युवा समीक्षक, लेखिका। संप्रति ‘21वीं सदी की हिंदी कहानी’ पर हेमचंद यादव विश्वविद्यालय, दुर्ग से शोध कार्य।

 

 

 

दुनिया का कोई देश या जाति हो उसका धर्म से संबंध रहा है और आज भी है। दुनिया के इतिहास के साथ जहां धर्म जुड़ा है, धर्म के साथ स्त्री का संबंध भी प्राचीन काल से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। हर धर्म में स्त्री की भूमिका अलग रूप में व्याख्यायित की जाती रही है। सभी धर्मों में स्त्री की छवि एक ऐसी कैदी की तरह रही है, जिसे पुरुष के इशारे पर जीने के लिए बाध्य होना पड़ता है। यूरोप में नवजागरण के फलस्वरूप स्त्रियां धर्म के चंगुल से धीरे-धीरे मुक्त होने लगीं और अपना एक स्वतंत्र व्यक्तित्व गढ़ने में सफल हुईं। सामान्यतः माना जाता है कि अब न वह पुरुष की कैदी है और न अनुगामिनी। वह अपने आपमें एक स्वत्रंत व्यक्तित्व है, हालांकि भारत में आज भी स्त्रियां स्वतंत्र नहीं हैं। वह पितृसत्तात्मक समाज में अब भी बेड़ियों से जकड़ी हुई है।

धर्मों में स्त्री सामान्यतः उपयोग और उपभोग की वस्तु है। इनमें स्त्री को ऐसा निरीह प्राणी बनाकर प्रस्तुत किया गया है और उसकी ऐसी छवि गढ़ी गई है जिससे स्त्री ने भी स्वयं को एक वस्तु मान लिया है। उसकी अपनी कोई पहचान नहीं है और न उसका अपना कोई स्वतंत्र सपना संभव है, जिसे वह बिना किसी पर निर्भर हुए पूरा कर सके।

परिवार ने स्त्री को मनुष्य की कोटि से बाहर रखा, वहीं धर्म ने स्त्री को हमेशा पुरुष की दासी के रूप में चित्रित किया। रामचरितमानस में सीता को अग्निपरीक्षा देनी पड़ती है और महाभारत में द्रौपदी को चीरहरण जैसे सामाजिक कलंक से गुजरना पड़ता है।

बीसवीं शताब्दी के प्रारंभ में भारत की महिलाओं ने एक ओर जहां अपने अधिकारों के लिए संघर्ष किया, वहीं धर्म के बनाए हुए शिकंजों के खिलाफ भी विद्रोह किया। लेकिन भारत में स्त्रियां आज भी पूरी तरह से शिक्षित नहीं हैं। विकसित शिक्षा और आत्मनिर्भरता की कमी के कारण वे आसानी से पुरुषों की अधीनता स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाती हैं और अपनी परवशता के लिए ईश्वर नामक सत्ता को स्वीकार कर लेती हैं। परिवार के हर सुख और दुख के लिए वह ईश्वर को ही एकमात्र कारण मानती है।

इधर देश में स्वतंत्रता के पश्चात जिस तरह ज्ञान और विज्ञान का व्यापक प्रचार किया जाना चाहिए था, शिक्षा के साथ जिस तरह से आधुनिक ज्ञान और विज्ञान को संबद्ध किया जाना चाहिए था, दुर्भाग्य से वैसा नहीं हो पाया। परिणामस्वरूप इस देश में धार्मिक बाबाओं की बाढ़-सी आई हुई है। आजादी से पूर्व जितने बाबा इस देश में नहीं थे, आजादी के बाद उससे कई गुणा ज्यादा बाबा अवतरित हो गए हैं।

आजादी के बाद नगरों और गांवों में जहां ज्ञान और विज्ञान की चर्चा होनी थी, लोगों को शिक्षित किया जाना चाहिए था, इसके उलट अंध-विश्वासों के प्रचार और प्रवचनों का रेला आ गया है। धर्म के उच्च मूल्यों को तिलांजलि देकर अंधास्था को बढ़ावा देना किसी भी देश या समाज के लिए हितकर नहीं हो सकता। इससे कोई देश या समाज आगे नहीं जा सकता है, लेकिन वर्तमान परिदृश्य यही है।

सर्वाधिक दुखद तथ्य यह है कि आज महिलाएं ही धर्म का अधिक शिकार बनती जा रही हैं। धर्म के एक ऐसे स्वरूप की, जो उनकी स्वतंत्रता पर कुठाराघात करता है और अंततः उसे पुरुष के अधीन रहने के लिए बाध्य करता है।

मुझे यह रेखांकित करना भी उचित लग रहा है कि आज जिस तरह से हमारे देश की स्त्रियां अंधविश्वासों की तरफ फिर लौट रही हैं, महंतों-बाबाओं की तरफ दौड़ रही हैं और प्रवचनों में भीड़ की शोभा बढ़ा रही हैं उसे देखकर लगता है कि वे शायद इक्कीसवीं शताब्दी में नहीं, बल्कि बारहवीं या तेरहवीं शताब्दी में हैं।

आज जब धर्म के नाम पर सांप्रदायिकता और धार्मिक कट्टरता को अधिक प्रश्रय दिया जा रहा है, तब हमें अपने देश की उस महान बौद्धिक विरासत की याद आती है जिसमें गार्गी-मैत्रेयी, रानी लक्ष्मीबाई, सावित्री फुले, महादेवी वर्मा जैसे लोग हैं। इस परिप्रेक्ष्य में आज की परिचर्चा में अहम सवाल भी है कि स्त्री विमर्शों ने इन समस्याओं पर कितना ध्यान दिया है। क्या पितृसत्ता को धार्मिक कट्टरता से न जोड़ना बुद्धिमत्तापूर्ण है। आज की स्त्री रचनाकार धर्म के मुद्दे पर कितनी मौन हैं और कितनी प्रखर, इसपर चर्चा होनी चाहिए।

सवाल

(1) आज के दौर में आप धर्म को किस दृष्टि से देखती हैं?
(2) स्त्री विमर्श की रचनाओं में अधिकतर स्त्रियों ने पितृसत्तात्मक समाज का विरोध किया है, क्या पितृसत्तात्मक समाज के साथ-साथ उन्होंने इसके प्रमुख संरक्षक धर्मों को भी अपने विषय के भीतर लाने की कोशिश की है?
(3) स्त्री विमर्श का समर्थन करने वाली महिला रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में धार्मिक संकीर्णता को किस रूप में दर्ज किया है?
(4) इन दिनों धार्मिक कट्टरता किस तरह पुरुषसत्ता का संरक्षण कर रही है?
(5) आज के समय में धार्मिक कट्टरता की सर्वाधिक शिकार महिलाएं हो रही हैं। इसे आज के विमर्श कैसे व्याख्यायित कर रहे हैं?
(6) आज दुनिया में धर्म जिस तरह पुन: एक राजनीतिक ताकत बनकर उभरा है, इसे आप किस दृष्टि से देखती हैं?
(7) भारत की करोड़ों स्त्रियां या कहें 98 प्रतिशत स्त्रियां धार्मिक विश्वासों से बंधी हैं, अंधविश्वासों से भी बंधी हैं। इस मामले को आप किस रूप में देखती हैं और इसका क्या समाधान है?

 लेखिकाओं ने धार्मिक संकीर्णता के विषयों को उठाया है

नासिरा शर्मा
हिंदी की चर्चित कथाकार। ईरानी समाज तथा राजनीति के अतिरिक्त साहित्य कला और सांस्कृतिक विषयों की विशेषज्ञ।

 

(1) आज के समय की समस्याओं का कोई समाधान धर्म के पास नहीं है, क्योंकि इंसानी जीवन की जरूरतें इसके बताए नियमों से काफी हद तक आगे निकल चुकी हैं। रहा सवाल इंसान के रूहानी सुकून का, तो यह वही लोग प्राप्त कर पाते हैं जो पाखंड से दूर और राजनीति का घालमेल नहीं चाहते और मानवता पर विश्वास रखते हैं, लेकिन आज का मनुष्य भौतिक सुविधाओं के पीछे भाग रहा है जिसमें कुछ उसकी जरूरत है, कुछ हवस है। धर्म की जितनी चर्चा होती है, उतना ही कम उसके उच्च गुणों को, व्यावहारिक रूप से आत्मसात किया जाता है। धन कमाना चाहे गर्दन काटकर- यह चलन है आज। पूंजी और बाजार आज का सच है।

(2) मधु कांकरिया का उपन्यास ‘सेज पर संस्कृत’ धर्म को विषय बनाने का बेहतरीन उदाहरण है। लेख इस विषय पर ढेरों लिखे गए और कहानियां भी, फिर भी वे कम हैं। हिंदी का स्वभाव ‘मैन-वीमेन’ संबंधों पर ज्यादा है।

(3) भारत में धार्मिक संकीर्णता से कहीं ज्यादा सामाजिक जकड़न है। उस जकड़न में धार्मिक रंग घुल गया है, जिसका विरोध शुरू से लेखन में दर्ज हो रहा है। उसमें स्त्री-पुरुष को बांट कर हम नहीं देख सकते हैं। फिलहाल औरतों ने लेखन से ज्यादा फील्ड में अपने विरोध को दर्ज कराया है, जैसे शाहबानों केस, मंदिर में दाखला, छुआछूत और दलितों के प्रति अमानवीय व्यवहार। मन्नू भंडारी की कृति ‘महाभोज’ उस समय लिखी गई जब स्त्री विमर्श का कोई शोर नहीं था। धर्म को खुद न पढ़ना और पंडितों और मौलवियों द्वारा सुनकर उसे अपनाना हमारे यहां की विचित्र विडंबना है। इसके कारण मुझे ‘खुदा की वापसी’ लिखनी पड़ी। उस संग्रह की सभी कहानियां शरीयत लॉ को लेकर चलती हैं। लेखिकाओं के अलावा अन्य क्षेत्र की महिलाओं ने इस विषय को उठाया और उससे सीधे मुठभेड़ की है।

पत्रिका ‘शिरकत’ का मैं जिक्र करूंगी, जिसमें वे सारे केस हैं जो धर्म के नाम हुए औरतों पर अत्याचार से संबंधित थे और इसमें उन महिलाओं ने भी अपनी कहानी बयान की है। वर्ण भेद से जो अत्याचार दलितों ने सहे उसपर खुद उनके द्वारा जो लेखन वजूद में आया, वह हमारे समाज का काला पक्ष दिखाता है। अफसोस! अत्याचार बरसों से चला आ रहा है।

(4) मणिपुर में 4 मई को हुई शर्मनाक अमानवीय दुर्घटना इसकी मिसाल है। इससे पहले जाने कितनी दिल दहलाने वाली घटनाएं घटीं। शोर हुआ, विरोध हुआ, जुलूस और नारेबाजी हुई मगर पुरुष मानसिकता नहीं बदली। सजा कुछ केसो में अपराधियों को मिली, परंतु उससे सीख किसने ली? किसे भय लगा? अपराध कर के छूट जाने का विश्वास उन्हें रहता है जो बड़ी संख्या में पूरा भी होता है। एक धर्म जो दूसरे धर्म से बाजी हो जाना चाहता है उसका सबसे बुरा असर कमजोर दिमाग के मर्दों पर पड़ता है जो दूसरे धर्म की औरतों को अपमानित कर अपने धर्म की महानता के झंडे गाड़ता है, शाबाशी लूटता है और सोचता है कि यह काम उसके धर्म के समर्थन में जाता है। यही मानसिकता भारत के कई अन्य धर्म वाली स्त्रियों के प्रति तिरस्कार की भावना जगाता है। उनके साथ कुछ भी कर गुजरना उन्हें उचित लगता है।

लगभग सारी धार्मिक मान्यताएं, विश्वास, रीति-रिवाज पुरुष को केंद्र में रख कर बनाए गए हैं और वे औरत के संस्कार में इस तरह शामिल हो गए हैं कि यदि उन नियमों को कोई औरत तोड़ती है तो दूसरी औरत हंगामा मचा देती है। दरअसल धर्म को औरत ही जिंदा रखी हुई है। यह सोचने की बात है। सारे धर्म पुरुषसत्ता की सुरक्षा करेंगे। पुरुष हुक्म देगा औरत उसे मानेगी। इस सरंचना को तोड़ना है। मेरी कहानी ‘इब्ने मरियम’ में कुबरा कहती है- ‘हमारा खुदा भी तो मर्द है।’

(5) आज स्त्री विमर्श ऐतिहासिक महिला चरित्र पर काफी काम कर रहा है और आज के न्याय के कटघरे में खड़े मर्द को अपराधी की तरह पेश किया जाता है या फिर उनसे प्रश्न पूछा जाता है कि उन्होंने इस तरह का आचरण स्त्री के साथ क्यों किया? यह भी एक तरह का प्रतिरोध है। लेकिन इस तरह के लेखन का क्या प्रभाव समाज पर पड़ता है, मर्दों के विचार कितने बदलते हैं, मैं कह नहीं सकती हूँ, लेकिन एक सच यह है कि बाजार औरत को अपनी मुट्ठी में लेने का भरसक प्रयत्न कर रहा है। जो निष्ठा भगवान के प्रति सादे ढंग से अदा की जाती थी, वह आज बहुत तामझाम के साथ होती है। सोशल मीडिया पर लगातार ऐसे वीडियो दिखाए जाते हैं, जिनमें बताया जाता है कि कैसी औरतें मर्दों के लिए शुभ होती हैं और कैसी अशुभ। मिसाल के तौर पर जिस औरत का बदन इस तरह का है, वह मर्द के लिए शुभ नहीं है। इस वीडियो में दाढ़ीदार मर्दों की तस्वीर लगी होती है। यह एक खतरनाक प्रचार है औरतों के विरुद्ध। यदि मर्द समाज इस तरह छांट कर औरत या लड़की को शादी के लिए पसंद करेगा तो अंधविश्वास फैलाने का यह मर्दाना प्रयत्न बेहद हानिकारक है या फिर, यदि कोई एक धर्मगुरु को मानता है और उसी घर में बहू दूसरे गुरु की अनुयायी है तो सास पर जोर डाला जाएगा कि बहू को बेटा तलाक दे दे। यह सारा खेल मर्द वर्चस्व का और धन कमाने का है जो वास्तविक धर्म के नियमों से अलग अमानवीय कार्य में संलग्न है।

(6) खतरनाक और अमानवीय, रूढ़िग्रस्त और तर्कहीन। जिन धार्मिक युद्धों का जिक्र ऐतिहासिक ग्रंथों में है वह समय कुछ और था। प्रत्येक धर्म अपने में वह सारे नियम रखता है जो उस समाज के दकियानूसी विचारों के विरुद्ध थे ताकि समाज नई सांस ले सके, परंतु आज पूरे संसार में इसका उलट हो रहा है, बजाए आगे जाने या नया कोई रहबर समय के अनुसार एक नया धर्म वजूद में लाए और पुराने धर्म की जड़ता या जो नियम आज के देखते बेकार हो चुके हैं, उसे रद्द करते हुए कुछ नया जोड़े, लेकिन हो यह रहा है कि पुराने धर्म की पुरानी मान्यताओं को दोहराया जा रहा है।

यह मानव समाज के लिए भविष्य की राह न दिखाकर अतीत में जीने के लिए मजबूर कर रहा है। एक तरफ तकनीकी आविष्कार हो रहा है और दूसरी तरफ टोटके, टोने और जादू जैसी सड़ी-गली तर्कहीन मान्यताओं को फिर से नए रूप में लाकर आदमी के ग्रोथ को कुंठित किया जा रहा है।

(7) धर्म को अफीम कह देने भर से कुछ हल आज नहीं होने वाला है। पहले आज उस अफीम का तोड़ लाएं और फिर उम्मीद करें कि वर्तमान समय में इंसान आध्यात्मिक और भौतिक जरूरतों की अहमियत समझते हुए उस फर्क को समझे। इसके लिए शिक्षा के साथ धर्म को सही तरीके से समझा जाए कि जो ओल्ड विजडम हमें अपने पुरखों से मिला है वह आज के समय में कितना कारगर है, क्या उसे अपनाया जा सकता है या फिर उसे नया रूप दिया जाए। हर देश के लगभग 80 प्रतिशत लोगों का विश्वास धर्म पर है, जिसके कारण धर्मगुरु उन्हें आसानी से अपने पक्ष में कर लेते हैं। तब वह तरह-तरह के शोषण का शिकार होती है।

घर में जब औरत को सम्मान और सुरक्षा नहीं मिलती, न मायका उसको सहारा दे पाता है, तब भगवान का चौखट बचता है और यहां से शुरू होता है धर्म के प्रति विश्वास और अंधविश्वास का चक्कर। यह जरूरत है मानव की कि उसे रूहानी सुकून मिले। उस समय धर्म और ज्ञान पाप का सहारा बन जाते हैं। इंसान के जीवन से धर्म की जड़ता और शोषण को तभी हटाया जा सकता है जब उसे इंसानी रिश्तों पर विश्वास हो। उस समय वह धर्म को केवल अपने आंतरिक सुख के लिए प्रयोग में लाएगा और भौतिक दुनिया को वह तर्क और तथ्य से जिएगा।

 

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 स्त्री के धार्मिक अंधकार को उच्च शिक्षा और वैज्ञानिक तर्कों से ही मिटाया जा सकता है

सुधा अरोड़ा
प्रमुख वरिष्ठ कथाकार। कांसे का गिलास’, ‘काला शुक्रवारजैसे अनेक चर्चित कहानी संग्रह प्रकाशित और एक उपन्यास यहीं कहीं था घर

(1) भारतीय और अंतरराष्ट्रीय संदर्भ में ‘आज का दौर’ बेहद अफसोसनाक दौर है, जहां लोकतंत्र के नकाब के पीछे धार्मिक कट्टरताएं अपनी जड़ें मजबूत कर रही हैं। धर्म एक आध्यात्मिक विचारधारा से बढ़कर जब सत्ता की राजनीति का हिस्सा बन जाता है तो निरंकुश सरकारें धर्म को एक हथियार की तरह इस्तेमाल करती हैं।

विश्व के कई देशों में राजनीतिक सत्ताएं नागरिकों, श्रमिकों, महिलाओं और हाशिए पर पड़े लोगों पर अंकुश लगा रही हैं, उनके अधिकारों को संकुचित कर रही हैं। देशभक्ति और राष्ट्रवाद की आड़ में धर्म को शतरंज की गोटी की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। हर सत्ता पहचान की राजनीति को हवा दे रही है, उसे चमकदार बनाकर प्रस्तुत कर रही है। इससे देश में असहिष्णुता बढ़ रही है और धर्म के उदात्त मूल्यों का क्षय हो रहा है।

धर्म के कर्मकांड में एक चुंबकीय आकर्षण होता है। एक आम निम्न मध्यवर्गीय आदमी के लिए धर्म न गीता है, न रामायण, न महाभारत, न सूरदास और तुलसी की कृतियां, क्योंकि उसने इनमें से कोई ग्रंथ नहीं पढ़ा है। ज्यादा से ज्यादा वह टीवी धारावाहिक रामायण या महाभारत देखकर या गांव की रामलीला या रासलीला के माध्यम से उसकी कहानी की रोचकता पर मुग्ध होता है। इस निम्न-मध्यवर्गीय आदमी को डराने-धमकाने और उकसाने के लिए धर्म काम आता है। वह नहीं जानता कि धर्म क्या है, पर उसे जब बताया जाता है कि उसका धर्म खतरे में है तो धर्म की इस तस्वीर के खौफ से वह हड़बड़ाकर उठता है और धर्म की रक्षा के लिए हिंसक भीड़ के हाथ में उठा हुआ खंजर उसे धार्मिक हथियार दिखाई देता है।

धर्मांधता और धार्मिक आस्था में हम अक्सर घालमेल कर देते हैं। आस्था होना अच्छी बात है, चाहे आप पत्थर की मूर्ति पर या किसी अलौकिक शक्ति पर ही आस्था रखें। यह आस्था एक आम अभावग्रस्त आदमी को ताकत देती है, जीने का संबल देती है। वह अपने निराश क्षणों में किसी पारलौकिक सत्ता के अस्तित्व पर भरोसा करना चाहता है। धर्म का एक सार्थक और विश्वसनीय विकल्प हम आज तक ढूंढ नहीं पाए हैं।

आज धर्म एक अच्छा खासा व्यवसाय बन गया है। इसके जाल में फंसा आम आदमी कभी इस बात को समझ ही नहीं पाता है, क्योंकि धार्मिक गिरोहों का प्रचार तंत्र बहुत मजबूत है। किसी भी मजहब की बुनियाद झूठ, शोषण और पाखंडों पर ही खड़ी है जिसे कायम रखने के लिए धर्मों को हिंसा का सहारा लेना पड़ता है। तर्क और ज्ञान को अनदेखा किया जाता है ताकि समाज में जड़ता और अज्ञानता बरकरार रहे। ज्ञान के मार्ग में सबसे बड़ा अवरोध धार्मिक अंधविश्वास से भरी मान्यताएं हैं, जिन्हें ध्वस्त किए बिना विश्व कल्याण की बात करना भी व्यर्थ है।

धर्म के संगठित शोषणकारी पहलू को उजागर करने और उसका खुलासा करने की जरूरत है, क्योंकि यह हाशिए पर पड़े लोगों, गरीबों और महिलाओं का दमन करता है और उनपर अंकुश लगाता है। धर्म के नाम पर यह जनजातियों को आपस में लड़वाकर बेशकीमती जमीन और जंगल की खनिज संपदा को हथियाना चाहता है। सत्ता और पूंजीपतियों की इसमें बराबर की भागीदारी रहती है।

(2-3) जागरूक महिला रचनाकार हमेशा धार्मिक कट्टरता और संकीर्णता पर सवाल उठाती रही हैं। उन्होंने तीखा और मानीखेज लेखन किया है। नासिरा शर्मा की ‘खुदा की वापसी’, ‘इब्ने मरियम’ और ‘संगसार’ जैसी कई महत्वपूर्ण कहानियां हैं। बाबरी मस्जिद के ध्वंस के बाद मैंने दो कहानियां लिखीं। पहली कहानी ‘काला शुक्रवार’ जो मुंबई के बम विस्फोट पर थी और दूसरी, ‘जानकीनामा’! ‘जानकीनामा’ सांप्रदायिक सद्भाव की कहानी थी, पर दोनों कहानियों में जो भी मुद्दे रेखांकित हुए, वे सायास नहीं, कहानी का हिस्सा थे।

मधु कांकरिया का उपन्यास ‘सेज पर संस्कृत’ जैनी धर्मगुरुओं के शोषण पर है। उषाकिरण खान का उपन्यास ‘भामती’ भी एक मिथक को आधार बनाकर रचा गया उपन्यास है। नूर ज़हीर की एक किताब है- ‘माय गॉड इज़ अ वूमेन’। मेरे उपन्यास ‘यहीं कहीं था घर’ में एक पूरा अध्याय धार्मिक ढोंग पर है -‘देह धरे का दंड’। इसमें साधुओं द्वारा नाबालिग बच्चियों पर दुराचार की कहानी है। ऐतिहासिक और मिथकीय चरित्रों पर भी महिला रचनाकारों ने खूब लिखा है।

किसी भी विषय पर आप लिखना चाहें तो वह मुद्दा अपनी विधा स्वयं तय कर लेता है। धर्म से जुड़े मुद्दों के बारे में जब भी मैंने कलम उठाई मुझे टिप्पणी या लेख लिखना ही ज्यादा सटीक माध्यम महसूस हुआ। 1997 में मैं जनसत्ता के साप्ताहिक स्तंभ ‘वामा’ में लिखती थी, उसमें मैंने धर्म पर कई बार सवाल उठाए। कुरान की नारीवादी व्याख्या, मनुस्मृति : संस्करण 1997 या देवराला की रूपकंवर के सती होने की घटना पर सती मैया की महिमा और ऐसे कई आलेख मैंने लिखे हैं।

एक लंबा आलेख है- ‘औरत की दुनिया में धर्म का खलल’, जो इंडियन मर्चेन्ट चेंबर में मुंबई में 1997 में मैंने डॉक्टर रिफ़अत हसन का भाषण सुनने के बाद लिखा था। गुजरात दंगों के बाद जिस तरह महिलाओं ने भी बढ़-चढ़कर हिंसा में भाग लिया, वह झकझोर देने वाला मामला था। बीसवीं सदी में महिलाएं भी इस कदर धार्मिक कट्टरता से आलोड़ित हो जाती हैं कि वे बाकायदा दूसरे धर्म की महिलाओं के खिलाफ सड़क पर हिंसा पर उतर आती हैं!

(4) पूंजी की सत्ता हो या धर्म की – सभी सत्ताएं हमेशा एक-दूसरे के साथ गलबहियां डालकर चलती हैं। धर्म का मूल आधार ही पुरुष सत्ता है। स्त्री का दोयम दर्जा सिर्फ हिंदू धर्म में ही नहीं, हर धर्मग्रंथ में तय है- वह चाहे कुरान हो, बाइबल हो या कोई और धर्मग्रंथ हो, क्योंकि स्त्रियों को हमेशा पुरुष से कमतर माना गया। वह आदम की पसली से पैदा हुई। मुस्लिम देशों में अरसे तक किसी अपराधी केस में महिला गवाह की गवाही आधी गवाही मानी गई।

स्त्री अधिकार की बात हमारे धर्मग्रंथों में कभी की ही नहीं गई। वह पुरुष के शाप से शिला बन जाती है, पुरुष के ही स्पर्श से फिर से मानवी बन जाती है। पुरुष उसे अग्निपरीक्षा देने को कहता है, गर्भवती पत्नी को बनवास दे देता है, पुरुष की इच्छा से उसे वस्तु की तरह दांव पर लगा देता है। सभी धर्मग्रंथों में उसे नरक की खान, ताड़न की अधिकारी और क्या-क्या नहीं कहा गया। गरुड़ पुराण तो इस कदर स्त्री विद्वेष से आच्छादित है कि उसे सुनते हुए वितृष्णा होती है। हमारे यहां आज भी किसी की मृत्यु के बाद के अनुष्ठानों में गरुड़ पुराण का सामूहिक वाचन होता है।

इधर हिंदू धर्म की कई धार्मिक पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। कुछ किताबें स्त्रियों के लिए भी हैं- उन्हें कर्तव्य शिक्षा का उपदेश देते हुए। इन किताबों की बिक्री लाखों में है। ऐसी कोई भी किताब आप उठा कर देख लें – उसमें स्त्रियों के लिए कर्तव्य की लंबी सूची होगी, अधिकारों की नहीं। गीता प्रेस की एक किताब ‘स्त्रियों के लिए कर्तव्य शिक्षा’ है। इसे पढ़कर देखा जा सकता है कि  स्त्रियों को हम किस काल में धकेले रखना चाहते हैं।

(5) स्त्रीवादी नजरिए से देखा जाए तो किसी भी धर्म में औरत को बराबरी के नागरिक का दर्जा हासिल नहीं है। कुछ मंदिरों में प्रवेश का निषेध इसी बिना पर है। धर्म से लड़कर भी एक औरत क्या हासिल कर लेगी। क्या धर्म से पूरी तरह नकार में उसकी मुक्ति है? दुनिया के किसी भी धर्म में औरत हाशिए पर है, बस इस बात पर गौर करने की जरूरत है कि ईश्वर, अल्लाह और गॉड सबके सब पुरुष हैंं।

पितृसत्ता के सारे औजार पैगंबरों से आयातित हुए हैं। पितृसत्ता को जमाने में अलग-अलग तरीके का इस्तेमाल किया गया है। इस्तेमाल करने के ये तरीके दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में धर्म कहे जाते हैं। स्त्रियां अगर सशक्त हो जाएं, अपनी लड़ाइयां खुद लड़ना सीख लें, अपने मन के भीतर जमे-बैठे भय से निज़ात पा लें तो उन्हें किसी देवालय में जाने की जरूरत नहीं है। वह प्रार्थनास्थल या सुकूनगाह उन्हें अपने घर में ही मिल जाएगा।

सत्ता कोई हो- अर्थसत्ता, राजसत्ता, जाति-वर्चस्व, धर्मसत्ता- सारी सत्ताएं एकजुट होकर काम करती हैं। राज्य और धर्मसत्ता ने शाहबानो को 1985 में भरण-पोषण का दावा करने पर अपना संघर्ष छोड़ने के लिए मजबूर किया। धर्म और पुरुषसत्ता ने रूप कंवर को 1987 में अपने पति के मरने पर सती होने के लिए मजबूर किया। पितृसत्ता और जाति वर्चस्व ने 1993 में भंवरी देवी के बलात्कारियों का स्टेज पर फूलमालाओं से स्वागत किया। बीस साल बाद इन्हीं सत्ताओं ने मिलकर एक बार फिर 2023 में बिलकिस बानो के बलात्कारियों को रिहा कर दिया। उनका भी फूलमालाएं पहनाकर स्वागत किया, जो आज इक्कीसवीं सदी में सत्ताओं के गठबंधन का सबसे घिनौना रूप हैं। इसी का नवीनतम संस्करण है- लव जिहाद की नौटंकी। हाल की मणिपुर त्रासदी को देखें। 4 मई की घटना से देश कहां धकेला जा रहा है। कहां तक गिनाया जाए। जम्मू कश्मीर में नौ साल की बच्ची आसिफ़ा का बलात्कार  धर्म और इंसानियत के खिलाफ खड़ा दिखाई देता है।

आसाराम बापू और डेराबाबा राम रहीम के कारनामे देखें। धार्मिक कट्टरता दरिंदगी का पर्याय हो गई है। डेराबाबा राम रहीम जैसे ढोंगी-पाखंडी साधु दोषी पाए जाने के बावजूद आए दिन पैरोल पर रिहा कर दिए जाते हैं। इसपर सवाल हमेशा उठाए जाते रहे हैं, पर आज सवालों को भी पीछे धकेला जा रहा है।

सबसे बड़ी त्रासदी है कि धर्म के नाम पर होने वाली हिंसा को महिलाएं भी समझ नहीं पातीं और इसे समर्थन देती हैं। आज के समय में बहुसंख्यक सांप्रदायिकता तो लगभग फासीवाद है। स्त्री विमर्श हो या दलित आदिवासी विमर्श- हाशिए पर पड़े लोगों की आवाजों को हमेशा उठाया जाता रहेगा।

(6) जनता की कमजोर नस है उसका धर्म। अगर आप जनता की सभी जरूरी मांगों का संज्ञान नहीं लेते, उनकी समस्याओं का समाधान नहीं कर सकते, तो आप उसका ध्यान भटकाने के लिए उसकी कमजोर नब्ज को थाम लेते हैं और उस कमजोर पक्ष की आड़ लेकर अपने को सत्ता में बनाए रखते हैं। यह पूंजीवादी अर्थव्यवस्था का भी संकट है। पूंजीवाद, धार्मिक संगठन और राजनीतिक ताकतें एक ही लय में काम करती हैं।

(7) धर्म भारत की महिलाओं की कमज़ोर नब्ज है। महिलाएं पितृसत्ता की वाहक और शिकार दोनों हैं। भारत के अतीत, वर्तमान और भविष्य में धर्म की एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है। हमें कभी भी धर्म और धर्म के योगदान को समाज या संस्कृति की विचारधारा के निर्माण में मामूली या कम करके नहीं आंकना चाहिए। हम एकबारगी उसे दरकिनार नहीं कर सकते। समाजशास्त्रीय एवं ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में विभिन्न धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन जरूर कर सकते हैं। इससे अलग-अलग धर्मों की विविधता और अंतर को समझने में मदद मिलेगी। समानधर्मा समावेशी परंपराओं को सामने रखकर उनका विश्लेषण किया जा सकता है। भारत में ऐसी कई जीवंत परंपराएं हैं। जैसे यहां पीरों की दरगाहों पर, उरुस, वारी, यात्राओं में विभिन्न धर्मों के अनुयायी एक साथ एकजुट होकर जाते हैं। इसे उत्सव की तरह मनाया जाता है। अजमेर में ख्वाजा चिश्ती की दरगाह पर, नासिक और कोल्हापुर में उरुस और वारी उत्सव में सभी धर्म के लोग बेहिचक एकजुट होते हैं।

धर्म औरत को कब्जे में रखने का उपकरण है। औरत को बचना है और आगे निकलना है तो उसे कट्टरवादी धार्मिक सत्ता को नकारना होगा। दुनिया जैसी आज है, वैसी पहले नहीं थी। पहले का इंसान डरा हुआ इंसान था। डर कर ही उसने ईश्वर की कल्पना की और ईश्वर के पूरे समाजशास्त्र को रचा। वही समाजशास्त्र आज धर्मशास्त्र बना हुआ है। दुनिया को बदलने में मनुष्य के स्वतंत्र चिंतन ने बहुत बड़ा काम किया है। उसी ने विज्ञान को जन्म दिया! औरतों की मुक्ति भी स्वतंत्र चिंतन के सहारे विज्ञान तक पहुंच कर ही संभव हो सकेगी। स्त्रियों के धार्मिक अंधकार को उच्च शिक्षा और वैज्ञानिक तर्कों से ही मिटाया जा सकता है।

 

1702, सॉलिटेयर, हीरानंदानी गार्डन्स, पवई, मुंबई – 400076 मो. 9082455039

क्या धर्म के निर्माण में स्त्रियों की कोई भूमिका है?

सविता सिंह
स्त्रीवादी चिंतक एवं कवि। हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में लिखती हैं। प्रमुख कविता संग्रह : अपने जैसा जीवन’, ‘नींद थी और रात थी’, ‘स्वप्न समयऔर खोई चीजों का शोक। इग्नू में प्रोफेसर।

(1) धर्मों पर मैंने विशेष अध्ययन नहीं किया है। इसलिए मैं समाजशास्त्र के दृष्टिकोण से ही कुछ बातें कह पाऊंगी। एक बात जो बार-बार सामने उभर कर आती है, वह है धर्म के निर्माण में स्त्रियों की नगण्य भूमिका। उन्होंने धर्म का निर्माण नहीं किया। वे देवियां बनाई गईं, उनकी पूजा अर्चना की तमाम विधियां बनाई गईं, लेकिन उन्होंने खुद इसमें कोई योगदान नहीं दिया। वे पूरी डटी रहीं देवी के रूप में और मां, पत्नी, बेटी और अन्य भूमिकाओं में पराधीन भी बनती रहीं। एक अंतर्विरोध की स्थिति बनी रही है जिसमें ढेर सारी हिंसा समाई रही है। धर्म के अपने आध्यात्मिक और धार्मिक स्तर होते हैं। आध्यात्मिक स्तर पर इसके गूढ़ ज्ञान को पाया जा सकता है। दूसरे स्तर पर वह राजनीति के काम आता है। इसका सहारा लेकर राजसत्ताएं शक्ति अर्जित करती हैं और राजकाज चलाती हैं।

(2) यदि आप दुनिया की तमाम स्त्रीवादी चिंतकों के बारे में जानना चाहें तो ईरान, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, यूरोप, अमेरिका इत्यादि जगहों पर मुखर प्रतिरोध देखने को मिल सकेगा। हिंदुस्तान में भी दलित, आदिवासी लेखिकाओं के यहां मुखर प्रतिरोध दिखेगा। हिंदुस्तान की साम्यवादी धारा में सम्मानित स्त्रियों ने भी धर्म की भूमिका को रेखांकित किया है, खासकर एक असमान समाज को बनाए रखने में इसका जो योगदान रहा है।

(3) धर्म के आध्यात्मिक पक्ष पर कोई विचार नहीं किया गया है, जिससे कोई बात बन सकती थी। स्त्री लेखन इस विषय की गहराई में उतरना चाहता है। लेकिन धर्म की संकीर्णता जिस तरह छलनी करती रहती है, वह इससे मुक्ति चाहती रही है। मैंने खुद धर्म द्वारा तय किए गए देवताओं के वर्चस्व को नकारने की बात कही है अपनी कई कविताओं में। धार्मिक परंपराओं द्वारा तय की गईं स्त्री की अधीनस्थ भूमिकाओं को भी रिजेक्ट करने की बात की है। वैसे आजकल कई लेखिकाएं  ऐतिहासिक स्त्रियों को केंद्र में लाकर उपन्यास और कविताएं लिख रही हैं। एक मूल्यांकन शायद इस जरिए भी हो, लेकिन धार्मिक संकीर्णताओं को लेकर लिख रहीं हैं या नहीं, बता नहीं सकती।

(4) धार्मिक कट्टरता हमेशा एक युद्ध-सा माहौल बनाती है और इसके जरिये आपस में लड़ाती भी है। यह समाज में पराधीनता और शोषण का नया तंत्र बनाती है। इससे धार्मिक लोग भी हताहत होते हैं। कमजोर, अपने काम से काम रखने वाले ऐसे लोग जो तटस्थ रहते हुए अपना जीवन जीना चाहते हैं वे सब इसकी आग की चपेट में आते हैं। राजसत्ता को इस कट्टरता से विशेष लाभ मिलता है। फिर वह राजसत्ता की ही थाती बन जाती है। यह कट्टरता शक्ति के रूप में एक छोटे समूह के ही काम आती है। इसका शिकार स्त्री गहरे अर्थों में होती है। उसकी परतंत्रता बढ़ जाती है। इस अर्थ में ऐसी स्थिति बनती है, जिसे हम भीषण पुरुषवाद भी कह सकते हैं।

पुरुषवाद का असली केंद्र पुरुष के इस विश्वास में निहित होता है कि पुरुष सर्वश्रेष्ठ है, उसके धर्म श्रेष्ठ हैं। उसके शास्त्र सत्य पर आधारित हैं और उनका अनुसरण होना चाहिए। यह श्रेष्ठता कट्टरपंथ को और बढ़ा देता है। बार-बार स्त्रियों को स्मरण कराया जाता है कि समाज में उसकी भूमिका क्या है। इसे भूलने की गुंजाइश नहीं छोड़ी जाती। धर्म ऐसा करने में खूब मददगार होता है।

(5) जब से विश्व पूंजी को लगा कि कम लागत के लिए स्त्री श्रम का इस्तेमाल जरूरी हो गया है, उसने स्त्री को घर से बाहर काम करने के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया। लेकिन घरेलू जीवन की जिम्मेदारियों में कोई कटौती नहीं की। वह घर और बाहर दोनों जगहों में काम करने लगी। इसे ‘डबल बर्डन’ के रूप में स्त्री ने स्वीकार भी कर लिया। अब वह कई अर्थों में ज्यादा शोषित और साथ ही स्वतंत्र और परतंत्र दोनों हुई। यह अंतर्विरोध वह खुद भी समझती है। इसलिए स्त्रीवादी लेखिकाएं बहुत हद तक पूंजीवादी व्यवस्था द्वारा पोषित पितृसत्ता को हटाना चाहती हैं। वे अपने श्रम का इस्तेमाल बेहतर समाज बनाने के लिए करना चाहती हैं तकि सभी लोग ज्यादा समान और स्वतंत्र हों। आजकल मैं फिर से हरबर्ट मार्क्यूज की किताब ‘इरोस एंड सिविलाइजेशन’ पढ़ रही हूँ। मनुष्य का श्रम एक नए समाज को जन्म दे सकता है, यदि पूंजीवादी लालच मुनाफा के लिए काम कर सके। यदि वह हर वृत्ति और मनुष्य की चाहत और वासना को वास्तुकरण के नियमों में न बांधे।

(6) नए धार्मिक उभार का नतीजा विध्वंसकारी होगा। इस उभार में हिंसा एक प्रमुख घटक है। वह बढ़ती ही जाएगी जब राजसत्ता के शक्ति-एकत्रीकरण में वह शामिल होगी, बल्कि इसके जरिए ही वह केंद्रीकरण को एक विशेष कार्य में बदल देगी। अंत में युद्ध होगा। पुरुषसत्ता युद्ध के जरिए ही दृढ़ बनती है। इतिहास साक्षी है कि किस तरह युद्ध के जरिए पुरुषसत्ता राजसत्ता को बढ़ाती गई है। शांति सिर्फ स्त्रियों की ही मांग रही है। जो पुरुष शांति चाहते रहे हैं, उनका भी विनाश ऐसी सत्ता कर देती है।

(7) स्त्रियों के पराधीन होने का यह प्रमाण है कि वे अंधविश्वासों द्वारा शासित होती हैं। वे पूरी तरह अपनी पराधीनता से अनुकूलित हैं। वे पित्तृसत्ता को स्वीकार करके चलती हैं। वे दूसरी स्त्रियों पर पुरुषों की ही भांति अत्याचार करती हैं। वे आक्रामक राजसत्ता की सच्ची नागरिक हैं। उन्हें राज्य और धर्म दोनों की जरूरत है। वे इसमें अपना सम्मान खोजती और पाती हैं। उन्हें इससे उबरने के लिए पित्तृसत्ता के समकालीन रूप से लड़ना ही है। उन्हें सत्ता की अपनी भूख को भी पहचानना है। सदा से सम्मान और सत्ता से वंचित स्त्री इस छोटे से अवसर या कहें सत्ता के टुकड़े को ही अपना सबकुछ समझ लेती हैं, जबकि उन्हें इससे उबरने के लिए कम लालच और ज्यादा संघर्ष के लिए तैयार होना है। हाल में मैंने स्त्रीवादी यूटोपिया पर एक लेख लिखा है। उसमें ऐसे नए संसार को बनाने की इच्छा के साथ इस पर विचार किया है। यथार्थ और कल्पना के विश्लेषण के माध्यम से कैसे बनाएं।

 

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पितृसत्ता ने स्त्रियों को किसी मंदिर की पुरोहिती या मस्जिद की निजामी नहीं सौंपी

पूनम सिंह
90 के दशक से साहित्य की सभी महत्वपूर्ण पत्र पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।काव्य संग्रहॠतुवृक्ष’, ‘लेकिन असंभव नहीं’, ‘रेजाणी पानीऔर उजाड़ लोकतंत्र में। कहानी संग्रहकोई तीसरा’, ‘कस्तूरीगंध तथा अन्य कहानियां’, ‘सुलगती ईंटों का धुआं, ‘खरपतवारआदि।

(1) धर्म हमेशा मनुष्य जीवन को शाश्वत मूल्यों की ओर उन्मुख करता है। हमारे देश में विभिन्न संप्रदायों में बंटे हिंदू, ईसाई और मुसलमान के भीतर धर्म का यही रूप होना चाहिए। धर्म मनुष्य समाज की बहुविध संस्कृति का हिस्सा है। उसका एक वैचारिक और दार्शनिक उत्स है। धर्म की सिद्धि राज्य सत्ता या संगठनों से नहीं होती। वह आदिम राग में एक उदात्त आचार और विचार है, जिससे सांसारिक अभ्युदय और आध्यात्मिक उदात्तता दोनों संभव होते हैं। मनुष्य के सामाजिक और नागरिक कर्तव्य भी धर्म हैं। धर्म एक सजग मनुष्य का विश्वबोध भी है। धर्म को मैं इसी रूप में देखती हूँ। परंतु धर्म का व्यावहारिक पक्ष कुछ और है। धर्म जब सत्ता और शक्ति को हस्तगत करने का माध्यम बनाया जाता है तो उसका मनुष्यधर्मी रूप पूरी तरह खत्म हो जाता है। सत्ता से जुड़कर उसका चरित्र अलोकतांत्रिक हो जाता है।

(2) आज स्त्री मुक्ति का प्रश्न एक सबसे जटिल विमर्श है। इसका बीजारोपण मध्यकाल की संत कवयित्री मीरा ने किया था। राजघराने की कुलवधू ने धर्म द्वारा रचित जात-पात, पुराने आदर्श-मर्यादा के बंधनों को काटते हुए लोकाचार, लोकमत, लोकलाज से ऊपर उठकर स्त्री अस्मिता की पहचान की। आज का स्त्री विमर्श उस बीज से ही पल्लवित-पुष्पित होकर वटवृक्ष बना है। आज के स्त्री लेखन में पितृसत्तात्मक निरंकुशता की गहन पड़ताल मिलती है। ‘इदन्नमम’, ‘कठगुलाब’, ‘छिन्नमस्ता’, ‘महाभोज’, ‘चितकोबरा’, ‘अनित्य’, ‘उस तक’, ‘शेष प्रश्न’, ‘चाक’, ‘माई’ जैसे अनेक उपन्यास पितृसत्तात्मक निरंकुशता की कुत्सित सचाइयों को उजागर करते हैं। आदिवासियों, दलितों, सदियों से उत्पीड़ित जनजातियों के शोषण और संघर्ष को भी स्त्री लेखन ने आत्मसात किया है। पश्चिम की सीमोन द बुआ और वर्जीनिया वुल्फ ने पुरुष षड्यंत्रों को स्त्री की अनुकूलित मानसिकता से जोड़कर देखा था। हिंदी की स्त्री विमर्शकारों ने इतिहास और धर्म के कई पन्ने खोले, हालांकि  वह पर्याप्त नहीं है। धर्म और शरीयत की गुंजलक में कैद स्त्री अस्मिता को लेकर संरक्षक धर्मों पर लगातार विमर्श और संवाद की जरूरत है।

(3) स्त्री विमर्श का समर्थन करने वाली महिला रचनाकारों ने धार्मिक संकीर्णता को पुरुषसत्ता की साजिश के रूप में देखा है। शास्त्रों-पुराणों में दर्ज स्त्री के धर्म-कर्म उसे आज भी गुमराह करते हैं। धर्मकांड के इस पाठ ने स्त्री समाज की एक गतिहीन आंतरिक संरचना निर्मित की है, जिसे स्त्री रचनाकारों ने अपनी कृतियों में संजीदगी से उकेरा है। स्वानुभूत सत्य के आधार पर महादेवी से लेकर आज तक का स्त्री लेखन इतिहास की पड़ताल में भूगर्भभेदी खुदाई है- निषेध के विरुद्ध प्रस्तुत होने की एक नई भंगिमा-

‘वह चिढ़ा रही है मातृ देवी को
उकसा रही है कुल देवी को-
यह नरमुंड एक गेंद है दुख की
गेंद है अ-दुख की
अटकाना चाहती इसे वह भूखे देवों के कंठों में’
-गगन गिल

(4) दुनिया के सभी धर्मशास्त्र और आचार संहिताएं पितृसत्तात्मक निर्मितियां हैं। पुरुषसत्ता स्वीकृत भूमिका से अलग किसी स्थिति में स्त्री को देखना पसंद नहीं करती। इसलिए धार्मिक आचार संहिता बनाकर वह स्त्री की स्वतंत्रता, स्वायत्तता और यौन शुचिता पर नियंत्रण रखती है। पतिव्रता-धर्म स्त्री के सती सावित्री रूप को इक्कीसवीं सदी में भी महिमामंडित कर रहा है। हाल ही में ‘पद्मावत’ फिल्म पर भीषण विवाद हुआ, उसमें ‘जौहर’ का दृश्य है। मुझे याद है  90 के दशक में बिहार के समस्तीपुर का ‘रूकिया देवी कांड।’ पति के साथ जीने और मरने का धर्म निभाती वह जीवित काया भरी भीड़ के सामने जलकर भस्म हो गई थी और घटनास्थल पूजा स्थल में परिणत हो गया था।

आज भी कई गांवों में ‘सती मैया’ के मंदिर हैं जहां स्त्रियां पूजा पाठ करती हुई अपने सुहाग को अक्षुण्ण रखने और वैधव्य का दुख नहीं भोगने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करती हैं। धार्मिक आचार संहिता ने वैधव्य को पूर्व जन्मों का फल बताया है, जिसका कठिन प्रायश्चित स्त्रियां करती हैं। पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, मंदिर-मूर्तियों के समूचे विधि-विधान स्त्रियों के जिम्मे हैं, लेकिन पितृसत्ता ने किसी मंदिर की पुरोहिती या मस्जिद की निजामी उसे नहीं सौंपी है। अभी कुछ वर्ष पूर्व ही केरल के ‘सबरीमाला मंदिर’ में महिलाओं के प्रवेश पर रोक लगाना पुरुषसत्ता की कट्टरपंथी सोच का ताजा दृष्टांत है।

मुस्लिम स्त्रियों को मस्जिद जाने की मनाही है। धार्मिक कट्टरता ने स्त्रियों को कई रूपों में अछूत बनाए रखा है। मासिक धर्म के समय स्त्रियों को चौके चूल्हे में जाना, पूजा अर्चना करना वर्जित बताया जाता है। मुस्लिम धर्म में भी मासिक धर्म के दौरान ‘कुरान’ को हाथ लगाना वर्जित है। मुस्लिम धर्म में ‘तलाक’ शब्द धर्म की अराजकता और कट्टरता का सबसे अमानवीय विधान है। विश्व के कई देशों में आज भी लड़कियों को ‘सुन्नत’ की अमानवीय यातना से गुजरना पड़ता है। यौन शुचिता की रक्षा के लिए यह एक क्रूर धार्मिक विधान है। धर्म ने पूरे विश्व में पुरुषसत्ता को इसी रूप में संरक्षित और संवर्धित किया है।

(5) स्त्री पर दैहिक-मानसिक और धार्मिक कबीलाई हिंसा आज विश्व के हर देश में हो रही है। यौन हिंसा और स्त्री उत्पीड़न के पीछे पुरुषसत्ता की धार्मिक कट्टरता और अमानुषिक प्रवृत्ति काम करती है। धर्मसत्ता अंधभक्त पुरुषों के भीतर एक विचारधारा के रूप में रहती है। सांस्कृतिक मामलों में यह अंधी विचारधारा ही पुरुषसत्ता को हिंस्र पशु बनाती है। घर-परिवार हो या देश-दुनिया, महिलाएं पितृसत्ता की हर जगह शिकार होती हैं। पूरे भारतीय उपमहाद्वीप में महिलाओं पर लगातार अत्याचार बढ़ रहे हैं।

अफगानिस्तान में महिलाओं को शिक्षा, काम करने के अधिकार, खुलेआम घूमने की आजादी पर तालीबानी पहरा है। मुस्लिम महिलाओं का हिजाब पहनना या उतारना उनकी मर्जी नहीं- आकाओं की मर्जी है। धर्म और पुरुषसत्ता की मानसिकता में आज भी स्त्री व्यक्ति नहीं, सेक्स ऑब्जेक्ट की तरह देखी जाती है। धार्मिक संगठन उनका सामूहिक बलात्कार करते हैं और राजसत्ता उन्हें बाइज्जत बरी करती है।

हमारे देश में बिल्किस बानो का प्रसंग अभी इसका ताजा उदाहरण है। नब्बे के दशक में सूरत और मुंबई में मुस्लिम औरतों पर हुए अत्याचार और बलात्कार की वीडियो फिल्में जुनूनी भीड़ के बीच बनाई गई थी। धार्मिक कट्टरता का यह अमानुषिक व्यवहार पूरे विश्व में हो रहा है। चर्चित लेखिका तस्लीमा नसरीन को देश निकाला सिर्फ इसलिए दिया गया था कि उसने इस्लाम धर्म के खिलाफ अपनी आवाज बुलंद की थी।

(6) पूरी दुनिया में आज नियम, कायदे कानून से ऊपर धर्म की सत्ता है। यूनान, रोम, ईरान, जर्मन, मिस्र, जावा, तुर्किए हो या अफगानिस्तान, सत्ताधारी धर्मांधों ने हर देश-काल में अपने धर्म का जयघोष करते हुए मनुष्यता को लहूलुहान किया है। धर्म और मजहब के नाम पर ही भारत का विभाजन हुआ। लाखों लोग दरबदर हुए- मनुष्यता पराजित हुई और आज सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक समय की गति के बीच ‘धर्म’ एक बार फिर राजसत्ता को समर्पित हथियार बन गया है। आज  ‘सांस्कृतिक राष्ट्रवाद’ का जो परिवेश निर्मित किया जा रहा है, वह भारतीय समाज को भीषण रूप से हिंसक और विध्वंसक बना रहा है। ‘सर्व धर्म समभाव’ और ‘धर्मनिरपेक्षता’ जैसे शब्द अर्थहीन हो गए हैं। सत्ता ने सांप्रदायिक ताकतों को वर्चस्व स्थापित करने की पूरी छूट दे रखी है। आज कलाकार, पत्रकार, लेखक, संस्कृतिकर्मी, मानवाधिकार कार्यकर्ता, स्त्रियां और बच्चे सभी इस अमानुषिक दौर के शिकार हो रहे हैं। बुद्धिजीवियों की चुप्पियां देश के कोने-कोने में पसरी हुई हैं, जो सबसे घातक स्थिति है।

(7) स्त्री विमर्श में स्त्री मुक्ति के प्रखर स्वर भले सुनाई देते हों, परंतु भारत में अधिकांश स्त्रियों का जीवन आज भी सामंती मान्यताओं और धार्मिक रूढ़ियों में कैद है। धर्मग्रंथों और गृह सूत्रों से अनुशासित स्त्रियों में आध्यात्मिक और मिथकजीवी होने की अपार संभावना होती है। इसलिए 21वीं सदी में भी महिलाएं धार्मिक अनुष्ठानों, साधु संतों के भ्रामक प्रवचनों के पीछे भेड़-बकरियों की तरह चलती हुई रूढ़िग्रस्त आस्थाओं की पोषक बनी हुई हैं।

धर्मशास्त्र उन्हें नैतिकता और मर्यादा का अविस्मरणीय पाठ पढ़ाता है। इसलिए निरंतर घरेलू श्रम, क्षमा और पूर्ण समर्पण को वे स्त्रीत्व का ट्रेडमार्क मानती हैं। व्रत कथाओं से संबंधित अतार्किक प्रवचनों का श्रवण करते हुए स्त्रियां पति को परमेश्वर मानती हुई परम प्रबुद्ध भाव से पुरुषसत्ता का वर्चस्व स्वीकार करती हैं। धर्म का भय उन्हें आत्महीन और कातर बनाकर रखता है।

भारतीय स्त्रियों का वैधव्य आज भी समाज में वर्जनाओं की एक अंतहीन कथा है। वे मांगलिक विधानों से दूर रहने के लिए अभिशप्त हैं। धार्मिक अंधविश्वासों और रूढ़ियों से ग्रस्त मानसिकता के कारण ही ‘कोरोना काल’ में बिहार और झारखंड के कई गांवों में महिलाओं ने ‘शीतला माई’ की तरह ‘कोरोना माई’ की भी पूजा अर्चना की। कट्टरपंथी धार्मिक आस्था मुस्लिम स्त्रियों को आजीवन असूर्यम्पश्या बनाए रखती है। ‘हलाला’ जैसी मानसिक और दैहिक यंत्रणा के पीछे उनकी रूढ़िग्रस्त आस्था ही है, जिसका प्रतिकार वे नहीं कर पातीं।

स्त्री विमर्श धार्मिक उत्पीड़न की शिकार स्त्रियों के बीच नहीं जा पाता। मध्यम वर्ग की महिलाएं शिक्षित होकर भी धर्म के मामले में पुरानी धार्मिक रूढ़ियों की अनुगामिनी बनी रहती हैं। इन स्थितियों से महिलाएं तभी उबर सकती हैं जब वे पुरुषसत्ता और धर्मशास्त्र के षड्यंत्र को जान सकें और अपने ‘स्व’ की पहचान कर सकें। इसके लिए शिक्षा और चेतना दोनों का होना जरूरी है। स्त्री विमर्श में नवजागरण काल जैसा एक नया आंदोलन जब तक खड़ा नहीं होगा, स्त्री मुक्ति का सपना यूटोपिया ही रहेगा।

 

चतुर्भुज ठाकुर मार्ग, गन्नीपुर, रमना, मुजफ्फरपुर, बिहार मो. 9431281949

स्त्री रचनाकारों ने धार्मिक संकीर्णताओं और अंधविश्वासों का अनावरण किया है

के वनजा
केरल की एक प्रमुख शिक्षाविद और स्त्रीवादी हिंदी लेखिका। मुख्य कृतियांइकोफेमिनिज्म’, ‘साहित्य का पारिस्थितिक दर्शन’, ‘क्वीर विमर्श’, ‘राष्ट्र, राष्ट्रीयता, नवराष्ट्रीयतारेत समाधिका मलयालम में अनुवाद।

(1) धर्म शास्त्रसम्मत विचार को धारण करता है। वह कुछ सामाजिक विश्वासों के आधार पर बनी व्यवस्था है। वह एक परंपरा को माननेवालों का समूह है। वह मानव को मानव बनाता है। वह हमारे जीने का रास्ता प्रशस्त करता है। मानव में प्रेम, करुणा, परदुखकातरता, अहिंसा आदि मूल्यों का बढ़ावा देना और बहुलता को बनाए रखते हुए मानवीय जीवन को सुखद एवं शांतिदायक बनाना धार्मिक लोगों का मकसद है। इसलिए धर्म की रोशनी में भक्ति उपजी। यह लोगों को आश्रय देने और मानसिक कलुषता से दूर रखने में सहायक हुई। कई दृष्टियों से धर्म से जुड़ी भक्ति मनुष्य को अरक्षित भाव से बचाकर आत्मविश्वास एवं निडरता से समृद्ध बनाती है।

लेकिन आज धर्म डर पैदा करता है। यह एक ऐसा संवेदनशील मामला बन गया है कि यह उस पर बोलने से हमें रोकता है। धर्म अलगाव पैदा करता है, परस्पर लड़ने का औजार बनता है। धर्म और राजनीति का गठबंधन हमारे इतिहास में आरंभ से विद्यमान था। धर्म का बुनियादी लक्ष्य वास्तव में सभी बुराइयों से दूर रखकर निजी गुणों का विकास और समाज का परिष्कार करना है। लेकिन आज वह सांप्रदायिकता की वजह बनता है। वह आतंकवाद, अलगाववाद आदि से दुनिया भर में युद्ध का माहौल पैदा करता है। द्वंद्व ही द्वंद्व है सर्वत्र। मुसलमान और ईसाई धर्म के आधार पर पूरी दुनिया के देशों का विभाजन हो गया है। जो धर्म दूसरे धर्म को न मानता है, वह असल में धर्म है ही नहीं। लेकिन हर धर्म अपनी कट्टरता से दूसरों का अंत करता आ रहा है। मानवीयता लुप्त होती जा रही है। धर्मों के आधार पर जितने देश रूपायित हुए, वे सब विकास से दूर दिखाई पड़ रहे हैं। धर्म के नाम पर अथवा बहुमतीय धर्म की संस्कृति के आधार पर राष्ट्र-निर्माण के लिए उत्सुक होने वाले धर्मभीरु लोग भूल जाते हैं कि यह प्रवृत्ति बहुलता का अवसान कर रही है।

धर्म आज बिकाऊ चीज बन गया है। इसे बेचकर व्यापारी, पुरोहित वर्ग और राजनीतिज्ञ ही लाभ उठाते हैं। कितने लोगों का जीवनयापन इसी धर्म से चलता है और वह ऐशो-आराम से चलता है। धर्म सबके ऊपर सवारी करता है, वह समाज में जो दुर्बल हैं, उन पर शासन कर उनको और कमजोर कर देता है, क्योंकि धर्म द्वारा परिचालित हैं सब। इसलिए धर्म एक नशीली चीज बनकर सबके सुध-बुध को नष्ट कर देता है। विश्व शांति को लक्षित धर्म अनेक प्रकार के अंधविश्वासों एवं अनाचारों का अड्डा बनकर जीवन को दुःस्सह्य बना देता है। आज धर्म का मूल अर्थ खोकर इसका अर्थ फसाद, घुटन, जड़ता, आडंबर और कठमुल्लापन में बदल गया है।

(2) स्त्री विमर्श की रचनाओं में पितृसत्तात्मक समाज के साथ-साथ उसके प्रमुख संरक्षक धर्मों को भी विषय के भीतर लाने की कोशिश की गई है। धर्म जैसी संस्था इतिहास के बाहर नहीं है। इतिहास में जब उत्पादनों का मालिक पुरुष बनने लगा, तब धर्मों का आविर्भाव हुआ।

जितने भी धर्म हैं- हिंदू, इस्लाम, कैथोलिक ईसाई, जैन, बौद्ध, सूफी, यहूदी, सिक्ख आदि सभी के संस्थापक पुरुष हैं, स्त्री नहीं। न ही स्त्री किसी धर्म की संचालिका है। न वह पूजा-पाठ, कथा, हवन करानेवाली पंडित है, न मौलवी है न पादरी। वह केवल पतिव्रता धर्म का पालन करने के लिए इस संसार में जन्मी है, इस धारणा के साथ कि जिस घर में जन्मी, वहां से उसकी डोली उठेगी और जिस घर में ब्याही, वहां से अर्थी। डोली से अर्थी तक की इस यात्रा में स्त्री कई-कई बार मरी है पर उफ करने का अधिकार उसे नहीं मिला है।

सिमोन द बोउवार ने कहा था- ‘जिस धर्म का अन्वेषण पुरुष ने किया, वह आधिपत्य की उसकी इच्छा का ही अनुचिंतन है।’ हिंदी के स्त्री विमर्श में यत्र-तत्र धर्म की बेड़ी में तड़पनेवाली स्त्रियों पर विचार हुआ है। अनामिका अपनी पुस्तक ‘स्त्री विमर्श का लोकपक्ष’ में भारत की ही नहीं, विदेशों में भी धार्मिक कट्टरता बढ़ते देखकर चिंतित हैं। स्त्रियों पर उसका विकट प्रभाव पड़ रहा है। प्रभा खेतान ने ‘बाजार के बीच बाजार के खिलाफ’, ‘उपनिवेश में स्त्री’ जैसी रचनाओं में धर्म और बाजार मिलकर जो साजिश स्त्री के खिलाफ रचते आ रहे हैं उसका चित्र खींचा है।

वैसे ही धर्म की आड़ में मिथकों के माध्यम से स्त्री जीवन में दासतापूर्ण स्थितियों का आदर्श निरूपण करनेवाले ‘रोल मॉडल’ दिए जाते हैं। सीता, सावित्री, माधवी, शकुंतला, दमयंती, द्रौपदी, राधा, उर्मिला जैसी कई नायिकाओं के ‘रोल मॉडल’ को सामने रखकर स्त्री का अनावश्यक शोषण चलता आ रहा है।

यह भी नहीं भूलना चाहिए कि इन सभी चरित्रों ने अब लक्ष्मण रेखा को लांघ दिया है। अर्थात स्त्रियों में अब पिटी-पिटाई लकीर पर न चलने का तेज है, अपने सिद्धांत पर अटल रहने की द़ृढ़ता है और यह दृढ़ता उनके व्यक्तित्व को कभी अनावश्यक कठोरता या कटुता नहीं देती। इसका स्पष्ट उदाहरण है हाल में अनामिका द्वारा लिखित उपन्यास ‘तृन धरि ओट’।

इस संदर्भ में नीलम कुलश्रेष्ठ द्वारा संपादित स्त्री विमर्श संबंधी दो रचनाओं का उल्लेख करना चाहूंगी। एक है ‘धर्म की बेड़ियां खोल रही है औरत’ और ‘धर्म के आर-पार औरत’। इन दो रचनाओं में धर्म की चक्की में पिस जानेवाले स्त्री जीवन की दुस्सह पीड़ा और उससे बच जाने की कोशिश कई लेखिकाओं के विमर्श द्वारा प्रकट की गई है।

सभी धर्म स्त्री के शोषण के उतावले हैं। विशेषकर सुधा अरोड़ा की ‘कुरान की नारीवादी व्याख्या’ में इस्लाम धर्म में स्त्री के ऊपर जो कट्टरता बरती जा रही है, इसको एक वैश्विक धरातल प्रदान किया गया है। वैसे ही एन. ललिता द्वारा लिखित ‘देवदासी प्रथा’ विचारणीय है। धर्म के नाम पर छोटी लड़कियों को मंदिर में देवदासी नाम से वेश्या जीवन व्यतीत करना पड़ता है। एक उल्लेखनीय निबंध है नीलम कुलश्रेष्ठ का ‘वृंदावन की माइयां’। उसमें विधवाओं, वृद्धाओं एवं उपेक्षित स्त्री जीवन का जो शोषण धार्मिक परिवेश में चल रहा है, उसका पोल खोला गया है। कहने का तात्पर्य है कि धर्म की बेड़ियों से स्त्री विमर्श सजग है।

(3) स्त्री विमर्श का समर्थन करने वाली कई महिला रचनाकारों ने अपनी रचनाओं में धार्मिक संकीर्णताओं के रेशे-रेशे का अनावरण किया है। मलयालम की प्रसिद्ध लेखिका ललितंबिकांतर्जनम के उपन्यास ‘अग्निसाक्षी’ में ब्राह्मण समाज की स्त्रियों द्वारा भोगी जानेवाली मार्मिक पीड़ाएं अंकित हैं। उस जातिगत बंधनों से मुक्ति पाने की कोशिश में नवोत्थानकालीन स्वतंत्रता संग्राम एवं गांधी चिंतन को स्वीकार करने में उत्सुक नायिका हमें उम्मीद दिलाती है।

हिंदी में गीतांजलि श्री अपने उपन्यास ‘रेत समाधि’ में यह रेखांकित करती हैं कि भारतीय भावना भारत की सरहद तक सीमित नहीं है, वह भारत की सरहद को पार कर अंतरराष्ट्रीय आधार ग्रहण करती है। इसके लिए अस्सी साल की उम्रवाली वृद्धा का इतिहास हमारे सामने खोला जाता है। इसमें हिंदू-मुसलमान भेदभाव की दीवार को तोड़ने की प्रक्रिया संजीदगी से उकेरी गई है।

वैसे ही उनकी कहानी ‘बेलपत्र’ में हिंदू-मुसलमान के बीच हुई शादी के फलस्वरूप उत्पन्न जीवन संघर्ष अंकित है। सचमुच इस संघर्ष का कारण पुरुष की आधिपत्यवादी मानसिकता है। इस्लाम धर्म की फातिमा को हिंदू धर्मावलंबी पति के घर में हिंदू धर्म के अनुष्ठानों के पालन करने के लिए प्रेरित किया जाने लगा। शादी के पूर्व जब वे प्रेमी-प्रेमिका थे तो दोनों ने धर्म और संप्रदाय का घोर विरोध किया था, लेकिन शादी के बाद पति अपने धर्म के आचरणों को बड़ी निष्ठा से पालन करने लगा। पति फातिमा को उसके अपने धर्म का अनुसरण करने की अनुमति नहीं देता, बल्कि उसका घोर विरोध करता है। लेखिका ने यह जाहिर किया है कि पुरुषसत्तात्मक व्यवस्था में अंतरधार्मिक अनुष्ठानों की गुंजाइश होती ही नहीं है।

इस विषय पर खुल्लम-खुल्ला बातें की हैं हिंदी की वरिष्ठ लेखिका नासिरा शर्मा ने। ‘खुदा की वापसी’ शीर्षक कहानी संग्रह की सभी कहानियां उन बुनियादी अधिकारों की मांग करती नजर आती हैं, जो वास्तव में महिलाओं को मिले हुए हैं। मगर पुरुष समाज के धर्म, पंडित-मौलवी स्त्रियों को मौलिक अधिकार देने के विरुद्ध हैं। धार्मिक रूप से किए गए निकाह में ‘मेहर’ किस तरह का धोखा है, नासिरा शर्मा ‘खुदा की वापसी’ कहानी में बताती हैं। नायिका इसकी सचाई को पहचानने के लिए धर्मग्रंथ को टटोलने के लिए तैयार हो जाती है।

अनामिका के उपन्यास ‘दस द्वारे के पिंजरे’ में रमाबाई हिंदू धर्म के पाखंड की शिकार बनती है और उसका कठोर विरोध करती है। चित्रा मुद्गल के उपन्यास ‘आवां’ की सुनंदा को मुसलमान से प्यार करने पर जीवन में बहुत से झंझटों का सामना करना पड़ता है। अंत में उनके बीच का मामला सांप्रदायिकता में परिणत हो जाता है। पुरुषाधिपत्य के संरक्षक धर्म के सामने अकेली स्त्री के निहत्था लड़कर विजय प्राप्त करने की कहानी है यह। धर्म द्वारा समाज में प्रचारित स्त्री-विरुद्ध अनेक प्रथाओं की गुत्थियों को खोलने का प्रयास स्त्री द्वारा लिखित कई रचनाओं में है। प्रभा खेतान का उपन्यास ‘छिन्नमस्ता’ तथा अनेक महिलाओं द्वारा रचित उपन्यास, कहानियां और आत्मकथाओं में इसका खुला रूप चित्रित है।

(4) धर्मग्रंथ को जीवन का आधार मानकर पुरोहित वर्ग स्त्री का शोषण करने के लिए नए-नए झूठे नियम बनाते हैं। स्त्री को दूसरे दर्जे का बनाने का सारा षड्यंत्र धर्म तैयार करता है, जैसे स्त्री पुरुष की हड्डी से निर्मित है- ‘न स्त्री स्वातंत्र्य’ वाला मनुस्मृति वचन। धर्म के नाम पर स्त्रियों को पददलित कर इन्हें आज उपभोग्या बनाकर विकास की पिछली कतार में धकेल दिया जाता है। विवाह स्त्री को पुरुष के अधीन बनाने का रस्म समझा जाता है। धर्म पति को परमेश्वर मानने का उपदेश देता है। वैसे ही विवाहित स्त्रियां मंगलसूत्र, माथे पर सिंदूर आदि कई धार्मिक चिह्न धारण करती हैं, मगर पुरुष कोई भी ऐसे चिह्न धारण नहीं करता। धर्म स्त्रियों के ड्रेस कोड को ही नहीं, बल्कि उनके कई प्रकार के व्रतानुष्ठानों को भी निर्धारित करता है। हम देख रहे हैं कि धर्म और राजनीति मिलकर आज स्त्रियों की स्वतंत्रता छीन ले रहे हैं।

अफगानिस्तान जैसे देशों में स्त्रियों को शिक्षा प्राप्त करने या बाहर इच्छानुसार कुछ करने की अनुमति नहीं दी जाती है। भारतीय संविधान में हर धर्म की अलग-अलग नागरिक संहिता है। यह संहिता धर्म और पुरुष मिलकर स्त्रियों के अधिकारों को छीनने में सहायक बनती है। पंडित, पुजारी, पादरी, मौलवी आदि अपने को देवदूत मानकर स्त्रियों का भोग करने में हिचकते नहीं हैं। यह शोषण धर्म द्वारा है। पुरुष धर्म के कई झूठे विश्वासों में स्त्रियों को फंसाकर स्त्री का शोषण सरलता से कर सकता है। बहुविवाह, तलाक से लेकर बुरका प्रथा और सुन्नत की यातना आदि का प्रावधान इस्लाम धर्म में है, जो पुरुषों के लिए सहायक है। परिवार की संपत्ति का हिस्सा भी स्त्री को दिए बिना धर्म की आड़ में पुरुष उसे छीन लेता है। मुसलमान धर्म में ‘शरीयत’ इसका उत्तम उदाहरण है। खुद ईश्वर को भी पुरुष बना दिया गया है।

(5) धार्मिक कट्टरता पुरुषसत्ता का संरक्षण करती है तो इसका शिकार सर्वाधिक महिलाएं हो रही हैं। यह घर में हो, घर के बाहर हो, स्त्री के चाल-चलन को नियंत्रित करने में पुरुष की मदद हमेशा करती आ रही है। अधिनायकत्व सत्ता, ज्ञान और धर्म से परिचालित है। इन सारे क्षेत्रों में पुरुषाधिपत्य है, स्त्रियां पीछे की ओर धकेली जा रही हैं। धार्मिक झगड़ा, आतंकवाद आदि धर्म केंद्रित जो भी संघर्ष होता है उसमें स्त्री ही शिकार बनती है। पुरुष सदाचार के नाम पर अपना पूरा शरीर छिपाने के लिए स्त्री से जो कहता है खुद उसके बिलकुल उल्टा करता है।

सौंदर्य प्रतियोगिता और बाजार के लिए शरीर को बेचने के संदर्भ में स्त्री देह मात्र रह जाती है। वह बाजार का या पूंजीपतियों का माल बनती है। 21वीं सदी में स्त्री को सामना करना पड़ता है पूंजीवाद और धर्म के गठबंधन से उत्पन्न विभीषिका का। तब वह विश्वसनीय घरवाली और सुंदर वेश्या एक साथ होगी। वह अमीरों की पूंजी को दस गुना बढ़ानेवाली बाजार की वस्तु बनी रहेगी।

घर पर स्त्रियों को धर्म द्वारा प्रचारित कई अंधविश्वासों और व्रतानुष्ठानों का पालन करना पड़ता है। पूजा और अपनी कामनाओं की पूर्ति के लिए स्त्री की बलि दी जाती है। कहीं-कहीं योनिपूजा चलाई जाती है। स्त्री को कठोर व्रतानुष्ठानों का पालन करना पड़ता है। कवि अनिल गंगल की कुछ पंक्तियां याद आती हैं- अहंकार से तनी रीढ़ का सामना करती करवा चौथ का व्रत/एक मार खाई औरत रखती है लाल आंखें और तनी हुई मूंछों के अंधकार में/एक गाली खाती औरतें करती हैं करवा चौथ का व्रत।’ पति की दीर्घायु के लिए, पुत्रलब्धि के लिए, दीर्घ सुमंगली बनने के लिए, अच्छे वर प्राप्त करने के लिए बहुत से व्रत, पूजा-पाठ आदि वह करती है। मासिक धर्म के अवसर पर कई अंधविश्वासों के कारण घर पर उसे अलग होकर रहना पड़ता है। उस समय मंदिर में जाने की अनुमति नहीं है। कई धर्मों के आराधनालयों में स्त्री का प्रवेश निषिद्ध है। इसका मतलब है कि स्त्री आज भी धार्मिक कट्टरता का दुष्परिणाम भोगनेवाली दूसरे दर्जे की नागरिक है।

(6) दुनिया में आज धर्म पुन: एक राजनीतिक ताकत बनकर उभर रहा है। इसलिए विश्व में ईसाई देश और मुसलमान देश- दो खेमों में बंटकर परस्पर लड़ने के लिए तैयार हैं। धर्म केंद्रित राजनीतिज्ञ जहां सत्ता में हैं, वहां शांति भंग होती है और वहां की जनता पराधीन, अरक्षित एवं भयभीत रहती है। अफगानिस्तान, पाकिस्तान आदि इसके उदाहरण हैं। धर्म-केंद्रित राष्ट्र बनाना  खतरनाक स्थिति पैदा करेगा। वहां फासिज्म उग्र रूप में प्रकट होगा। यह देशों के विकास के लिए हानिकारक होगा। ऐसे देशों में अधिनायकत्व बढ़ेगा। कमजोर और भी कमजोर बन जाएगा और उसका दमन आसानी से संभव होगा। आज जीवन का हर क्षेत्र धर्म के आधार पर विभक्त है। राजनीतिज्ञ का एकमात्र लक्ष्य वोटबैंक को बढ़ाना है। उसके नाम पर होनेवाली हिंसा साधारण जनजीवन को तहस-नहस करती है। यह हमारे सर्वतोन्मुख विकास के लिए बाधक बनेगा।

(7) सबसे पहले धार्मिक विश्वासों एवं अंधविश्वासों से जकड़ी खुद भारतीय स्त्री को शिक्षित होकर विवेक से अपने ऊपर फैले जाल को समझना होगा। जीवन के प्रत्येक कदम पर स्त्री को वैज्ञानिक दृष्टि का सहारा लेना है। इतिहास गवाह है कि किसी भी धर्म ने आज तक अपने अनुयायियों को वैज्ञानिकता के साथ जीवन यापन करने को प्रेरित नहीं किया। चाहे वह आधुनिकता का दंभ भरनेवाला पाश्चात्य जगत हो या परंपरा का निर्वाह करनेवाला पौर्वात्य जगत।

धर्मशास्त्र और इनके ठेकेदार अवैज्ञानिक अंधविश्वासों का प्रचलन करते आ रहे हैं। पुराण कथाओं को मिथक न मानकर उन्हें ऐतिहासिक यथार्थ बताते आ रहे हैं। इन सबके चंगुल से स्त्रियों को बचाना आज की मांग है। वैज्ञानिक दृष्टि से संपन्न स्त्रियों और स्त्री संगठनों को आगे बढ़कर स्त्रियों को इससे अवगत कराना है। स्त्रियों को यह भी पहचानना है कि अपने को बचाने के लिए खुद कोशिश करनी है, पुरुषों की ओर नहीं देखना है। पुरुषों को पति परमेश्वर मानने का उपदेश देनेवाले धर्मों की बेड़ियां खुलने लगी हैं, खुलनी चाहिए।

 

अभिरामम, सुरभी रोड, इटपल्ली पी. , कोच्चि 682024 मो. 9495839796

 धर्म से पितृसत्ता को बहुत ताकत मिलती है

जसिंता केरकेट्टा
युवा आदिवासी लेखिका, स्वतंत्र पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता।

(1) धर्म को मैं पुरुषों द्वारा पुरुषों के लिए उनकी सत्ता बनाए रखने के लिए गढ़े गए एक हथियार की तरह ही देखती हूँ। इसलिए यह पितृसत्ता को पूरी तरह सुरक्षा देता है। आध्यात्मिकता को मैं धर्म से अलग रखती हूँ जिसमें कोई इंसान अपने भीतर अपना रिश्ता प्रकृति से, यूनिवर्स से या किसी भी उच्च शक्ति से जोड़कर अपने आपको भला बनाए रखता है या वैश्विक मूल्यों को केंद्र में रखकर जीता है। धर्म ने हमेशा युद्ध के लिए कोई सेना तैयार करने की तरह अपने को संगठित करने का काम किया है ताकि उनका संख्याबल, सत्ता मजबूत हो सके। इसके भीतर हमेशा स्त्रियों का जीवन दोयम दर्जे का ही रहा है। समाज चूंकि धर्म, धर्मग्रंथ आदि से इस तरह जकड़ा हुआ है कि धर्म संस्कृति की सुरक्षा के नाम पर इन्हीं को आधार बनाकर स्त्रियों का निरंतर दमन करता है। मैं धर्म को इसी तरह देखती हूँ।

(2) अधिकांश स्त्रियों के जीवन में धर्म उन्हें घर के बाहर निकलकर एक दूसरे से मिलने का अवसर देता है। इसलिए वे धार्मिक गतिविधियों में लगी रहती हैं। वे धार्मिक गतिविधियों के लिए घर से निकलती हैं, एक दूसरे से मिलती, बतियाती या समय बिताती हैं तो धर्म और पितृसत्ता इसे खतरा नहीं समझता। पर वे ही स्त्रियां जब सामाजिक सरोकार, स्त्रियों के सवाल आदि मुद्दे को लेकर जुटने लगती है तो इसे धर्म और पितृसत्ता दोनों ही खतरनाक घोषित करते हैं। इसलिए कई स्त्रियां पितृसत्ता पर सवाल उठाती तो हैं पर धर्म का पूरी ताकत से प्रतिकार नहीं करतीं।

(3) स्त्री रचनाकारों ने धर्म पर कितना सवाल खड़ा किया है, किन रचनाकारों ने किया है, मुझे इसकी बहुत जानकारी नहीं है। मैं उन तक पहुंच नहीं सकी हूँ। मैंने कविताओं में ज्यादातर स्त्री विमर्श की कविताएं पढ़ी हैं।

(4) पितृसत्ता को धर्म से बहुत ताकत मिलती है। इसलिए स्त्रियों पर या निम्न तबके के लोगों पर अत्याचार को लेकर धार्मिक ग्रंथों का ही सहारा लिया जाता है। धर्म मज़बूत हथियार है पितृसत्ता को बनाए रखने का। धार्मिक कट्टरता वस्तुतः धार्मिक वर्चस्व बनाए रखने के लिए भी बढ़ रही हैं। जैसे-जैसे स्त्रियां किसी भी तरह से पॉवर हासिल कर रही हैं- मसलन उच्च शिक्षा, नौकरी, पैसा, राजनीति में भागीदारी और वे मुद्दों को लेकर मुखर हो रही हैं, उनपर उतनी ही क्रूरता के साथ हमले बढ़े हैं। क्योंकि पितृसत्ता को स्त्रियों पर अपना नियंत्रण बनाए रखना है और वर्चस्व भी, क्योंकि स्त्रियों के दमन पर ही समाज टिका हुआ है।

इसलिए धर्म की सुरक्षा के नाम पर लव जिहाद जैसे मुद्दे उठाए जाते हैं। दूसरे धर्म या समुदाय को नीचा दिखाने, दबाने या बदला लेने के लिए स्त्रियों का बलात्कार, उन्हें नग्न करके घुमाने जैसी घटनाएं तेजी से बढ़ी हैं। यह सबकुछ धर्म और उसके संरक्षण में पल रही पितृसत्ता द्वारा अपना वर्चस्व, अपना नियंत्रण बनाए रखने के लिए होता है।

(5) पितृसत्ता स्त्रियों के दमन की नींव पर खड़ी है। इसलिए अगर वे स्वतंत्र रूप से सोचने लगें, प्रतिरोध करने लगें, मुक्त होने लगें तो पुरुषों को यह सबसे बड़ा खतरा दिखाई पड़ता है। कई स्त्रियां कविता, कहानी, आलेखों में इसे दर्ज़ कर रहीं हैं, वे मुखर हो रही हैं।

(7) यह धार्मिक फासीवाद का समय है। निश्चय ही बहुत सारी स्त्रियां खुद धर्म और पितृसत्ता को मजबूती देने का भार उठाती हैं, क्योंकि धर्म और पितृसत्ता बहुत चालाकी से अपना काम करते हैं। वे स्त्रियों को, पिछड़े तबकों को अपने साथ लगाए रखते हैं। वे इसे संस्कृति, गर्व, समाज बचाए रखने आदि से जोड़ देता है। इसका समाधान है जब स्त्रियां और पिछड़े तबके के लोग अपनी गुलाम मानसिकता को समझने लगेंगे और अपने भीतर इसका प्रतिकार करने का साहस पैदा कर सकेंगे, तब कोई नई राह बनेगी।

 

सी/ओ मनोज प्रवीण लकड़ा, म्युनिसिपल स्कूल के बग़ल में, ओल्ड एच.बी रोड, खोरहटोली, कोकर, रांची, झारखंड 834001 मो. 7250960618

संपर्क:​ द्वारा रमेश अनुपम, 204, कंचन विहार, डूमर तालाब, रायपुर, छत्तीसगढ़-492009 मो.9340791806