युवा लेखिका।संप्रति २१वीं सदी की हिंदी कहानी पर हेमचंद यादव विश्वविद्यालय, दुर्ग से शोध कार्य।
दुनिया की किसी भी भाषा में लिखा जाने वाला साहित्य इसका साक्ष्य है कि साहित्य प्रलोभन या दमन के बावजूद सत्ता-व्यवस्था के विरोध में रहा है।सत्ता भी प्रारंभ से साहित्य को अपने पक्ष में रखने के लिए विविध प्रकार से प्रयत्न करती रही है।
प्राचीन ग्रीक साहित्य हो या स्पेनिश, वह हमें यही बताता है कि साहित्य ने किसी निरंकुश सत्ता का कभी समर्थन नहीं किया।साहित्य और कलाएं हर देश और काल में मनुष्य के पक्ष में बोलती रही हैं।समाज को बेहतर बनाने तथा नई दिशा देने में इनकी भूमिका सदा अग्रणी रही है।
साहित्य की सार्थक भूमिका प्रतिरोध में निहित है।इसलिए साहित्य विशाल जनसमुदाय का पथप्रदर्शक भी रहा है।प्रेमचंद ने कहा ही है, ‘साहित्य राजनीति के आगे चलने वाली मशाल है’।यह भी सच है कि कलाएं सत्ता का आश्रय खोजती रही हैं।चित्रकला और संगीत का प्रादुर्भाव ही राजदरबारों में हुआ।राजाश्रय के फलस्वरूप कलाएं फलती-फूलती रही हैं।फिल्मों को बड़ी पूंजी की जरूरत होती है, अतः ये ज्यादातर व्यापार के तहत बनीं, हालांकि समांतर फिल्मों के युग में प्रतिवाद का सिनेमा भी सामने आया।
भक्तिकाल के कवियों ने मनुष्य के पक्ष में बोलना प्रारंभ किया, निर्भीकता के साथ समाज की रूढ़ियों का विरोध भी किया।गोस्वामी तुलसीदास ने रामराज्य की कल्पना की और मीरा ने सामाजिक बंधनों का विरोध किया।कवि कुंभनदास ने सत्ता का विरोध करते हुए स्पष्ट कहा था, ‘संतन को कहां सीकरी सो काम/आवत-जावत पन्हैय्या टूटी बिसरि गयो हरि नाम।’ २०वीं शताब्दी के प्रखर कवि मुक्तिबोध ने भी खुलकर कहा, ‘अभिव्यक्ति के सारे खतरे उठाने ही होंगे/तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब।’
बर्तोल्त ब्रेख्त, नाजिम हिकमत, पाब्लो नेरूदा और फैज अहमद फैज जैसे विश्व कवि भी ज्वलंत उदाहरण हैं।यह कटु सत्य है कि दमन और उत्पीड़न के दौर में भी साहित्य कभी सत्ता का क्रीड़ांगन नहीं रहा है।
वर्तमान समय में साहित्य अपनी भूमिका किस तरह निभा रहा है, यह देखने की जरूरत है।
समाज में आज जो कुछ अच्छा या बुरा घटित हो रहा है, उसकी तस्वीर साहित्य में है।समाज से विमुख होकर कोई साहित्य अधिक दिनों तक जीवित नहीं रह सकता।वर्तमान युग की एक खूबी है कि संस्कृति, जेंडर, जाति, किसान और आदिवासी विमर्श साहित्य को अपनी-अपनी तरह से प्रभावित कर रहे हैं।साहित्य हमेशा मानवीय कमजोरियों पर उंगली रखने का साहस करता है, ताकि समाज सचेत हो सके।हिंदी बौद्धिक संसार में अपने क्षेत्र के नागरिकों की दशा को लेकर व्यापक चिंताएं हैं।इधर के साहित्य में एक बार फिर प्रतिवाद में व्यापकता आई है, जिसपर विचार करने के लिए यह परिचर्चा है।
सवाल
(१) कलाएं अक्सर सत्ता का आश्रय खोजती हैं, जबकि साहित्य की दुनिया में उसे चुनौती मिलती रही है।सत्ता से असहमति की साहित्यिक परंपराओं पर कुछ प्रकाश डालें।
(२) क्या साहित्य भी सत्ता का क्रीड़ांगन होता है या बना दिया जा सकता है, कैसे?
(३) साहित्य को संस्कृति, जेंडर, जाति, मीडिया आदि किस तरह प्रभावित करते हैं? इससे साहित्य का कहां विस्तार या कहां संकुचन होता है?
(४) प्रतिरोध के साहित्य का क्या अर्थ है? प्रतिरोध में व्यापकता कैसे संभव है?
(५) वर्तमान दौर में साहित्य में प्रतिरोध की दशाओं को लेकर क्या आप संतुष्ट हैं?
![]() |
जितेंद्र भाटिया वरिष्ठ कथाकार, अनुवादक और विचारक।प्रमुख कृतियां : ‘सदी के प्रश्न’ और ‘इक्कीसवीं सदी की लड़ाइयां,’ ‘सोचो साथ क्या जाएगा’(चार खंडों में)। |
साहित्य का प्रचारात्मक नारेबाजी से अलग होना बेहद जरूरी है
(१) बहुत सी कलाओं के लिए सत्ता का आश्रय लेना इसलिए जरूरी हो जाता है कि उनका वर्चस्व अक्सर ऐसी बड़ी पूंजी की मांग करता है, जो उन्हें सत्ता से ही मिल सकती है।अक्सर इस आश्रय की कीमत कलाओं को चुकानी पड़ती है।स्पांसर की गई पेंटिंग्स, ‘कश्मीर फाइल्स’ जैसी फिल्में, सत्ता द्वारा संचालित टीवी चैनल या अखबार इसके सटीक उदाहरण हैं।इनमें कला अपने आश्रयदाता की प्रतिध्वनि, साहित्य या मीडिया उसका प्रोपेगैंडा और संगीत उसका ‘हिज मास्टर्स वाइस’ बन जाता है।कई बार इस विकृति के चलते उन कृतियों को ‘कला’ कहना भी मुश्किल हो जाता है।ऐसे बहुत कम उदाहरण मिलेंगे जहां सत्ता से आश्रय पाने के बावजूद कलाएं असहमति का अपना अधिकार कायम रख पाई हों!
साहित्य में सत्ता से असहमति के स्वर इसलिए मुखर रूप से दिख जाते हैं कि फिल्म या कई अन्य विधाओं के मुकाबले लेखन किसी बड़ी पूंजी का मोहताज नहीं होता।दूसरे, अन्य कलाओं (मूर्तिकला, चित्र आदि) के मुकाबले साहित्य में वैचारिक पक्ष कहीं अधिक स्पष्ट होता है, जिसमें सहमति या असहमति व्यक्त करना कभी-कभी जरूरी हो जाता है।इस स्पष्टता के बावजूद आपको साहित्य में आजकल बहुत से फेंस पर बैठे लेखक-लेखिकाएं मिल जाएंगे जो अपनी रचनाओं में राजनीतिक या सामाजिक ‘स्टैंड’ लेने से सिर्फ इसलिए कतराते हैं कि पता नहीं कौन-सी असहमति किस पुरस्कार या सम्मान को हासिल करने में आड़े आ जाए।अक्सर देखा गया है कि सत्ता का प्रलोभन लेखक को व्यभिचारी और बेईमान बनाता है।
पिछले समय के मुकाबले आज का लेखन बेतरह आत्ममुग्ध और प्रचार-उन्मुख हो चला है।सोशल मीडिया में दिखने वाली अधिकांश सूचनाएं इस बीमारी से ग्रस्त दिखाई देती हैं।जाहिर है, आत्मप्रचार या निजी ‘कैंपेन’ में लेखक सत्ता से असहमत होने के खतरे नहीं उठाना चाहता।
(२) साहित्य स्वभावत: वंचितों और आश्रयहीनों का पक्षधर होता है।उसका यही गुण उसे हमेशा प्रतिपक्ष और सत्ता के विपरीत खेमे में ला खड़ा करता है।इसकी एक लंबी परंपरा हमें दुनिया के हर साहित्य में दिखाई दे जाएगी।अफसोस है कि आज के समय में हम अपने निजी स्वार्थों के चलते किन्हीं असुविधाजनक सवालों पर चुप्पी साध लेना सीख गए हैं।और हमारी यह चुप्पी कहीं हमें उन्हीं गलियारों की ओर ले जाती है जहां से सत्ता का क्रीडांगन शुरू होता है।यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है।हम जानते हैं कि साहित्यिक लेखन में सत्ताओं को झुकाने की अपार शक्ति होती है।
इजरायली लेखक अमोस ओज बार-बार कहते हैं कि एक तानाशाह को सबसे अधिक डर एक लेखक से लगता है, क्योंकि लेखक ही है जो उसकी सारी अंदरूनी ग्रंथियों को जानता, समझता और उनके विरुद्ध आवाज उठाता है! ऐसे में स्वाभाविक है कि हर सत्ता का तानाशाह अपने लेखकों और सर्जकों को निजी क्रीडांगन में पालतू बनाना चाहता है, ताकि वे उसकी कारगुजारियों की पोल खोलने से बाज जाएं।इस क्रीडांगन या वधस्थल में चुप रहने से बड़ा अपराध और क्या हो सकता है?
(३) समसामयिक साहित्य हमेशा अपने सांस्कृतिक, जातिगत और आर्थिक सवालों से जूझता है।आज का सत्ताधारी मीडिया निरंतर इन सवालों को दरकिनार कर हमें एक झूठा धार्मिक और राष्ट्रवादी एजेंडा या उपाख्यान थमा रहा है।आज के समय में लेखक की सबसे बड़ी चुनौती इस झूठे ‘नैरेटिव’ का पर्दाफाश कर जनमानस को अपने वास्तविक सवालों के रू-ब-रू लाना है।
(४) प्रतिरोध का साहित्य व्यापक प्रचारित धारणाओं की जगह इतिहास की प्रामाणिक समझ और वैज्ञानिकता पर आधारित होता है।इसमें मध्ययुग के कोपर्निकस या गैलिलियो की तरह यह कहने का साहस होता है कि यह पृथ्वी या इसकी सत्ता इस सौरमंडल का केंद्र नहीं, बल्कि यह पृथ्वी सूर्य के चारों ओर घूमती है।प्रतिरोध का साहित्य अपने समय की सचाई को उच्चारित करने के खतरों से परिचित होने के बावजूद अपनी राह से विचलित नहीं होता।इसी साहित्य में कालजयी होने के गुण भी ढूंढे जा सकते हैं।
लेकिन दूसरी ओर, इस साहित्य को प्रचारात्मक नारेबाजी से अलग पहचानना भी बेहद जरूरी है।इसे स्पष्ट करते हुए अमोस ओज कहते हैं, ‘शब्दों से जूझने वाले व्यक्ति को जब अपनी आंखों के सामने समाज में अन्याय, दुराग्रह और अत्याचार दिखाई देता है तो उसे क्या करना चाहिए? …जब मानवीय आत्मसम्मान के तहत एक श्रोता, प्रवक्ता या टीकाकार की सीमाओं से आगे निकलकर राजनीतिक भ्रष्टाचार से सीधे लड़ना जरूरी हो जाए, तब आप क्या निर्णय लेंगे? एक लेखक के लिए कौन-सी प्रक्रिया अधिक अनैतिक है, अपनी कलम को एक राजनीतिक अस्त्र में बदल डालना, या उसी कलम को ‘खंडन-मंडनधर्मी’ पोलेमिक तलवार की तरह इस्तेमाल करना?
मेरे पास इस सवाल का कोई सार्वभौमिक रूप से मान्य उत्तर नहीं है! मैं सिर्फ यही कह सकता हूँ कि मैंने सक्रिय राजनीति में हिस्सा लिया है, इसके बावजूद मैं मैनिफेस्टो गढ़ने के भोंडेपन और राजनीतिक उपदेशात्मकता से अपने आपको भरसक बचाता रहा हूँ…।’
मेरे विचार में प्रतिरोध के साहित्य को एक अलग लेबल देना ठीक नहीं।साहित्य कभी भी किसी स्लोगन, नारे या वाद की तरह सीधी रेखा में नहीं लिखा जाता।अमोस ओज कहते हैं कि वे अपने आपसे शत-प्रतिशत सहमति होने की स्थिति में कभी कहानी या उपन्यास नहीं लिखते।वे कलम तब उठाते हैं जब उन्हें लगता है कि किसी चीज को लेकर उनके मन में कई तरह की आवाजें और तर्क हैं।प्रतिरोध के साहित्य की सामाजिकता को लेकर भी कई तरह के सवाल किए जा सकते हैं।कभी-कभी आप किसी राजनीतिक सत्ता की जगह उतनी ही शिद्दत से किसी अमूर्त विचार का प्रतिरोध कर रहे होते हैं, जिसमें सीधे-सीधे सामाजिक संदर्भ जोड़ना मुश्किल होता है।काका की लड़ाई का एक बड़ा हिस्सा स्वयं अपने पिता के विरुद्ध था।दरअसल अपनी समूची सामाजिकता के बावजूद कोई भी लेखक दूसरों से पहले, स्वयं अपने लिए लिखता है, कुछ उसी तरह जैसे हवाई-जहाज में गड़बड़ी होने पर आपको दूसरों की मदद करने से पहले अपनी स्वयं की सीटबेल्ट बांधने की सलाह दी जाती है।
प्रतिरोध का लेखन सिर्फ वैचारिक संवाद ही नहीं, बल्कि एक अकेलेपन की भी मांग करता है और यह रास्ता महत्वाकांक्षा से विपरीत दिशा में जाता है।समकालीन परिदृश्य में मुझे निर्मल वर्मा और भीष्म साहनी को छोड़ बहुत कम उदाहरण दिखाई देते हैं।जिस समाज को लेखक अपनी रचना का विषय बनाता है, उसी से एक फासला बनाकर अपने निजी एकांत में वह रचनारत होता है।यह अनुशासन जरूरी भी है, क्योंकि किसी चीज को बहुत नजदीक या माइक्रोस्कोप से देखने पर हमें उसके सूक्ष्म अंतस्संबंध तो दिखाई दे जाते हैं, लेकिन उसका समूचा दृश्य या ‘पर्सपेक्टिव’ हमारी आंखों से ओझल हो जाता है।लेखकीय दृष्टि के लिए अंतस्संबंध और परिप्रेक्ष्य, दोनों का होना बेहद जरूरी होता है।
(५) वर्तमान या किसी भी दौर में साहित्य का प्रतिरोध नाकाफी बना रहता है, क्योंकि संतुष्टि एक तरह से प्रतिरोध की विपरीत अवस्था है।अपने लिखे हुए से असंतुष्ट होना प्रतिरोध के साहित्य का विशिष्ट गुण है और यह बेचैनी ही अक्सर नए सृजन का कारण बनती है।
सृजन में तीसरा तत्व स्मृति का होता है।पाठक या समाजशास्त्री को हमेशा शिकायत रहती है कि उसके समय का लेखक अपनी समकालीन समस्याओं के खिलाफ बहुत कम लिख रहा है।लेकिन सृजनात्मक लेखन पानी की टोंटी या बिजली का कोई स्विच नहीं है जिसका समय से कोई सीधा अंकगणितीय समीकरण हो।अक्सर एक संवेदनशील लेखक अपने समय को अपने भीतर जज्ब करता चला जाता है और हम पाठक इंतजार करते रहते हैं।भीष्म साहनी ने ‘अमृतसर आ गया है’ कहानी विभाजन के बरसों बाद लिखी थी।इसीलिए प्रतिरोध के लेखन की अर्थवत्ता को लेकर संतुष्टि या असंतुष्टि का फैसला इस समय के बीत चुकने के बाद ही करना उचित होगा।
संपर्क सूत्र :६०२ गेटवे प्लाजा, हीरानंदानी गार्डन्स, पवई, मुम्बई ४०००७६ मो. ८१६९४४९६५०
संस्कृति का दमन विकास नहीं है
वाकलाव हावेल
चेक नाटककार और लेखक
उत्तर-अधिनायकवादी व्यवस्था हर कदम पर लोगों को आकर्षित करती है।वह ऐसा अपने वैचारिक आवरण के साथ करती है।
नतीजा यह है कि इस व्यवस्था में जीवन पाखंड और झूठ से पूरी तरह लबालब है।ऐसी व्यवस्था में नौकरशाही सरकार को लोकप्रिय सरकार बताती है, कामगार वर्ग को उसके कामगार होने के नाम पर दास बनाती है, व्यक्ति की अधोगति को उसकी परम मुक्ति बताती है ।
ऐसी व्यवस्था में लोगों को जानकारी से वंचित करना है और हेराफेरी के लिए सत्ता के इस्तेमाल को सत्ता का सार्वजनिक नियंत्रण बतलाया जाता है।सत्ता के मनमाने दुरुपयोग को कानूनी संहिता का पालन बताया जाता है।संस्कृति के दमन को विकास बताया जाता है।साम्राज्यवादी प्रभाव के विस्तार को उत्पीड़ितों का उद्धार बताया जाता है।मुक्त अभिव्यक्ति पर अंकुश को स्वतंत्रता का उच्चतम रूप बताया जाता है।छद्म चुनावों को लोकतंत्र का उच्चतम रूप बताया जाता है।स्वतंत्र विचार पर प्रतिबंध को दुनिया की सबसे वैज्ञानिक सोच बताया जाता है।सैन्य कार्रवाई को भ्रातृ-व्यवहार बताया जाता है।
चूंकि शासन स्वयं अपने झूठ से घिरा होता है, इसलिए वह हर चीज को झूठा साबित करता है।वह अतीत को गलत ठहराता है।वह वर्तमान को मिथ्या बनाता है, और एक छद्म भविष्य बनाता है।
द पावर ऑफ पावरलेस : सिटिजन एगेंस्ट द स्टेट इन सेंट्रल-ईस्टर्न यूरोप
![]() |
वीरेंद्र यादव प्रसिद्ध आलोचक। ‘उपन्यास और देस’, ‘विवाद नहीं हस्तक्षेप’ , ‘उपन्यास और वर्चस्व की सत्ता’ चर्चित पुस्तकें। |
सत्ता चाहकर भी साहित्य को अपना क्रीडांगन नहीं बना सकती
(१) कला और सत्ता का संबंध एकआयामी नहीं है।संगीत, पेंटिंग और रूपांकर कलाएं प्राय: फुरसतिया या लेजर क्लास द्वारा संरक्षित व संवर्धित की जाती रही हैं।इसलिए इनकी प्रकृति और दिशा सत्ता का मुखापेक्षी होने की होती है।अमूर्तन तथा आस्वादपरकता का इनका स्वरूप भी प्रतिरोध की मुखरता के अनुकूल नहीं होता।यहां कला के वे रूप अपवाद हैं, जिन्हें जन प्रतिरोध का माध्यम बनाया जाता है या बनाया जा सकता है।साहित्य अपने जनतांत्रिक स्वरूप के चलते सत्ता के आधिपत्यवादी लक्ष्यों से बेमेल होता है।साहित्य की बहुस्वरता और बहुस्तरीयता ही इसकी जीवंतता है।कबीर की फटकारभरी बेलाग अभिव्यक्ति, भारतेंदु के ‘अंधेर नगरी’ सरीखे नाटक तथा प्रेमचंद का अंग्रेजी सत्ता और देशी कुलीन सत्ता के विरुद्ध वैचारिक तथा साहित्यिक उद्घोष प्रतिरोध की परंपरा के ही दिशासूचक हैं।भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में सभी भारतीय भाषाओं के लेखकों ने अपनी लेखनी को जन-अभियान के एक सशक्त माध्यम के रूप में इस्तेमाल किया था।स्वाधीन भारत में भी सत्ता की आलोचना और जन-पक्षधर अभिव्यक्ति की सशक्त परंपरा रही है।
(२) साहित्य की प्रकृति सत्ता के मुखर और प्रकट समर्थन के अनुकूल नहीं है।लेकिन हर युग में सत्ता की चाटुकारिता और तज्जनित लाभ के आकांक्षियों की एक जमात परजीवी बेल के मानिंद फलती-फूलती रहती है।लेकिन यह साहित्य की मूलधारा कभी नहीं रही है।इसलिए सत्ता चाहकर भी साहित्य को अपना क्रीडांगन नहीं बना सकती।
(३) साहित्य का वजूद अपने समाज के भीतर से ही खाद-पानी प्राप्त करता है।इसलिए जेंडर, जाति, संस्कृति व मीडिया जिस सीमा तक समाज में प्रभावी होते हैं, साहित्य के भी उससे प्रभावित होने की संभावना निर्मूल नहीं है।लेकिन साहित्य समाज की यथातथ्य अनुकृति न होने के कारण इन दुष्प्रभावों का अतिक्रमण करता है।वह इन नकारात्मक प्रभावों का क्रिटिक रचता है।यह अकारण नहीं है कि हिंदी की मुख्यधारा के लेखन में अपवादस्वरूप ही कोई कृति याद की जा सकती है जो जाति या जेंडर भेद पर सकारात्मक दृष्टि रखती हो।
(४) प्रतिरोध कोई अमूर्तन पद न होकर विभेदकारी शोषक सत्ता के विरुद्ध एक सार्थक हस्तक्षेप है।जरूरी नहीं कि यह नारेबाजी या उत्तेजनापूर्ण है।अपनी अभिव्यक्ति द्वारा यदि साहित्य समाज की नकारात्मक प्रवृत्तियों के प्रति जनचेतना जाग्रत करने में सफल होता है तो वह सार्थक प्रतिरोध ही है।प्रेमचंद की ‘सद्गति’, ‘ठाकुर का कुंआ’ और ‘दूध का दाम’ सरीखी कहानियां हों या बाबा नागार्जुन की कविता ‘हरिजन गाथा’ हो या दूधनाथ सिंह का उपन्यास ‘आखिरी कलाम’- ये सभी रचनाएं प्रतिरोध की सशक्त अभिव्यक्तियां हैं।
(५) वर्तमान दौर में जब अभिव्यक्ति पर शिकंजा लगातार कस रहा हो, तब जोखिम के इलाके का अधिकाधिक लेखन किए जाने की आवश्यकता है।समूचे हिंदी प्रदेश में ‘वैधानिक गल्प’, ‘कीर्तिगान’ व ‘रामभक्त रंगबाज’ सरीखी इनी-गिनी कृतियों का लिखा जाना अपर्याप्त है।दलित और आदिवासी जीवन पर भी अधिक मुखरता से लिखे जाने की आवश्यकता है।उम्मीद की जानी चाहिए कि हिंदी साहित्य की इस दौर की मुख्यधारा प्रतिरोध के लेखन की दिशा में अधिक मुखर तथा प्रभावी होगी।
संपर्क सूत्र :सी-८५५, इंदिरा नगर, लखनऊ-२२६०१६ मो.९४१५३७१८७२
यह स्वर्ग कब दरिद्र हो जाता है
मिलेन कुंदेरा
चेक फ्रांसीसी लेखक।
अधिनायकवाद न केवल नरक है, बल्कि वह ऐसे सपनों का स्वर्ग है- जिसमें हर कोई मेलजोल से रहेगा, सबकी आस्था एक होगी, सब कुछ खुली किताब होगी।दुनिया का यह सबसे पुराना सपना है।
आंद्रे ब्रेटन ने ऐसे ही एक स्वर्ग का सपना देखा था।वे एक ऐसे ही शीशे के मकान की चर्चा करते हैं।वह उस मकान में रहने के लिए तरस रहे थे।
ऐसी भावनाएं हम सबके भीतर गहरी हैं।इसकी जड़ें सभी धर्मों में गहरी हैं।अधिनायकवादी इन भावनाओं का दोहन करके ही बड़े पैमाने पर लोगों को अपनी ओर खींचता है, खासकर अपने आरंभिक चरणों में।
एक बार जब ऐसे स्वर्ग का सपना हकीकत में बदलना शुरू हो जाता है, तो उसके हमसफर यहां और वहां फसल काटना शुरू कर देते हैं।इसलिए ऐसे स्वर्ग के शासकों को चाहिए कि वह ईडन के ईर्दगिर्द एक छोटा गुलग बनाएं।समय के साथ-साथ यह गुलग इतना बड़ा और अधिक परिपूर्ण होता जाता है कि आस-पास का स्वर्ग और भी क्षुद्र और दरिद्र होता जाता है।
![]() |
प्रियदर्शन वरिष्ठ लेखक और पत्रकार।प्रमुख कृतियां : ‘जिंदगी लाइव’, ‘बारिश, ‘धुआं और दोस्त’, ‘समाज, संस्कृति और संकट’। |
हमारे समय में बड़ी चुनौतियां हैं
(१) मैं इस सरलीकरण में थोड़ा कम भरोसा रखता हूँ कि कलाएं अक्सर सत्ता का आश्रय खोजती हैं।दुनिया भर में कई कलाकार ऐसे हुए हैं जिन्होंने सत्ता के विरुद्ध अपनी कला का इस्तेमाल करने की कोशिश की।संगीत, चित्रकला और नाटक की दुनिया में आपको इसके कई उदाहरण मिल जाएंगे।लेकिन यह सच है कि खासकर नृत्य और संगीत की दुनिया में सत्ता से मिलने वाली मदद का एक आकर्षण रहा है, शायद इस वजह से कि ये कलाएं मूलत: भाव जगत में विचरण करती हैं।उसके अलावा वैसे भी कलाकारों को रोजी-रोटी चाहिए, जो अक्सर सत्ता या पूंजी के आश्रय से ही संभव होती है।लेकिन आप पाएंगे कि जैसे-जैसे कोई कला विचार की ओर अग्रसर होती है, वैसे-वैसे उसमें प्रतिरोध का भाव बढ़ता जाता है।चूंकि साहित्य मूलत: विचार केंद्रित होता है, इसलिए वहां यह प्रतिरोध भाव ज्यादा होता है।लेकिन फिर कई साहित्यकारों को आप सत्ता से समझौता करता भी देखते हैं।
वैसे एक सवाल और है।लेखक हो या कलाकार, वह अपने साधनों के लिए किसके पास जाए? सरकार के पास या बाजार के पास? सरकार अगर भ्रष्ट है, अगर वह चाहती है कि साहित्य और कला उसके अनुगामी हों तो पूंजी भी इन्हें अपना क्रीतदास बनाए रखने में कोई संकोच नहीं करती।उदार सत्ताएं या पूंजी भले बीच-बीच में लेखकों-कलाकारों को कुछ छूट दे दे।
सत्ता से साहित्यिक असहमति की परंपरा पुरानी है।बड़ी रचनाएं अंतत: असहमति के द्वंद्व से निकलती हैं।लेकिन हमने ऐसे लेखक और कलाकार भी देखे हैं जो सत्ता के करीब रहकर भी महान हुए, शायद इसलिए कि उन्होंने सत्ता के दुर्गुण अपने पास छिटकने नहीं दिए।उन्होंने सत्ता से साधन तो लिए मगर संस्कार नहीं।अलाउद्दीन खिलजी के दरबार में रहने वाला अमीर खुसरो १००० साल बात भी प्रासंगिक बना हुआ है।अकबर के दरबार में रहने वाले रहीम मध्यकाल के कई कवियों से बीस हैं।बेशक, कबीर होने का मोल अलग है।
(२) साहित्य को सत्ता का क्रीडांगन तो बनाने की कोशिश हमेशा होती है।असहमत लेखकों को दंडित करने का रिवाज भी पुराना है।बहुत सारे साहित्यकार सुविधा और सम्मान के लोभ में सरकार के करीब जाते भी हैं।लेकिन वे समझ नहीं पाते कि यह सरकारीपन उनके लेखन को अप्रासंगिक और सतही बना डालता है।
बहुत सारे पुरस्कार-प्राप्त लेखक जनता के बीच समादृत नहीं हैं।दरअसल यह एक बड़ा द्वंद्व है, सत्ता लेखक का इस्तेमाल करती है और लेखक आर्थिक सुरक्षा से लेकर स्वीकृति और पारितोषिक तक के लिए सरकार के पास जाता है।लेकिन वह सत्ता के क्रीडांगन का नर्तक हो गया तो उसकी रचना भी खो जाती है, उसका वास्तविक सम्मान भी खत्म हो जाता है।
(३) साहित्य अंतत: समाज का ही उत्पाद है।इसलिए वह जाति, लिंग, मीडिया या संस्कृति से अप्रभावित नहीं रह सकता, न उसे रहना चाहिए।हिंदी में जाति और लैंगिकता के मामले में जो नई संवेदना पैदा हुई है, उसने न सिर्फ कई मूल्यवान रचनाएं दी हैं, बल्कि साहित्य के मूल्यांकन की नई दृष्टि भी दी है।संस्कृति का प्रश्न तो साहित्य से बिलकुल अविच्छिन्न है, साहित्य संस्कृति के परिसर में ही सांस लेता है।लेकिन यहां यह भी देखना होता है कि वह संस्कृति के किन रूपों से प्रभावित है।वह वर्चस्व की संस्कृति के साथ तो नहीं? वह यथास्थितिवाद की संस्कृति के साथ तो नहीं? जहां तक मीडिया का सवाल है, वह भी साहित्य के बेहद करीब है।पत्रकारिता जल्दबाजी में लिखा हुआ साहित्य है, यह कहावत पुरानी है।हमारे कई बड़े पत्रकार बड़े संपादक भी हुए हैं।अज्ञेय, धर्मवीर भारती, रघुवीर सहाय, मंगलेश डबराल और विष्णु खरे के नाम तत्काल याद आते हैं।लेकिन यहां ध्यान रखने की एक बात है।मीडिया में तात्कालिकता का जो दबाव है, वह उसमें संवेदना के तत्व को कम कर देता है।तो साहित्य लिखते हुए उसे अखबारीपन से बचाना जरूरी है।
(४) साहित्य दरअसल अपने मूल में प्रतिरोध ही है, जो जीवन हम जीते हैं उसको अतिक्रमित कर अपना एक जीवन सृजित करने की कोशिश।इस लिहाज से जो लोग बहुत प्रत्यक्ष ढंग से प्रतिरोध का साहित्य लिखते नजर नहीं आते, उनके लेखन में अपनी तरह का प्रतिरोध होता है।लेकिन आप जिस प्रतिरोध के साहित्य की ओर इशारा कर रहे हैं, उसकी चुनौतियां हमारे समय में बड़ी हुई हैं।साहित्य को अंतत: सत्ता का प्रतिरोध होना चाहिए, लेकिन उसके लिए जरूरी है कि वह सत्ता के चरित्र को ठीक से पहचाने।आज की सत्ता मूलत: बाजार की आर्थिकी और सांप्रदायिकता की राजनीति से संचालित है।वह पूरे समाज को बांटने का काम कर रही है, नफरत का जहर बो रही है।साहित्य अगर इस प्रवृत्ति को ठीक से पहचाने और लिखे तो उसका प्रतिरोध सार्थक होगा।
(५) निश्चय ही हिंदी साहित्य की मुख्यधारा प्रतिरोध के साहित्य से बनी है।इस समय भी बहुत सारे लेखक सांप्रदायिकता के खिलाफ लिख रहे हैं।जो बहुत मुखर साहित्य नहीं है, वहां भी प्रतिरोध है।गीतांजलि श्री के ‘रेत समाधि’ में सांप्रदायिकता और राष्ट्रवाद का तीखा प्रतिरोध है।२०१४ के बाद बहुत सारी कविताएं मौजूदा सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध लिखी जा रही हैं और उनके आयोजन भी हो रहे हैं।इन वर्षों में लेखक प्रतिरोध के कई आयोजनों में शामिल हुए हैं।अब इसे ज्यादा मानें, पर्याप्त मानें या कम, यह हमारी अपेक्षा पर निर्भर करता है।लेकिन प्रतिरोध के साहित्य के नाम पर सतही नारेबाजी एक हद से ज्यादा नहीं टिकेगी।
संपर्क सूत्र :ई-४, जनसत्ता सोसाइटी, सेक्टर ९, वसुंधरा, गाजियाबाद-२०१०१२ मो.९८११९०१३९८
कलाओं से मानसिक खुलापन आता है
फुआंग न्गुएन
अमेरिकी निवासी कला विशेषज्ञ
मैं कला चिकित्सा के विस्तार की सराहना करता हूँ।मैं एक कलाकार हूँ और कला चिकित्सक भी।रंगों के संसार का इस्तेमाल करते हुए मैं कला चिकित्सालेंस के माध्यम से चिकित्सा करता हूँ।ओंटारियो में कला चिकित्सा मनोचिकित्सा की एक पद्धति है।मैं इसके ढांचे के भीतर ही चिकित्सा करता हूँ।
हम आर्टवर्क पर बातें करते हैं।जो पेंटिंग हम बनाते हैं उसके बारे में बात करते हैं।अपनी भावनाओं को इस तरह व्यक्त करने का यह एक शानदार तरीका है, जिसे शब्दों में व्यक्त करना मुश्किल हो सकता है।मैं रंग के कई रूपों के साथ काम करता हूँ।हम अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हैं।हम व्यक्तिगत संघर्षों और मानसिक आघातों के बारे में बात करते हैं।हर व्यक्ति के लिए हमेशा संभव नहीं होता कि वह अपनी भावनाओं को शब्दों में ढाल सके।
कला इस असमर्थता को पाटने का एक शानदार तरीका है।अगर हम अपनी भावनाओं पर एकांत जगह पर काम कर सकें तो अधिक खुलापन आता है।मेरा अनुभव यह है कि ऐसा होने से चिकित्सा अधिक प्रभावी होती है और व्याधि को समाप्त करने में थोड़ी अधिक कारगर होती है।पेंटिंग बनाने की सामग्री अपने आपमें ही सुखदायक हो सकती हैं।मैंने एक बार वैंकूवर में बुजुर्गों के एक समूह के साथ काम किया था, वे सब रंग भरने का काम पसंद कर रहे थे।यह अपने आपमें एक माध्यम के रूप में राहत देनेवाला और सुखदायक था।
![]() |
अरुण देव वरिष्ठ कवि और संपादक।प्रमुख कृतियां : ‘क्या तो समय’, ‘कोई तो जगह हो’, ‘उत्तर पैगंबर’। विगत १२ वर्षोर्ं से ‘समालोचन’ का संपादन। |
प्रतिरोध का व्यापक अर्थ है असहमति
(१) साहित्य भी कला है।कलाओं को आश्रय मिलता रहा है।राजसत्ता हो या धर्मसत्ता दोनों ने कलाओं के विकास में अपना योगदान दिया है।कला की साधना के लिए पर्याप्त अवकाश और सुविधाओं की आवश्यकता होती है।ऐसे में आजीविका के लिए कलाकार अलग से कोई उद्यम नहीं कर सकता।इन कलाओं का मूल्य भी, जाहिर है, वे ही चुका सकते हैं जिनके पास साधन हो।ऐसे में कलाएं सत्ताओं के निकट आईं।उन्होंने अभिजन की रुचियों के अनुसार अपने को बदला और इन कलाओं ने अभिजन को भी परिष्कृत किया।लोक कलाएं भी रही हैं, लेकिन टिकने के लिए उन्हें जन-उपयोगी बनना पड़ा।ऐसे में एक सीमा तक ही कला की दृष्टि से उनका विकास हो सका।
कला की यह समानांतर परंपरा है।इसका सौंदर्यशास्त्र अलग है।कलाओं की अपनी भी सत्ता है।अगर ठीक से देखें तो हर कलाकृति, अगर उसमें कला है, मनुष्यता के पक्ष में आपको खड़ी दिखेगी।सत्ताओं ने आश्रय दिया है कलाओं को, पर उसकी आत्मा को नहीं खरीद सके हैं।कला की अंतिम विशेषता है उसकी उदात्तता।वह आपको अधिक मानवीय और विवेकशील नहीं बनाती तो वह कला नहीं उत्पाद है।
साहित्य को मनुष्यता की पुकार कहा गया है।साहित्य ही ऐसी विधा है जिसमें न्यूनतम आश्रय की आवश्यकता पड़ती है।इसकी साधना के लिए आपके पास आज भी कम से कम उपकरणों की आवश्यकता है।सत्ताओं से बाहर इसलिए साहित्य फलाफूला।अभिजन के समानांतर उसमें लोक-तत्व विकसित हुए।वह सभी तरह की सत्ताओं का प्रतिपक्ष रचने में सक्षम हुआ।उसकी दीर्घ परंपरा होगी पर उसका प्रारंभिक हिस्सा सुरक्षित नहीं रह पाया, हालांकि जन-स्मृतियों में वह आज भी किसी न किसी रूप में उपस्थित है।
(२) शब्दों की अपनी सत्ता है।इस सत्ता का एहसास प्रारंभ से ही रहा है। ‘मंत्र’ इसकी सत्ता के सघन रूप हैं।इन्हें नियंता माना जाता रहा है।इनकी इसी सत्ता से राजसत्ता और धर्मसत्ता विचलित होती रही हैं।इन्हें नियंत्रित करने के लिए सत्ताएं इनमें सबसे प्रभावशाली को दरबार में या मठ में जगह देती थीं।उन्हें पुरस्कृत करती थीं।सत्ता और शब्द का संबंध हमेशा विरोध और विद्रोह का नहीं रहा है।मानव की मूल वृत्तियों पर आधारित साहित्य यहां भी फलता-फूलता रहा है।प्रेम, विरह, संघर्ष, युद्ध जैसे विषयों पर कालजयी कृतियां सामंती युग में रची गईं।
जन की आकांक्षा, पीड़ा और सरोकारों को व्यक्त करने वाली साहित्य की धारा भी रही है।आधुनिक युग में मध्यवर्ग के उदय ने साहित्य की इस धारा को मजबूत किया है।वैचारिक आधार पाकर ये और विकसित हुईं।साहित्य को नियंत्रित करने की तरह-तरह से कोशिशें होती रही हैं, पर साहित्य की जो अपनी सत्ता है वह इनपर भारी पड़ी है।राजे-रजवाड़े आज विस्मृत हो गए पर कवि-कलाकार आज भी याद किए जाते हैं, उनके रचे शब्दों को याद किए बिना हमारा एक दिन भी नहीं गुजर सकता।नहीं भूलना चाहिए मंत्र, प्रार्थनाएं पहले कविता हैं।राष्ट्रगान भी पहले गीत है।
(३) साहित्य शब्दों से रचा जाता है, जिसके पीछे अनुभवों के अर्थ होते हैं।यह अनुभव सामूहिक होता है।समाज का होता है।अगर कोई चीज मीठी है तो पूरे समाज के लिए मीठी है।बुरी चीजें सबके लिए बुरी हैं।समाज अपनी संपूर्ण संरचना के साथ इसमें उपस्थित रहता है, सांस लेता रहता है।उसे वातावरण और बदलाव प्रभावित करते हैंं।प्रभावित करने में भी फर्क है।अगर वह स्वाभाविक ढंग से प्रभावित हो रहा है तो यह तो उसके जीवंत होने का ही प्रमाण है।वह वर्ग, जाति, जेंडर सबसे उलझता है।वह सभी अंतरों के बीच कसमसाते सत्य को पकड़ता है।
मीडिया से अगर आपका आशय समाचार पत्रों और टीवी चैनलों से है तो यहां से वैसे भी साहित्य नदारद है।साहित्य को प्रभावित या अपने मनमर्जी का साहित्य लिखवाने या प्रसारित करने की उन्हें आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि साहित्य का कोई बाजार तो है नहीं।यह अच्छी बात है और बुरी भी।
(४) प्रतिरोध का व्यापक अर्थ है असहमति।व्यक्ति के असहमत होने का अधिकार समाज में सदैव से आम-सहमति का एक दबाव रहता आया है।धर्म, परंपरा, नैतिकता, राष्ट्र के नाम पर तमाम ऐसी आम सहमतियां बनी हैं जिनसे आज ढेर सारी असहमतियां हैं।असहमत व्यक्ति प्रश्न करता है।इसलिए जहां भी आप प्रतिरोध का साहित्य देखेंगे वहां आपको प्रश्न मिलेंगे।कबीर बहुत प्रश्न पूछते हैं।
प्रतिरोध की व्यापकता में सभी तरह की सत्ताओं को प्रश्नांकित करता साहित्य आएगा।और इसकी सुदीर्घ परंपरा रही है।एक सीमा तक विज्ञान भी अतार्किकता को प्रश्नांकित करता है।उसे आधार बनाकर बहुत लोगों ने अपनी असहमति की मीनार तैयार की है।इसके साथ ही जिस तरह की सभ्यता में हम जी रहे हैं, मतलब मनुष्य की केंद्रीयता, उसे भी प्रश्नांकित करने की आवश्यकता है।सब कुछ अच्छा ही नहीं हुआ है अगर आप वनस्पतियों और पशुओं की तरफ से सोचें तो तस्वीर दूसरी दिखेगी।
(५) समकालीन समय में आम सहमति के निर्माण का जैसा षड्यंत्र हो रहा है, ऐसा संगठित, व्यापक और असरदार प्रयास आज तक देखा नहीं गया है।इस एक आयामी और एकरेखीय राजनीति से लोकतंत्र ही नहीं, भारतीय सभ्यता को भी खतरा है।विविधता और उदारता से संस्कृतियां नष्ट नहीं होतीं।वे अनुदारता और एकरेखीयता से नष्ट हो जाती हैं।जो समाज आपको आज अनुदार दिख रहे हैं, वे कल अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए उदार बनेंगे।
हर क्षेत्र में असहमति और प्रतिरोध आपको दिखेगा।साहित्य इसको अभिव्यक्त भी कर रहा है।आज यह इसका प्रबल स्वर है।सवाल इस प्रतिरोध को स्थायी साहित्यिक मूल्य में बदल देने का है।इसके लिए जरूरी है कि वह रचनात्मक बने।आक्रोश का अपना सौंदर्य है।लेकिन जब वह अपनी रचनात्मकता के साथ अभिव्यक्त होता है तब और सुंदर हो जाता है।और सौंदर्य की पहचान और उसकी अभिव्यक्ति अभी भी प्रतिरोध है।चीजें बड़ी तेजी से विरूपित हो रही हैं और छद्म सौंदर्य की भरमार है।साहित्य और कलाएं ही कर्मशील, उदात्त और कल्याणकारी सौंदर्य को सबसे पहले पहचानती हैं।
संपर्क सूत्र :५, हिमालयन कॉलोनी (नेहर कॉलोनी ) नाजीबाबाद, बिजनौर-२४६७६३ मो. ९४१२६५६९३८
कला स्वतंत्रता का पर्याय है
जोजेफ रोबकोव्स्की
पोलैंड की अवागार्द कला आंदोलन के एक प्रसिद्ध व्यक्तित्व।
मैंने अक्सर आर्ट इज पावर, सिनेमा इज पावर या आर्ट इज एनर्जी जैसा बयान दिया है।मेरा ऐसा कहना तब भी काम का था और आज भी प्रासंगिक है।मेरा मानना है कि कलात्मक कार्रवाई बड़े परिवर्तन का कारक बन सकती है।
मैंने १९६० के दशक में अपने दोस्तों के साथ यह आंदोलन शुरू किया कि कला स्वतंत्रता का पर्याय है।हमने मुक्त कला, स्वतंत्र कला की अवधारणा रखी।हम समाजवादी युग में जी रहे थे।तब हमारे पास आजादी नहीं थी।१९६० के दशक में हमने एक स्वतंत्र कला-आंदोलन शुरू किया।यह एक छात्र आंदोलन था और मैं उन लोगों में हॅूं जिन्होंने इस आंदोलन को खड़ा किया।मैं बताना चाहता हूँ कि पोलैंड में दो आंदोलन हुए।पहला आंदोलन ‘मनोरंजन प्रधान’ आंदोलन था।उस जमाने के नौजवानों ने जीवन को ‘मनोरंजनमय’ बनाया।इस दौर में जैज़, रॉक’रोल, रंगमंच, कविता, साहित्य सब इसके माध्यम बने।
दूसरा आंदोलन ‘निर्माणवाद’ के गर्भ से हुआ।इस आंदोलन में विनोदपरक ऊर्जा नहीं थी।इस आंदोलन का विनोद तत्व अलग तरह से दिलचस्प था।इसने स्थापित धारणाओं को पदच्युत किया।यहां पहले से तय किया गया था कि कला को ऐसी दिशा में ले जाना है कि वह व्यवस्था पर प्रहार कर सके।यह आंदोलन तर्कवादी था।यह कमोबेश १९६० में शुरू हुआ था।
![]() |
गौरी त्रिपाठी हिंदी प्राध्यापक एवं अध्येता।प्रमुख कृति कला का नेपथ्य’। |
कला मानव जीवन का रागात्मक आख्यान होती है
(१) सत्ता अपने मूल चरित्र में यथास्थितिवादी होती है, जबकि कला का स्वभाव ही नवोन्मेषी होता है।कला की अपनी स्वायत्त और स्वतंत्र सत्ता होती है।अपने नाना रूपों में कलाएं एक प्रतिसंसार की सृष्टि रचती हैं।इसीलिए निसर्ग की सत्ता के अलावा मानव निर्मित तमाम सत्ता संस्थानों से उनका वैर भाव ही दिखाई देता है।इसके साथ यह भी सच है कि कला के कालातीत महत्व को देखते हुए कुछ सत्ताएं कलाकारों को आश्रय देती रही हैं।और जब-जब ऐसा हुआ है अकसर कला से कलाकार का संबंध शिथिल हो जाता है।हिंदी का चारण काल इसका श्रेष्ठतम उदाहरण है।यह तय है कि सत्ता के आश्रय में पली बढ़ी कलाएं कला की बोनसाई बनकर रह जाती हैं।उनका स्वतंत्र और स्वच्छंद विकास जगह-जगह से अवरुद्ध हो जाता है।न ही उसमें आत्मा का संगीत रह जाता है, न निसर्ग का सौंदर्य।ऐसे में बौद्धिक चतुराई और चमत्कारों का अजायबघर ही उस कला का सौंदर्य प्रसाधन बन जाता है।
हिंदी के भक्ति साहित्य को पूर्ववर्ती सत्ता-आश्रित काव्य की मुखर प्रतिक्रिया होने के कारण ही आंदोलन कहा गया।आंदोलन, यानी सत्ता से टकराव का स्वर।भक्ति आंदोलन के एक छोर पर अगर कबीर हैं तो दूसरे छोर पर तुलसी।दोनों की कविताओं में तमाम सारी भिन्नताओं के बावजूद सत्ता के प्रतिकार का एक स्वर समान रूप से मौजूद है।दोनों की जड़ें लोक जीवन और उनकी भाव संवेदना में गहरे पैठी हुई हैं।
(२) कला के नाम पर ढेर सारा ऐसा रचा या लिखा गया है जिसे सत्ता का मनोरंजन या क्रीड़ांगन कहा जा सकता है।मसलन, नायिका भेद, आचार्यत्व का भद्दा प्रदर्शन आदि-आदि, लेकिन काव्यकला की सुदीर्घ विकास परंपरा में मात्र उसी से कला का मूल्यांकन करना कला के प्रति निहायत नकारात्मक द़ृष्टिकोण अपनाना होगा।अपनी असीम शक्ति के बल पर सत्ताएं भले ही उत्कृष्ट कलाओं को कुछ समय तक नेपथ्य में डाल दें, लेकिन इतिहास के न्याय से बच पाना असीम शक्ति संपन्न सत्ताओं के लिए भी संभव नहीं हो पाता है।सत्ता और शक्ति का सारा सरोकार इतिहास में बहुत सीमित समय यानी अपने समकालीन समय के लिए होता है, जबकि कला कालातीत होती जाती है।कला मानव जीवन का रागात्मक आख्यान होती है।उसमें निसर्ग का स्वर गूंजता रहता है, जबकि बड़ी से बड़ी सत्ताएं मानव नियति का प्रहसन मात्र होती हैं।
(३) यह एकदम सच है कि साहित्य को संस्कृति, जाति, जेंडर, मीडिया आदि प्रभावित करते हैं।इसके अलावा सभ्यता का इतिहास उसके विमर्श, प्रकृति, इतिहास, भूगोल आदि हजारों दृश्य-अदृश्य शक्तियां प्रभावित करती हैं।न सिर्फ विज्ञान के उपकरणों की तरह समान रूप से प्रभावित करती हैं, बल्कि अलग-अलग कलाकारों पर, अलग-अलग समय के कलाकारों पर उनका प्रभाव भिन्न-भिन्न होता है।प्रभाव के भिन्न रूपों में यह किसी की प्रतिक्रिया या किसी एक का प्रदर्शन न होकर सबको समाहित करती हुई, सबके रसायन से निर्मित कला मूलत: पुनर्सृजन होती है।इनके समाहार से ही कला या कविता का विस्तार होता है।उपर्युक्त के प्रदर्शन या प्रतिक्रिया से कला अल्पजीवी होती है।उसका ह्रास होता है।
(४) सत्ता के नाना रूप मनुष्य की व्यापक संभावनाओं में अवरोध पैदा करते हैं।जैसा कि कामायनी में प्रसाद जी ने संकेत भी किया है-
‘व्यापकता नियति प्रेरणा बन,/अपनी सीमा में रहे बंद/सर्वज्ञ ज्ञान का क्षुद्र अंश,/विद्या बनकर कुछ रचे छंद।’ लंबे समय तक और निरंतर ऐसा होते रहने के कारण ही आज का मनुष्य तमाम तरह की क्षुद्रताओं के दलदल में फंसकर आत्मविस्तार की व्यापक संभावनाओं को खो चुका है।और आत्मविस्तार के लिए छटपटाता हुआ मुक्तिबोध के शब्दों में – खोजता हूं पठार पहाड़ समुंदर/जहां मिल सके मुझे/मेरी वह खोई हुई/परम अभिव्यक्ति/अनिवार आत्म संभवा।
(५) प्रतिरोध के साहित्य का सीधा और सरल अर्थ है मनुष्य की व्यापक संभावनाओं में बाधक सत्ता के नाना रूपों में फैले झूठ की चमकीली धुंध के पार ले जाने वाला साहित्य।सच्चे अर्थों में कला के नाना रूप मनुष्य, समाज और प्रकृति को विस्तार प्रदान करते हैं।यह सोचना दुर्भाग्यपूर्ण है कि कला का कोई रूप मनुष्य के विस्तार में बाधक है।अपने मूल स्वरूप में कलाएं मनुष्यता की अनंत संभावनाओं के पट खोलती हैं।
न सिर्फ साहित्य, बल्कि किसी चीज को पाने या रचने के लिए सक्रिय समुदाय अगर अपनी उपलब्धियों से संतुष्ट हो जाए तो विकास की संभावनाओं में अवरोध पैदा होता है।इसलिए संतुष्ट होने की स्थिति से मैं सहमत नहीं हूँ।यह सही है कि आधुनिक युग बेहद संभावनाशील रहा है।
वर्तमान दौर में जो भी साहित्य लिखा जा रहा है, वह बहुत हद तक एक-उन्मुखी है।इसने सौंदर्याभिरुचि को बहुत हद तक जड़ किया है।इसके पीछे सत्ता के रूप में एकमात्र राजनीतिक सत्ता को ही मान लिया जाना रहा है।जबकि सत्ता नाना रूपविधानों में एक साथ सक्रिय रहती है।इनमें आपसी संबंध एक से कभी न रहते।प्रतिरोध के साहित्य के नाम पर मैं किसी भी तरह की नारेबाजी की सख्त विरोधी हूँ, उसी तरह जैसे कला के नाम पर कलाबाजी की।
संपर्क सूत्र :हिंदी विभाग, गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिलासपुर, छत्तीसगढ़-४९५००९ मो. ९४२५५०६०५९
सामाजिक जीवन के बेहतर विकास की आशा
चेस्लाव मिलास
पोलिश–अमेरिकी लेखक
सर्व-शक्तिशाली अधिनायकवादी राज्य अपने नागरिकों में एक भावनात्मक तनाव पैदा करता है।इसके माध्यम से वह उनके व्यवहारों को निर्धारित करता है।वह लोगों को वफादारों और विद्वेषियों में विभाजित करता है।ऐसा करते हुए वह हर उस व्यक्ति के लिए- जो हां में हां मिलाता है या कायर है या भाड़े का टट्टू है, एक ईनाम रखता है।
हालांकि विद्वेषी घोषित किए गए लोगों में ऐसे लोगों का प्रतिशत काफी अधिक होता है जो सहज, ईमानदार और अपने प्रति सच्चे होते हैं।सामाजिक दृष्टिकोण ऐसे लोगों को आश्वस्त करते हैं कि सामाजिक जीवन का भावी विकास बेहतरी की ओर होगा।
कला और सत्ता के संबंध के ५ रूप
मैक्स हेरिस
ब्रिटेन के प्रसिद्ध फिल्मकार, संगीतकार।
कला और राजनीति के बीच संबंधों के सवाल पर विशेष रूप से ध्यान दिया जाना चाहिए।हाल में इस विषय पर चर्चा हुई है।कला और सत्ता का अंतर्संबंध इन दोनों के भविष्य को कैसे प्रभावित करेगा, यह परखने का विषय है।
सत्ता और कला के संदर्भ में पांच मुद्दों पर विचार किया जाना चाहिए (१) सत्ता के अन्याय के खिलाफ कला प्रतिकार के माध्यम किस रूप में है (२) राजनीतिक समुदाय के निर्माण में कला की क्या भूमिका है (३) कला किस तरह राजनीतिक विकल्प का बीज है (४) कला सत्ता से मुक्ति का माध्यम है या सत्ता का सहचर (५) क्या राजनीतिक उत्पीड़न में सहभागिता के रूप में कला की उपस्थिति संभव है।
कला समकालीन जीवन की वास्तविकताओं को कठोर रूप में अभिव्यक्त कर सकती है।शोषण को उजागर करते हुए यह उन प्रवृत्तियों और विकास को बल दे सकती है जो प्रतिरोध को तेज करते हों।इस संदर्भ में कवि ह्यूगो बॉल की पंक्तियां प्रासंगिक है, ‘हमारे लिए कला अपने आपमें संपूर्ण नहीं है, बल्कि हम जिस समय में जी रहे होते हैं, उस समय की सटीक व्याख्या और आलोचना का अवसर है वह।’ इस दृष्टि से नव-कला आंदोलन ने कला की शक्ति हासिल की है।नव-कला ने सांस्थानिक नस्लवाद, वर्तमान यूरोप और अमेरिका की श्वेत-प्रभुता को अपना विषय बनाया है तथा इनके खिलाफ हो रहे संघर्षों को अभिव्यक्त किया है।
कला और राजनीति के बीच के संबंध पर विचार करते हुए हमें कलाकारों को नायक के रूप में नहीं देखना चाहिए।हम सभी समकालीन समाज की अन्यायपूर्ण संरचनाओं के भीतर हैं।
संपर्क प्रस्तुतिकर्ता : द्वारा : रमेश अनुपम, २०४, कंचन विहार, डूमर तालाब, रायपुर, छत्तीसगढ़–४९२००९ मो.९३४०७९१८०६