युवा रचनाकार। एक आलोचना पुस्तक ‘स्वातंत्र्योत्तर हिंदी उपन्यास और भारतीय राजनीति’।

लोग उसे झब्बू कहते थे। दस-ग्यारह साल का रहा होगा। सुबह-सुबह ही वह छतरीवाले विशाल मकान के गेटमैन के पास पहुंच गया था। भूरे रंग की मैली शर्ट, देह की जामुनी रंगत से मिली हुई। दो बटन छोड़कर बाकी गायब। निक्कर के एक पैर की तुरपाई खुली हुई। गेटमैन ऊंघ रहा था। दोनों हाथ जेब में डाले वह थोड़ी देर तक उसे घूरता रहा और फिर –

‘ए… चाचा!’
‘हूँ…!’
‘ई…. हाता में पीछे वाली बत्ती परसों से काहे नाहीं जल रही है… अएँ?’
‘तुमसे का मतलब?’
‘जलवा दो न!’
‘पगलेट हो का बे!’
‘नहीं।’
‘तो… ये तेरा घर है?’
‘नहीं।’
‘तब काहे पूछ रहा है?’
‘आज जलेगी?’
‘अरे!… तुमको करना क्या है?
‘कुछ नहीं।’
‘तो क्यों सिर खा रहा है मेरा!’
‘साहब भूल गए होंगे जलाना।’
‘हाँ…तब?’
‘उनको याद दिला दो…और का?’
‘अबे साले… भाग यहाँ से…नहीं तो…!’

गेटमैन मारने के लिए हाथ उठाकर कुर्सी से खड़ा हो गया। झब्बू एक कदम पीछे हटा। पल भर के लिए गेटमैन को देखा और इत्मीनान से टहलते हुए वापस चला गया। मकान की चारदीवारी की बगल से अपने घर की ओर मुड़ते हुए उसने एक बार फिर गेटमैन की ओर देखा।

उस विशाल घर के ठीक पीछे, चारदीवारी से सटे एक नाला था, जिसके दूसरे किनारे पर झब्बू का घर था। बांस के ढांचे पर तीन-चार पुराने कटरैन, किसी अपार्टमेंट के विज्ञापनवाले लैक्स बैनर का टुकड़ा और प्लास्टिक की बोरियाँ छाजन के तौर पर पड़ी हुई थीं। कहीं-कहीं उन्हें ईंटों से दबाया गया था। सामने की ओर से ईंट की छोटी-सी दीवार खड़ी कर दी गई थी। ऐसी ही तीन-चार झोपड़ियाँ नाले के इस किनारे बनी थीं। इनके सामने पतली-सी सड़क थी और उसके बाद रेलवे की चारदीवारी। यह बस्ती कॉलोनी के पिछले हिस्से में थी। इधर लोगों का आना-जाना बहुत कम था। कभी-कभी आस-पास के लोग झब्बू के घर की बगल में कूड़ा फेंकते दिख जाते थे।

छतरी वाले घर की चारदीवारी पर एक बल्ब लगा हुआ था, जिससे परिसर में उजाला रह सके। उसका प्रकाश इन झोपड़ियों तक भी जाता था, लेकिन वह परसों से जल नहीं रहा था। इससे कठिनाई तो सबको हुई होगी, लेकिन वह बड़ी-बड़ी तकलीफों और झंझटों के नीचे कहीं दबकर रह गई होगी। इसीलिए किसी ने इस बात पर बहुत माथा-पच्ची नहीं की कि वह बल्ब कैसे जलेगा। यह काम झब्बू के हिस्से रह गया।

नाले की मोटी दीवार जमीन से थोड़ी ऊंची थी। बस्ती के लोग इसका कुर्सी की तरह इस्तेमाल करते थे। झब्बू यहीं आकर बैठ गया नाले में पैर लटकाकर। उसे नाले में तेजी से बहता हुआ काला-काला पानी देखना अच्छा लगता था। उसमें तरह-तरह की चीजें भी बहती रहती थीं। यह देखना मजेदार होता कि कौन कितनी तेजी से बह रहा है या कौन सी चीज आगे जाकर किससे टकराकर रुक गई और पीछे-पीछे बहती आ रही चीज उससे आगे निकल गई। बहती वस्तुओं को पहचानना भी एक खेल था। जब कभी कोई वस्तु पसंद आ जाती तो वह उसे अपने लंबे डंडे से फंसा कर निकाल लेता और धोकर अपने खजाने में जमा कर लेता। घर के पास ही पाकड़ के पेड़ के नीचे उसने ईंटों और बेकार फुटमेट से चूल्हे की शक्ल में एक कोठार जैसा बना रखा था। लेकिन आज उसका मन इस खेल में नहीं लग रहा था। उसकी द़ृष्टि भटक रही थी इधर-उधर।
नाले के किनारे बने सभी पक्के मकानों के पानी-निकासी के पाइप नाले में ही खुलते थे। सुबह का समय था, इसलिए अधिकांश से रह-रहकर पानी गिर रहा था। गेटमैन वाले घर के पाइप से गिरते पानी को देखते-देखते अचानक झब्बू की, स्लेट पर चाक की लकीर की तरह आंखों में एक चमक कौंधी, जो तुरंत चेहरे को जगमग कर गई। जो सूझा था, उसे पहले तो तुरंत ही कर देने का मन हुआ, लेकिन फिर खयाल आया कि अब समय दूसरे काम का हो गया है। जुमे की नमाज का दिन है… जामा मस्जिद निकलना है और जल्दी ही, नहीं तो मस्जिद से बहुत दूर जगह मिलेगी बैठने के लिए, फिर नतीजा… कम कमाई। उसने एक द़ृष्टि चारदीवारी वाले बल्ब पर डाली, जो परसों से जल नहीं रहा था और झटपट हरे रंग के कपड़े की एक पट्टी सर पर बांधकर चल दिया। मन ही मन अपने को सचेत किया कि पिछली बार वाली गलती दुहरानी नहीं है। जल्दबाजी में ‘अल्लाह’ की जगह ‘जै बजरम बली’ मुंह से निकल गया था। शायद एक दिन पहले हनुमान मंदिर के सामने दिन भर ‘जै बजरम बली’ का जो उच्चार हुआ था, उसका ही प्रभाव था। वैसे, बगल में बैठे उसके साथी अब्दुल ने समय रहते स्थिति को संभाल लिया था और उसे याद दिलाया था कि यहाँ इससे काम नहीं चलेगा। यह मस्जिद है, मंदिर नहीं।

सुबह के दस-ग्यारह बज रहे थे। झब्बू नाले की दीवार पर बैठा था-चुपचाप। शर्ट के बचे हुए दो बटन भी टूट चुके थे। बाल नुचे हुए थे। माँ गोद में बच्चे को दूध पिलाकर चुप कराने की कोशिश करती हुई झब्बू को गालियाँ दे रही थी और बीच-बीच में उसके पिता को कोस रही थी, जो ऐसी औलाद छोड़ गया। पैर पकड़कर उसने झब्बू को उन लोगों से छुड़ाया था। छतरी वाले घर से दो लोग आए थे यह देखने कि पाइप से पानी बाहर क्यों नहीं जा रहा है और मुहल्ले के ही किसी लड़के ने बता दिया था कि ईंट के टुकड़ों और गारे से निकासी पाइप का मुंह झब्बू ने ही बंद किया है रात में। पहले उसे माँ-बाप के नाम से अनगिनत गालियां मिलीं, जिनका कोई प्रभाव उसके चेहरे पर नहीं दिखाई दिया और आंखें उन लोगों की आंखों से मिलती रहीं। फिर कई थप्पड़ मिले, लेकिन वे अंतत: नहीं जान पाए कि झब्बू ने ऐसा क्यों किया।

शनिवार का दिन था। झब्बू एक छोटी-सी थाली, तेल रखने के लिए एक बर्तन और शनि देव की एक फोटो लेकर शनि मंदिर जा रहा था। कॉलोनी से बाहर निकलते ही लाइनमैन दिख गया, जो एक पोल पर चढ़ने की तैयारी में था।

‘चाचा…।’ झब्बू बोला। उसकी आंखों में चमक आ गई थी।
‘क्या है?’ लाइनमैन ने उड़ती द़ृष्टि से झब्बू को देखते हुए पूछा।
‘उधर… नाले के किनारे हमारा घर है…।’
‘तो…!’
‘एक ठो बल्लफ लगा दो… बिजली का खंभा है वहाँ।’
‘क्या करेगा बे… तुम्हारे बाप के नौकर हैं?  बदमाश!’
‘लगा दो न।’
‘भाग यहाँ से… ससुरा।’

लाइनमैन बड़बड़ाता जा रहा था और सीढ़ी पर चढ़ता जा रहा था। अभी वह बीच में ही था कि साइकिल के पहिए से हवा निकलने की आवाज आई। देखा, तो झब्बू अब दूसरे पहिए पर अपना काम कर रहा था। गालियां देते हुए उसने झब्बू को दौड़ाया। झब्बू बच तो गया, लेकिन भागने में शनि देव का फोटो रास्ते में ही कहीं उड़ गया। तेल वाला बर्तन भी न जाने कहाँ गिर गया। वह सोच रहा था कि तेल तो गया, पैसा भी कम ही मिलेगा… आज अम्मा की गालियां खानी ही पड़ेंगी।

रेलवे की चारदीवारी के उस ओर यानी रेलवे लाइन के किनारे मैकेनिक सिगनल की मरम्मत कर रहा था। झब्बू को यह भी एक अवसर लगा काम करवाने का। चारदीवारी के उखड़े ईंटों पर पैर जमा कर चढ़ गया और लगभग मैकेनिक के पास पहुंच गया।

‘भइया… एक ठो बल्लफ लगा दो इसमें…।’
‘पगलेट हो…’, मैकेनिक हँसा, ‘इसमें बल्ब लगता है कहीं!’
‘अच्छा… इधर वाले खंभे पर लगा दो।’
‘काहे… तुम्हारा कर्जा खए हैं?’
‘लगा दो भइया…।’
‘बल्ब लगवा के क्या करेगा… पढ़ाई करेगा?… डी एम बनेगा क्या बे?’ हँसा था वह, ‘फिर तेरी जीवनी में लिखा जाएगा कि स्ट्रीट लाइट में पढ़कर इन्होंने यह मुकाम हासिल किया…।’ उसकी हँसी तेज हो गई।
‘ए भइया… बस एक ठो लगा दो।’
‘भाग यहाँ से… काम करने दे… अवारा… कुकुर-बिलार सब पता नहीं कहाँ से आ जाते हैं।’

वह उतर गया। ईंट का एक छोटा-सा टुकड़ा उसके हाथ से गोली की तरह चला और … टन्न ….सिगनल पर लगा था। गालियां शुरू हो गई थीं, लेकिन सुनने के लिए झब्बू वहाँ नहीं था।

आज झब्बू नीले रंग का एक दूसरा निक्कर पहने नाले की दीवार पर बैठा हुआ था। माँ कहीं से लाई थी। पाते ही उसने सबसे पहले जेबें देखीं। कहीं फटी तो नहीं हैं, नहीं तो मुश्किल से हाथ आईं नायाब चीजें कहाँ रखी जाएंगी। उसके लिए जेब दुनिया की सबसे महत्वपूर्ण चीज थी। पैंट बड़ी हो या छोटी, चेन बंद होती हो या नहीं, कमर पर हुक लगती हो या नाड़ें से बांधना पड़ता हो, कोई बात नहीं, लेकिन जेबें सही सलामत होनी चाहिए। वह जेब से एक कंडोम निकालकर फुलाने लगा। पता नहीं कहाँ से उसे मिला था। शायद कूड़े के ढेर से या फिर नाले में से! हवा भरते-भरते जब थक गया तो उसका मुंह धागे से बांधकर रेलवे की चारदीवारी पर लगी कील में लटका दिया। यह कील उसी ने ठोकी थी, सर्व शिक्षा अभियान, सब पढ़ें सब बढ़ें वाले विज्ञापन में बनी पेंसिल की नोक के ठीक आगे। अब इस चित्र में उसके लिए कोई आकर्षण नहीं रह गया था। तीन-चार साल पहले जब पहली बार उसने इसे देखा था तो रोमांचित हो गया था। पेंसिल पर आगे एक लड़की और पीछे एक लड़के को बैठा देख उसे लगा कि ऐसे तो वह भी उड़ सकता है, लेकिन जब पुलिया की रेलिंग से एक और बच्चे को साथ लेकर एक डंडे के सहारे ऐसा प्रयास करते हुए वह औंधे मुंह सड़क पर गिरा तो चोट सहलाते हुए उसने निष्कर्ष निकाला कि यह तस्वीर फर्जी है और ऐसे तो कोई नहीं उड़ सकता।

शाम का वक्त था। झब्बू हनुमान-मंदिर से लौट आया था। आठ रुपए मिले थे, लेकिन माँ को उसने छह रुपए ही दिए। दो रुपये नाले के पास ही ईंट से दबाकर छिपा दिए। चार लड्डू भी मिले थे, लेकिन उसके हिस्से में एक ही आया, बाकी उसके छोटे भाई-बहनों में बँट गए। उसने अपना डिब्बा उठाया, जिसमें जगह-जगह से मिलने वाली खाने की चीजें जमा थीं और पुलिया पर जा बैठा। वहीं एक गुब्बारे बेचने वाला लड़का भी बैठा था, जो उम्र में झब्बू से कुछ बड़ा ही रहा होगा।

‘तुम यहीं रहते हो?’ गुब्बारे वाले ने पूछा।
‘हूँ।’ झब्बू ने अनमने ढंग से जवाब दिया।
‘तुम तो चौक की तरफ दिखते हो अक्सर!’
‘ये… गुब्बारा कितने का है?’ झब्बू ने लड्डू खाते हुए सवाल के बदले सवाल किया।
‘दो रुपए का।’
‘ये तो तुम्हारे पप्पा बेचते हैं न? …हम देखें हैं।’
‘उनको बोखार है… इसलिए हम…’
‘लो… खाओगे!’ झब्बू ने डिब्बा आगे बढ़ाया।
‘नहीं।’
‘अरे खा लो… इसमें अल्ला मियाँ, बजरम बली, काली माई, अल्ली शाह… सब का परसाद है। तुम्हारा सब काम हो जाएगा।’

गुब्बारे वाले ने थोड़ी लाई और कुछ इलायची दाने लिए।
‘मेरा एक काम कर दोगे?’
‘बोल…’
‘इस खंभा पर एक बल्लफ लगा दोगे?’ अपने घर से थोड़ी दूरी पर लगे बिजली के पोल की ओर इशारा करते हुए झब्बू ने कहा।
‘हमको तो नहीं आता… लेकिन जोगाड़ हो सकता है, लेकिन तुमको क्या काम पड़ गया?’ कंधे पर हाथ रखते हुए गुब्बारे वाले ने पूछा।
‘मेरी अम्मा न… हरदम रात में काम पर जाती है। उस समय जब मेरा बाबू उठ जाता है तो अंधेरा देखकर ज़ोर-जोर से रोने लगता है। हमसे चुप ही नहीं होता। लैट जलती है तो खेलता है।’ कहते-कहते उसकी आंखों से आंसू टपक गए।

‘इसमें रोने की कौन-सी बात है… क्या काम करती है तुम्हारी अम्मा?’
‘हमको नहीं मालूम।’
‘सुबह लौटती है क्या काम से?’
‘न… रात में ही आ जाती है, लेकिन बहुत देर में आती है… और आकर ऐसे सोती है कि बाबू के रोने पर भी नहीं उठती। हमको जगाना पड़ता है। …एक बात बताएँ’, झब्बू के स्वर में थोड़ी चहक आ गई थी, ‘अम्मा जब आती है न … तो उसके कपड़े से बड़ी खुशबू आती है।’
‘और तुम्हारे पापा…!’
‘हम उनको कभी नहीं देखे।’ झब्बू का स्वर सपाट था।
‘क्यों… कहाँ रहते हैं?’
‘पता नहीं… बाबू अंधेरे में डरता है… इसीलिए…’
‘अच्छा… सुन…हमारे मोहल्ले में एक भइया हैं। उनको कटिया से बल्लफ लटकाना आता है। हम लेकर आएंगे कल, लेकिन बल्लफ और तार के पैसे हैं तुम्हारे पास?’
‘बीस रुपए हैं।’
‘चल… देखते हैं, कोई जोगाड़ हो जाएगा। गुब्बारा लेगा?
झब्बू ने उसे प्रश्नसूचक द़ृष्टि से देखा।
‘ले ले… पैसे मत देना।’
‘तुम्हारे पप्पा पूछेंगे तब!’
‘कह देंगे फूट गया।’

संपर्क सूत्र : असिस्टेंट प्रोफेसर, हिंदी विभाग, हिंदू कॉलेज, मुरादाबाद-244001 मो.7318321660