युवा लेखिका और शोधार्थी।विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में समीक्षा, लेख प्रकाशित।
देश की आजादी से पहले भारतीय मध्यवर्ग दो भागों में बंटा हुआ था। एक तरह का मध्यवर्ग अंग्रेजी राज में अपना हित साधने में लगा था, अंग्रेजों की गुलामी कर सुख-सुविधा जुटाना उसकी प्राथमिकता थी। दूसरी तरफ, एक ऐसा मध्यवर्ग था जो अपने देश की आजादी के बारे में सोच रहा था। वह अपने गुलाम देश के नागरिक को एक स्वतंत्र देश के नागरिक में बदल देने के लिए संघर्ष कर रहा था। इस तरह मध्यवर्ग में दो तरह की विचारधारा वाले लोग शामिल थे।
21वीं शताब्दी में भी मध्यवर्ग के दो चेहरे हें और उनकी भूमिका कमोबेश वही है। आज वैश्वीकरण ने मध्यवर्ग को प्रलुब्ध कर उसे अंग्रेजों की गुलामी से भी ज्यादा खतरनाक बंधनों में फंसा रखा है। उच्चवर्ग की देखा-देखी, लालच और कीमती वस्तुओं को हासिल करने की इच्छा ने मध्यवर्ग की सोचने-समझने की शक्ति प्रायः खत्म कर दी है। अब बहुत कम लोग बचे हैं जो अपने देश, समाज और अपने समय की समस्याओं को ठीक से समझते हैं और हस्तक्षेप करते हैं।
एक समय ऐसा था जब मध्यवर्ग ने बड़े-बड़े आंदोलनों से देश की आबोहवा बदलने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया था। लोग सादगी से भरे हुए थे, पाखंड से दूर। छात्र आंदोलनों में भी मध्यवर्ग से आए छात्र-छात्राओं की एक बड़ी भूमिका थी। दलित वर्ग के एक बड़े तबके ने सामान्य मध्यवर्ग के साथ कदमताल मिलाकर देश को वैचारिक रूप से संपन्न बनाने में योगदान दिया। लेकिन वैश्वीकरण की व्यापक चमक-दमक ने सभी तबकों की मानसिकता पर अपना कब्जा कर लिया है, जिसे समझने की जरूरत है।
प्रिंट मीडिया, टीवी, सोशल मीडिया और अन्य जितने संचार-माध्यम हैं, सभी में कॉरपोरेट जगत की हिस्सेदारी है। वे अपने लोक लुभावन विज्ञापनों से लोगों को भ्रमित कर अपने उत्पादों की तरफ उन्हें आकर्षित करते हैं। मीडिया वैचारिक दृष्टि से उन्हें बौद्धिक रूप से अपंग बनाने का काम करता है।
मध्यवर्ग में एक बड़ा बदलाव यह आया है कि अब वह किसी भी तरह अपनी विचारधारा को लेकर दृढ़ नहीं है। वह समाज के प्रति कोई जवाबदेही महसूस नहीं करता और फिर तेजी से धार्मिक पाखंडों की तरफ उन्मुख हुआ है।
आज बढ़ती विषमता और प्रभुत्ववाद के दौर में मध्यवर्ग अपनी व्यापक जिम्मेदारी से कतरा रहा है, जबकि खुद उसके अस्तित्व पर संकट है। इस संकट की आहट इतनी धीमी है कि लोग इसपर अभी तक उस तरह गंभीर नहीं हैं जिस तरह की गंभीरता की अपेक्षा की जाती है।
ऐसी स्थिति में जब सब कुछ बेचा जा रहा हो, पब्लिक सेक्टर को प्राइवेट सेक्टर में बदला जा रहा हो तब कला, संस्कृति और साहित्य पर खतरा मंडराएगा ही।
21वीं शताब्दी में कला, संस्कृति और साहित्य को केवल मनोरंजन का साधन बनाकर रख दिया गया है। वैसे भी आज बहुत कम लोगों की रुचि गंभीर साहित्य में है। सभी फेसबुक जैसे प्लेटफार्म में अपनी रचनाओं की प्रस्तुति करके मुग्ध हैं। उन्हें देश, समाज और अपने तेजी से बदलते हुए विचारहीन समय से कोई सरोकार नहीं रह गया है।
हिंदी साहित्य की एक दुर्गति यह है कि कोई लेखक अपनी लिखी हुई रचना के अलावा दूसरे किसी को पढ़ना नहीं चाहता, न ही उसकी रुचि किताब और पत्रिकाएं खरीदने में है। दुर्भाग्य से आज कला, संस्कृति और साहित्य में मध्यवर्ग की रुचि उस तरह नहीं रह गई है, क्योंकि अब मध्यवर्ग का पूरा ध्यान और उसकी सोच भौतिक सुख-सुविधाओं को जुटाने में लगी है। टीवी और मोबाइल फोन की दुनिया में वे इतने अधिक व्यस्त हैं कि उन्हें किताबों की तरफ झांकने के लिए फुर्सत नहीं है।
मध्यवर्ग में आज विचारों की कमी है। इस परिदृश्य में इसपर विचार करने की जरूरत है कि उसके पुनरुत्थान की संभावना कितनी है।
आज हर व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी से बचना चाहता है, वह केवल अपने लिए जीना चाहता है। आज विरले ही कुछ व्यक्ति या साहित्यकार होंगे जो मुक्तिबोध की तरह अपने आप से यह प्रश्न पूछने का साहस करेंगे : अब तक क्या किया/जीवन क्या जिया/ज्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम/मर गया देश, अरे, जीवित रहे गए तुम!
ऐसी चुनौतियों के बीच मध्यवर्ग को समस्याओं और संभावनाओं के बारे में नए सिरे से कुछ सोचना हमें जरूरी लगता है।
सवाल
(1)वैश्वीकरण का मध्यवर्ग पर किस तरह का असर पड़ा है, क्या मध्यवर्ग किसी बड़े संक्रमण से गुजर रहा है?
(2)देश की स्वाधीनता के पहले के और 21वीं सदी के भारतीय मध्यवर्ग में क्या बुनियादी फर्क हैं?
(3)बढ़ती विषमता तथा केंद्रीय सत्ताओं में मध्यवर्ग की घटती हिस्सेदारी के कारण उसके अस्तित्व पर कैसा संकट उपस्थित है?
(4)आप कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में मध्यवर्ग की रुचियों में क्या परिवर्तन लक्षित कर रहे हैं?
(5)क्या भारतीय मध्यवर्ग के पुनरुत्थान की कोई संभावना है?
वैभव सिंह चर्चित रचनाकार और आलोचक। पुस्तकें :‘कहानी : विचारधारा और यथार्थ’, ‘रवींद्रनाथ टैगोर : उपन्यास, स्त्री और नवजागरण’, ‘जवाकुसुम’ (कहानी संग्रह)। |
मध्यवर्ग को निभानी होगी अपनी ऐतिहासिक भूमिका
(1)मध्यवर्ग की वर्तमान दशा को लेकर अर्थशास्त्रियों तथा उपभोक्ता-वस्तुओं के उत्पादकों एवं विक्रेताओं के मन में उत्साह रहता है, क्योंकि मध्यवर्ग के विस्तार को भारतीय बाजार के विस्तार का अनिवार्य अंग माना जाता है। मध्यवर्ग की बढ़ती आबादी को देश की आर्थिक तरक्की के प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया जाता है। केवल बाजार तथा उपभोक्ता सामानों के उत्पादन की दृष्टि से मध्यवर्ग को देखने वाली बड़ी संख्या में हैं। लेकिन मध्यवर्ग के भीतर विचार, सांस्कृतिक चेतना तथा उच्च जीवन मूल्यों के विकास की दृष्टि से अध्ययन करने वाले बहुत थोड़े लोग हैं और प्रायः उनकी बातें सुनी नहीं जाती हैं।
मध्यवर्ग के मानसिक-वैचारिक भ्रम, उसकी नकारात्मक भूमिका, सांस्कृतिक खोखलेपन, भाषायी विकार आदि पर जितनी चर्चा होनी चाहिए, नहीं होती है। आर्थिक विकास का इंजन बनने के चक्कर में मध्यवर्ग का धर्म, संस्कृति, परंपरा, परिवार तथा स्वयं अपने साथ कैसा अस्वस्थ संबंध विकसित हो रहा है, इसका विवेचन करने वाले वर्तमान समाजशास्त्रीय तथा मनोवैज्ञानिक प्रयत्न नाकाफी ही कहलाएंगे।
यह ऐतिहासिक वास्तविकता है कि भारत में मध्यवर्ग का निर्माण अंग्रेजों के आगमन के साथ हुआ जब केवल रेल, प्रशासन, व्यापार, वित्त आदि से जुड़े नए व्यवसायों का ही उदय नहीं हुआ बल्कि नवीन सामाजिक मूल्यों का भी उदय हुआ। यूरोप का मध्यवर्ग अगर औद्योगिकीकरण की देन था, तो भारत का मध्यवर्ग औपनिवेशिक काल के परिवर्तनों तथा औपनिवेशिकता की आवश्यकताओं की पूर्ति का परिणाम था। उस समय से लेकर आज तक इस वर्ग की जो ऐतिहासिक यात्रा है उसमें वैश्वीकरण के बाद प्रभावशाली दिखने के बावजूद आज किसी भी विकसित राष्ट्र के मध्यवर्ग की तुलना में सबसे अधिक अस्थिर और असुरक्षित है। मध्यवर्ग का केवल छोटा सा हिस्सा ऐसा है जो अपने जीवन से संतुष्ट है। पर मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा जीवन से असंतुष्ट ही नहीं बल्कि कुंठित है।
वैश्वीकरण ने मध्यवर्ग की संतानों को नई चमक-दमक के जीवन का भरोसा दिलाया है, लेकिन कम ही लोग उस दौड़ में सफल हो पाते हैं जिसमें उनको झोंक दिया जाता है। मध्यवर्ग हमेशा ही संक्रमण की दशा में रहा है और अधिकांश प्रयोग उसी के जीवन को ध्यान में रखकर किए जाते रहे हैं। शहरीकरण, तकनीक के विकास तथा ग्रामीण जीवनशैली के पतन ने उसे हमेशा ही दुविधा में रखा है।
जो पुराना मध्यवर्ग था, वैश्वीकरण से पहले का, वह किसी न किसी रूप में संयुक्त परिवार, नातेदारी, सामाजिक संबंधों आदि से जुड़ा हुआ था। लेकिन संक्रमण का ही परिणाम है कि आज का मध्यवर्ग अधिक एकाकी और आत्मकेंद्रित है। वह अलगावग्रस्त न्यूक्लियर परिवार की संरचना में ही जीवन जीने के लिए विवश है। उसका उपभोग-प्रधान अलगावग्रस्त पारिवारिक जीवन विलंबित पूंजीवाद की आवश्यकताओं की पूर्ति में मददगार है। उसे बड़े पैमाने पर ऐसे दक्ष-अदक्ष मजदूर, इंजीनियर, लेखाकार आदि चाहिए जो घर-बार छोड़कर कहीं भी जा सकें तथा पारिवारिक जीवन व नातेदारी प्रणाली को दांव पर लगा सकें। इसका घातक प्रभाव लोगों के मनोविज्ञान पर पड़ा है।
एडमंड लीच ने अपने अध्ययन ‘रन अवे वर्ल्ड’ में बताया था कि अत्यंत छोटे हो चुके परिवार भावनाओं तथा अपेक्षाओं का अतिरिक्त बोझ उठाने वाले विद्युत परिपथ जैसे हो गए हैं। वे निजता को अत्यधिक महत्व देने के कारण शेष समाज के साथ आसानी से घृणा तथा आशंका का रिश्ता स्थापित करने लगते हैं।
(2)स्वाधीनता के पहले का मध्यवर्ग औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था का अंग था जिसमें वह ग्रामीण भारत तथा शहरी भारत के साथ समान भाव से जुड़ा था। यह वर्ग बीसवीं सदी के आरंभ में राष्ट्रीय चेतना के प्रभाव में आया तो इसे अपनी शक्ति का भी अहसास हुआ। कांग्रेस जब चंद अभिजनों के नेतृत्व से मुक्त हुई तो किसानों को जोड़ने से पहले साधारण मध्यवर्ग को उसने सबसे पहले जोड़ा। इस मध्यवर्ग ने ही राष्ट्रीय आंदोलन को प्रेस, भाषण, लेखन, पत्राचार, शिक्षा, विज्ञापन आदि का बड़ा संरचनात्मक आधार उपलब्ध कराया था।
कुछ चिंतकों का मानना है कि आर्यसमाज आंदोलन और कांग्रेस का आंदोलन, दोनों ही निम्न मध्यवर्ग की उपज थे। इन आंदोलनों के भीतर कई बार जिस प्रकार की पुनरुत्थानवादी चेतना के दर्शन होते हैं, वह मध्यवर्ग की ही आंतरिक असुरक्षा के परिणाम थे।
कुल मिलाकर आजादी से पहले का मध्यवर्ग एक ओर औपनिवेशिकता का सहायक था, तो उसी ने औपनिवेशिकता से संघर्ष में अपनी ऐतिहासिक भूमिका भी निभाई थी। आदर्शवाद से जुड़े मूल्य तथा विचारधारा मध्यवर्गीय चेतना के बल पर लोकप्रिय हुई। पर वर्तमान इक्कीसवीं सदी का मध्यवर्ग उपभोक्ता, नौकरीपेशा या कारोबारी के रूप में तो पहचाना जाता है, उसकी कोई आदर्शवादी आत्मछवि या सामाजिक भूमिका लगभग शून्य के करीब पहुंच चुकी है। उसकी छवि खराब हो चुकी है क्योंकि उसे कम सभ्य तथा अधिक लालची माना जाता है।
निजी स्कूलों-कालेजों की वर्तमान शिक्षा प्रणाली ने इस वर्ग के लोगों के जीवन को बहुत अधिक प्रभावित किया है। उनमें अधिक आज्ञाकारिता, पराधीनता और परमुखापेक्षिता पैदा कर दी है, तथा सृजन व स्वाधीन चिंतन की क्षमता खत्म कर दी है। इस शिक्षा प्रणाली के विरोध में ही कभी इवान इलियच ने ‘डीस्कूलिंग सोसायटी’ (1971) नामक पुस्तक रची थी, जिसमें उन्होंने कहा था कि समूची शिक्षा प्रणाली हमें ‘माइंडलेस कंज्यूमर’ बना देती है और औद्योगिक समाज प्रणाली में उत्पादित वस्तुओं तथा सेवाओं का उपभोग करना ही जीवन का अंतिम लक्ष्य बन जाता है।
मध्यवर्ग की छाती पर चढ़ी बैठी शिक्षाप्रणाली संवेदनहीनता तथा अन्य मनुष्यों के प्रति दूरी को बढ़ावा देती है। वर्तमान मध्यवर्ग के भीतर सामाजिक-धार्मिक रूढ़ियों से टकराने, सत्ता से असहमत होने और न्याय के हित में अपने सुखों के त्याग की प्रवृत्ति आश्चर्यजनक रूप से घटी है। इसके परिणामस्वरूप समाज में बाबाओं-पंडों, चिमटाधारी ठगों तथा बहुरूपियों की ताकत दिनोंदिन बढ़ने लगी है।
(3)मध्यवर्ग एक विविधतापूर्ण समूह है जिसकी वार्षिक तथा मासिक आय के आधार पर हम उसे एक समूह के रूप में देखने का प्रयास करते हैं। उसकी आर्थिक परिभाषा समाज पर इस कदर हावी है कि मध्यवर्ग की सांस्कृतिक या सामाजिक परिभाषा तैयार करने के लिए कभी प्रयास नहीं हुए। मध्यवर्ग की सकारात्मक तस्वीर तैयार करने के लिए कहा जाता है कि वह अपने कार्यों, तकनीकी दक्षता व शैक्षणिक कामों से समाज में योगदान देता है। उसके इस योगदान की बात में सचाई है, पर यह अधूरा सच है।
वास्तविकता यह भी है कि मध्यवर्ग से जुड़े अध्यापक, डाक्टर, आर्किटेक्ट, वकील, कारोबारी आदि समाज का नुकसान भी बहुत करते हैं। दिल्ली शहर में ही इतनी भद्दी इमारतें बनी हैं कि लगता है जिस मध्यवर्गीय रुचियों को ध्यान में रखकर इस वर्ग के आर्किटेक्ट ने उन्हें डिजाइन किया है, उसे कैदखाने में डाल देना चाहिए। इसी प्रकार आज छोटे तथा बड़े शहरों में प्राइवेट डाक्टरों ने जिस प्रकार की लूटपाट मचा रखी है, वैसी लूटपाट नादिरशाह ने भी दिल्ली पर हमले के वक्त नहीं मचाई होगी। यानी जो समाजशास्त्री आधुनिक समाजों में मध्यवर्ग की महान आर्थिक भूमिका की प्रशंसा करते हैं, वे यह नहीं बताते कि वर्ग के तौर पर भी उसके किन अपराधों तथा मूर्खताओं की आलोचना हो सकती है।
(4)हिंदी साहित्य के विकास में मध्यवर्ग की निर्णायक भूमिका थी। नई कहानी आंदोलन जैसा साहित्य आंदोलन घोषित तौर पर शहरी मध्यवर्ग की स्थितियों से जुड़ा हुआ था। व्यक्तित्वांतरण, प्रयोगधर्मिता और सामाजिक विद्रोह से जुड़े संकल्प इसी वर्ग की चेतना का प्रतिफलन हैं। हालांकि कई रचनाकारों, जैसे मुक्तिबोध को इस वर्ग से खास अपेक्षा नहीं थी, उन्होंने इस वर्ग के बुद्धिजीवी को पूंजी के युग में नरपिशाच में रूपांतरित होते देखा। उसकी स्थिति का वर्णन ‘ब्रह्मराक्षस’ में इस प्रकार किया गया है- ‘पिस गया वह भीतरी/ औ’ बाहरी/ दो कठिन पाटों के बीच,/ ऐसी ट्रेजडी है नीच।’ इसके बावजूद समाजवाद, गांधीवाद तथा लोकतंत्र से जुड़े आंदोलनों में शामिल इस वर्ग की अपनी निराशाएं, स्वप्न एवं आदर्श थे जो उसे स्वतंत्र व्यक्तित्व प्रदान कर सकते थे।
मध्यवर्ग के लोग ही व्यक्तित्व की स्वतंत्रता की बात कह सकते थे। लेकिन शहरीकरण के साथ पश्चिम में सबसे पहले जिस ‘मास कल्चर’ का उदय हुआ और जिसने पारंपरिक लोकसंस्कृति को विस्थापित किया, उसी ने अब भारत जैसे अर्धविकसित मुल्कों के मध्यवर्ग के व्यक्तित्व तथा उसकी सामाजिक भूमिका को भी सीमित कर दिया है। विज्ञापन, मनोरंजन, शिक्षा आदि से पैदा मानक छवियां उसकी चेतना पर प्रक्षेपास्त्र चलाकर उसे काबू में रखती हैं। उसकी व्यक्तित्वहीनता को उसकी उपलब्धि बताती हैं।
टीवी पर चलने वाले धारावाहिकों और समाचारों का प्रमुख उपभोक्ता मध्यवर्ग ही रहा है। अब इन कार्यक्रमों का हास्यास्पद रूप इसकी गवाही देता है कि भारत के मध्यवर्ग के बारे में सत्ता का नजरिया कितना अपमानजनक है। वह इस वर्ग को किसी भी सुरुचिपूर्ण कार्यक्रमों का भोक्ता मानने से इनकार कर चुका है।
आपने केंद्रीय सत्ता में मध्यवर्ग के प्रतिनिधित्व पर प्रश्न पूछा है पर मेरे विचार से ऐसा नहीं है कि केंद्रीय सत्ता में मध्यवर्ग की भूमिका गौण हो गई है। वह दबाव समूह के रूप में काफी प्रभावी है। यह जरूर है कि पिछले कुछ दशकों में सब्सिडी की समाप्ति, सरकारी नौकरियों में कटौती, शिक्षा-संस्कृति का बजट घटाने जैसे निर्णय हुए हैं। इसी के समानांतर मध्यवर्ग की बड़ी आबादी उन आर्थिक जोखिमों की ओर धकेली गई है जिनके बारे में उसे ठीक से पता नहीं है। या जिनका सामना करने का उसके पास अभी उचित कौशल विकसित नहीं हो सका है। बड़े पैमाने पर पसरती ठगी व धोखाधड़ी की संस्कृति मुनाफे की लालसाओं का नतीजा हैं। ऊंची फीस वाले विश्वविद्यालयों में शिक्षा के लिए कर्ज लेने पड़ रहे हैं तथा मकान से लेकर दुकान तक की खरीद में परजीवी वर्ग व काले धन की जो विशाल उपस्थिति है, उसमें हिस्सेदार बनना पड़ रहा है। इन दबावों के कारण मध्यवर्ग के अधिकांश लोगों के पास आज कला-संस्कृति व साहित्य के लिए समय नहीं बचा है। उसके सामने अपनी आमदनी बढ़ाने, कर्ज चुकाने, महंगाई से जूझने व अकेलेपन को बर्दाश्त कर पाने की जो चुनौती है, उसने कला-साहित्य की उसकी पारंपरिक रुचि को क्षीण कर दिया है। उसके जीवन से सच्चे रोमांस, नरम व्यवहार, प्रेम तथा कोमल भावविह्वलता की विदाई हो रही है। यानी एक ऐसा समाज पूरी तरह अस्तित्व में आ चुका है जिसमें कला-संस्कृति का पोषण करने वाला आधुनिक मध्यवर्ग अब स्वयं परायेपन की भावना का शिकार है। दफ्तर के रिसेप्शनिस्ट, अध्यापक, कारोबारी तथा डाक्टर लगातार नकली हंसी, जोड़तोड़ व छद्म सम्मान की दुनिया में रहने के लिए मजबूर हैं जो उन्हें आत्मप्रवंचना से ग्रस्त बनाता है। वे नहीं चाहते हैं कि उनका सामना कला-साहित्य के सच्चे व उदार भावों से हो जो उनकी नकली तथा स्वांगभरी जीवनशैली में खलल उत्पन्न कर दे। इस वर्ग की वर्तमान मानसिक संरचना के अनुरूप ही उथले सांस्कृतिक उत्पादों का बाजार भी खड़ा किया गया है। अपने आप से अलगाव यानी ‘सेल्फ एलियनेशन’ के शिकार लोग कला-संस्कृति से भी ठीक से नहीं जुड़ पाते हैं।
(5)भारत के मध्यवर्ग के लिए वर्तमान समय अपमान, संकट तथा अनिश्चितता से भरा हुआ है, क्योंकि उसकी आबादी तो बढ़ रही है पर अच्छा जीवन जीने के लिए जो प्रमुख चीजें हैं जैसे अच्छी नौकरियां, सस्ती शिक्षा, विश्वसनीय लोकतंत्र, स्वाधीनता, सामाजिक शांति, उच्चकोटि का मनोरंजन, प्रकृति और समानतापूर्ण परिवेश, वह सब उसके भाग्य में अभी तक नहीं है। इसके बावजूद यह आशा की जा सकती है कि धीरे-धीरे उसमें नई आत्मसजगता भी विकसित होगी और वह इस व्यवस्था का केवल आर्थिक पुर्जा बनने के स्थान पर अपनी सांस्कृतिक भूमिका को फिर तलाशना चाहेगा।
वर्तमान में भी कई बार कलाकारों-साहित्यकारों को सुनने के लिए भीड़ उमड़ती है। लोग अब भी आंदोलन करते हैं। सांप्रदायिकता, जातिवाद तथा भ्रष्टाचार से लड़ने के लिए लेख लिखे जाते हैं। सत्ता परिवर्तन के अवसरों का उपयोग होता है। इसलिए मध्यवर्ग की समस्याओं का विश्लेषण किया जा सकता है, पर यह मानना एक निराधार निराशावाद है कि वह हमेशा ही ऐसा अभिशप्त वर्ग रहेगा। उसके जीवन, परिवार, दफ्तर, सड़क व बाजार में केवल अनिश्चितता या भय ही व्याप्त रहेगा।
यह वास्तविकता है कि मध्यवर्ग समाज के बुनियादी रूपांतरण के लिए स्वयं कोई बड़ी पहल नहीं कर सकता। वह समझौतापरस्त है। उसमें निष्क्रियता किसी जोंक की तरह चिपटी होती है। लेकिन कई बार जब गरीबों व साधारण जनों के आंदोलन होते हैं, तो वह उनमें शामिल होकर अपनी सामाजिक भूमिका को फिर से प्रासंगिक बनाता है। हाल में हुए किसान आंदोलन, छात्र आंदोलन तथा स्त्रियों की सुरक्षा को लेकर हुए आंदोलनों में मध्यवर्ग ने अपनी सशक्त भूमिका निभाई है।
तब यही लगा कि यह वर्ग केवल उपभोक्ताओं, मैनेजरों, दलालों और स्वार्थी प्रोफेशनलों से बना वर्ग नहीं है, जैसा कि कुछ पश्चिमी चिंतकों ने उसके बारे में दावा किया है। यह बहुत सारे प्रतिभाशाली, ईमानदार तथा जागरूक प्रकृति के लोगों से मिलकर बना वर्ग है जो अपने हस्तक्षेप से किसी भी वक्त किसी भी क्षेत्र में एक बड़ा भूचाल ला सकता है। दुर्भाग्य से यह वर्ग आज लोकतंत्र के प्रति कम गंभीर दिखता है और कई प्रकार की कट्टरताओं को अपना रहा है। पर स्वस्थ वैचारिक अभियानों के प्रभाव से यह फिर स्वस्थ सामाजिक शक्ति बन सकता है। वह लोकतंत्र को बचाने में अपनी भूमिका निभा सकता है और उसे निभानी ही होगी।
403, सुमित टॉवर, ओेमेक्स हाइट्स, सेक्टर–86,फरीदाबाद, हरियाणा–121002 मो.9711312374
हितेंद्र पटे सुपरिचित लेखक और इतिहासकार। रवींद्र भारती विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग में प्रोफेसर। अद्यतन पुस्तक ‘आधुनिक भारत का ऐतिहासिक यथार्थ’।’ |
कला–साहित्य और संस्कृति में मध्यवर्ग के निचले हिस्से नई संभावनाएं पैदा कर सकते हैं
(1)भारतीय मध्यवर्ग की सात श्रेणियां हैं। सबसे निचले स्तर पर सालाना सवा लाख रुपया कमाने वाले लोग भी मध्यवर्ग के सदस्य हैं और दो करोड़ से अधिक आय वाले भी इसी मध्य वर्ग के ही लोग हैं। जाहिर है मध्य वर्ग के बारे में एक तरह से बात करना सही नहीं है। फ्रेंच शब्द बुर्जुआ जब चलन में आया, उसके बाद से ही मध्यवर्ग की धारणा शुरू हुई होगी। बर्जुआ उसे कहते थे जो शहर में रहते थे। यह एक उपयोगी सूत्र हो सकता है मध्यवर्ग को समझने के लिए। जो शहरी है या शहर में रहना चाहता है वह मध्यवर्ग का सदस्य है। यह वर्ग खुला हुआ है। इसका विस्तार इस हद तक हो चुका है कि दरिद्र सर्वहारा और सर्वशक्तिमान धनी के अतिरिक्त सभी इस मध्यवर्ग के हैं!
वैश्वीकरण के बाद इस वर्ग की निचली और ऊपर की श्रेणियों के स्वप्नों को इस तरह से गूंथ दिया गया कि उनके सपने मिल-जुल गए। नीचे के सवा लाख कमाने वाले अपने को करोड़ों कमाने के योग्य समझने लगे। मध्य वर्ग के इस स्वप्न एकीकरण के कारण मध्यवर्ग ही सबसे बड़ा और शक्तिशाली वर्ग दिखने लगा। यह एक नया मध्यवर्ग था जो पिछले सामाजिक और आर्थिक विभाजन और वर्गीय दृष्टि से भिन्न दृष्टिकोण के साथ जीने में लग गया। इसके कारण एक दरिद्र मध्यवर्ग (डेस्टीट्यूट) भी बना जो आर्थिक असुरक्षा और सपने को पूरा न करने की ट्रेजेडी के बीच झूलने लगा। लेकिन इस अवस्था में भी उसने सपने देखना नहीं छोड़ा। पिछले तीस-पैंतीस सालों में एक ऐसा परिवेश रचा जा रहा है जिसमें मध्यवर्ग अपने नीचे की श्रेणियों के बारे में उदासीन होता जा रहा है। यह भी कहा जा सकता है कि उसे उदासीन किया जा रहा है। जिसे हम संक्रमण कह रहे हैं, वह मूलतः सपनों के मैनेजमेंट का मामला है।
हमारे देश में मध्यवर्ग की एक बड़ी सकारात्मक भूमिका यह रही है कि इसने भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन और नवीन भारत की कल्पना दोनों को तैयार करने में समाज का नेतृत्व किया है। एक आदर्श, जिसे हम राष्ट्रीय आदर्श भी कह सकते हैं, इस मध्यवर्ग की देन है। उस जगह से मध्यवर्ग अब अपने को अलग कर रहा है, ऐसा प्रतीत होता है। जो मध्य वर्ग पूरे समाज का नेतृत्व कर रहा था, उसका ‘कॉन्शांइस कीपर’ (विवेक रक्षक) था, अब वह अपने वर्गीय स्वार्थ रक्षा में निमग्न हो रहा है। यह एक तरह का संक्रमण ही तो है।
आप देखिएगा कि मध्यवर्ग अब उतना राष्ट्रीय नहीं रह गया है जितना वह पहले था। उसकी सामाजिकता में एक संकुचन आया है। वह अपने दायित्व और अपने परिवेश को ग्लोबलाइजेशन के आने के बाद दूसरे तरीके से समझ रहा है। अब उसके ग्लोबल होने के सपने हैं। इक्का-दुक्का सफलताओं को ट्रेंड नहीं माना जा सकता। लेकिन इन इक्का-दुक्का सफलताओं के प्रभाव में मध्यवर्ग आया है और वह रातों-रात बड़ा बनने का सोचने लगा है। अब संतोष और आदर्श की धारणा का परित्याग करना सपनों को पूरा करने के लिए जरूरी माना जाने लगा है।
(2)जैसे कि पहले ही कहा जा चुका है कि राष्ट्रीय आंदोलन और उसके पूर्व, जिसे हम नवजागरण कहते हैं, के दौर में मध्य वर्ग की एक बड़ी ऐतिहासिक भूमिका रही है। हमारी राष्ट्रीय कल्पना मूलतः मध्यवर्ग की ही कल्पना है जिसमें सकारात्मक तरीके से पूरे समाज की चिंताओं को जोड़ा गया। यह एक आदर्श था, इसके निर्माण में मध्यवर्ग से आए हमारे बुद्धिजीवियों ने एक ऐतिहासिक महत्व का काम किया। लेकिन जिसे मैं नब्बे के इस पार का समय कहता हूँ यानी ग्लोबलाइजेशन के बाद का समय इस मध्यवर्ग के चरित्र में एक गुणात्मक अंतर आया है जिसकी चर्चा पहले की जा चुकी है।
यह कहना उचित होगा कि प्राक-आधुनिक काल में सांस्कृतिक और प्राकृतिक जगत से सामंजस्य बिठाकर चलने वाले लोगों ने जिस तरह से सोचा था उसमें सामूहिकता का महत्व था और मूल्यों को महत्व दिया गया था। ये प्रवृत्तियां पहले भी थीं और राजनीतिक और आर्थिक तंत्र को नियंत्रित करने वाले लोग समाज में पहले भी केंद्रीय होने लगे थे। लेकिन ग्लोबलाइजेशन के बाद राजनीति और अर्थतंत्र की दुनिया के लोग इस तरह महत्वपूर्ण हो उठे कि अब इन क्षेत्रों में ही रखकर अपने को महत्वपूर्ण और शक्तिशाली बनाया जा सकता है, यह संदेश मध्यवर्ग ने सबसे अधिक ग्रहण किया। इस कारण पूंजीपति और राजनेताओं का महत्व समाज में बहुत अधिक बढ़ गया, इतना अधिक कि इक्कीसवीं सदी में समाज बहुत ही क्रूर और असंवेदनशील हो चुका है। भारतीय मध्यवर्ग में संवेदनशीलता का अभाव बहुत बढ़ा है इसमें संदेह नहीं। एक वाक्य में कहूं तो इस सदी के मध्यवर्ग ने अपने बाप-दादाओं को भूलने की कोशिश की है। इनके बाप-दादाओं ने समाज के महत्व को समझा था और वह अपने परिवेश से थोड़ा जुड़ाव महसूस करते थे। अब मध्यवर्ग के लोग वैसा करते हैं, इसमें संदेह है।
(3)हमलोगों को समझना चाहिए कि यह एक स्ट्रक्चरल समस्या है। यूरोपीय आधुनिक चिंतन ने आधुनिक वैज्ञानिक और पूंजीवादी बुद्धि द्वारा जिस तरह के समाज का निर्माण पिछले ढाई तीन सौ सालों में किया था, उसमें प्रकृति और सांस्कृतिक जीवन को इतना अधिक प्रभावित किया कि अब पूरी दुनिया में एक खास किस्म की वर्चस्वपरक पूंजीवादी और राजनीतिक व्यवस्था ने कब्जा कर लिया है।
पूंजी और राजनीति (राज्य) ने जो व्यवस्था तैयार की और इसके साथ एक विचार व्यवस्था का ढांचा खड़ा किया, उसमें अब संकट के बादल घिर आए हैं। इस विचार व्यवस्था के पास विकास का जो मॉडल है, वह अपने द्वारा उत्पन्न संकटों से निकल नहीं पा रहा है। यूरोपीय ज्ञान व्यवस्था आगे का रास्ता नहीं दिखा पा रही है। अब नए विचार वहां से नहीं आ रहे हैं और जितने तरह के संकट इस स्ट्रक्चर ने पैदा कर दिए हैं उनसे बाहर निकलने का माद्दा अब इस स्ट्रक्चर में है ही नहीं, ऐसा भी कहा जा सकता है।
फिर हम क्या करें, हमको क्या नए तरीके से सोचना चाहिए और यूरोपीय आधुनिक वैज्ञानिक सोच को सबके लिए स्वीकार करने की स्थिति को गलत कहना चाहिए, यह एक बड़ा प्रश्न है। इससे इस समय के चिंतक जूझ रहे हैं।
(4)कला-साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में मध्यवर्ग की रुचियों में आए परिवर्तन को बहुत आसानी से समझा जा सकता है। जब समाज में आदर्श नहीं रहते और वैचारिक संशय का दौर चल रहा होता है, कला-साहित्य और संस्कृति के किसी भी क्षेत्र में इसका प्रभाव पड़ता है। इन सभी क्षेत्रों में आप देखेंगे कि संकट के चिह्न पहले भी थे। साहित्य, कला और संस्कृति की दुनिया के विचारकों ने कम से कम उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध यानी अब से डेढ़ सौ साल पहले से सावधान किया था। हम चाहें तो नीत्से के इस कथन से कि ईश्वर की मृत्यु हो चुकी है और हमने उसकी हत्या की है, इस चेतावनी की शुरुआत को देख सकते हैं।
हिंदी के पाठक निर्मल वर्मा के लिखे में कई बार इस तरह के संदर्भों से गुजर चुके हैं। के सी भट्टाचार्य के लेखों में भी, जो एक भारतीय दृष्टि की तरफ बढ़ने की चेष्टा देखते हैं, उसे भी हम याद कर सकते हैं। उदाहरण सैकड़ों होंगे। महात्मा गांधी, रवींद्रनाथ टैगोर ऐसे दो महापुरुष थे जो पश्चिमी सभ्यता के बारे में बहुत गंभीरता से विचार कर चुके थे और उसके संकट को समझने में ये दोनों आज भी हमारे लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं।
इस तरह की सोच को अब मध्यवर्ग अधिक महत्व नहीं देता प्रतीत होता है। इस समय कला-संस्कृति और साहित्य के क्षेत्र में जो सक्रिय लोग हैं, उनमें उस तरह की सचेतनता कम दिखाई पड़ती है जैसी नब्बे के उस पार तक किसी न किसी रूप में उपस्थित थी। मुझे याद पड़ता है कि इस संबंध में दिनमान के पन्नों में अज्ञेय और उनके साथियों ने एक बहुत अच्छी बहस चलाई थी। आप चाहें तो जैनेंद्र को इस प्रसंग में लाकर देखें तो पाएंगे कि हिंदी के प्रबुद्ध जनों ने इस संकट को किस तरह पहचाना था। आज उस तरह के चिंतन को बहुत कम महत्व दिया जा रहा है और राजनीति और अर्थतंत्र के दबाव को हम साहित्य संस्कृति और कला के क्षेत्र में ज्यादा महसूस कर रहे हैं।
(5)भारतीय मध्यवर्ग जितना भारतीय होगा, पुनरुत्थान की संभावना उतनी बढ़ती जाएगी। भारतीय संस्कृति में और भारतीय ज्ञान परंपरा में प्रकृति को साथ लेकर चलने की प्रवृत्ति शुरू से रही है। कम से कम संत आंदोलन (अगर हम आंदोलन कहना चाहें तो) तक भारतीय समाज में नैतिक मूल्यों को बहुत महत्व दिया गया था। सामाजिकता और आध्यात्मिकता की भारतीय परंपराओं में हमेशा परोपकार और करुणा तत्व को बहुत महत्व दिया गया था। अब पिछले ढाई-तीन सौ सालों से जो दबाव बने, उनसे निकलने की चेष्टा करनी ही होगी। यह एक मजबूरी है भारतीय मध्यवर्ग की। उसे अपने समाज से जुड़ना ही होगा और कला-संस्कृति और साहित्य तीनों क्षेत्रों में नई संभावनाओं की तलाश करनी पड़ेगी।
मुझे लगता है इस ओर एक सामूहिक प्रयास की जरूरत है जिसे हम संस्कृति-पुनर्निर्माण के लिए जरूरी मान सकते हैं। यह एक अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य है और मध्यवर्ग के सभी हिस्सों से तो सहयोग नहीं मिलेगा, लेकिन निचले और मध्य श्रेणी के मध्यवर्गों के बीच इस तरह की संभावनाओं को देखा जाना चाहिए। यह शायद हो सकता है, अगर हम अर्थ के दबाव और राजनीति को अपने मानस में केंद्रीय महत्व न दें।
प्रथम तल, आयशिकी अपार्टमेंट, बोरोपोल के निकट, बैरकपुर, 36/71 ओल्ड कोलकाता रोड, कोलकाता–700123 मो.9836450033
बजरंग बिहारी तिवारी दलित विमर्शकार और लेखक के रूप में चर्चित। अद्यतन पुस्तक ‘दलित कविता : प्रश्न और परिप्रेक्ष्य’। |
मध्यवर्ग में सामाजिक विभाजन बहुत गहरा होता जा रहा है
(1)वैश्वीकरण ने कई उम्मीदें जगाई थीं। कई वायदे किए थे। इन वायदों का ग्रहीता, इन उम्मीदों का स्थानक मुख्य रूप से मध्यवर्ग था। उसे वैश्वीकरण में अपार संभावनाएं दिखाई दे रही थीं। उसने खुशी-खुशी वैश्वीकरण का साथ दिया। अंधाधुंध वैश्वीकरण का विरोध करने वाले लोगों, समूहों और विचारधारा-आधारित दलों को अनसुना कर दिया गया। कई बार ऐसी प्रतिरोधी आवाजों को कुचलने में मध्यवर्ग कॉरपोरेट और सरकार के नेक्सस का हिस्सा बना।
शुरू में लगा था कि वैश्वीकरण मध्यवर्ग के लोगों की सभी आशाएं पूरी करेगा। उनके सपनों को गंतव्य तक पहुंचने के लिए रथ मुहैया कराएगा। उनके नौनिहाल अवसरों के आधिक्य में निहाल रहेंगे और उनके परिवारों पर धनवर्षा होगी। वैश्वीकरण के समर्थक गिनती के कुछ दलित अस्मितावादी विचारक तो और खुशफहमी में थे। वे समझ रहे थे और प्रचार कर रहे थे कि इससे ब्राह्मणों, बनियों का पारंपरिक वर्चस्व टूटेगा। दलित समतामूलक समाज व्यवस्था को साकार होते देखेंगे। जातिवादी हिंसा का अंत हो जाएगा और नौकरियों की कमी नहीं रहेगी। जो दलित युवा नौकरी नहीं करना चाहेंगे वे व्यवसायी बनेंगे। उनके उत्पाद देश-विदेश में स्वीकार किए जाएंगे। वे ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जिएंगे। जातिवादी हिंसा का ढांचा नष्ट हो जाएगा।
मध्यवर्ग का हिस्सा दलितों में बहुत छोटा है। उसका निर्माण अधिकांशतः आंबेडकरी आंदोलन की, संवैधानिक प्रावधानों की देन है। आंबेडकर ने फुले द्वारा बनाई जमीन पर चलकर दलितों में ऊर्ध्वाधर गतिशीलता की आकांक्षा पैदा की थी। दलितों के लिए शिक्षा के द्वार खुल गए थे। दलित रचनाकारों की आरंभिक आत्मकथाएं बताती हैं कि इस द्वार तक पहुंचना आसान नहीं था। परिवार में ही भांति-भांति की आशंकाएं थीं। गैर-दलित समुदाय की दहशत ऊपर से थी। वे नहीं चाहते थे कि दलित पढ़ें और आगे बढ़ें। दलित बालक या बालिका अगर स्कूल जाने भी लगे तो वहां का माहौल बहुत विषाक्त होता था। सहपाठियों का हिंसक व्यवहार, शिक्षकों का दुश्मनी-भरा रवैया दलित शिक्षार्थियों को आगे बढ़ने ही नहीं देता था। जो बच्चे किसी तरह पढ़-लिख जाते थे, उन्हें रोजगार पाने में नाको चने चबाने पड़ते थे। इसी संघर्षशील पीढ़ी से दलित मध्यवर्ग बना था। अगली पीढ़ी को पिछली पीढ़ी की दुश्वारियां भूलनी नहीं थीं। लेकिन, वैश्वीकरण की आंधी इतनी मोहक गर्दोगुबार लेकर आई कि चित्त पर विस्मृति का आवरण पड़ गया। जिसका प्रतिरोध होना था उसका अभिनंदन किया जाने लगा। खतरों की आहट अनसुनी रह गई।
(2)विद्वानों ने इस मसले पर बहुत सोचा-विचारा है। स्वाधीनता से पहले भारतीय समाज का जो हिस्सा मध्यवर्ग में रखा जाता था उसके दो खंड थे। पहला खंड अंग्रेजपरस्त था। वह शासकों को प्रभु मानता था। उनके नक्शेकदम पर चलने की कोशिश करता था। दूसरा हिस्सा पश्चिमी शिक्षा से लैस जरूर था लेकिन उसके लिए देश की इयत्ता, अस्मिता, स्वाधीनता ज्यादा मूल्यवान थी। यह हिंदू-मुस्लिम बंटवारे की औपनिवेशिक राजनीति को समझता था और उसके जाल में नहीं फंसता था। इस हिस्से के कई सदस्य भी सरकारी मुलाजिम थे। वे दफ्तरों, स्कूलों, कचहरियों में काम करते थे। सरकारी नियमों से बंधे होने के बावजूद मध्यवर्ग का यह खंड स्वाधीनता सेनानियों का समर्थन करता था, उन्हें शरण देता था, उन्हें आर्थिक सहायता प्रदान करता था। गांधी जी का असर जब व्यापक और मजबूत हुआ, इस मध्यवर्ग ने छुपकर किया जाने वाला अपना समर्थन सार्वजनिक किया। नौकरियों से इस्तीफा दिया। पिकेटिंग की। विदेशी वस्त्रों की होली जलाई। वह समाज सुधार कार्यक्रम में भी आगे रहा। जातिवादी, पुरुषवादी परंपराओं को तोड़ने में इसने अपनी भूमिका निभाई। उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में बने तमाम समाजों (ब्रह्म समाज, प्रार्थना समाज, सत्यशोधक समाज, आर्य समाज, थियोसोफिकल सोसाइटी, रामकृष्ण मिशन) में मध्यवर्ग की उल्लेखनीय भूमिका थी।
देश स्वतंत्र हुआ। अंग्रेजपरस्त मध्यवर्ग ने अपना रंग बदला। अब यह सरकार के साथ, स्वाधीन देश की सत्ता के साथ हो गया। अभी लंबा अरसा नहीं गुजरा था। मध्यवर्ग की फितरत- चाल, चरित्र और असल चेहरे पर विस्मृति की धूल पड़नी शुरू नहीं हुई थी। देश की स्वाधीनता के लिए चलने वाले संघर्ष में मध्यवर्ग की भितरघाती भूमिका और समाज परिवर्तन के प्रयासों में अवरोधक भूमिका जनता को याद थी। जनता के चित्त का असर भारतीय लोकतंत्र पर रहा। देश की मजबूती संवैधानिक ढांचे की मजबूती से जुड़ी है।
अंग्रेजपरस्त मध्यवर्ग अब भले ही सरकारों के साथ दिख रहा था, लेकिन उसकी निष्ठा संविधान के प्रति नहीं थी। उसने अपना प्रयास लगातार जारी रखा। सांप्रदायिक, जातिवादी, पुरुषवादी मानसिकता को सूखने-टूटने न दिया। उसने सभी राजनीतिक दलों और संगठनों में आहिस्ता-आहिस्ता घुसपैठ की। प्रगतिशील मध्यवर्ग में भी उसने अपनी लताएं रोपीं। वह धीरे-धीरे मजबूत होता गया। आर्थिक सुधार के नाम पर जब राष्ट्रीय परिसंपत्तियों को निजी हाथों में सौंपा जाना आरंभ हुआ, सरकारी कंपनियां, सार्वजनिक उपक्रम जब विनिवेश के हवाले किए जाने लगे तो इसी मध्यवर्ग ने अगुआई की। उसने इस बिक्री के पक्ष में माहौल बनाया। उसे हर तरह से समर्थन दिया और दिलवाया। यह मध्यवर्ग वैश्वीकरण के संचालक कॉरपोरेट शक्तियों का दुलरुआ बना। उसकी अंग्रेजपरस्ती कॉरपोरेटपरस्ती में आसानी से रूपांतरित हो गई।
(3)जिस कॉरपोरेटपरस्त मध्यवर्ग ने निजीकरण का पथ प्रशस्त करने में दिलचस्पी दिखाई थी और वैश्वीकरण का अर्थ संसाधनों का कॉरपोरेटीकरण करवाने में हिस्सेदारी की थी उसे तो बढ़ती विषमता से खुशी ही मिलनी थी। संकट उस मध्यवर्ग पर आया जो देश में जनतंत्र की मजबूती चाहता था, जो सार्वजनिक उपक्रमों की बिक्री से असहमत था। पर इस मध्यवर्ग की संख्या तेजी से घटी है। इसके एक हिस्से का अंतरण हुआ है। वह कॉपोरेटपरस्त कुनबे में घसीट लिया गया है। उसका सांप्रदायीकरण, लंपटीकरण हुआ है। निश्चय ही उसका एक हिस्सा निम्न-मध्यवर्ग की ओर लुढ़क रहा है। सरकार-कॉरपोरेट गठजोड़ प्रगतिशील मध्यवर्ग के विरुद्ध खड़ा है। इसका सबसे बड़ा अपराध है कि यह धार्मिक उन्माद फैलाने में भागीदार नहीं बनता। यह जनता के धन से चलने वाली संस्थाओं को औने-पौने दामों में पूंजीपतियों को बेचे/सौंपे जाने पर सवाल उठाता है।
इस संपूर्ण नकारात्मक परिघटना का असल भुक्तभोगी दलित मध्यवर्ग है। नवरत्नों की बिक्री के बाद, एअरपोर्टों को मित्र कॉर्पोरेट डॉन के चरणों में अर्पित करने के बाद, कोल ब्लॉकों की अंधाधुंध नीलामी के बाद, बैंकिंग सेक्टर के सिकुड़ने, मर्जर और विलोपन के बाद, रेल सेवाओं को अधीनस्थ ठेकेदारों के सुपुर्द करने के बाद, रेगुलर भर्ती प्रक्रिया को गड़बड़ाने, ठप्प करने और विकृत कर देने के बाद, लोकसेवा में पीछे के दरवाजे (लेटरल एंट्री) से नियुक्तियां देने के बाद संकट और गहराया है।
जिन जगहों पर दलितों की नियुक्तियां हो रही थीं, उनके दरवाजे पूरी तरह या आंशिक रूप से बंद हो रहे हैं। राज्यों की शिक्षा व्यवस्था ध्वस्त-सी हो गई है। केंद्रीय विश्वविद्यालयों की फीस बढ़ाई जा रही है। विश्वविद्यालय से बाहर की अर्ध-सरकारी संस्था परीक्षा कराती है। परिणाम इतनी देर से और इतने कुसमय आता है कि निजी विश्वविद्यालयों की ओर जाने की मजबूरी बन जाती है। इन सबका नतीजा यह है कि दलित मध्यवर्ग का विस्तार रुक गया है। बल्कि आशंका है कि यह चक्र अब उल्टा घूमेगा। आरक्षण व्यवस्था के बेमानी होने और शिक्षा की मंहगी होने से दलित मध्यवर्ग का निर्माण ठहर जाएगा। दलित तबकों का क्षीण होना अंततः भारतीय लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह होने जा रहा है। सामाजिक न्याय के लिए होने वाले आंदोलनों में यह मध्यवर्ग ही ‘सपोर्ट सिस्टम’ उपलब्ध कराता है। समकालीन दलित राजनीति की बिडंबना यह है कि वह न वैश्विक कॉरपोरेट ताकतों की जकड़बंदी का संज्ञान लेती है और न कॉरपोरेट लूट को निर्बाध बनाने वाली नफरती मानसिकता की। यही नहीं, वह इन ताकतों की हमजोली बनी नजर आती है। इस राजनीति को दलित मध्यवर्ग के बड़े हिस्से का समर्थन प्राप्त है।
(4)कहने की जरूरत नहीं कि साहित्य और कला में मध्यवर्ग की रुचि घटी है। इस घटाव में मीडिया की बड़ी भूमिका है। मुख्यधारा की मीडिया का कोई मंच, कोई चैनल बचा ही नहीं है जो कॉरपोरेट के चंगुल से बाहर हो। सारे चैनल उन्हीं के हैं और उन्हीं का गाते हैं। इनपर चौबीस घंटे सांप्रदायिक, पितृसत्तात्मक, वर्णवादी, यथास्थिति को बनाए रखने वाली सामग्री परोसी जाती है।
बेशक सोशल मीडिया वैकल्पिक मंच बनकर आया है लेकिन उसकी पहुंच सीमित है। वह बड़े स्क्रीन पर ड्राइंग रूम में चौबीसों घंटे उपलब्ध नहीं है। कॉरपोरेट ने अच्छी रकम खर्च करके अपने मीडिया हाउस खड़े किए हैं और पहले से स्थापित मीडिया हाउस को यों ही नहीं खरीदा है।
दलित मध्यवर्ग दलित साहित्य में बहुत कम दिलचस्पी लेता है। कभी वह सामाजिक-सांस्कृतिक आंदोलनों का कर्णधार हुआ करता था, आज उदासीनता दिखता है। दलित साहित्य और आंदोलन की किताबें, पत्रिकाएं बहुत सीमित संख्या में छपती और बिकती हैं। दलितेतर मध्यवर्ग का हाल और भी बुरा है। वह धर्मोन्माद फैलाने के लिए संसाधन मुहैया कराता है, लेकिन स्वयं धार्मिक वांग्मय (भी) नहीं पढ़ता। उसकी धर्मभावना कॉरपोरेट संचालित विषाक्त व्हाट्सएप संदेशों से संतुष्ट हो जाती है।
(5)इस प्रश्न का सटीक जवाब दे पाना कठिन है। जैसा ऊपर कह आया हूँ, मध्यवर्ग में वैचारिक विभाजन बहुत गहरा हो चुका है। स्वाधीनता आंदोलन की स्मृतियां कॉरपोरेटपरस्त मध्यवर्ग में बिला चुकी हैं या बुरी तरह विकृत की जा चुकी हैं। सांप्रदायिक नशा उसे हद दर्जे का अविवेकी बना चुका है। वह मैनेजमेंट कोटे की सीटें खरीदकर अपने बच्चों का मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि व्यावसायिक संस्थानों/पाठ्यक्रमों में दाखिला दिला दिया करता था। आज वह पैसे के बल पर पेपर लीक कराता है। तमाम प्रतिष्ठित परीक्षाएं इस अनैतिक मध्यवर्ग के कारण अपनी विश्वसनीयता गंवा चुकी हैं। यह स्थिति अंततः उसके लिए भी घातक साबित होगी, लेकिन अभी वह इसे समझ नहीं रहा है या शायद समझना ही नहीं चाहता। अन्य धर्मावलंबियों को घेटो में धकेलने के क्रम में उसने खुद का ‘घेटोआइजेशन’ कर लिया है।
किसान आंदोलन ने उम्मीद जगाई थी कि हाशिए पर पड़ा विवेकशील मध्यवर्ग पुनः केंद्र की ओर वापस होगा। यह उम्मीद अभी विलुप्त नहीं हुई है। किसान, मजदूर, दलित, स्त्रियां, आदिवासी तथा मध्यवर्ग का यह जाग्रत हिस्सा संगठित होकर समाज और देश को पटरी पर वापस ला सकता है। मनुष्य की विवेकशीलता की वापसी में ही मध्यवर्ग सहित सबका भला है।
204, दूसरी मंजिल, टी–134/1, बेगमपुर, मालवीय नगर, नई दिल्ली–110017 मो.9818575440
आशुतोष कुमार (1966) सुपरिचित आलोचक। ‘आलोचना’ पत्रिका का संपादन। आलोचना पुस्तक ‘समकालीन कविता और मार्क्सवाद’ प्रकाशित। संप्रति दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर। |
21वीं सदी के मध्यवर्ग पर निरंकुश बाजार की विचारधारा का असर है
(1)भारतीय मध्यवर्ग एक मिथक है। अगर हम वास्तविकता की जांच करें तो पाएंगे कि भारत में मध्यवर्ग का अस्तित्व नहीं के बराबर है। दुनिया की जानी-मानी शोध एजेंसी प्यू रिसर्च के अनुसार 2015 में भारतीय मध्यवर्ग का आकार भारतीय जनसंख्या का केवल तीन प्रतिशत था जो की 2022 तक बढ़कर 4% हो गया है। अर्थात संख्या की दृष्टि से 4 से 5 करोड़ लोग भारतीय मध्य वर्ग के सदस्य कहे जा सकते हैं। इनमें से भी सबसे बड़ा अनुपात उन लोगों का है जो तुलनात्मक रूप से खासे विपन्न हैं।
आखिर 10 से 20 अमेरिकी डॉलर रोज कमाने वालों को क्यों रिसर्च मध्यवर्ग की श्रेणी में रखता है? हमें याद रखना चाहिए कि अमेरिका में गरीबी रेखा 16 डॉलर की है। भारत में 10 से 20 अमेरिकी डॉलर अमेरिका की तुलना में कमतर खरीद क्षमता रखता है। यह भी ध्यान में रखना चाहिए कि इस चार प्रतिशत मध्यवर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा 10 से 12 डॉलर प्रतिदिन की कमाई पर जीवित है। राष्ट्रीय स्वास्थ्य सर्वेक्षण 2019-20 के आंकड़ों के आधार पर पत्रकार रुकमणि व्यास ने हिसाब लगाया था कि भारत में केवल तीन प्रतिशत लोग इन पांच वस्तुओं के स्वामी है- मोटर गाड़ी, टेलीविजन, फ्रिज, कूलर या एसी और कंप्यूटर।
1990 के दशक से शुरू हुए उदारीकरण और वैश्वीकरण का नगाड़ा बजाया जाता है। कहा जाता है कि इस प्रक्रिया ने भारतीय मध्यवर्ग का तेजी से विस्तार किया है। यह विस्तार संख्या की दृष्टि से जरूर रेखांकित किया जा सकता है, लेकिन जनसंख्या के अनुपात की दृष्टि से निरर्थक है। विश्व असमानता रिपोर्ट के अनुसार इन सुधारों का लाभ भारत की केवल ऊपरी एक प्रतिशत जनसंख्या को मिला है, जबकि शेष जनसंख्या तुलनात्मक रूप से और अधिक विपन्नता की शिकार हुई है।
ग्लोबल हंगर इंडेक्स के अनुसार दुनिया के 127 देश में भुखमरी के लिहाज से भारत 105वें नंबर पर है।
भारत की कुल 14 प्रतिशत आबादी भुखमरी की शिकार है जिसके कारण भारत की स्थिति को गंभीर यानी बेहद चिंताजनक बताया गया है। गरीब समझे जाने वाले श्रीलंका, बांग्लादेश, नेपाल और भूटान जैसे देशों की हालत भी इस सर्वेक्षण के अनुसार भारत से कहीं बेहतर है।
इन आंकड़ों के जरिए यह बात आसानी से समझी जा सकती है कि वैश्वीकरण के बाद भी भारतीय मध्यवर्ग भारतीय जनमत और राजनीति पर कोई उल्लेखनीय प्रभाव डालने की स्थिति में नहीं है। यहां मध्यवर्ग से हमारा इशारा उन लोगों की तरफ है जो स्वास्थ्य, शिक्षा और आवास जैसी बुनियादी जरूरत के विषय में खुद को सुरक्षित महसूस नहीं करते हैं। ऐसे ही लोग उपभोक्ता वस्तुओं के अलावा बौद्धिक वैचारिक उत्पादों का और सेवाओं का वृहत्तर बाजार बना सकते हैं। ऐसे ही लोग ठहर कर सोचने-विचारने के लिए समय निकाल सकते हैं। भारत में ऐसे लोगों की आनुपातिक मौजूदगी नगण्य है।
इसका सीधा नतीजा यह है कि भारत में नई सोच और नई सृजनशीलता का तेजी से विकास नहीं हो पा रहा है। आज भी मतदाताओं की एक बड़ी तादाद ऐसी है जिसका वोट, कुछ राजनीतिक दलों को लगता है, सिर्फ दो जून की मुफ्त रोटी देकर खरीदा जा सकता है। जो अपनी रोटी का इंतजाम कर सकते हैं उनमें भी सबसे बड़ी तादाद उन लोगों की है जो अभी भी इतना असुरक्षित महसूस करते हैं कि उन्हें किसी काल्पनिक शत्रु समुदाय, जैसे मुसलमान, का डर दिखाकर मुट्ठी में किया जा सकता है।
(2)स्वाधीनता के पहले के समय की तुलना में संख्या की दृष्टि से जरूर भारतीय मध्यवर्ग का विस्तार हुआ है, लेकिन आनुपातिक दृष्टि से वह आज भी पहले की तरह नगण्य है। स्वाधीनता के पहले मध्यवर्ग मुख्यतः उन लोगों का था जो अंग्रेजी शिक्षा के बलबूते सरकारी नौकरियों पर काबिज थे। आजादी के पहले भी इस वर्ग का चरित्र बेहद ढुलमुल था। अंग्रेजी की आधुनिक उदारवादी शिक्षा के कारण वह आधुनिक मूल्यों और राष्ट्रीय कल्पनाओं के प्रभाव में तो था, लेकिन किसी ऐसे बुनियादी बदलाव के पक्ष में नहीं था जो देश को गुणात्मक रूप से बेहतर समतामूलक समाज बनाने की ओर ले जा सके। देश का राजनीतिक और सांस्कृतिक नेतृत्व मुख्यतः उच्च वर्ग के हाथ में था जिसमें बड़े जमींदार, बड़े वकील और नए पूंजीपति शामिल थे। मजदूरों के उभरते हुए वर्ग को संगठित करने का काम कम्युनिस्ट पार्टी ने किया, लेकिन उसे देश की राजनीतिक मुख्य धारा से बाहर रखा गया।
1947 तक भारत की 40 करोड़ आबादी में अधिकतम 50 लाख लोग ऐसे थे, जिन्हें मध्यवर्ग कहा जा सकता था। अपने छोटे आकार के बावजूद उपनिवेश-विरोधी राष्ट्रीय संघर्ष की परिस्थितियों में इसी मध्यवर्ग से प्रेमचंद और निराला जैसी साहित्यिक प्रतिभाएं उत्पन्न हुईं। इसी मध्यवर्ग से भगत सिंह और आंबेडकर जैसे क्रांतिकारी सामने आए। इसी मध्यवर्ग से साहित्य और कला का प्रगतिशील आंदोलन उत्पन्न हुआ। यानी एक वर्ग के बतौर ढुलमुल और अवसरवादी होते हुए भी उसने ऐसी रचनात्मक प्रतिभाओं को जन्म दिया, जिन्होंने विशाल भारतीय जनता के उत्पीड़न की पीड़ा और परिवर्तन की आकांक्षा को प्रभावशाली ढंग से मुखर किया।
आजादी के बाद, सत्तर-अस्सी के दशक तक, इस मध्यवर्ग से ऐसी प्रतिभाएं सामने आती रहीं जिन्होंने भारत के सुदूर इलाकों में परिवर्तन के मूलगामी आंदोलन को नेतृत्व प्रदान किया। 70 के दशक के क्रांतिकारी आंदोलन में मध्यवर्ग से आए नेतृत्व की भूमिका को दरगुजर नहीं किया जा सकता। इस तरह आकार में बहुत सीमित होते हुए भी भारतीय मध्यवर्ग से आई विचारशील प्रतिभाओं ने एक प्रभावशाली भूमिका निभाई।
21वीं सदी का भारतीय मध्यवर्ग मुख्य रूप से उदारीकरण की प्रक्रियाओं की देन है। इसकी जीवन दृष्टि पर निरंकुश बाजार की विचारधारा का गहरा असर है। उससे भी अहम बात यह है कि उसकी जीवन परिस्थितियां पूरी तरह निरंकुश बाजार की गिरफ्त में हैं। उसके पास संसार के बारे में सोचने-समझने का समय बिलकुल नहीं है। उसकी जीवन शैली है हाड़तोड़ काम और बचे खुचे समय में दिमाग-तोड़ पार्टी।
वह मुख्यतः कॉरपोरेट मजदूर है। उसकी जीवन परिस्थितियां इस बात की इजाजत नहीं देतीं कि वह अपने भीतर से कोई क्रांतिकारी प्रतिभा या विचार उत्पन्न कर सके।
बाजार उसके असुरक्षा भाव को निरंतर बढ़ाता रहता है। विचारहीनता और असुरक्षा भाव के मेल से वह भी कई गरीब तबकों की तरह आसानी से नफरती भावनात्मक राजनीति और धार्मिक किस्म के राष्ट्रवाद का शिकार हो जाता है।
शिक्षा और सरकारी नौकरियों में आरक्षण के प्रावधान के चलते 20वीं सदी के आखिरी दशकों में दलित, पिछड़े और आदिवासी समुदायों के बीच से नए राजनीतिक नेतृत्व का विकास हुआ। सामाजिक न्याय और बहुजनवाद का झंडा लेकर चलने वाले इस नेतृत्व ने पुराने वर्चस्वमान वर्ग को गंभीर चुनौती दी। इस चुनौती से भारतीय राजनीति में गहरी उथल-पुथल पैदा हुई। तथापि इस नए नेतृत्व की महत्वाकांक्षा सत्ता में भागीदारी तक सीमित थी। मूलगामी सामाजिक राजनीतिक बदलाव की दृष्टि उसके पास नहीं थी।
यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि धीरे-धीरे धार्मिक कट्टरतावादी विचारधारा ने इसके जनाधार के बड़े हिस्से को अपनी ओर खींच लिया। हिंदुत्व की विचारधारा के पास उनके लिए सत्ता में हिस्सा देने की अधिक भरोसेमंद गारंटी के साथ राष्ट्रीय रूपांतरण का विराट स्वप्न भी था। उसके पास कुंठा को आक्रोश और आवेग में बदलने के लिए नफरत की राजनीति भी थी। इसके बावजूद आज भी वैचारिक-सांस्कृतिक इलाकों में नई दिशाओं की खोज की बेचैनी इसी जनाधार से निकलती दिखाई देती है। स्त्री और अल्पसंख्यक दो ऐसे नए समुदाय हैं जो उत्पीड़न की बढ़ती वैश्विक समझदारी के कारण बदलाव की नई आकांक्षाओं को स्वर देने में सबसे आगे हैं। इन तबकों से उठ रही नई रचनात्मक शक्तियां अगर बुनियादी बदलाव के किसी विराट स्वप्न और विचारधारा से जुड़ सकें तो भारतीय समाज में नए आलोड़न की उम्मीद की जा सकती है।
(3)पहले ही कहा जा चुका है कि भारतीय समाज में मध्यवर्ग की आनुपातिक उपस्थिति नगण्य है। उदारीकरण की असीमित होड़ में बढ़ते सामाजिक आर्थिक ध्रुवीकरण के चलते इसके और अधिक कमजोर और निष्प्रभावी होते जाने की आशंका वास्तविक है।
(4)छोटे से भारतीय मध्यवर्ग का सबसे बड़ा हिस्सा कला साहित्य और संस्कृति की दृष्टि से कॉरपोरेट कल्चर के असर में है। नीरस जीवन में सनसनी की तलाश में वह या तो सनसनीखेज फिल्मों और वेब सीरिज की तलाश में रहता है या फिर कथित रेव पार्टियों में अपना समय खपाता है। बदलाव की जेनुइन आकांक्षा रखने वाली प्रतिभाएं आदिवासी, दलित, अल्पसंख्यक और स्त्री समुदायों के बीच ही अब अधिक दिखाई देती हैं।
(5)बिना मध्यवर्ग के पुनरुत्थान के किसी देश का पुनरुत्थान नहीं हो सकता। मध्यवर्ग के मूलगामी परिवर्तनकामी चिंतन और कामगार तबकों के जमीनी संघर्ष से ही बदलाव की उम्मीद की जा सकती है। संकट हमेशा नई संभावनाओं को जन्म देता है। भारत के बौद्धिक वातावरण में उसे नए समय की आहट सुनाई दे रही है जिसमें उत्पीड़ित अस्मिताओं की सांस्कृतिक-राजनीतिक लड़ाई समाज के क्रांतिकारी रूपांतरण की वर्ग-आधारित मार्क्सवादी समझदारी के साथ एकताबद्ध हो सकती है।
इस नए समय की आहट साफ-साफ सुनी जा सकती है। जातिगत जनगणना, स्त्री संघर्षशीलता, राष्ट्रीय सद्भाव और आर्थिक न्याय की चर्चाओं के लिए बढ़ता हुआ जन समर्थन और नफरत की विभाजनकारी भावनात्मक राजनीति के प्रति बढ़ती हुई लोक निराशा इस नए भविष्य का संकेत दे रही है।
बी 802, आकृति शांतिनिकेतन, सेक्टर 143 बी, नोएडा–201304
जवरीमल्ल पारख वरिष्ठ आलोचक। साहित्य, संस्कृति, मीडिया और सिनेमा पर नियमित लेखन। अद्यतन पुस्तक :‘साझा संस्कृति, सांप्रदायिक आतंकवाद और हिंदी सिनेमा’। |
मध्यवर्ग के लोग आत्मावलोकन करें
(1)वैश्वीकरण का मध्यवर्ग पर किस तरह का असर पड़ा है, इसे समझने के लिए यह जानना जरूरी है कि हम मध्यवर्ग से क्या अपेक्षा करते हैं और मध्यवर्ग स्वयं अपने से क्या अपेक्षा करता है। मार्क्सवादी परिभाषा के अनुसार दरअसल वर्ग दो ही होते हैं। एक, जिसका उत्पादन के साधनों पर अधिकार होता है और दो, जिसका उत्पादन के साधनों पर अधिकार नहीं होता। उसे अपना श्रम और कौशल बेचकर अपने जीवन का निर्वाह करना होता है। ये दोनों बुनियादी वर्ग हैं जिनके बीच के संघर्ष को ही वर्ग संघर्ष कहा गया है। लेकिन इन दोनों वर्गों के बीच कुछ ऐसे वर्ग होते हैं जिन्हें पेटी बूजुर्वा या निम्न पूंजीपति वर्ग कहते हैं जो न श्रमिक वर्ग में आते हैं और न ही पूंजीपति वर्ग में आते हैं। उनके पास बहुत मामूली सी पूंजी होती है और उसके माध्यम से वे छोटा-मोटा व्यापार, दुकानदारी आदि करते हैं और इस तरह अपना जीवनयापन करते हैं। वे अपने को श्रमिक वर्ग में नहीं मानते।
प्रौद्योगिकी के विकास के साथ बहुत से ऐसे रोजगार पैदा हो गए हैं जिनमें श्रम से अधिक कौशल की जरूरत होती है। इस कौशल की उन्हें श्रमिकों की तुलना में काफी ज्यादा कीमत मिलती है। इस ज्यादा कीमत के बल पर वे श्रमिकों की तुलना में न केवल बेहतर जीवनयापन कर पाते हैं बल्कि अपनी आय का एक हिस्सा वे आय को बढ़ाने में लगा पाते हैं। इस तरह वे भी अपने को न केवल श्रमिक वर्ग से अलग कर पाते हैं बल्कि पूंजीपति वर्ग से उनकी निकटता बढ़ने लगती है। इस वर्ग में अध्यापक, डॉक्टर, इंजीनियर, फिल्म कलाकार आदि आते हैं। इस प्रकार इन्हीं दोनों वर्गों से मध्यवर्ग का निर्माण होता है।
आय के लिहाज से मध्यवर्ग में कई स्तर होते हैं। यही वजह है कि इसको प्राय: तीन उपवर्गों में विभाजित किया जाता है : निम्न मध्यवर्ग, मध्य मध्यवर्ग और उच्च मध्यवर्ग। लेकिन होता यह मध्यवर्ग ही है। स्पष्ट ही मध्यवर्ग का संकट न तो श्रमिक वर्ग की तरह का होता है और न ही पूंजीपति वर्ग की तरह का। उसकी आकांक्षा आर्थिक रूप से ऊपर उठने की होती है लेकिन परिस्थितियां नीचे की ओर धकेलने लगती हैं। वैश्वीकरण से पहले तक मध्यवर्ग का एक शिक्षित और सजग हिस्सा अपने को श्रमिक वर्ग से जोड़कर देखता था। वह चाहता था कि शोषण और उत्पीड़न पर आधारित यह व्यवस्था समाप्त हो। इस व्यवस्था के समाप्त होने में ही स्वयं मध्यवर्ग की सुरक्षा और समृद्धि है। लेकिन सोवियत संघ सहित समाजवादी व्यवस्थाओं के ढहने और वैश्विक स्तर पर पूंजीवादी-साम्राज्यवादी ताकतों के और मजबूत होते जाने ने मध्यवर्ग का समाजवाद से मोहभंग कर दिया। उनके अपने संगठन और आंदोलन कमजोर होने लगे, तो दूसरी ओर, पूंजीवादी व्यवस्था के विस्तार ने साथ ही साथ नई टेक्नोलॉजी के विकास और विस्तार ने मध्यवर्ग को आगे बढ़ने के और बेहतर अवसर उपलब्ध कराए। उसकी आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर हुई। इस तरह वह अपने को श्रमिक वर्ग से और दूर करता चला गया।
लेकिन वैश्वीकरण का लाभ पूरे मध्यवर्ग को नहीं मिला। केवल उस हिस्से को मिला जो पहले से अपेक्षाकृत संपन्न था और जिसकी पहुंच प्रौद्योगिकी-प्रबंधन के नए सिद्धांतों को सीखने, हासिल करने और उसे अपनाकर लाभ कमाने के मामले में औरों से बेहतर थी। मध्यवर्ग का ज्यादातर हिस्सा नीचे की ओर धकेला जाकर श्रमिक वर्ग के लगभग पास पहुंच गया। वैश्वीकरण के विस्तृत होने के साथ पूंजीवाद का विस्तार हुआ और दूसरी तरफ उसका संकट भी बढ़ा।
दूसरे विश्वयुद्ध के बाद समाजवादी ताकतों के बढ़ते प्रभाव ने दुनिया भर के श्रमिक वर्ग को एकजुट होने और संघर्ष करने के लिए प्रेरित किया। इन संघर्षों से वे अपने पक्ष में बेहतर कानून और सुविधाएं जुटाने में कामयाब रहे। इसका लाभ मध्यवर्ग को भी मिला। लेकिन वैश्वीकरण ने मजदूर संगठनों को कमजोर किया और उनके संघर्षों में बिखराव आया। उनकी सौदेबाजी की ताकत में गिरावट आई जिसके परिणामस्वरूप उनको मिली सुविधाएं और साधन एक-एक कर उनसे छिने जाने लगे।
इसका असर मध्यवर्ग पर भी पड़ा। रोजगार की गारंटी धीरे-धीरे खत्म हो गई। आठ घंटे की पाबंदी भी समाप्त हो गई। इस तरह केवल श्रमिक वर्ग ही नहीं मध्यवर्ग भी और अधिक गहरे संकट में धकेला जाता रहा। मध्यवर्ग के सबसे ऊपरी हिस्से की आय में बढ़ोतरी हुई, लेकिन उनके काम करने का समय असीमित हो गया। अब वे आठ घंटे के नहीं चौबीस घंटे के नौकर हो गए।
आज का मध्यवर्ग सातवें-आठवें दशक वाला मध्यवर्ग नहीं है। उसका सबसे ऊपरी हिस्सा इस लुटेरी पूंजीवादी व्यवस्था को बचाए और बनाए रखना चाहता है क्योंकि उसे अपने लाभ और अपनी समद्धि इस वैश्वीकरण की वजह से ही नजर आती है। जबकि मध्यवर्ग के उस हिस्से को जो अब भी गहरे संकट में है, उसे वर्गीय आधार पर संगठित होने से रोकने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए भारत में ही नहीं संपूर्ण विश्व में दक्षिणपंथी, अंधराष्ट्रवादी, सांप्रदायिक और धार्मिक पुनरुत्थानवादी विचारधाराओं को प्रोत्साहन दिया जा रहा है। मध्यवर्ग का एक बड़ा हिस्सा इन जनविरोधी विचारधाराओं के प्रभाव में फँसता जा रहा है। यह महज संयोग नहीं है कि न केवल विकसित देशों बल्कि विकासशील देशों में भी मध्यवर्ग का बड़ा हिस्सा दक्षिणपंथी और फासीवादी संगठनों और आंदोलनों के चंगुल में आता जा रहा है और अपने ही हितों के विरुद्ध काम कर रहा है।
(2) स्वाधीनता के पहले मध्यवर्ग के शिक्षित और सजग हिस्से ने देश की आजादी के आंदोलन में न केवल भाग लिया बल्कि उसका नेतृत्व भी किया। यही नहीं इसी मध्यवर्ग ने यह संकल्पना भी सामने रखी कि स्वतंत्र भारत कैसा हो। यह नहीं भूलना चाहिए कि महात्मा गांधी, जवाहरलाल नेहरू, मौलाना आजाद, सुभाषचंद्र बोस, भगत सिंह आदि महान स्वतंत्रता सेनानियों का संबंध मध्यवर्ग से ही था। उन्होंने किसान, मजदूर और दूसरे समुदायों में देशभक्ति की भावना भरने और देश के लिए कुरबान होने को प्रेरित किया।
इस मध्यवर्ग में दलित और महिलाएं भी शामिल थीं जिन्होंने आजादी की लड़ाई में भाग लेने के साथ-साथ दलित वर्गों और महिलाओं में भी सामाजिक जागरूकता लाने का काम किया। दलित उत्थान के लिए ज्योतिबा फुले, बाबा साहेब आंबेडकर ने जो प्रयत्न किए उसका प्रभाव आजतक देखा जा सकता है। लेकिन इसी मध्यवर्ग का एक हिस्सा सांप्रदायिक और पुनरुत्थानवादी विचारधारा के प्रभाव में भी आने लगा था। इस विचारधारा ने देश का विभाजन करने में अहम भूमिका निभाई तो दूसरी ओर आजादी के बाद के दौर में आजादी के दौर के प्रगतिशील और जनोन्मुखी मूल्यों को कमजोर करने में भी सक्रिय भूमिका निभाई। हमारे देश में स्वतंत्रता, धर्मनिरपेक्षता, सामाजिक न्याय जैसे महान मूल्यों पर आधारित जिस संविधान का निर्माण किया गया, मध्यवर्ग के दक्षिणपंथी और प्रतिक्रियावादी हिस्से ने उसे कमजोर करने का काम भी किया। यह महज संयोग नहीं है कि आजादी के आंदोलन के महान मूल्य जिनके प्रति आजादी के दौर के मध्यवर्ग की गहरी आस्था थी, आज 21वीं सदी के मध्यवर्ग में वह आस्था न केवल बहुत कमजोर हो गई है, बल्कि जिनकी संविधान पर बिलकुल आस्था नहीं है, मध्यवर्ग का एक बड़ा प्रतिगामी हिस्सा उनका पिछलग्गू बना हुआ है। इसका अर्थ यह नहीं है कि पूरा मध्यवर्ग इसके प्रभाव में आ चुका है। मध्यवर्ग का वह हिस्सा भले उतना बड़ा और मजबूत न हो, जितना कि आजादी के आरंभिक दशकों में था, वह न केवल आज भी मौजूद है बल्कि देश के धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक चरित्र की रक्षा के लिए संघर्षरत है।
(3) वैश्विकता के कारण बढ़ती विषमता ने मध्यवर्ग के एक बड़े हिस्से को गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई से इतना अधिक त्रस्त कर दिया है कि वह अपनी इस दयनीय स्थिति के लिए व्यवस्था के शोषणकारी चरित्र पर ध्यान देने के बजाय सत्ता के उस प्रचार के झांसे में आ जाता है जो जनता को यह बताने में कामयाब रहता है कि उसकी इस स्थिति के लिए यदि एक ओर आजादी के बाद की सत्ता की जनविरोधी नीतियां जिम्मेदार हैं, तो दूसरी ओर धार्मिक अल्पसंख्यकों की तुष्टिकरण की नीतियां। नतीजा यह होता है कि जनता अपनी दयनीय स्थिति का जिम्मेदार सत्ता की पूंजीवाद-समर्थक नीतियों को मानने के बजाय जनता के ही दूसरे हिस्से को मानने लगती है। जहां तक केंद्रीय सत्ताओं में मध्यवर्ग की घटती हिस्सेदारी की बात है, यह सही नहीं है। हां, यह जरूर है कि केंद्रीय सत्ता में मध्यवर्ग के जिस हिस्से की भागीदारी आज भी है उसकी स्थिति पहले से कमजोर नहीं हुई है बल्कि मजबूत हुई है। लेकिन मध्यवर्ग का यह वह हिस्सा है जो मौजूदा सत्ता और व्यवस्था से वैचारिक जुड़ाव रखता है और सत्ता के हित से अपने हितों को जोड़कर देखता है।
(4) जो सबसे बड़ा परिवर्तन दिखाई दे रहा है, वह है उन प्रगतिशील जीवन-मूल्यों के प्रति आस्था और प्रतिबद्धता का अभाव जो सातवें-आठवें दशक तक मध्यवर्ग में दिखाई देते थे। अस्तित्व संबंधी संकट इसकी वजह हो या स्वार्थ प्रेरित महत्वाकांक्षाओं का बढ़ना, मध्यवर्ग केवल उन क्षेत्रों में ही कुशलता और प्रवीणता हासिल करना चाहता है जो उसके जीवन को आर्थिक और सामाजिक रूप से न केवल सुदृढ़ बनाए बल्कि उसे हर कीमत पर लगातार सफल बनाए। अब वह जीवन को सार्थक नहीं सफल बनाने में ही यकीन करता है।
यह बात कला, साहित्य और संस्कृति के क्षेत्र में सक्रिय लोगों पर भी लागू होती है। विचारधारा अब उनके लिए महत्वपूर्ण नहीं रह गई है। अब वे अपने को कलाकार के रूप में नहीं निष्पादक के रूप में देखते हैं। साहित्य में सक्रिय लेखकों में भी यही देखा गया है कि उनमें न केवल वैचारिक सजगता का अभाव दिखाई देता है बल्कि वे अपनी रचनाओं को ऐसे सभी विषयों से बचाना चाहते हैं जिनमें सत्ता की नाराजगी का खतरा हो। यही वजह है कि साहित्य में अमूर्तन की प्रवृत्ति बढ़ी है। यह प्रवृत्ति लोकप्रिय कलाओं में ज्यादा देखी जा सकती है।
हिंदी साहित्य में इस दृष्टि से ज्यादा बदलाव इसलिए नहीं दिखाई देता कि हिंदी भाषी समाज सबसे बड़ा भाषाई समाज होने के बावजूद, इसमें साहित्य और कला के प्रति अभिरुचि का गहरा अभाव है। इसलिए सत्ता को हिंदी साहित्य से कोई खतरा महसूस नहीं होता। इसके विपरीत सत्ता के प्रकोप का असर हिंदी सिनेमा में दिखाई देता है जिसमें सत्ता की थोड़ी भी आलोचना फिल्म के प्रदर्शन को संकट में डाल देती है। यही नहीं अब हिंदी सिनेमा में ऐसे फिल्मकार सक्रिय हो गए हैं जो मौजूदा सत्ता के पक्ष में प्रोपेगेंडा फिल्म बनाने में ही अपनी कला का इस्तेमाल कर रहे हैं।
(5) पिछले तीन दशकों में मध्यवर्ग में जो वैचारिक और नैतिक गिरावट आई है, उस गिरावट से वह अपने को तब ही रोक सकता है जब वह अपनी मौजूदा स्थिति पर आत्मावलोकन करे। लेकिन आत्मावलोकन वह तभी कर पाएगा जब उसके आसपास संघर्ष की स्थितियां पैदा हों और उसका असर स्वयं उसके जीवन पर हो। मध्यवर्ग का वह हिस्सा जो पिछले तीन दशकों से गहरे संकट से गुजर रहा है, उनके बीच काम करने वाले प्रगतिशील राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक संगठन न केवल और ज्यादा सक्रिय हों बल्कि मध्यवर्ग को उन मेहनतकश वर्गों से जोड़ें जिनकी स्थिति उनसे बदतर है। यह भी जरूरी है कि वह जातिवाद और सांप्रदायिकता के विरुद्ध वैसा ही संघर्ष करे जैसा संघर्ष 19 वीं सदी के दौरान किया गया था। दक्षिणपंथी और सांप्रदायिक ताकतों के विरुद्ध संघर्ष में सभी धर्मनिरपेक्ष, लोकतांत्रिक और सामाजिक न्याय में यकीन करने वाली ताकतों को एकजुट होकर काम करना पड़ेगा। पहले ही काफी देर हो चुकी है और अब देर की तो भारतीय मध्यवर्ग पूरी तरह गर्त में चला जाएगा।
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