनुभव करते हुए कहा था, ‘मैं वही हूँ जिसको प्यार करता हूँ, जिसे प्यार करता हूँ वह मैं ही हूँ| हम एक शरीर में दो प्राण हैं| यदि तू मुझे देखता है तो उसे देखता है और यदि उसे देखता है तो हम दोनों को देखता है|’ इसी दशा में उनके मुंह से निकलाअनल हक (अहं ब्रह्मास्मि) और यह सत्ता को बर्दाश्त न हुआ|उन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया| पद्मावत में इसका संदर्भ आता है- ‘सूरी देखि हँसा मन्सूरू’| शाहजहां का बड़ा बेटा दारा शुकोह, धर्म जिज्ञासु और धर्म-दर्शन का गंभीर अध्येता था| उसने उपनिषदों का ‘सिर्रे अकबर’ नाम से फारसी में अनुवाद किया था| वह कादिरिया सिलसिले में दीक्षित और सूफी मत का कायल था| औरंगजेब ने अपने इस बड़े भाई का कत्ल करवा दिया| इसी दौर में एक बड़े सूफी संत थे- सरमद| औरंगजेब ने इनका भी सिर कलम करवा दिया| कहते हैं, उनका सिर दिल्ली की गलियों में ‘अनल हक’ ‘अनल हक’ कहता लुढ़कता फिरा|

(6) रामविलास शर्मा को भक्ति काल को निर्गुण-सगुण धारा में, निर्गुण धारा को ज्ञानाश्रयी और प्रेमाश्रयी शाखा में, सगुण धारा को रामभक्ति शाखा और कृष्णभक्ति शाखा में बांटकर देखना स्वीकार्य न था| वे मानते थे कि हिंदी की समूची भक्ति कविता प्रेमाश्रयी है| समूचे भक्ति काव्य का मूल संदेश प्रेम है – यह बात बिलकुल सही है| कबीर आदि निर्गुनिया संतों में ज्ञान चर्चा कुछ अधिक हो सकती है, उनमें नाद-बिंदु, सुरति-निरति, इड़ा-पिंगला-सुषुम्ना, मूलाधार-सहस्रार आदि की योग-चर्चा भी है, लेकिन उनकी बानी नाथपंथी योगियों और बौद्ध सिद्धों की बानियों से इसीलिए भिन्न है कि उसमें ईश्वर को भक्ति का विषय बनाकर एक आत्मीय और मानवीय रूप दिया गया है|

कबीर ईश्वर को मां के रूप में और स्वयं को बालक के रूप में कल्पित करते हैं और उससे मां की तरह अपने सभी अवगुण क्षमा कर देने का अनुरोध करते हैं| कई बार राम की बहुरिया बनकर विरह में वेदना के और मिलन में आनंद के गीत गाते हैं| रैदास कहते हैं कि उनके प्रभु चंदन हैं और वे पानी, प्रभु दीपक हैं और वे बाती| दादू केशव के विरह में तड़प रहे हैं, उनकी आंखें डबडबाई हुई हैं| नानक विनय और भक्ति से भरे-भरे राम के आगे आते हैं और अपना हृदय निश्छल भाव से खोल देते हैं|

जहां भगवान को प्रेमी या पति के रूप में रखकर संतों ने मधुर या दांपत्य भाव से आत्म निवेदन किया है वहां सूफी प्रेम साधना का रंग मिला हुआ दिखाई देता है| संयोग हो या वियोग -दोनों दशाओं में संतों का आदर्श है ‘निहकरमी’ पतिव्रता|

संतों की बानी में भगवत प्रेम के रूप में उज्ज्वल मानव प्रेम व्यक्त हुआ है| भक्ति ने एक ऐसी भावभूमि की रचना की थी, जहां संपूर्ण मनुष्य जाति लिंग, कुल आदि की सीमाओं से निकल कर ‘हरि’ के ‘जन’ हो गए| नानक द्वारा प्रवर्तित सिक्ख पंथ में सभी लोग गुरु के ‘सिक्ख’ (शिष्य) मात्र रह गए| सबकी ‘सिंह’ पदवी हुई| सूफियों के लिए तो प्रेम ही सर्वस्व है|

जायसी ने ‘पद्मावत’ में योग, रसायन आदि की चर्चा की हो, उनकी आत्मा तो ‘मानुस पेम भएउ बैकुंठी’ ही है| निर्गुनिया संतों की तुलना में सूफियों का, विशेष रूप से जायसी का प्रेम-निरूपण अधिक मूर्त, सजीव और भरा-पूरा है| हिंदू और मुसलमान उनकी द़ृष्टि में ‘बिरिछ एक लागी दुइ डारा’ हैं| दोनों माता के रक्त और पिता के बिंदु से पैदा हुए हैं| कृष्ण भक्तों ने कृष्ण की विविध लीलाओं में मानव जीवन के वात्सल्य, सख्य, माधुर्य आदि विविध भावों के गीतों की रस-धारा बहाई है| उनमें अंधे कवि सूरदास सर्वश्रेष्ठ हैं, लेकिन विरह, प्रेम की वेदना और स्त्रीत्व की स्वाधीन, निर्बंध और अकुंठ अभिव्यक्ति की द़ृष्टि से मीरा अतुलनीय हैं| वहीं रसखान जैसे कुलीन मुसलमान का ‘बादसा बंस की ठसक’ छोड़कर ब्रजभूमि की करील कुंजों पर निछावर हो जाना भी खास मानी रखता है| तुलसी के राम भी केवल ‘एक भगति कर नाता’ मानकर केवट, निषाद, गुह, कोल-किरातों को गले लगाते हैं, शबरी को मान देते हैं, गीधराज जटायु को अपने पिता का दर्जा देते हैं और वानरों-भालुओं को मित्र का| ‘भगतिवंत अति नीचउ प्रानी’ उन्हें प्राणों के समान प्रिय हैं| उन्हें काशी के पंडितों ने बहुत सताया; उनकी निंदा की| उन्होंने कहा था, ‘लोग कहैं पोच, सो न सोच न संकोच, मेरे, ब्याह न बरेखी, जाति पाँति न चहत हौं’| अब्दुर्रहीम खानखाना से उनकी मैत्री प्रसिद्ध है| एक समय भक्तिकाव्य ने प्रेम का संदेश देकर एक नए मानवीय और लोकतांत्रिक वातावरण की सृष्टि की थी|

 

एन 1/65 ई 52, शिव प्रसाद गुप्त कालोनी, सामने घाट, नगवा, वाराणसी-221008, मो.8400925082

वैभव सिंह

चर्चित रचनाकार और आलोचक| अंबेडकर विश्वविद्यालय, दिल्ली में अध्यापन| अद्यतन पुस्तक :‘कहानी : विचारधारा और यथार्थ’|

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हिंदूमुस्लिम एकता को सूफियों ने संभव बनाया है

(1) भक्ति आंदोलन में ईश्वर की रूपकला के बारे में अपार विविधता है| इस आंदोलन ने जातिप्रथा और पुरोहित वर्ग के आतंक के विरुद्ध लोगों को एकजुट किया था| ईश्वर को पुरोहित वर्गों व मंदिरों के एकाधिकार से मुक्त कराया था| कबीर सिद्धों-योगियों की भांति ईश्वर को अंतस में बताते हैं और जायसी भी ईश्वर के अनुभव को अंतर्जगत का हिस्सा मानते हैं| पर जायसी की विशिष्टता यह है कि वह एक परंपरा से चली आती लौकिक कथाओं का प्रयोग कर उसमें साधक, माया, शैतान, गुरु, ईश्वर आदि की पारलौकिक धारणाओं को भी मिलाते हैं| इसी के अंतर्गत उन्होंने ‘पद्मावत’ की सारी कथावस्तु को अन्योक्ति कहा है| इसमें रत्नसेन जीवात्मा तथा पद्मावती परमात्मा के रूप में है| लौकिक प्रेम तथा ईश्वर प्रेम मिल गए हैं|

लेकिन मात्र इस अन्योक्ति के आधार पर अगर यह मानें कि जायसी ने स्त्री को ईश्वर के रूप में देख स्त्री-समाज को गरिमा प्रदान की है तो मुझे यह कथन उचित नहीं लगता| इसका कारण यह है कि एक तो ‘पद्मावत’ भले सूफी भक्ति साधना का ग्रंथ हो, पर वह जिस लौकिक कथा पर आश्रित है, वह कथा जायसी से पहले ईश्वर-अध्यात्म आदि से मुक्त रही है| लोग जायसी के पहले भी अध्यात्म की चर्चा किए बगैर इस लोककथा को सुनते व सुनाते थे| वहां पद्मावती एक पराधीन हिंदू स्त्री है जो राजतंत्र की पितृसत्ता के अधीन है| वह सामान्य स्त्रियों की तरह रोती-कलपती है, प्रेम करती है और अपने अधिकार को प्राप्त करना चाहती है| ‘पद्मावत’ की अन्योक्ति संरचना में अलौकिकता के स्थान पर लौकिक कथा का प्रभाव अधिक है| इसलिए पद्मावती केवल प्रतीक रूप में ईश्वर है, पर वह वास्तव में वैसी चित्रित नहीं की गई है|

जायसी ने शुद्ध प्रबंध के भीतर आध्यात्मिक क्षेत्र को तैयार किया है, पर सारी कथा को भगवत्प्रेम में नहीं घटाया जा सकता| महाकाव्य की कहानी को अन्योक्ति कहा है, पर प्रतीक विधान के स्तर पर अटपटापन है|

रामविलास शर्मा ने अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘आचार्य रामचंद्र शुक्ल और हिंदी आलोचना’ में लिखा है कि जायसी की कथा में कुछ ऐसी मौलिक कमजोरियां हैं जो अलौकिक प्रेम का निर्वाह नहीं होने देती हैं| पद्मावती ईश्वर है तो वह रोती-कलपती, ईर्ष्या करती क्यों दिखती है! बाद में वह जलकर क्यों मर जाती है? साधक और भक्त के ईश्वर के मर जाने का वर्णन किसी को भी विचित्र लग सकता है| इसलिए यह मानना थोड़ा कठिन है कि पद्मावत में स्त्री को ईश्वर की तरह देखा गया है और केवल इस कारण ‘पद्मावत’ स्त्री समाज तथा स्त्री संवेदनशीलता को विशेष रूप से व्यक्त करता है|

स्त्री संवेदनशीलता ‘पद्मावत’ में अवश्य है, पर वह सफल अन्योक्ति के कारण नहीं, बल्कि दूसरे प्रसंगों – जैसे रानी होने के बावजूद नागमती का साधारण स्त्री की तरह दुखी होना या युद्ध, अपहरण, अत्याचार के कारण पद्मावती का विलाप स्त्री भावनाओं की मार्मिक व्यंजना है| इस रूप में केवल पद्मावती की ही नहीं, प्रेमावती, मधुमालती, मिरगावती, सपनावती की कहानियां भी प्रेम-गाथाओं में आई हैं और हजारीप्रसाद द्विवेदी ने ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ में लिखा है कि रामायण के व्यापक प्रभाव से ‘प्राकृतजन-गुन-गान’ मूलक काव्य के सदा के लिए लुप्त होने का खतरा पैदा हो गया था और सूफियों-मुसलमानों की कृपा से ही स्त्री केंद्रित प्रेम-गाथाओं की परंपरा बची रह सकी| (हिंदी साहित्य की भूमिका)   

(2) रामचंद्र शुक्ल ने अपने प्रसिद्ध निबंध ‘कविता क्या है’ में संस्कृत नाटकों की चर्चा करते हुए कालिदास के नाटकों तथा प्रबंध काव्यों का विवेचन करते हुए लिखा है कि ‘मेघदूत’ का मेघ सच्चा देशप्रेमी है और भारतभूमि की रूपमाधुरी पर सीधी-सादी प्रेम दृष्टि डालता है| ‘पद्मावत’ में भी विभिन्न भूखंडों, भारत देश की ऋतुओं, पशु-पक्षियों के संसार, नगर-हाट, सात समुद्र, पर्वों आदि का जो वर्णन है वह आधुनिकता से पूर्व कवि हृदय में उत्पन्न भारत की ‘काव्यात्मक कल्पना’ ही है| यह एक विशाल भूगोल के भीतर सांस्कृतिक-धार्मिक दृष्टि का समावेशन है|

पद्मावत में जिस प्रकार प्राचीन आख्यान परंपराओं का प्रयोग है, जैसे बोलने वाले पक्षी, सात समुद्र संबंधी कल्पना, बारहमासा से जुड़ी काव्य परंपरा, लोकजीवन के मार्मिक अनुभव, वह सब भारतीयता को पुष्ट करता है|

भारतीयों का हृदय कुछ विशेष प्रकार के दृश्यों से माधुर्य ग्रहण करता है, जैसे पनघट, नव दंपति का पासा खेलना, जलक्रीड़ा, ऋतु वर्णन आदि| जायसी ने भारतीय हृदय की इन रुचियों को समझकर पद्मावत में विविध प्रसंगों की रचना की है| भारतीयता को समझने का अर्थ भारत में विभिन्न धर्म-संप्रदायों तथा दार्शनिक चिंतन धाराओं के परस्पर संबंध व संवाद को समझने का पर्याय है| ‘पद्मावत’ भी विभिन्न दार्शनिक विचारशैलियों का संगम है| ‘पद्मावत’ में लोककथा, फारसी कथाशैली, सूफी साधना का ही संगम नहीं है, बल्कि इसकी नींव में बौद्ध, शैव, गोरखपंथ, निर्गुण साधना आदि का भी प्रभाव है| उदाहरण के लिए सिंहल द्वीप का वर्णन देखा जा सकता है| इस बात का प्रमाण नहीं है कि जायसी ने कभी समुद्र देखा था या सिंहल द्वीप की यात्रा की थी| पर उन्होंने पद्मावती को सिंहल द्वीप के राजा की कन्या दिखाया है| किसी को भी यह प्रश्न परेशान कर सकता है कि सिंहल द्वीप पर कैसे क्षत्रियों की जाति पहुंच गई, जिसके साथ रत्नसेन का वैवाहिक संबंध स्थापित हो गया|

शुक्ल जी ने अपने ग्रंथ ‘जायसी ग्रंथावली’ में बताया है कि नाथपंथियों की परंपरा महायान शाखा के योगमार्गी बौद्धों की थी जिसे गोरखनाथ ने शैव रूप दिया| सिंहल द्वीप में चूंकि पहले बौद्ध धर्म का प्रचार था और गोरखनाथ के अनुयायी भी सिंहल द्वीप को सिद्धपीठ मानने लगे थे| फिर वहां स्वर्ण-रत्न की अपार राशि ही नहीं, बल्कि पद्मावती जैसी लुभाने वाली स्त्रियों की कल्पना भी कर ली गई जो योगियों को भ्रष्ट कर सकती हैं|

इसी प्रकार की कथाओं को आधार बनाकर और उसमें रोचक ब्यौरे डालकर जायसी ने सिंहल द्वीप की कल्पना कर डाली| इसी कारण पद्मावत का पूर्वार्ध पूरी तरह काल्पनिक है और उत्तरार्ध में केवल चित्तौड़ व दिल्ली के राजा से जुड़े युद्ध प्रसंग ऐतिहासिक हैं| मुस्लिम सूफी भक्त ङरा योगमार्गी बौद्ध तथा गोरखपंथ आदि से जुड़े इतिहास, किंवदंतियों, कथाओं व लोकप्रचलित विश्वासों को भी कथा का आधार बनाना भारतीयता का एक कथात्मक व काव्यात्मक रूप है|

(3) सीता, राधा और पद्मावती – ये तीनों स्त्री चरित्र भारत के जनमानस में अंकित हैं, पर इन तीनों की पौराणिक-महाकाव्यात्मक तथा ऐतिहासिक स्थितियां भिन्न हैं| सीता और पद्मावती राजतंत्रात्मक व्यवस्था से जुड़ी नायिकाएं हैं जबकि राधा लोकमानस तथा साधारण पृष्ठभूमि से संबंधित हैं| जिस प्रकार राजतंत्र में स्त्री को निर्णय लेने की स्वतंत्रता नहीं होने के कारण प्रायः उसके जीवन को दुःखांत का सामना करना पड़ता था, उसी प्रकार सीता और पद्मावती का जीवन आदर्श दांपत्य के बावजूद दुखांत ही प्रतीत होता है| जबकि राधा का चरित्र किसी आदर्श दांपत्य का निर्वाह नहीं करता| उसका प्रेम सखा-तत्व पर आधारित है| वह अधिक आत्मनिर्भर और स्वतंत्र होने के कारण स्त्रियों के मामले में सामंती समाज की दुखभरी परिणतियों की शिकार नहीं है|

सीता व पद्मावती, दोनों किसी बाहर से आए पुरुष से आक्रांत होती हैं| इसके विपरीत राधा की छवि न किसी विजेता गुणवान पुरुष के बंधनों और न किसी पूर्वनिश्चित स्त्री आदर्शों की सीमाओं में कैद है| जयदेव के गीतगोविंद, विद्यापति की पदावली अथवा बंगाल के चैतन्य महाप्रभु के गौड़ीय संप्रदाय या बल्लभ संप्रदाय में उपस्थित राधा की छवि किसी घर-व्यवस्था में कैद स्त्री की छवि से मेल नहीं खाती| इस प्रकार तीनों स्त्रियां अलग व्यवस्थाओं से जुड़ी हैं और उसकी शिकार होती हैं| जैसे सीता को रामराज्य का लाभ नहीं मिलता, पद्मावती को चित्तौड़ के शासन का और सूर के भ्रमरगीत सार की परंपरा में राधा को कृष्ण की असीम महिमा व शक्ति का| पर ये तीनों शक्तिशाली स्त्री चरित्र हैं|

सीता को एक ओर त्यागपूर्ण हिंदू स्त्री दर्शाया गया तो दूसरी ओर एक कथा यह भी है कि वह शक्तिशाली थी| बचपन में उसने मंदिर में झाड़ू लगाते समय अपने बाएं हाथ से शिव का धनुष उठाकर एक ओर रख दिया था, जिसे देखकर राजा जनक चकित रह गए थे|

पद्मावती तथा नागमती दोनों को जायसी ने केवल सुंदर गुड़िया या मूक समर्पित स्त्री के रूप में नहीं, बल्कि खुलकर अपने प्रेम, वेदना व हृदय के भावों को व्यक्त करने वाली नायिका के रूप में दिखाया है| उनका चरित्र एक ओर पुरुषों का मनोरंजन करने वाला चरित्र है तो दूसरी ओर समस्त सीमाओं के बीच एक व्यावहारिक बुद्धि संपन्न नायिका का चरित्र| राधा का चरित्र ऐसा है कि वह कृष्ण और समस्त देवी-देवताओं को फटकार लगा सकती है| सीता तथा पद्मावती के चरित्र की विडंबना है कि उनके पास कोई सखा या मित्र नहीं है, जबकि द्रौपदी व राधा को कृष्ण के रूप में मित्र प्राप्त होता है|

(4)‘देशज बौद्धिकता’ पदबंध जितना सुनने में आकर्षक लगता है, उतना वह दृष्टिगत सीमाओं का शिकार है| यह शब्द प्राच्यविदों, राष्ट्रवादियों तथा कट्टर संप्रदायवादियों के प्रभाव से गढ़ा गया है| अगर बौद्धिकता शब्द को हम सीमित अर्थ में लें, जिसमें केवल आंतरिक संस्कृति की विशिष्टताओं की चर्चा हो, तो देशज बौद्धिकता ठीक पदबंध है| भारत की परंपराओं में नाना दर्शन, विद्रोही विश्वास-प्रणालियां व खंडन-मंडन की परंपराएं मौजूद रही हैं, जो इस देशज बौद्धिकता का निर्माण करती हैं| पर जिसे हम आधुनिकता व एनलाइटेनमेंट के प्रभाव से पैदा हुई बौद्धिकता कहते हैं, वह विशेष ढंग से कानून-संस्थान निर्माण, सुधारवाद व राज्य-व्यवस्था की स्थापना के साथ पैदा हुई है| खासतौर पर प्रबोधनकालीन चेतना के प्रसार, यूरोप में चर्च की एकछत्र सत्ता की समाप्ति, तर्क के उदय तथा फ्रांस की क्रांति के प्रभावों से| रामविलास शर्मा ने व्यापारिक पूंजीवाद और तत्संबंधी देशज बौद्धिकता की, इतिहास के विभिन्न चरणों में खोज की है, पर ‘व्यापारिक पूंजीवाद’ शब्द विवादास्पद है| क्योंकि व्यापार हर युग में था, और इसका मतलब यह नहीं है कि पूंजीवाद भी हर युग में था|

‘पद्मावत’ को तर्क-विवेकवादी नजरिये से देशज बौद्धिकता का ग्रंथ नहीं माना जा सकता है, क्योंकि इसमें बहुत सी घटनाएं हैं, जो चमत्कारपूर्ण आख्यानों, सामंती शौर्य-वीरता, सती-जौहर के रूप में स्त्री-विरोधी प्रथाओं से जुड़ी हैं| सूफीमत के विभिन्न संप्रदाय वस्तुतः सुन्नियों के इस्लामिक कर्मकांडों व अंधविश्वासों के निकट रहे हैं और प्रगतिशील मूल्यों के विकास में अवरोधक रहे हैं| लेकिन ‘पद्मावत’ को देशज परंपराओं के परस्पर-संवाद के दस्तावेज के रूप में देखा जा सकता है| ये देशज परंपराएं शैव-वैष्णव, फारसी-सूफी, गोरखपंथ-बौद्ध आदि से मिलकर बनी हैं| इसमें बौद्धिकता नहीं, बल्कि लोककथाओं व परंपराओं के संवाद के तत्व मुखरता के साथ मौजूद हैं|

जायसी ने अपनी रचना फारसी भाषा में न कर अवधी में की तो यह भक्ति आंदोलन के उस चरित्र को दर्शाता है जो सत्ता के उच्च प्रतिष्ठानों के नहीं, बल्कि जनमानस के निकट था और उनकी ही बहुलतापरक देशज परंपराओं को जोड़ने का काम कर रहा था|

(5) यह ऐतिहासिक तथ्य है कि सूफियों का दर्शन और उनकी रचनाएं अहिंसा के दर्शन का प्रचार करती रही हैं| हिंदी में उन्होंने हिंदू-मुस्लिम एकता की स्थापना की है| हिंदू धर्म की तरह इस्लाम के भी अपने कर्मकांड, अंधविश्वास और निरर्थक बाह्याचार रहे हैं| सूफियों ने अपने इस्लामिक रहस्यवाद के बावजूद हिंदुओं और मुसलमानों दोनों की आस्थागत कट्टरता को चुनौती दी थी| उन्होंने इश्क के उन्माद का वर्णन किया है और अहं को त्याग देने का उपदेश दिया है| पंजाब के सूफी कवि बुल्ले शाह तो खुद को कभी पत्थर बना देना चाहते हैं ताकि लोग उन पर पैर रगड़कर अपने को साफ कर सकें| कभी चाहते हैं कि चूल्हा बनकर तपें जिससे फकीरों को भोजन प्राप्त हो सके|

सत्ता के प्रति सूफी काव्य के तिरस्कार का पता इससे चलता है कि जायसी ने दिल्ली के शक्तिशाली सुलतान अलाउद्दीन खिलजी की हिंसा और कट्टरता की आलोचना की है| अपनी कविता में उसे मायाबनाकर चित्रित किया है| चित्तौड़ के विश्वासघाती राघव चेतन को शैतान की तरह दिखाया है| उन्हीं के शब्दों में- ‘राघवदूत सोई सैतानू, माया अलाउदीं सुल्तानू|’ अपने समय के ताकतवर सुलतान को माया कहना उसकी ताकत का उपहास उड़ाना है| जायसी का काव्य ‘प्रेम की पीर’ का कायल है और उन्होंने उस चित्तौड़ की कथा, जिसका संबंध लगभग ढाई साल पूर्व की घटनाओं से था, उसका वर्णन करने में अपनी पूरी प्रतिभा लगा दी|

वह पद्मावत में लिखते हैं- ‘मुहमद यहि कबि जोरि सुनावा, सुना जो प्रेम पीर भा पावा/ जोरि लाह रकत कै लेई, माठी प्रीति नैन जल भेई|’ अर्थात ‘मुहम्मद (मलिक मुहम्मद जायसी) ने यह कविता जोड़कर सुनाई है| जो कुछ उसने प्रेम की पीड़ा जानी थी, नयनों की गहरी प्रीत के जल से भिगोकर व रक्त से इसे जोड़ा है|’

एक कुरान-केंद्रित आस्था वाले धर्म की सीमाओं को लांघकर उन्होंने प्रेम की पीड़ा जताने वाली हिंदू कथा को जैसे लौकिक-पारलौकिक उद्देश्यों के लिए वर्णित किया, वह धर्मसत्ता व राजसत्ता दोनों का विरोध है और एकेश्वरवादी असहिष्णुता को चुनौती है|

अपनी मान्यताओं के कारण सूफियों का दमन व हत्याएं हुई हैं| सैकड़ों साल पहले सूफी संत मंसूर अल-हल्लाज को ‘अन-अल-हक’ कहने के कारण बगदाद में सूली पर चढ़ा दिया गया था| क्रांतिकारी शायर फैज ने अपनी एक नज्म में उनके इस नारे को अवाम के संघर्षों से जोड़कर याद किया था- ‘उठेगा अन-अल-हक का नारा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो/और राज करेगी खल्क-ए-खुदा, जो मैं भी हूं और तुम भी हो|’ सूफियों पर आज के दौर में इस्लामिक कट्टरवादी संगठनों की ओर से अत्याचार हो रहे हैं| तालिबान ने अफगानिस्तान में उनकी दरगाहों पर आतंकी हमले किए हैं और कट्टर हिंदू संगठन भी सूफीवाद व सूफी संतों की दरगाहों के विरुद्ध विषवमन करते रहते हैं|

 

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