युवा रचनाकार। एक आलोचना पुस्तक ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास और भारतीय राजनीति’।
लोग उसे झब्बू कहते थे। दस-ग्यारह साल का रहा होगा। सुबह-सुबह ही वह छतरीवाले विशाल मकान के गेटमैन के पास पहुंच गया था। भूरे रंग की मैली शर्ट, देह की जामुनी रंगत से मिली हुई। दो बटन छोड़कर बाकी गायब। निक्कर के एक पैर की तुरपाई खुली हुई। गेटमैन ऊंघ रहा था। दोनों हाथ जेब में डाले वह थोड़ी देर तक उसे घूरता रहा और फिर –
‘ए… चाचा!’
‘हूँ…!’
‘ई…. हाता में पीछे वाली बत्ती परसों से काहे नाहीं जल रही है… अएँ?’
‘तुमसे का मतलब?’
‘जलवा दो न!’
‘पगलेट हो का बे!’
‘नहीं।’
‘तो… ये तेरा घर है?’
‘नहीं।’
‘तब काहे पूछ रहा है?’
‘आज जलेगी?’
‘अरे!… तुमको करना क्या है?
‘कुछ नहीं।’
‘तो क्यों सिर खा रहा है मेरा!’
‘साहब भूल गए होंगे जलाना।’
‘हाँ…तब?’
‘उनको याद दिला दो…और का?’
‘अबे साले… भाग यहाँ से…नहीं तो…!’
गेटमैन मारने के लिए हाथ उठाकर कुर्सी से खड़ा हो गया। झब्बू एक कदम पीछे हटा। पल भर के लिए गेटमैन को देखा और इत्मीनान से टहलते हुए वापस चला गया। मकान की चारदीवारी की बगल से अपने घर की ओर मुड़ते हुए उसने एक बार फिर गेटमैन की ओर देखा।
उस विशाल घर के ठीक पीछे, चारदीवारी से सटे एक नाला था, जिसके दूसरे किनारे पर झब्बू का घर था। बांस के ढांचे पर तीन-चार पुराने कटरैन, किसी अपार्टमेंट के विज्ञापनवाले लैक्स बैनर का टुकड़ा और प्लास्टिक की बोरियाँ छाजन के तौर पर पड़ी हुई थीं। कहीं-कहीं उन्हें ईंटों से दबाया गया था। सामने की ओर से ईंट की छोटी-सी दीवार खड़ी कर दी गई थी। ऐसी ही तीन-चार झोपड़ियाँ नाले के इस किनारे बनी थीं। इनके सामने पतली-सी सड़क थी और उसके बाद रेलवे की चारदीवारी। यह बस्ती कॉलोनी के पिछले हिस्से में थी। इधर लोगों का आना-जाना बहुत कम था। कभी-कभी आस-पास के लोग झब्बू के घर की बगल में कूड़ा फेंकते दिख जाते थे।
छतरी वाले घर की चारदीवारी पर एक बल्ब लगा हुआ था, जिससे परिसर में उजाला रह सके। उसका प्रकाश इन झोपड़ियों तक भी जाता था, लेकिन वह परसों से जल नहीं रहा था। इससे कठिनाई तो सबको हुई होगी, लेकिन वह बड़ी-बड़ी तकलीफों और झंझटों के नीचे कहीं दबकर रह गई होगी। इसीलिए किसी ने इस बात पर बहुत माथा-पच्ची नहीं की कि वह बल्ब कैसे जलेगा। यह काम झब्बू के हिस्से रह गया।
नाले की मोटी दीवार जमीन से थोड़ी ऊंची थी। बस्ती के लोग इसका कुर्सी की तरह इस्तेमाल करते थे। झब्बू यहीं आकर बैठ गया नाले में पैर लटकाकर। उसे नाले में तेजी से बहता हुआ काला-काला पानी देखना अच्छा लगता था। उसमें तरह-तरह की चीजें भी बहती रहती थीं। यह देखना मजेदार होता कि कौन कितनी तेजी से बह रहा है या कौन सी चीज आगे जाकर किससे टकराकर रुक गई और पीछे-पीछे बहती आ रही चीज उससे आगे निकल गई। बहती वस्तुओं को पहचानना भी एक खेल था। जब कभी कोई वस्तु पसंद आ जाती तो वह उसे अपने लंबे डंडे से फंसा कर निकाल लेता और धोकर अपने खजाने में जमा कर लेता। घर के पास ही पाकड़ के पेड़ के नीचे उसने ईंटों और बेकार फुटमेट से चूल्हे की शक्ल में एक कोठार जैसा बना रखा था। लेकिन आज उसका मन इस खेल में नहीं लग रहा था। उसकी द़ृष्टि भटक रही थी इधर-उधर।
नाले के किनारे बने सभी पक्के मकानों के पानी-निकासी के पाइप नाले में ही खुलते थे। सुबह का समय था, इसलिए अधिकांश से रह-रहकर पानी गिर रहा था। गेटमैन वाले घर के पाइप से गिरते पानी को देखते-देखते अचानक झब्बू की, स्लेट पर चाक की लकीर की तरह आंखों में एक चमक कौंधी, जो तुरंत चेहरे को जगमग कर गई। जो सूझा था, उसे पहले तो तुरंत ही कर देने का मन हुआ, लेकिन फिर खयाल आया कि अब समय दूसरे काम का हो गया है। जुमे की नमाज का दिन है… जामा मस्जिद निकलना है और जल्दी ही, नहीं तो मस्जिद से बहुत दूर जगह मिलेगी बैठने के लिए, फिर नतीजा… कम कमाई। उसने एक द़ृष्टि चारदीवारी वाले बल्ब पर डाली, जो परसों से जल नहीं रहा था और झटपट हरे रंग के कपड़े की एक पट्टी सर पर बांधकर चल दिया। मन ही मन अपने को सचेत किया कि पिछली बार वाली गलती दुहरानी नहीं है। जल्दबाजी में ‘अल्लाह’ की जगह ‘जै बजरम बली’ मुंह से निकल गया था। शायद एक दिन पहले हनुमान मंदिर के सामने दिन भर ‘जै बजरम बली’ का जो उच्चार हुआ था, उसका ही प्रभाव था। वैसे, बगल में बैठे उसके साथी अब्दुल ने समय रहते स्थिति को संभाल लिया था और उसे याद दिलाया था कि यहाँ इससे काम नहीं चलेगा। यह मस्जिद है, मंदिर नहीं।
सुबह के दस-ग्यारह बज रहे थे। झब्बू नाले की दीवार पर बैठा था-चुपचाप। शर्ट के बचे हुए दो बटन भी टूट चुके थे। बाल नुचे हुए थे। माँ गोद में बच्चे को दूध पिलाकर चुप कराने की कोशिश करती हुई झब्बू को गालियाँ दे रही थी और बीच-बीच में उसके पिता को कोस रही थी, जो ऐसी औलाद छोड़ गया। पैर पकड़कर उसने झब्बू को उन लोगों से छुड़ाया था। छतरी वाले घर से दो लोग आए थे यह देखने कि पाइप से पानी बाहर क्यों नहीं जा रहा है और मुहल्ले के ही किसी लड़के ने बता दिया था कि ईंट के टुकड़ों और गारे से निकासी पाइप का मुंह झब्बू ने ही बंद किया है रात में। पहले उसे माँ-बाप के नाम से अनगिनत गालियां मिलीं, जिनका कोई प्रभाव उसके चेहरे पर नहीं दिखाई दिया और आंखें उन लोगों की आंखों से मिलती रहीं। फिर कई थप्पड़ मिले, लेकिन वे अंतत: नहीं जान पाए कि झब्बू ने ऐसा क्यों किया।
शनिवार का दिन था। झब्बू एक छोटी-सी थाली, तेल रखने के लिए एक बर्तन और शनि देव की एक फोटो लेकर शनि मंदिर जा रहा था। कॉलोनी से बाहर निकलते ही लाइनमैन दिख गया, जो एक पोल पर चढ़ने की तैयारी में था।
‘चाचा…।’ झब्बू बोला। उसकी आंखों में चमक आ गई थी।
‘क्या है?’ लाइनमैन ने उड़ती द़ृष्टि से झब्बू को देखते हुए पूछा।
‘उधर… नाले के किनारे हमारा घर है…।’
‘तो…!’
‘एक ठो बल्लफ लगा दो… बिजली का खंभा है वहाँ।’
‘क्या करेगा बे… तुम्हारे बाप के नौकर हैं? बदमाश!’
‘लगा दो न।’
‘भाग यहाँ से… ससुरा।’
लाइनमैन बड़बड़ाता जा रहा था और सीढ़ी पर चढ़ता जा रहा था। अभी वह बीच में ही था कि साइकिल के पहिए से हवा निकलने की आवाज आई। देखा, तो झब्बू अब दूसरे पहिए पर अपना काम कर रहा था। गालियां देते हुए उसने झब्बू को दौड़ाया। झब्बू बच तो गया, लेकिन भागने में शनि देव का फोटो रास्ते में ही कहीं उड़ गया। तेल वाला बर्तन भी न जाने कहाँ गिर गया। वह सोच रहा था कि तेल तो गया, पैसा भी कम ही मिलेगा… आज अम्मा की गालियां खानी ही पड़ेंगी।
रेलवे की चारदीवारी के उस ओर यानी रेलवे लाइन के किनारे मैकेनिक सिगनल की मरम्मत कर रहा था। झब्बू को यह भी एक अवसर लगा काम करवाने का। चारदीवारी के उखड़े ईंटों पर पैर जमा कर चढ़ गया और लगभग मैकेनिक के पास पहुंच गया।
‘भइया… एक ठो बल्लफ लगा दो इसमें…।’
‘पगलेट हो…’, मैकेनिक हँसा, ‘इसमें बल्ब लगता है कहीं!’
‘अच्छा… इधर वाले खंभे पर लगा दो।’
‘काहे… तुम्हारा कर्जा खए हैं?’
‘लगा दो भइया…।’
‘बल्ब लगवा के क्या करेगा… पढ़ाई करेगा?… डी एम बनेगा क्या बे?’ हँसा था वह, ‘फिर तेरी जीवनी में लिखा जाएगा कि स्ट्रीट लाइट में पढ़कर इन्होंने यह मुकाम हासिल किया…।’ उसकी हँसी तेज हो गई।
‘ए भइया… बस एक ठो लगा दो।’
‘भाग यहाँ से… काम करने दे… अवारा… कुकुर-बिलार सब पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं।’
वह उतर गया। ईंट का एक छोटा-सा टुकड़ा उसके हाथ से गोली की तरह चला और … टन्न ….सिगनल पर लगा था। गालियां शुरू हो गई थीं, लेकिन सुनने के लिए झब्बू वहाँ नहीं था।
आज झब्बू नीले रंग का एक दूसरा निक्कर पहने नाले की दीवार पर बैठा हुआ था। माँ कहीं से लाई थी। पाते ही उसने सबसे पहले जेबें देखीं। कहीं फटी तो नहीं हैं, नहीं तो मुश्किल से हाथ आईं नायाब चीजें कहाँ रखी जाएंगी। उसके लिए जेब दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण चीज थी। पैंट बड़ी हो या छोटी, चेन बंद होती हो या नहीं, कमर पर हुक लगती हो या नाड़ें से बांधना पड़ता हो, कोई बात नहीं, लेकिन जेबें सही सलामत होनी चाहिए। वह जेब से एक कंडोम निकालकर फुलाने लगा। पता नहीं कहाँ से उसे मिला था। शायद कूड़े के ढेर से या फिर नाले में से! हवा भरते-भरते जब थक गया तो उसका मुंह धागे से बांधकर रेलवे की चारदीवारी पर लगी कील में लटका दिया। यह कील उसी ने ठोकी थी, सर्व शिक्षा अभियान, सब पढ़ें सब बढ़ें वाले विज्ञापन में बनी पेंसिल की नोक के ठीक आगे। अब इस चित्र में उसके लिए कोई आकर्षण नहीं रह गया था। तीन-चार साल पहले जब पहली बार उसने इसे देखा था तो रोमांचित हो गया था। पेंसिल पर आगे एक लड़की और पीछे एक लड़के को बैठा देख उसे लगा कि ऐसे तो वह भी उड़ सकता है, लेकिन जब पुलिया की रेलिंग से एक और बच्चे को साथ लेकर एक डंडे के सहारे ऐसा प्रयास करते हुए वह औंधे मुंह सड़क पर गिरा तो चोट सहलाते हुए उसने निष्कर्ष निकाला कि यह तस्वीर फर्जी है और ऐसे तो कोई नहीं उड़ सकता।
शाम का वक्त था। झब्बू हनुमान-मंदिर से लौट आया था। आठ रुपए मिले थे, लेकिन माँ को उसने छह रुपए ही दिए। दो रुपये नाले के पास ही ईंट से दबाकर छिपा दिए। चार लड्डू भी मिले थे, लेकिन उसके हिस्से में एक ही आया, बाकी उसके छोटे भाई-बहनों में बँट गए। उसने अपना डिब्बा उठाया, जिसमें जगह-जगह से मिलने वाली खाने की चीजें जमा थीं और पुलिया पर जा बैठा। वहीं एक गुब्बारे बेचने वाला लड़का भी बैठा था, जो उम्र में झब्बू से कुछ बड़ा ही रहा होगा।
‘तुम यहीं रहते हो?’ गुब्बारे वाले ने पूछा।
‘हूँ।’ झब्बू ने अनमने ढंग से जवाब दिया।
‘तुम तो चौक की तरफ दिखते हो अक्सर!’
‘ये… गुब्बारा कितने का है?’ झब्बू ने लड्डू खाते हुए सवाल के बदले सवाल किया।
‘दो रुपए का।’
‘ये तो तुम्हारे पप्पा बेचते हैं न? …हम देखें हैं।’
‘उनको बोखार है… इसलिए हम…’
‘लो… खाओगे!’ झब्बू ने डिब्बा आगे बढ़ाया।
‘नहीं।’
‘अरे खा लो… इसमें अल्ला मियाँ, बजरम बली, काली माई, अल्ली शाह… सब का परसाद है। तुम्हारा सब काम हो जाएगा।’
गुब्बारे वाले ने थोड़ी लाई और कुछ इलायची दाने लिए।
‘मेरा एक काम कर दोगे?’
‘बोल…’
‘इस खंभा पर एक बल्लफ लगा दोगे?’ अपने घर से थोड़ी दूरी पर लगे बिजली के पोल की ओर इशारा करते हुए झब्बू ने कहा।
‘हमको तो नहीं आता… लेकिन जोगाड़ हो सकता है, लेकिन तुमको क्या काम पड़ गया?’ कंधे पर हाथ रखते हुए गुब्बारे वाले ने पूछा।
‘मेरी अम्मा न… हरदम रात में काम पर जाती है। उस समय जब मेरा बाबू उठ जाता है तो अंधेरा देखकर ज़ोर-जोर से रोने लगता है। हमसे चुप ही नहीं होता। लैट जलती है तो खेलता है।’ कहते-कहते उसकी आंखों से आंसू टपक गए।
‘इसमें रोने की कौन-सी बात है… क्या काम करती है तुम्हारी अम्मा?’
‘हमको नहीं मालूम।’
‘सुबह लौटती है क्या काम से?’
‘न… रात में ही आ जाती है, लेकिन बहुत देर में आती है… और आकर ऐसे सोती है कि बाबू के रोने पर भी नहीं उठती। हमको जगाना पड़ता है। …एक बात बताएँ’, झब्बू के स्वर में थोड़ी चहक आ गई थी, ‘अम्मा जब आती है न … तो उसके कपड़े से बड़ी खुशबू आती है।’
‘और तुम्हारे पापा…!’
‘हम उनको कभी नहीं देखे।’ झब्बू का स्वर सपाट था।
‘क्यों… कहाँ रहते हैं?’
‘पता नहीं… बाबू अंधेरे में डरता है… इसीलिए…’
‘अच्छा… सुन…हमारे मोहल्ले में एक भइया हैं। उनको कटिया से बल्लफ लटकाना आता है। हम लेकर आएंगे कल, लेकिन बल्लफ और तार के पैसे हैं तुम्हारे पास?’
‘बीस रुपए हैं।’
‘चल… देखते हैं, कोई जोगाड़ हो जाएगा। गुब्बारा लेगा?
झब्बू ने उसे प्रश्नसूचक द़ृष्टि से देखा।
‘ले ले… पैसे मत देना।’
‘तुम्हारे पप्पा पूछेंगे तब!’
‘कह देंगे फूट गया।’
संपर्क सूत्र : असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हिंदू कॉलेज, मुरादाबाद-244001 मो.7318321660
बहुत अच्छी कहानी। प्रतिरोध की चेतना की सशक्त अभिव्यक्ति। झब्बू के रूप में बच्चे का जैसा चरित्र इस कहानी में उभरा है शायद ही किसी और हिंदी कहानी में हो।
बहुत धन्यवाद
बहुत प्रभावशाली कहानी है ।
वागर्थ का जनवरी-मार्च 2021 अंक बहुत अच्छा लगा । उन्मेष कुमार सिन्हा, पंकज सुबीर, आयशा आफरीन,पानू खोलिया आदि की कहानियां गहरा प्रभाव छोड़ने वाली हैं। उन्मेष कुमार सिन्हा की कहानी झब्बू विशेष रूप से उल्लेखनीय है। एक बच्चे के माध्यम से प्रतिरोध की वर्गीय चेतना का ऐसा मार्मिक अंकन हिंदी कहानी में दुर्लभ है ।अपने शिल्प में अत्यंत सहज और सरल दिखने वाली इस कहानी में अनेक संकेत और प्रतीक हैं ,जो सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक संदर्भ में व्यापक अर्थ रखने वाले हैं ।कहानी में बल्ब बड़ी बिल्डिंग के मालिक का है ,लेकिन झब्बू उसके प्रकाश पर अपना भी अधिकार समझता है ।यह उसकी नादानी नहीं है। यह संकेत है कि जिस का श्रम है उसी का सब कुछ है। वह अपनी जरूरत गेटमैन ,रेलवे मकैनिक और लाइटमैन सबसे कहता है लेकिन दिल खोलता है तो गुब्बारे वाले लड़के के सामने ही । उसके अंतर्मन को यह पता है कि उसके दर्द को अगर कोई समझेगा तो यही गुब्बारा बेचने वाला
लड़का ही।अन्य तीनों से वह अपनी हैसियतगत दूरी बखूबी समझता है। सर्व शिक्षा अभियान वाले पेंसिल के आगे कील ठोकना , नाली में बहती हुई चीजों को देखना ,एक ही डब्बे में सभी धार्मिक स्थलों के प्रसाद रखना इन सब के गहरे निहितार्थ हैं ।
बहुत धन्यवाद
बच्चे भी संवेदना रखते हैं । मगर मासूमियत और अल्हड़पन भी है। इच्छाएं भी होती है। सब ऐसे ही बीतता है जीवन जैसे कहानी मे है।
शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक कहुपदोऔरहैसियततथाकथितअव्यवक्रिया-कलापों को भी व्यक्त करती है…इस खोज की संवेदनशील प्रस्तुति के लिए बहुत-बहुत बधाई मित्र!
संवाद के लिए आभार
बहुत धन्यवाद
सर जिस तरह से आपने झब्बू के चरित्र को उभारा है वह अद्भुत है,ऐसा सिर्फ आप ही कर सकते हैं।
बहुत धन्यवाद
वागर्थ का जनवरी-मार्च 2021 अंक बहुत अच्छा लगा । उन्मेष कुमार सिन्हा, पंकज सुबीर, आयशा आफरीन,पानू खोलिया आदि की कहानियां गहरा प्रभाव छोड़ने वाली हैं। उन्मेष कुमार सिन्हा की कहानी झब्बू विशेष रूप से उल्लेखनीय है। एक बच्चे के माध्यम से प्रतिरोध की वर्गीय चेतना का ऐसा मार्मिक अंकन हिंदी कहानी में दुर्लभ है ।अपने शिल्प में अत्यंत सहज और सरल दिखने वाली इस कहानी में अनेक संकेत और प्रतीक हैं ,जो सामाजिक राजनीतिक और आर्थिक संदर्भ में व्यापक अर्थ रखने वाले हैं ।कहानी में बल्ब बड़ी बिल्डिंग के मालिक का है ,लेकिन झब्बू उसके प्रकाश पर अपना भी अधिकार समझता है ।यह उसकी नादानी नहीं है। यह संकेत है कि जिस का श्रम है उसी का सब कुछ है। वह अपनी जरूरत गेटमैन ,रेलवे मकैनिक और लाइटमैन सबसे कहता है लेकिन दिल खोलता है तो गुब्बारे वाले लड़के के सामने ही । उसके अंतर्मन को यह पता है कि उसके दर्द को अगर कोई समझेगा तो यही गुब्बारा बेचने वाला
लड़का ही।अन्य तीनों से वह अपनी हैसियतगत दूरी बखूबी समझता है। सर्व शिक्षा अभियान वाले पेंसिल के आगे कील ठोकना , नाली में बहती हुई चीजों को देखना ,एक ही डब्बे में सभी धार्मिक स्थलों के प्रसाद रखना इन सब के गहरे निहितार्थ हैं ।
संवाद के लिए आभार
बहुत धन्यवाद
उन्मेष कुमार सिन्हा की झब्बू कहानी बहुत उम्दा लगी।आधुनिक कहे जाने वाले समाज की आर्थिक विसंगतियों को बहुत इत्मीनान से कहानी की शक्ल में ढाला गया है। जिस नई पीढ़ी के कंधों पर समाज का भविष्य टिका हुआ हैउसके मन में पूरी व्यवस्था की कैसी छवि बन रही है रही है ,इसका भी एक मार्मिक दस्तावेज है यह कहानी।
धन्यवाद
झब्बू कहानी के लिए उन्मेष कुमार सिन्हा को बहुत बधाई ।किसी बड़े यथार्थ का चित्रण करते समय अक्सर कहानीकार डिटेलिंग या बड़बोलेपन का शिकार हो जाता है । लेकिन उन्मेष कुमार सिन्हा अद्भुत कलागत संयम का परिचय देते हुए अपनी कहानी को इस खतरे से बचा ले गए हैं । नतीजा यह है कि कहानी की प्रभाव क्षमता और बढ़ गई है और वह कुछ भी न कहते हुए बहुत कुछ कह जाती है।
धन्यवाद
A tightly woven narration, focussed and precise description, apt treatment of an extremely sensitive issue, blatant criticism of supposedly the most responsible institutions like the society and the authority…. the story entitled ‘Jhabbu’ just stands out as a testament to the times… greetings Unmesh Kumar Sinhaji!!
बहुत धन्यवाद
बहुत ही प्रभावशाली अभिव्यक्ति।झब्बू कहानी यथार्थ को कुरेदकर वर्तमान के वास्तविक चरित्र को उजागर करती है।शिल्प की दृष्टि से सशक्त, संक्षिप्त, सारगर्भित और उद्देश्यपूर्ण । निःसंदेह उन्मेष कुमार सिन्हा जी ने उस बल्ब और उससे निकलने वाली रोशनी के गुम होने का मानवीकरण सफलतापूर्वक किया है। ये रोशनी हमारी आत्मा की, चरित्र की, दृष्टि की और विचारधारा की है,जो धीरे धीरे सिमटती जा रही है।जुगाड़ से कब तक मनुष्यता को संभाला जाएगा? लेखक ने कहानी में झब्बू के माध्यम से अपनी सूक्ष्म अंतर्दृष्टि की प्रयोगधर्मिता को साझा किया है।इस उम्दा कहानी के लिए लेखक के साथ साथ वागर्थ टीम का भी आभार।
बहुत शुक्रिया
Bahut badhiya!!
धन्यवाद
बहुत ही भावात्मक कहानी। एकदम से दिल में उतरने वाली। आभारी हूं वागर्थ का जिसके माध्यम से ऐसी कहानी पढ़ने को मिला।🙏🏻
वागर्थ का नया अंक, उन्मेष सिन्हा जी की कहानी पढ़ी- “झब्बू”
झब्बू रौंगटे खड़े कर देता है। वह सिर्फ़ सोचने पर ही विवश नहीं करता, बल्कि ईमानदारी से अपने गिरहबान में झाँकने के लिए मजबूर भी करता है। कहानी में रचनाकार पाठकों के लिए पूरा स्पेस देता है। वह पाठक की उँगली पकड़ कर समाज की कई खुरदुरी और अँधेरी जगहों तक ले जाता है और फ़िर उसे आत्मचिंतन के लिए स्वतंत्र छोड़ देता है। कथाकार एक साँस में ढेरों बातें कह जाता है, पर कहीं भी उन्हें व्याख्यायित करने के फेर में नहीं पड़ता। यह काम वह पाठकों पर ही छोड़ता है। झब्बू प्रतीक है, एक साथ कई चीजों का और कथाकार इस एक सूत्र को पकड़े कई बिम्बों को गूँथे जा रहा है। जैसे वह ढेरों बातों पर एक साथ अपने कटाक्षों की तलवार चला रहा हो। ग़रीबी, अशिक्षा, साम्प्रदायिकता, बालश्रम, जीवन की त्रासदी, वेश्यावृत्ति और भी ढेरों बिंदुओं को स्पर्श करता है झब्बू..। यह स्पर्श केवल छूना बस नहीं है, झब्बू अपने सारे नाखूनों से समाज की आँखों पर पड़ी चमकीली पन्नियों को नोंचकर, उसे नंगे यथार्थ का कचोटता आईना दिखाने की कोशिश कर रहा है। वह बार-बार बल्ब जलाना चाहता है, ताकि इस तथाकथित सभ्य समाज को, आईने में अपना असली चेहरा साफ़ नज़र आ सके। इसी कोशिश में उसने तथाकथित सुशिक्षित समाज की पेंसिल की नोंक पर एक कील गाड़ दी है और उस पर टाँगता है, उसी समाज के कचरे से निकली अपनी पसन्द की चीजें।
बहुत धन्यवाद
बहुत ही बेहतरीन कहानी है झब्बू,पूरी कहानी चलचित्र के समान आँखों में उतर आयी।बल्ब लगवाने के प्रति झब्बू की मंशा क्या होगी सहज ही कोई अनुमान नहीं लगा सकता।जैसे-जैसे कहानी आगे बढ़ती है रूचिकर होती जाती है।झब्बू की बल्ब लगाने की व्यथा के साथ-साथ समाज की विभिन्न परिपाटियों का सजग वर्णन लेखक उन्मेश कुमार सिन्हा जी के द्वारा किया गया है।
विभिन्न पहलुओं को आपने सहजता से उजागर करने का प्रयास किया है।आपकी कहानी हमारे लिए प्रेरणास्रोत है।
बहुत शुक्रिया
समाज का यथार्थ चित्रण झब्बू के माध्यम से आप ने प्रस्तुत किया है। इस कहानी के लिए आप को बहुत बहुत बधाई । आशा है कि आगे भी आप इसी प्रकार अपनी लेखनी से समाज के अन्य बिंदुओं को भी छूने का प्रयास करते रहेंगे।
धन्यवाद
बहुत बहुत बधाई मित्र उन्मेष। बहुत सुंदर अभव्यक्ति झब्बू के द्वारा की गई है। गागर में सागर जैसा प्रयास एक बच्चे के द्वारा इतने बड़े बड़े मामलों को उजागर करना, समाज को वास्तव में आईना दिखाने के समान है। न जाने कितने झब्बु हमारे आस पास भी हो सकते हैं। हमें तैयार होना होगा ऐसी चुनौतियों को कि कुछ झब्बुओं के बल्लफ हम लगवाने में कामयाब हो सकें।
बहुत शुक्रिया
आकाश भर बधाई…….स्थितियों का बहुत ही सजीव चित्रण भैया मन को छू लेने वाला…….. अनंत शुभकामनाएं
बाल मनोवैज्ञानिक ढंग पर लिखी गयी कहानी झब्बू के माध्यम से कई अव्यस्थाओ पर करारा प्रहार किया गया है,जैसे प्राथमिक शिक्षा, और गरीबी तथा उन लोगो को भी नंगा किया है जो सरकारी संपत्ति पर कुण्डली मारे बैठे हैं।झब्बू गरीब होते हुए भी श्रम हीन नही है,वह श्रम करते हुए अपनी और परिवार की जीविका चला रहा है, वह गरीब और लाचार है लेकिन गरीबी को अभिशाप नही मानता क्योंकि वह गुब्बारे वाले बालक को प्रसाद देते वक्त यही कहता है कि इसमें काली माई, भोलेबाबा और बजरंगबली का प्रसाद है,तुम्हारा सब काम हो जाएगा,ईश्वरीय शक्ति को भी उजागर किया है।
वर्ग का अपना चरित्र होता है यह झब्बू कहानी से परिलक्षित होता है।सहज ,सरल ढंग से लिखी गई कहानी कथ्य और शिल्प के धरातल पर बेजोड़ है।
।।।।।आपको बहुत बहुत बधाई, आगे आने वाली आपकी कहानियों में उपर्युक्त की दरकार है
धन्यवाद
Bahut sundar kahani jhabbu mind blowing.
शुक्रिया
संवेदना किसी की गुलाम नहीं होती ।यह अमीरी-गरीबी से परे होती है।यह उसी का आश्रय हो सकती है,जो सहृदय हो। उन्मेष सिन्हा का ‘झब्बू’ प्रेमचंद के ‘हामिद’ के समान दायित्व बोध से भावित है ।हामिद अपनी ‘दादी’ के प्रति फिक्रमंद है तो झब्बू अपने ‘बाबू’ के लिए।वह हामिद की तरह तार्किक नहीं है, बल्कि खिन्न है; इसलिए वह खुराफ़ाती है।उसकी यह पीड़ा है कि जिस तरह मैं अपनी ‘बाबू’ की मनोभावों को बिना कहे महसूस करता हूॅं, वैसे ही लोग भी महसूस करें।समदुखकातर मनुष्य ही अपनी मनोभावों का आदान-प्रदान करते हैं झब्बू भी अपनी बात कहने के लिए गुब्बारे वाले को चुनता है।
अर्द्ध सत्य सदैव क्षुब्धकारी होता है।’झब्बू’ को अपने माता के बारे में तो पता है लेकिन उसका पिता कौन है इसका उत्तर इस कहानी में संकेत के माध्यम से उजागर किया गया है।जब गुब्बारे वाला लड़का उसकी मॉं के बारे में पूछता है तो वह कहता है,-“यह तो पता नहीं कि मॉं रात में काम पर कहां जाती है पर जब वह लौटती है तो उसके शरीर से बहुत सुगन्ध आती है।”साथ ही यह बात भी निकल कर सामने आती है कि वह पूंजीवाद के बल्ब के आलोक में पालित किसी हबसी व्यक्ति की सन्तान है।जो उसे और उसके बाबू को अभिशप्त जीवन जीने को बाध्य किया है।खुश तो झब्बू की मॉं भी नहीं है क्योंकि वह भी झब्बू के बहाने उसके बाप को गाली देती है।
जरूरतमंद इन्सान इस बात का विचार भूल जाता है कि कौन सा व्यक्ति उसके साध्य को पूरा करेगा इसलिए झब्बू को सिग्नल पर चढ़े हुए सिग्नलमैन में लक्ष्य प्राप्ति की संभावना दिखाई देती है। उसके अनुनय पर सिग्नलमैन व्यंग्य करता है ‘बल्ब लगवा के क्या करेगा… पढ़ाई करेगा?… डी एम बनेगा क्या बे?’ हँसा था वह, ‘फिर तेरी जीवनी में लिखा जाएगा कि स्ट्रीट लाइट में पढ़कर इन्होंने यह मुकाम हासिल किया…।’ उसकी हँसी तेज हो गई।
सिग्नलमैन की हॅंसी का उत्तर वह प्रकारान्तर से सर्वशिक्षा अभियान की पेन्सिल की नोक पर कील ठोक कर देता है कि जो इन्सान अपने अस्तित्व से जूझ रहा हो उसके लिए शिक्षा तो दूर की कौड़ी है।साथ ही झब्बू ने लोकतांत्रिक सरकारों के ‘कठकरेजी’ सरकारी विज्ञापनों पर कील भी ठोक दिया है।
अस्तित्व से जूझते हुए व्यक्ति के लिए धर्म-सम्प्रदाय और मन्दिर मस्जिद का भेद नगण्य है।यह तो साधन सम्पन्न सुविधा भोगी निठल्लों का बिना परिश्रम ऐश करने का एक प्रपंच है। इसलिए झब्बू जिस भावन से मन्दिर में जाता है उसी भावना से मस्जिद में भी।
कुल मिलाकर उन्मेष सिन्हा ने समाज की कुछ ज्वलन्त समस्याओं को अपनी कहानी के माध्यम से सम्प्रेषित किया है वह विचारणीय है।
बहुत धन्यवाद
उन्मेष जी आपकी लेखनी बेहद सशक्त है । पैनी निगाह और छोटी छोटी बातों को वांछित विस्तार देने की आपकी कला झब्बू को अति मार्मिक और पठनीय बनाती है । झब्बू का चरित्र उभर कर आया है और चलचित्र जैसा चलता है। लेकिन कहानी बहुत जल्दी खत्म हो गयी लगती है । प्यास बाकी रह गयी ।
बहुत शुक्रिया
उन्मेष सर । चकाचौंध रोशनी से जगमग शहरों का एक जो स्याह पक्ष है उसको बहुत ही मार्मिक ढंग से इस कहानी के माध्यम से दर्शाया है आपने।बहुत बहुत बधाई एवं शुभकामनाएं।
बहुत धन्यवाद
वागर्थ (भारतीय भाषा परिषद की मासिक पत्रिका अंक ३०३जनवरी-फरवरी२०२१) कहानियां के कालम में युवा रचनाकार डॉ.उन्मेष कुमार सिन्हा जी की कहानी ‘झब्बू’ प्रकाशित हुई है
दर असल कहानी पढ़ने के दौरान उन्मेष जी , यथार्थ और आंचलिकता प्रेमचंद और रेणु जी की परम्परा से सजोए हुए हैं।
कहानी में वैश्विकृत समाज की समस्याओं से ग्रसित एक वर्ग-वर्तमान में शिक्षा,रहन-सहन, भाषा तथा बाल- मनोविज्ञान के मामले में रचना कार बड़े ही साफ़गोई से बात कही है।
लाज़वाब बहुत ही सुन्दर कहानी – सर्वशिक्षा अभियान के प्रयास में औंधे मुंह गिरना कितना सुन्दर व्यंग्य …….!
लेखक प्रतीकात्मक ढंग से बालक झब्बू के मुंह से वैश्यावृत्ति का एक मिशाल पेश किया ……..अम्मा के कपड़े से खुशबू ……!
लेखक बहुत ही सुंदर ढंग से बाल मनोविज्ञान इस कहानी में दर्ज किया
यह कहानी अपने ढंग की एक अनोखी कहानी है।
रचनाकार को बहुत- बहुत साधुवाद
शुक्रिया
बेहद सशक्त और विचारोत्तेजक कहानी। मेरी बधाई लें।
शुक्रिया
बहुत अच्छी कहानी है यह।हिन्दी में झब्बू जैसे चरित्रों को लेकर कहानियां लिखी जानी चाहिए । इसी के बहाने हम उस वर्ग की तकलीफों और समाज के रवैये के बारे में जान सकते हैं । कहानी की भाषा बहुत अच्छी है , वह सम्प्रेषित होती है । बधाई!
बहुत धन्यवाद
बालोचित की मार्मिक कहानी
शुक्रिया