युवा लेखिका और शोधार्थी।विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में समीक्षा, लेख प्रकाशित।
इन दिनों उच्च शिक्षण संस्थानों में जिस तरह से हिंदी का पाठ्यक्रम संचालित किया जा रहा है, वह बहुत सारे प्रश्नों को जन्म देता है। पिछले कई वर्षों से कॉलेज-विश्वविद्यालयों के हिंदी पाठ्यक्रमों के प्रति छात्र-छात्राओं की रुचि कम होती जा रही है। इसपर बहुत ईमानदारी के साथ विचार करने की आवश्यकता है। हिंदी विभाग में पढ़ने के लिए अब उच्च-मध्यवर्ग के विद्यार्थी नहीं आते, ज्यादातर गरीब परिवारों के विद्यार्थी आते हैं।
उच्च शिक्षण संस्थानों के विज्ञान, प्रबंधन या मानविकी के अन्य विषयों को देखें तो उनमें समय के अनुरूप कई परिवर्तन परिलक्षित हो सकते हैं। दुर्भाग्य से हिंदी का पाठ्यक्रम सामान्यतः ऐसा उबाऊ और यांत्रिक बनकर रह गया है कि उसमें आज का समय और समाज दिखाई नहीं देता। हालांकि कई वर्षों से महसूस किया जा रहा है कि हिंदी पाठ्यक्रमों में समय के अनुरूप परिवर्तन किया जाए। उसे नई चुनौतियों के साथ जोड़कर विकसित किया जाए, ताकि हिंदी के प्रति छात्र-छात्राओं में रुचि पुनः जाग्रत हो सके और गतिरोध दूर हो। इसके लिए वे हिंदी प्राध्यापक कम जिम्मेदार नहीं हैं जो नई दिशाओं और नए प्रयोगों को सामने नहीं ला रहे हैं। उन्हें छात्र-छात्राओं को नए युग की आवश्यकताओं और विचारों से जोड़ने में कोई रुचि नहीं है। यही वजह है कि हिंदी पाठ्यक्रम आज के युवा को अपनी ओर आकर्षित कर पाने में अक्षम सिद्ध हो रहे हैं।
इक्कीसवीं शताब्दी के बदलते दौर में विश्वविद्यालयों के विद्वान प्राध्यापकों और विषय विशेषज्ञों पर नया दायित्व उपस्थित है कि इस गतिरोध को वे किस तरह समाप्त करें। इतिहास के अपने-अपने दौर में रामचंद्र शुक्ल, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नंददुलारे वाजपेयी, नामवर सिंह, रघुवंश, जगदीश गुप्त प्रभृति विद्वानों ने कई सुधार किए थे। अब फिर एक वैसी ही नई चुनौती उपस्थित है।
हिंदी में एम.ए., पीएच.डी. किए हुए विद्यार्थियों में सामान्यतः देखा जाता है कि आज एक निराशा व्याप्त है। वे अपने आप को असहाय और ठगा महसूस करते हैं, क्योंकि उन्हें कहीं रोजगार नहीं मिलता।
आज उच्च शिक्षण संस्थानों में हिंदी को लेकर गतिरोध का कारण क्या है? अब तमाम सोशल साइट्स हैं, संवाद हो सकता है। स्थिति यह है कि हिंदी प्रोफेसरों के बीच हिंदी शिक्षण को लेकर कोई बड़ा राष्ट्रीय संवाद या सम्मेलन नहीं हो पा रहा है। उल्लेखनीय है कि हिंदी विभागों को ऐसी कई तकनीकी-प्रशासनिक सुविधाएं नहीं मिल पातीं जो अन्य कई विभागों को सहज उपलब्ध हैं।
हिंदी को लेकर निरंतर कार्यशालाओं का आयोजन, पत्रिकाओं का प्रकाशन और हिंदी से बहुसंख्यक युवा पीढ़ी को जोड़कर रखने का जो प्रयास होना चाहिए, वैसा हमें कहीं दिखाई नहीं देता। मुझे इसका एक कारण यह लगता है कि आज की युवा पीढ़ी किताबों के ज्यादा करीब नहीं जाना चाहती। उसे बिना मेहनत किए हर चीज कुंजी से प्राप्त होने लगी है और दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हमारे प्राध्यापक भी कुंजी देखकर पढ़ाने में विश्वास करते हैं।
उच्च शिक्षण संस्थानों में हिंदी को लेकर जिस तरह की गुणवत्ता की आज आवश्यकता है, वह बहुत कम दिखाई देती है। यही कारण है कि समाज में भी हिंदी का महत्व धीरे-धीरे कम हुआ है।
हिंदी की स्थिति उच्च शिक्षण संस्थानों में तभी बेहतर की जा सकेगी, जब हमारे प्राध्यापक और विद्यार्थी-शोधार्थी हिंदी के महत्व को समझेंगे एवं इसे आगे ले जाने की दिशा में नई शुरुआत करेंगे। हो सकता है यह परिचर्चा आगे भी राष्ट्रीय संवाद के द्वार खोले।
सवाल
1. 21वीं सदी में दुनिया तेजी से बदल रही है। तेजी से बदलती दुनिया और तकनीकी क्रांति के युग में विश्वविद्यालयों में हिंदी के उच्च शिक्षण की सामान्य दशा क्या है?
2. विश्वविद्यालयों में गैर-मानविकी विभागों की तुलना में हिंदी विभाग में शैक्षिक, तकनीकी और प्रशासनिक सुविधाएं क्यों कम हैं, जबकि हिंदी को लेकर बहुत भक्ति प्रदर्शित की जाती है।
3. हिंदी के बी.ए., एम.ए. पाठ्यक्रम और प्रश्नपत्रों का संसार आज भी इतना पिछड़ा हुआ क्यों है कि हिंदी से एम.ए., पीएच.डी. करके भी विद्यार्थी असहाय महसूस करते हैं?
4. स्कूल से लेकर विश्वविद्यालय तक हिंदी शिक्षण के पिछड़ेपन और बुनियादी जरूरतों को लेकर हमारे हिंदी के शिक्षकों में कितनी बेचैनी है? वे समस्याओं का निदान निकालने के लिए क्या कर सकते हैं?
5. हिंदी में उच्च शिक्षण के ढांचे में बुनियादी परिवर्तन के लिए ऐसे ठोस सुझाव दें, जिनसे हिंदी विद्यार्थी इक्कीसवीं सदी में आत्मसम्मान का अनुभव कर सकें और जीवन संघर्ष में आत्मविश्वास का परिचय दे सकें।
6. हिंदी के पाठ्यक्रम में क्या जोड़ा-घटाया जाना जरूरी है और शिक्षण पद्धति में क्या सुधार लाए जाएं, ताकि विश्वविद्यालयों के हिंदी विभाग अधिक सम्मान से देखे जा सकें?
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कर्मेंदु शिशिर प्रसिद्ध आलोचक और लेखक। नवजागरण पर कई विशिष्ट कार्य। दो उपन्यास, तीन कहानी संग्रह, तेरह आलोचना पुस्तकें और कई यात्रा संस्मरण तथा संपादित पुस्तकें प्रकाशित। |
हिंदी सहित सभी मानविकी विभागों को बहुत विपन्न रखा जा रहा है
(1) दुनिया तो रोज बदलेगी और बदलती चली जाएगी। विश्व पूंजी के प्रभाव में पूरी दुनिया आ गई तो उसमें बदलाव की गति को तेज होना ही था। जरूरत इस बात की थी कि बदलते समय के साथ भाषा के पाठ्यक्रम को भी बदलते रहते। अधिकतम योग्य शिक्षक होते। भारत में थोड़ी सी गनीमत तो बची हुई है ही कि यहां उच्च शिक्षा को स्वायत्तता मिली हुई है। हालत यह हुई कि धनलाभ और लोभ ने इस स्वायत्तता का अर्थ ही बदल दिया और यहां अयोग्य लोगों की भरमार हो गई और सत्ता के हस्तक्षेप ने इसे मनमानीपन में तब्दील कर दिया। अवसरवादियों को आसान रास्ता ढूंढ़ना न पड़ा। उच्च शिक्षा की संचालक सीट पर ऐसे निकृष्ट लोग काबिज होने लगे, जिनको किसी चीज का न शऊर था, न बुद्धि। वे क्या बदलाव करते? ऐसे लोगों के लिए आधुनिक तकनीक आने का मतलब है, अधिक पैसा बनाने का अवसर। उपकरणों की खरीद में कमीशन। इनसे क्या उम्मीद कीजिएगा? उच्च शिक्षा का इतना नाश हो चुका है कि उससे कोई उम्मीद की ही नहीं जा सकती। आज उनकी स्वायत्तता पूरी तरह खत्म हो चुकी है। उच्च शिक्षा में इतने क्लीव और व्यक्तित्वविहीन लोग भर चुके हैं कि बिना बुलडोजर के ही यह ध्वस्त हो चुका है। जो थोड़े-बहुत योग्य और संवेदनशील लोग बचे हुए हैं, वे भी चुपचाप अवकाशप्राप्ति के दिन गिन रहे हैं। उनके भीतर बेहतर बदलाव की बेचैनी है लेकिन व्यर्थ!
(2) आप मानविकी और गैरमानविकी विषयों के विभाजन और खर्च की बात उठा रहे हैं। आपको क्या लगता है गैरमानविकी विषयों को जो आधुनिक सुविधाएं चाहिए, उसकी पूर्ति ये कर रहे हैं? पूंजी तो ग्लोबल हो गई, शिक्षा का स्तर भी ग्लोबल हुआ? क्या वह विश्व स्तर का है? आप यह नहीं कह सकते हैं संसाधन का संकट है। शिक्षा के मद में प्रतिवर्ष चार लाख करोड़ रुपये विदेश जाते हैं। इसमें गैरमानविकी विषयों के मद में गई रकम भी शामिल हो। अब आप बताइए अगर चार लाख करोड़ रुपए आप देश की उच्च शिक्षा में इन्वेस्टमेंट करने की नीति बनाते तो आज हम कहां होते? दूसरे देश के छात्र आते। मगर हथियार इंडस्ट्रीज में इन्वेस्टमेंट कर आप 21 हजार करोड़ कमा रहे हैं। दरअसल ये राजनेता वस्तुत: विश्व पूंजी के कारिंदे हैं। आप जानते हैं कि मूल व्यवस्था आर्थिक है, शिक्षा सुपरस्ट्रक्चर है। इसका स्वरूप हमेशा मूल व्यवस्था ही तय करेगी। बेशक कभी-कभी सुपरस्ट्रक्चर मूल को प्रभावित करता है, लेकिन बदलाव की हद तक नहीं।
अब आप इसपर विचार कीजिए कि क्या इंजीनियरिंग, चिकित्सीय और प्रबंधन से समाज का काम चल जाता है? नहीं। देश में सांस्कृतिक, सामाजिक, न्यायिक या प्रशासनिक जैसी अनेक उप-व्यवस्थाएं हैं। इन सबके शीराजा से समाज खड़ा होता है। आप पश्चिम को देखिए, वे मानविकी अध्ययन में पूरी दुनिया को शामिल करते हैं। उनके पास दुनिया की विपुल जानकारी और समझ होती है। उसका इस्तेमाल वे खुद के हित में करते हैं। कहां किस बात की संभावना है, कहां उनके बौद्धिक या सांस्कृतिक पक्ष को सहलाया जा सकता है, कहां लू फॉल्स है, कहां दबोचा जा सकता है, कहां दोहन हो सकता है और कैसे? इस तरह वे समर्थ और अमीर बनते हैं। हमारे क्रिकेट के खेल में युवा इंटर करता है और करोड़ों की हैसियत हो जाती है। हमारे यहां वैज्ञानिक अभाव और यातना में आत्महत्या करते हैं। कला, संगीत या बुद्धिजीवी, विद्वान रचनाकार की समाज को न कोई जरूरत है और न वक्त। फिर आप कैसे उम्मीद करते हैं कि ये मानविकी विभागों को आधुनिक सुविधा संपन्न करेंगे?
(3) आपने एकदम बुनियादी सवाल खड़ा कर दिया है। हिंदी शिक्षण में पाठ्यक्रम और प्राध्यापक दो अहम पक्ष हैं। पाठ्यक्रम बनाने में सरकार और विश्वविद्यालय का कोई हस्तक्षेप नहीं होता। यह पूरी तरह से हिंदी के विद्वत् प्राध्यापकों की समिति ही तय करती है। पाठ्यक्रम पर उठे सवाल भी अंतत: विद्वत समिति को कटघरे में शामिल करते हैं। यूरोप के कुछ विश्वविद्यालयों में तो साहित्य के शिक्षण में कुछ अलग तरह की आजादी होती है। जैसे कोई छात्र चाहे तो अपनी पसंद के किसी कवि या कथाकार का चयन कर सकता है।
पाठ्यक्रम बनाने के पहले यह तय करना जरूरी होना चाहिए कि हम छात्रों को आखिर कैसा बनाना चाहते हैं। आज साहित्य का कोई छात्र अगर अपनी भाषा के साहित्य तक ही महदूद रहता है तो यह मानकर चलिए वह बेकार और मंद बुद्धि का ही निकलेगा। उसमें साहित्य की कम या अधिक विश्व साहित्य की पाठकीयता का विवेक होना बहुत जरूरी है। ऐसी बात नहीं थी कि हमारे पूर्व आचार्यों को इसका अहसास नहीं था और उन लोगों ने इसकी बेहतरी के लिए कोशिश नहीं की थी। आचार्य नलिनविलोचन शर्मा के बनाए पाठ्यक्रम को देखने का सुयोग मुझे मिला था। उन्होंने कहानी का जो पाठ्यक्रम बनाया था उसमें भारतीय और विश्व भाषाओं के सुप्रसिद्ध कथाकारों की कहानियां भी शामिल की थीं।
हमारे यहां कुछ विश्वविद्यालयों में संस्कृत का एक पत्र रख दिया जाता है। उस पत्र का उत्तर हिंदी में ही देना होता है। यह ठीक है कि छात्र एक क्लासिक भाषा से परिचित हो जाता है। लेकिन इतना काफी नहीं। इससे साहित्य का आधुनिक नजरिया विकसित हो, यह कोई जरूरी नहीं। इसके लिए एक पत्र किसी आधुनिक भाषा के साहित्य का भी होना चाहिए। यहां यह सवाल सहज खड़ा होता है कि अगर कोई छात्र पांच-सात भारतीय और विदेशी कथाकारों की एक-एक कहानी पढ़ ही लेता है तो क्या फर्क पड़ता है? फर्क पड़ता है जब वह किसी भाषा की एक-दो कहानी पढ़ता है तो उसकी रुचि की कनछियां फैलती हैं और वह उस ओर पाठकीय स्तर पर मुड़ता है। सुना है दिल्ली विश्वविद्यालय में भी पाठ्यक्रम बनाने में ऐसी कोशिश हुई है। लेकिन अपवाद छोड़कर तमाम भारतीय विश्वविद्यालयों में पाठ्यक्रम बहुत ही अगंभीर, विचारहीन और मूर्खतापूर्ण बना हुआ है।
दक्षिण के विश्वविद्यालयों की स्थिति तो और दयनीय है। वहां लोग उन विभागों के शिक्षकों से संपर्क करते हैं। उनकी मामूली रचनाओं पर लिख देते हैं उनको। अपने यहां आमंत्रित कर-करा देते हैंं। इसी तरह उनकी निकटता से पाठ्यक्रम में अपनी रचनाएं शामिल करवा लेते हैं। यह बाजार बहुत उन्नत अवस्था में एकदम गुलजार है। कुछ जगह नए के नाम पर समझ की जगह संपर्क को महत्व दिया जाता है।
ज्यादातर विश्वविद्यालयों में बहुत हेर-फेर इसलिए नहीं किया जाता कि खुद पढ़ना पड़ेगा। कुछ के पास अपने छात्र जीवन के नोट्स होते हैं, वे ऐसा ठस पाठ्यक्रम बनाएंगे और प्रश्नोत्तर पूछेंगे कि उसी नोट्स को लिए-लिए आराम से रिटायर हो जाए। उदाहरण के लिए पृथ्वीराज रासो प्रामाणिक है कि अप्रामाणिक : सिद्ध कीजिए। आदिकाल के नामकरण की समस्या पर विचार कीजिए। अब यह छात्र भी जानता है अगर पिछले साल यह नहीं आया है तो इस साल जरूर आएगा। दशकों बीत गए पृथ्वीराज रासो की प्रामाणिकता-अप्रामाणिकता जस की तस बनी हुई है। कितनी पीढ़ियों तक? तो यहां समस्या पाठ्यक्रम का नहीं, विद्वत प्राध्यापकों और उनके पढ़ाने के ढंग का है। हिंदी के प्रतिभाशाली और सृजनात्मक योग्यता वाले प्राध्यापक अभ्यर्थियों को तो इंटरव्यू में ही छांट दिया जाता है। कुछ जगह तो उनको कॉल लेटर तक नहीं भेजे जाते। उनकी जगह लखेरों, न पढ़ने-लिखने वाले चालू लोगों को रख लिया जाता है जो वस्तुत: प्राध्यापक नहीं जॉब सीकर होते हैं। इसलिए मेरी समझ से समग्र बदलाव के बिना यह सब परिवर्तन संभव ही नहीं।
(4) मैं बिहार में लगभग चालीस साल तक प्राध्यापक था। मैंने आज तक ऐसी कोई बेचैनी किसी प्राध्यापक में तो नहीं देखी। अपवाद छोड़ प्राध्यापक तो एकदम गदगद रहता है। हाँ, उसमें बेचैनी इस बात के लिए देखी कि कैसे प्रोफेसर में प्रोन्नति हो, कैसे प्रिंसिपल बने, कैसे प्रो-वीसी, वीसी या किसी आयोग का सदस्य अथवा एमएलए बने। कितना लगेगा, उस रकम को जुटाने की बेचैनी जरूर देखी। मेरा कितना एरियर बाकी है, कितने परसेंट देकर किसके मार्फत मिलेगा, इसकी बेचैनी देखी। इन्वेस्टमेंट में कहां कितना लाभ है, कहां प्लाट लेने से कुछ साल में कितने में बिकेगा, इसकी बेचैनी देखी। मैं कभी किसी विषय या किसी किताब अथवा रचनाकार पर बात की तो हँसी का पात्र बना, ‘सर को क्लास करने का मौका नहीं मिलता। सर मेरे क्लास में चले जाइए।’ ऐसी बात सुनने को मिली। जो अपवाद हैं उन्होंने चुपचाप क्लास किया, घर गए।
बिहार के बाहर के अगर शिक्षक हिंदी के पिछड़ेपन और सुविधाओं के अभाव को लेकर बेचैन रहते हैं तो उसकी मुझे कोई जानकारी नहीं। इसलिए पहली जरूरत यह है कि हिंदी प्राध्यापक खुद पढ़े-लिखे और मनोयोग से पढ़ाए। तब उनको इसकी जानकारी होगी कि पाठ्यक्रम, पढ़ाने के ढंग और किस सुविधा की कमी है। इसे कैसे दूर किया जाए? उनसे पूछा जाए कि वे पांच समकालीन पत्रिकाओं का नाम और उसके कौन संपादक हैं? पांच नए कथाकार, कवि और आलोचक के नाम पूछे जाएं। समकालीन हिंदी में दस महत्वपूर्ण किताबों के नाम पूछे जाएं। अगर उत्तर देते हैं तब तो आप आगे बात करेंगे?
(5-6) पहली बात तो यह कि साहित्य के दायरे को विस्तृत किया जाए। विश्व चिंतन को लेकर एक ऐसा पत्र रखा जाए जिसमें अधुनातन चिंतन और चिंतकों से हिंदी छात्र परिचित हो जाए। दूसरी बात यह कि समकालीन हिंदी साहित्य में जो ज्वलंत विचार-विमर्श चल रहे हैं, जो समकालीन विचारक हैं उनके चिंतन का एक संक्षिप्त लेकिन विवेकशील और गंभीर परिचय कराने वाला पत्र भी हो। बाकी पत्रों को लेकर मेरा ऐसा सोचना है कि छात्र समकालीन से पीछे की ओर जाए। अभी वे भक्तिकाल, रीतिकाल से भारतेंदु युग, द्विवेदी युग, छायावाद होते हुए आधुनिक साहित्य तक आते हैं। इसे उलट कर आधुनिक युग से भक्तिकाल तक पहुंचे, ऐसी व्यवस्था हो।
आलोचना के पत्र में एक महत्वपूर्ण बदलाव यह होना चाहिए कि उसमें आलोचना के बीज शब्दों से उनकी समझ और पहचान सही हो, ऐसी व्यवस्था करनी चाहिए? प्रतीक, बिंब, संवेदना, अनुभूति, तथ्य, कथ्य, संरचनाएं, शिल्प इत्यादि। एक पत्र भारतीय साहित्य और विश्व साहित्य का भी शामिल हो तो बेहतर होगा। ध्यान रहे कि हम जो भी बदलाव या प्रयोग करें वह स्थायी न हो। उसमें सतत विचार हो और परिणाम का आकलन कर अपेक्षित बदलाव की गुंजाइश हमेशा बनी रहे। इसके अलावे छात्रों में लिखने की प्रवृति बढ़े, इसके लिए अभ्यास बहुत जरूरी है। उनको ब्लर्ब, टिप्पणी, पुस्तक समीक्षाएं, आलोचनात्मक, विचारपरक लेख, सैद्धांतिक लेख- मसलन गद्य लेखन के जितने प्रकार हैं, उनकी प्रकृति और अंतर से परिचित कराया जाए। वे कैसे बहस करें इसके लिए उनको आपसी बहस के लिए दीक्षित किया जाए।
आजकल छात्र शोध और आलोचना में फर्क नहीं कर पाते। इसके लिए शोध क्या है, कैसे करना चाहिए, अनुक्रमणिका कैसे तैयार हो। यह सब अभ्यास कराया जाए। बल्कि कुछ प्रकाशकों को कहकर उनको ऐसी पांडुलिपि सुलभ कराई जाए जिसकी वे अनुक्रमणिका तैयार करे। उसका उनको पारिश्रमिक भी मिले। अगर हम रचनात्मक और सार्थक बदलाव की शुरुआत करें तो आगे अनेक नए-नए गवाक्ष खुलेंगे जिसे हम पहले से सोच ही नहीं सकते। पहले शुरुआत हो तो!
बी-301 किंग्सउड कोर्ट अपार्टमेंट, गैलेरिया मार्केट के पीछे, क्रॉसिंग रिपब्लि, गाजियाबाद-201016 मो. 9431221073
माधव हाड़ा सुपरिचित आलोचक। चर्चित कृति ‘पचरंग चोला पहर सखी री’। अद्यतन पुस्तक ‘वैदहि ओखद जाणै– मीरां और पश्चिमी ज्ञान मीमांसा’। |
हिंदी शिक्षकों में सद्भाव का तेजी से क्षरण हुआ है
(1)हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन-अध्यापन और शोध की दशा फिलाहल अच्छी नहीं है। संचार तकनीक के विकास और उपलब्धता से ज्ञान के भंडारण और आदान-प्रदान की प्रक्रिया में आधारभूत बदलाव हुए हैं। इस कारण अध्ययन और अध्यापन की पारंपरिक पद्धति कुछ हद अप्रासंगिक हो गई है, लेकिन हिंदी विभाग और उसके अध्यापक इस मामले में अपने को अद्यतन करने के लिए प्रस्तुत नहीं है। कुछ लोग तो कंप्यूटर और इंटरनेट पर कामकाज करने में अपनी हेठी समझते हैं। हिंदी का अधिकांश प्राचीन, मध्यकालीन और आधुनिक साहित्य अब इंटरनेट पर उपलब्ध है। विडंबना यह है हमारे हिंदी अध्यापक इसका बहुत कम उपयोग कर रहे हैं।
पाठयक्रमों को अद्यतन करने का मतलब उनको समकाल पर एकाग्र करना नहीं है। दुर्भाग्य से हमारे अधिकांश हिंदी पाठ्यक्रम और शोध कार्य संप्रति समकाल पर निर्भर हो गए हैं। समकाल को लेकर अभी तक हिंदी में कोई मान्य धारणा नहीं है, लेकिन कहानी, कविता, उपन्यास आदि में मनमानी समकालीनता शोध हो रहे हैं। प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य धीरे-धीरे अध्ययन-अध्यापन और शोध के लिहाज से हाशिए पर चला गया है। यह किसी भाषा और साहित्य के स्मृतिविहीन हो जाने जैसा है, जो बहुत खतरनाक है।
समकालीनता के नाम पर प्रभावी लोग अपने रचनाएं पाठयक्रमों में सम्मिलित करवा रहे हैं। एक-दो कविता-कहानी संकलनों के बाद ही कुछ लोगों को लगने लगता है कि अब वे निराला-पंत और प्रेमचंद की पंक्ति में आ गए हैं और उन्हें पढ़ाया जाना चाहिए। यह प्रवृत्ति बहुत नुकसानदेह है। पाठ्यक्रमों के निर्माण और संगठन में बहुत सावधानी अपेक्षित है। पाठयक्रम उसकी पठित रचनआओं का प्रभाव विद्यार्थी के मन-मस्तिष्क पर बहुत दूरगामी होता है।
हिंदी विभागों के अध्यापकों में वैचारिक सद्भाव और प्रेम का बहुत तेजी से क्षरण हुआ है। यह दुखद है कि अधिकांश विभागों के अध्यापक वाम और दक्षिण में बंटे हुए दिखते हैं। विद्वता का कोई विभाजन नहीं होता है- विद्वता वाम और दक्षिण, दोनों में होती है। कई अध्यापक इधर-उधर होकर इसको अपने अज्ञान और अकर्मण्यता के विरुद्ध ढाल बना लेते हैं। वे पढ़ने-लिखने के बजाय कुछ पाने-लेने के लिए अपनी राजनीतिक निष्ठाएं प्रदार्शित करते रहते हैं।
हिंदी भाषा और साहित्य में फिलहाल अस्मितायी विमर्शों का चलन जोरों पर है, लेकिन इनकी सैद्धांतिकी और सौंदर्यशास्त्र की जानकारी बहुत कम लोगों को है। इनकी लोकप्रियता के कारण साहित्यिक मान-मूल्य गौण और दूसरी कसौटियां प्रमुख हो गई हैं। लेखक बिरादरी में भी विभाजन हुआ है।
(2)विश्वविद्यालयों के अधिकांश हिंदी अध्यापकों में अपने विभाग के प्रति कोई सांस्थानिक प्रतिबद्धता नहीं है। वे विभाग के विकास और इसमें संसाधनों की उपलब्धता के लिए सामूहिक प्रयास नहीं करते। विश्वविद्यालय अनुदान आयोग आदि की विभागीय उन्नयन की परियोजनाओं में विभाग के सहभागिता नहीं के बराबर है। विश्वविद्यालय के प्रबंध मंडल, अकादमिक परिषद आदि में हिंदी विभाग के आध्यापक बहुत सक्रिय नहीं हैं। वे अपनी बात इनमें पुरजोर ढंग से नहीं रखते।
हिंदी विभाग के अधिकांश अध्यापक सद्भाव और प्रेम साथ रहने के बजाय लड़ाई-झगड़ों और आरोप-प्रत्यारोप में लगे रहते हैं। अधिकांश हिंदी विभाग मुंहफेरों के समूह हो गए हैं- पांच लोग भी हैं, तो उनकी पांच अलग दिशाएं हैं।
(3)सबसे अधिक पिछड़े हुए और अप्रासंगिक हिंदी भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रम हैं। हिंदी भाषा और साहित्य के पाठयक्रमों की बुनियाद उपनिवेश-काल में रखी गई। तब से लेकर आज तक गंगा में बहुत पानी काफी बह गया है, लेकिन उनके बुनियादी ढांचे में कोई रद्दोबदल नहीं हुआ। हिंदी में इस बीच शोध कार्य हुए हैं, नई स्रोत सामग्री सामने आई है, लेकिन हिंदी विभाग इनके साथ कोई तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं।
हिंदी भाषा और साहित्य की पाठ्यपुस्तकों का देशव्यापी व्यवसाय है। पाठ्यपुस्तकें स्तरीय हों, उनमें मानक रचनाएं सम्मिलित हों, इस दिशा में आधिकांश अध्यापक उदासीन हैं। राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, साहित्य अकादेमी, प्रकाशन विभाग, सस्ता साहित्य मंडल आदि संस्थाओं ने शीर्ष विद्वानों के सहयोग से पुस्तकें तैयार करवाई हैं, लेकिन इनमें से पाठ्यक्रमों में बहुत कम सम्मिलित हैं। राज्यों में ग्रंथ अकादमियां इस उद्देशय से बनाई गई थीं, लेकिन अब ये अपने उद्देश्यों से भटक गई हैं।
हिंदी भाषा और साहित्य को सरकार की पहल से कुछ लोगों ने प्रयोजनमूलक बनाने का प्रयास किया। यह प्रयास सफल नहीं हुआ। दरअसल मानविकी विषयों का अध्ययन-अध्यापन श्रेष्ठ मनुष्य के निर्माण के लिए होता है- इनको रोजगार और व्यवसाय से जोड़ने के उपक्रम ही गलत है। आजादी के बाद मानविकी के अध्ययन-अध्यापन के बजाय सरकार का जोर विज्ञान और तकनीक पर रहा। नतीजे सामने हैं- हमारे देश में आजादी के बाद मनुष्यता का तेजी से क्षरण हुआ है।
(4)हिंदी शिक्षण के पिछड़ेपन का कारण यह है कि नियुक्ति और पदोन्नति की आधारभूत जरूरतों के अलावा हिंदी के अधिकांश अध्यापक कुछ नया पढ़ते-लिखते नहीं हैं। पत्र-पत्रिकाओं, नई पुस्तकों तक उनकी पहुंच नहीं है। पुनश्चर्या पाठयक्रम अपने को नवीनीकृत करने के साधन थे, लेकिन अब सरकार ने उनको भी ऑनलाइन करके महज औपचारिकता बना दिया है। समस्या के कुछ समाधान हो सकते हैं। एक तो विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयों में अद्यतन पुस्तकें और पत्रिकाएं क्रय की जाएं, दूसरे उन तक अध्यापकों की पहुंच सुगम हो और तीसरे नियमित अंतराल पर ऑफलाइन पुनश्चर्या पाठ्यक्रय आयोजित हों।
(5)हिंदी भाषा और साहित्य का विद्यार्थी आत्मसम्मान के साथ दूसरे मानविकी विषयों के साथ खड़ा हो सके, इसके लिए जरूरी है कि एक तो पाठयक्रम अद्यतन हों, दूसरे विद्यार्थियों का संप्रेषण अच्छा हो और तीसरे उनकी गति हिंदी के साथ मानविकी और समाज विज्ञान के दूसरे विषयों में भी हो। विद्यार्थियों और शोधार्थियों को निरंतर प्रस्तुति, व्याख्यान आदि गतिविधियों में सक्रिय किया जाना चाहिए, उनको रचनात्मक और आलोचनात्मक लेखन के लिए प्रोत्साहित किया जाना चाहिए और स्नातक और अधिस्नातक, दोनों पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए आई. टी. के हिंदी अनुप्रयोग की परीक्षा अनिवार्य की जानी चाहिए। विभाग में संगोष्ठियों, कार्यशालाओं के आयोजन निरंतर होने चाहिए और इनमें सभी विद्यार्थियों की सहभागिता अनिवार्य होनी चाहिए। आयोजन की व्यवस्थाओं में भी विद्यार्थियों-शोधार्थियों को सम्मिलित किया जाना चाहिए।
(6)संचार तकनीक के विकास और द्रुतगति के ग्लॉबलाइजेशन से समाज और बाजार की और इस तरह साहित्य और भाषा की भी जरूरतें बदल गई हैं। हिंदी भाषा और साहित्य के पाठ्यक्रमों में तदनुसार रद्दोबदल हुए हैं, लेकिन इस दिशा में अभी और कार्य किया जाना चाहिए। इसमें भारतीय इतिहास, समाज और संस्कृति, हिंदी समाज और संस्कृति, हिंदी के प्राचीन और मध्यकालीन साहित्य का पुन:पाठ और पुनर्मूल्यांकन, आधुनिक हिंदी गद्य रूपों के विकास का अध्ययन, ग्लॉबलाइजेशन, मीडिया और बाजार के प्रभावों से भाषा और साहित्य में हुए बदलावों की पहचान, हिंदीतर भारतीय भाषाओं का अनूदित साहित्य, हिंदी साहित्य का अंतरअनुशासनिक इतिहास, कंप्यूटर, इंटरनेट और उपयोगी अन्य गेजेट्स आदि का पठन-पाठन जोड़ा जा चाहिए।
607, मैट्रिक्स पार्क, धनश्री वाटिका के पास, न्यू नवरतन कांपलेक्स, भुवाणा, उदयपुर– 310001, राजस्थान, मो. 9414325302
जयश्री केरल विश्वविद्याल तिरुवनंतपुरम में हिंदी अध्यापन। |
हिंदी के विद्यार्थियों को भी नवीनतम तकनीकी उपकरण मिलने चाहिए
(1)भारतीय समाज बहुलता का है, बहुभाषी है। इस बहुलता को निर्धारित करने में हिंदी भाषा की आंतरिक क्षमता का महत्वपूर्ण योगदान है। क्योंकि यह एक लोकतांत्रिक भाषा है। कोई शंका नहीं है कि इस भाषा ने वैश्वीकरण की सभी चुनौतियों का मुकाबला किया है। यानी सामाजिक, राजनैतिक और सांस्कृतिक धरातल पर हिंदी भाषा और साहित्य का स्वरूप बदल गया है। सभी स्तर के सृजनात्मक, रचनात्मक, बौद्धिक और प्रौद्योगिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने की ताकत इस भाषा में है। फिर भी औपनिवेशिक काल में जिस भाषा ने भारतीयों की सभ्यता निर्धारण करने का प्रयास किया है उसी भाषा का प्रचार-प्रसार बढ़ रहा है, वर्चस्व अभी सुदृढ़ है। इसलिए हिंदी के उच्च शिक्षण के मामले में स्थिति बदलनी चाहिए।
(2)शिक्षा और रोजगार के बीच के संबंध ने गंभीर विचार-विमर्श का रास्ता खोल दिया है। नौकरी की क्षमता विकसित करना शिक्षा के उद्देश्यों में से एक है। शिक्षा का सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक विकास-योजनाओं से सीधा संबंध है। कृत्रिम मेधा और रोबोटिक सूचना प्रौद्योगिकी ने सभी क्षेत्रों में असर डाला है, परिवर्तन की गति बहुत तीव्र है। ऐसे माहौल में ज्ञान हमारी सामाजिक संरचना का महत्वपूर्ण तत्व है। ज्ञान का निर्माण, ज्ञान की अनुप्रयोगिता और ज्ञान का लोकतंत्रीकरण आदि की जरूरत है। इसलिए हिंदी छात्र-समाज को सिर्फ ज्ञान और तकनीकी का प्राप्तकर्ता न होने के बदले उनका उत्पादक भी होना चाहिए। इस नजर और नजरिए से हिंदी पाठ्यक्रम का चयन होता है तो एक हद तक वह स्थिति बदलेगी, जिसने प्रस्तुत प्रश्न तक पहुंचाया है।
(3)ज्ञान-समाज (नॉलेज सोसायटी) निरंतर ज्ञान का सृजन करता रहता है। नवाचार (इनोवेशन) ज्ञान – समाज की खासियत है। ऐसे समाज में शिक्षा के द्वारा ज्ञान सृजन करनेवाले नागरिक का रूपायन होना चाहिए। आज की दुनिया की संरचना भी प्रतियोगिता पर आधारित है। विद्यार्थी को समस्याओं का निर्धारण करने की क्षमता अर्जित करना है। डिजिटल युग में छात्रों के लिए, ग्लोबल स्तर पर शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा तैयार करनी चाहिए। इसके लिए तकनीकी परिवर्तन के समय विद्यार्थियों को नवीनतम तकनीकी उपकरणों और इंटरनेट पर अधिक सक्रियता के साथ नियोजित करना चाहिए तथा अनुसंधान को बढ़ावा देना चाहिए। हिंदी भाषा और साहित्य के अध्ययन से छात्रों में भारतीय सांस्कृतिक धरोहर के प्रति जागरूकता बढ़ना है। ऐसा हो तो वे स्वावलंबी बन जाएंगे और असहायता की स्थिति बदल जाएगी।
(4)पूरे देश में दो या दो से अधिक भाषाओं का अध्ययन हो रहा है। भाषा लिखने और पढ़ने के अलावा, वैज्ञानिक और सांस्कृतिक स्तर के ग्रंथों को पढ़ने और समझने तथा उन्हें अपने क्षेत्रों में प्रयोग करने की क्षमता हासिल करनी चाहिए। इसके लिए बहुभाषीय शिक्षण प्रक्रिया की अनिवार्यता है, ताकि एक भाषा के विचारों का दूसरी भाषा में अनुवाद करके उपयोग किया जा सके। साथ ही, नवीनतम प्रौद्योगिकी के उपयोग के लिए शिक्षकों को नवीनतम शिक्षण प्रणालियों और उपकरणों का प्रशिक्षण दिया जाना चाहिए।
(5)तकनीकी विकास और वैश्वीकरण के वर्तमान समय में हिंदी के उच्च शिक्षण की सामाजिक दिशा बदल रही है। ऑनलाइन पाठ्यक्रमों के माध्यम से हिंदी उच्च शिक्षा का प्रसार हो रहा है जिससे विद्यार्थियों को ग्लोबल स्तर पर पहुंचने का अवसर मिल रहा है। फिर भी कुछ परिवर्तनों की अनिवार्यता है। शिक्षा सार्वभौमिक होनी चाहिए। आज भी ऐसे कुछ नकारात्मक कार्यकलाप हमारे समाज में उपस्थित हैं, जो शिक्षित समाज के लिए योग्य नहीं हैं। जैसे जातिभेद, लिंगभेद, धर्मभेद आदि। लैंगिक न्याय, लैंगिक समानता और लैंगिक जागरूकता से संबंधित ज्ञान को पाठ्यक्रम में शामिल किया जाना चाहिए।
(6)केंद्रीय सरकार द्वारा एन.ई.पी. 2020 लागू किया जा रहा है। इसके आधार पर ही पाठ्यक्रम तैयार करना है। वर्तमान समय का पाठ्यक्रम काफी विस्तृत है, विशेषकर एम.ए. स्तर का। इसमें हिंदी साहित्य, व्याकरण, संस्कृति, इतिहास, सामाजिक विज्ञान, सूचना प्रौद्योगिकी, हिंदी भाषा कंप्यूटिंग, पत्रकारिता आदि विभिन्न पहलुओं को शामिल किया गया है। बदलते समय और समाज को हिंदी साहित्य जिस प्रकार अभिव्यक्त कर रहा है, इसके अनुकूल शोध अध्ययन भी चल रहा है। ऐसे पाठ्यक्रमों के अध्ययन से तथा शोध-कार्य से विद्यार्थी समाज के विभिन्न क्षेत्रों में नौकरी प्राप्त कर सकते हैं। अनुवाद के क्षेत्र में भी अच्छे मौके हो सकते हैं, जहां भाषाई दक्षता को महत्वपूर्ण माना जाता है। पाठ्यक्रम में भाषा-अध्ययन को महत्व देना है, ताकि छात्र विभिन्न कौशलों को विकसित कर सकें और अपने लक्ष्य को प्राप्त कर सकें।
प्रोफेसर एवं अध्यक्ष हिंदी विभाग, केरल विश्वविद्यालय, तिरुवनंतपुरम–695034
आशीष त्रिपाठी कवि और आलोचक।नामवर सिंह के साथ ‘रामचंद्र शुक्ल रचनावली’ के आठ खंडों का संपादन। अद्यतन कविता संग्रह ‘शांति पर्व’। बी.एच.यू. के हिंदी विभाग में प्राध्यापन। |
हिंदी के ऐसे पाठ्यक्रमों का निर्माण होजो हमारी सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा करें
(1)हम यह जानते हैं कि आधुनिक शिक्षा पद्धति और आधुनिक शिक्षा संस्थानों का निर्माण पूंजीवादी आधुनिकता के उप-उत्पाद के रूप में हुआ है। उच्च शिक्षा में हिंदी का शिक्षण और जहां हिंदी उच्च शिक्षा में पढ़ाई जा रही है उन संस्थाओं का निर्माण भी पूंजीवादी आधुनिकता के विस्तार के क्रम में ही हुआ है। इस क्रम में बिलकुल नए ढंग के आधुनिक शिक्षा संस्थानों का निर्माण हुआ। समाज कभी बहुत उम्मीद से उनकी ओर देखता था।
वस्तुतः सर सैय्यद अहमद खान, गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर, महामना मदन मोहन मालवीय जैसे नवजागरण और स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेतृत्वकर्ताओं ने अपने युग की शिक्षा संस्थाओं का निर्माण किया था।
हिंदी की उच्च शिक्षा का संबंध उसी युग से है जिसमें नवजागरण की गतिविधि को स्वतंत्रता आंदोलन अतिव्याप्त कर लेता है। 1920-25 के बीच बी.ए. और एम.ए. के पाठ्यक्रम स्थिर हुए थे। कुल मिलाकर शिक्षा, शिक्षा-संस्थान और उस बृहद सामाजिक प्रक्रिया में ही हिंदी की उच्च शिक्षा भी थी। इसीलिए ‘कविता हृदय की मुक्तावस्था है’, उसी युग में कहा गया। ‘कविता परिवेश की पुकार है’, ‘गद्य जीवन संग्राम की भाषा है’, ‘जनता की चित्तवृत्तियों का संचित इतिहास ही साहित्येतिहास है’ – ये सब उस जमाने के महावाक्य हैं, जब समाज के भीतर एक सहभाव था। क्या अब ऐसा रह गया है? क्या हमारे लेखक, आलोचक, बुद्धिजीवी, विचारक, विश्वविद्यालय, शिक्षा संस्थाएं और हिंदी के अध्यापक उस बृहद प्रक्रिया के उसी तरह जीवित हिस्से हैं जैसे कि 1920 के आसपास थे?
हमारी आंखों में वैसा कोई महास्वप्न नहीं है, जैसा हमारे पुरखों की आंखों में था। हमारे पुरखों की आंखों में उपनिवेशवाद, साम्राज्यवाद, सामंतवाद, पितृसत्तावाद और मनुष्य जाति के समक्ष खड़ी तरह-तरह की चुनौतियों से मुक्त होने का सपना था। आप चाहें तो उसे ग्रैंड नैरेटिव (महाआख्यान) भी कह सकते हैं। कुल मिलाकर वह जो महास्वप्न था उसके पतन और क्षरण से इन सब बातों का संबंध है। अब विश्वविद्यालय या ऐसी संस्थाएं सिर्फ ‘फॉर्म’ में हैं। दूर से देखने पर लगता है कि यह विश्वविद्यालय है, महाविद्यालय है, एकैडमी है, फलां संस्था है, लेकिन कंटेंट में ये उसको धारण नहीं करतीं। फॉर्म में डेमोक्रेसी है, लेकिन कंटेंट में डेमोक्रेसी नहीं है। फॉर्म में विश्वविद्यालय है, लेकिन कंटेंट में विश्वविद्यालय नहीं है।
ग्लोबलाइज़ेशन के बाद के पूंजीवाद का जोर फॉर्म पर है। इसे एक बहुत ही महान शब्दावली में इंफ्रास्ट्रक्चर कहा जा रहा है। आज से सौ साल पहले जब हम विश्वविद्यालय कहते थे तो हम फॉर्म की बात नहीं करते थे, हम कंटेंट की बात करते थे। शांतिनिकेतन या काशी हिंदू विश्वविद्यालय फॉर्म नहीं था, कंटेंट था। तो अब फॉर्म पर ज्यादा जोर है, कंटेंट पर जोर नहीं है। इसीलिए अब एक क्षरण दिखाई दे रहा है।
आज कहा जा रहा है कि शिक्षा को उपयोगी होना चाहिए, रोजगारोन्मुखी होना चाहिए। यह शिक्षा का सबसे निकृष्टतम स्तर होगा कि हम शिक्षा सिर्फ इसीलिए हासिल करें कि हमें रोजगार मिल सके। हमारे व्यक्तित्व, मनुष्यता, सामाजिकता और रचनात्मकता के उन्नयन से उसका कोई संबंध न हो, लेकिन हमें नौकरी मिले। आप देखेंगे कि जिन इलाकों या जिन क्षेत्रों में यह हो रहा है उन्हीं की तरफ सबका ध्यान ज्यादा है। हमें लगता है कि वेद, दर्शन, कालिदास, भवभूति और शूद्रक, जातकों और थेरीगाथा की पढ़ाई से क्या होगा। पद्मावत और रामचरितमानस, सूर, तुलसी, कबीर, मीरा और पलटू को पढ़कर क्या हासिल होगा। सौ साल में जो हमारे मूल लक्ष्य थे, उनमें कितना बड़ा परिवर्तन आ गया?
पहले शिक्षा रोजगार से विमुख नहीं थी किंतु उसमें और महत्वपूर्ण तथा बड़े उद्देश्य थे। अब शिक्षा की रोजगारोन्मुखता के लिए उसे उसके सारे बृहद उद्देश्यों से काटा जा रहा है। यह भूमंडलीकरण के जमाने की व्यापक समाजिक प्रक्रिया का एक हिस्सा है जो पूरी दुनिया में चल रही है। हिंदी की उच्च शिक्षा का संबंध इसी घटना से है।
जब कंटेंट में विश्वविद्यालय ही नहीं है तो विश्वविद्यालयों में हिंदी के होने न होने का कोई अर्थ नहीं। इसलिए हिंदी की दशा वैसी ही है जैसी विश्वविद्यालयों की है, लोकतंत्र की है और बाकी संस्थाओं की है।
हमें इस पर बात करनी चाहिए कि अल्पसंख्यकों, पिछड़ों और वंचितों की हिंदी कैसे काम कर रही है। जब इन सब पर आप बात करेंगे तब इस क्रम में विश्वविद्यालयों की हिंदी के बारे में भी आप बात कर सकते हैं। ये सब एक दूसरे से जुड़े हुए हैं, एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। लेकिन यदि मैं स्वतंत्र रूप से सिर्फ हिंदी की उच्च शिक्षा पर बात करूं तो इस प्रश्नावली में जितनी उदासी और निराशा दिखाई पड़ती है, मैं यह देख पाता हूँ कि 1990 के बाद की नई दुनिया में भूमंडलीकरण के जमाने का पूंजीवाद और फासीवाद दिनोंदिन इतना ताकतवर होता चला गया है कि इसने मनुष्यता, सामाजिकता, प्रकृति-उन्मुखता सबको क्षरित किया है।
इस प्रक्रिया में हिंदी वाले लोग वैसे भागीदार नहीं है जैसे कि बाकी लोग हैं। हिंदी वालों के मन में अभी भी एक हिचक और असमंजस है जो शुद्ध रोजगारोन्मुखी शिक्षा प्राप्त करने वाले लोगों के मन में नहीं है। अभी भी एक बहुत बड़ा हिस्सा ऐसा है जो इसके विरोध में खड़ा है। आज विरोध के स्वर जहां भी हैं वे इन्हीं प्रखंडों से आ रहे हैं। मैं उच्च शिक्षा में हिंदी की स्थिति से और संस्थाओं की भूमिका से इतना निराश नहीं हूँ, जितनी इन प्रश्नों में निराशा है।
(2)कहीं भी हिंदी का इंफ्रास्ट्रक्चर अन्य संकायों के इंफ्रास्ट्रक्चर से कमतर नहीं है। यह ध्यान देना जरूरी है कि भाषा, साहित्य और कलाओं के लिए तथा विज्ञान और प्रौद्योगिकी के लिए जरूरी आधारभूत संरचनाओं में मूलभूत अंतर है। जैसे एग्रीकल्चर विभाग के लिए खेत चाहिए। काशी हिंदू विश्वविद्यालय के एग्रीकल्चर फैकल्टी के पास सैकड़ों एकड़ जमीन है। क्या आप पूछ सकते हैं कि सैकड़ों एकड़ जमीन विज्ञान वालों के पास क्यों नहीं है, भौतिकी के पास क्यों नहीं है, हिंदी के पास क्यों नहीं है? दरअसल आपका बुनियादी विचार ठीक नहीं है। हिंदी, इतिहास या मानविकी के अन्य विभागों को जिस तरह के इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत है, सबको उनकी जरूरत के हिसाब से मिलती-जुलती चीजें प्राप्त हैं।
कुछ महाविद्यालयों में मैंने काम किया है। कुछ में मेरे मित्र काम करते हैं। मैं देखता हूँ कि ऐसी कोई बड़ी असंगति दिखाई नहीं देती। अतः इस सवाल के अंदर जो भावना है, मैं इससे सहमत नहीं हूँ। लेकिन इसमें संदेह नहीं कि बहुत सारी चीजें और की जा सकती हैं।
हिंदी के पाठ्यक्रमों में ऐसा क्या हो सकता है जिससे हम इंफ्रास्ट्रक्चर को और अधिक उपयोग में ला सकें। दरअसल हमारी कल्पनाशीलता में कमी है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल, श्यामसुंदर दास, आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी या नंद दुलारे वाजपेयी को महान पुस्तकें रचने के लिए किसी इंफ्रास्ट्रक्चर की जरूरत नहीं थी। राहुल सांकृत्यायन ने जितनी सुविधाओं में रहकर सारा काम किया था, हमारे पास उनसे सौ गुना बेहतर सुविधाएं हैं। हम इतनी अधिक सुविधाओं में रहकर क्या काम कर पा रहे हैं? हमारी मंशा पर सवाल होना चाहिए। बहुत अच्छा इंफ्रास्ट्रक्चर देकर भी इस क्षरण को रोका नहीं जा सकता। जो है, वह ऐसा असंगत नहीं है कि आप कहें कि हिंदी वाले गरीब हैं या हिंदी को कुछ कम मिलता है।
(3)पाठ्यक्रमों और प्रश्नपत्रों के पिछड़े होने का प्रश्न एक अलग प्रश्न है और हिंदी के विद्यार्थी की असहायता का प्रश्न एक अलग प्रश्न है। इन दोनों पर अलग-अलग बात होनी चाहिए। सबसे पहले यह कि पाठ्यक्रम पिछड़े हुए कैसे हैं? यह भावना आपके या किसी और के अंदर क्यों है कि पाठ्यक्रम पिछड़े हुए हैं? मैंने बहुत से विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम देखे हैं। मुझे हिंदी भाषी क्षेत्र के हिंदी के पाठ्यक्रमों में पारंपरिकता और अद्यतनता, यानी समकालीनता के बीच में अलग-अलग प्रतिशत में एक बहुत बेहतर संतुलन बनाने की कोशिश दिखाई देती है। जिस विश्वविद्यालय में सोचने-समझने वाले रचनात्मक और कल्पनाशील लोग जितने ज्यादा हैं, उतनी मात्रा में उनके पाठ्यक्रमों में पारंपरिकता, समकालीनता और आधुनिकता का संतुलन दिखाई देता है। नवीनतम आलोचना दृष्टियों, नवीनतम रचना दृष्टियों और नवीनतम रचना-विवेक और जीवन-विवेक का समावेश इन पाठ्यक्रमों में दिखाई देता है। जिन जगहों पर पाठ्यक्रम में सरकारी हस्तक्षेप है, उन जगहों पर भी ये हस्तक्षेप सरकार नहीं करती है। सरकार के नाम पर हिंदी शिक्षक करते हैं। उनकी अपनी कुछ सुनिश्चित सीमाएं हैं।
देशव्यापी स्तर पर पाठ्यक्रम की स्थिति कमजोर या कमतर नहीं है। मैं यह याद करना चाहता हूँ कि 1920 के दशक के जो पाठ्यक्रम थे, वे अपने जमाने के हिसाब से सबसे उन्नत पाठ्यक्रम थे। फिर जब दूसरी पीढ़ी के विश्वविद्यालयों का निर्माण हुआ, जिसमें सागर विश्वविद्यालय जैसे विश्वविद्यालय आए, तब वहां एक नए तरह के पाठ्यक्रम का निर्माण हुआ। तीसरी पीढ़ी के विश्वविद्यालय जैसे जेएनयू वगैरह आए तो वहां नए तरह के पाठ्यक्रम का निर्माण हुआ। अब जब चौथी पीढ़ी के विश्वविद्यालय आ रहे हैं तब वहां बिलकुल नए तरह के पाठ्यक्रम बनाए जा रहे हैं। बहुत सारी जगहों पर पाठ्यक्रम में असंतुलन है। यानी जो हमारी पारंपरिक दृष्टि और विरासत है वह साहित्य कहीं बहुत ज्यादा कम है तथा आधुनिक और समकालीनता पर ज्यादा जोर है। कहीं स्थिति इसके विपरीत है। ये थोड़ी-बहुत कमियां हैं।
मैं देखता हूँ कि कम से कम आचार्य रामचंद्र शुक्ल के केंद्र से या अज्ञेय, मुक्तिबोध, रामविलास शर्मा और नामवर सिंह के केंद्र से बहुतायत में प्रश्न पूछे जाते हैं और विद्यार्थी इन प्रश्नों का जवाब भी देते हैं। इसलिए प्रश्नपत्र भी उस तरह से पिछड़े नहीं हैं। हालांकि इनमें ज्यादा बेहतर काम हो सकता है। ये बात याद रखना जरूरी है कि हम अपने शिक्षकों को पाठ्यक्रम निर्माण की, कक्षा में पढ़ाने की, प्रश्नपत्र बनाने की और विद्यार्थियों से बातचीत करने की ट्रेनिंग नहीं देते हैं। अगर ऐसी ट्रेनिंग करवाई जाए तो इसमें जो थोड़ी-बहुत कमियां हैं वे दूर हो सकती हैं।
विद्यार्थियों की असहायता का प्रश्न बिलकुल अलग प्रश्न है। अभी भी हिंदी के विद्यार्थियों को स्कूल से लेकर विश्वविद्यालयों तक सबसे ज्यादा रोजगार प्राप्त है। दूसरा क्षेत्र राजभाषा अधिकारियों का है। तीसरे स्तर पर समाचारपत्रों, पत्रिकाओं और टेलीविजन चैनल में हिंदी के विद्यार्थी एक लंबे जमाने तक काम करते रहे हैं, यहां मीडिया स्टडीज के लोग भी आ गए हैं। मीडिया स्टडीज के सेंटर और लैंग्वेज सेंटर के बीच में कोलॅबोरेशन होना चाहिए और मीडिया वालों को अच्छी भाषा तथा अच्छे साहित्य और इतिहास वगैरह का एक फाउंडेशन कोर्स कराया जाना चाहिए।
हम देखते हैं कि बहुत सारे लोग टेलीविजन में हिंदी बोलते हैं लेकिन उन्हें इतिहास का कुछ पता नहीं होता है। वे जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गांधी तक के बारे में तथ्यात्मक भूलें करते हैं और दृष्टिहीन समझ का परिचय देते हैं। इसका कोई संबंध भाषिक ज्ञान से या मीडिया की उनकी ट्रेनिंग से नहीं है, बल्कि हमारे इस कांसेप्ट से है कि एक टेलीविजन एंकर को सिर्फ भाषा और प्रस्तुतिकरण का कौशल चाहिए। उसकी समझ के बारे में हम बात नहीं करते। फार्म हम सिखा देते हैं लेकिन कंटेंट के बारे में हम बात नहीं करते।
हिंदी के विद्यार्थियों की जो असहायता है, वह सभी क्षेत्रों के विद्यार्थियों की असहायता के क्रम में है। आप यदि यह सोचते हैं कि इंजीनियरिंग के विद्यार्थी कम असहाय हैं और हिंदी वाले ज्यादा असहाय हैं तो मैं इस दृष्टि से सहमत नहीं हूँ। अन्य कई क्षेत्रों के विद्यार्थियों में भी उतनी ही बड़ी मात्रा में एक तरह की असहायता, निराशा और उदासी है।
(4)किसी भी विषय के शिक्षकों की तरह हिंदी के शिक्षक भी मूल रूप से दो हिस्सों में बंटे हुए हैं। एक वे शिक्षक, जो पेशे को बहुत गंभीरता से लेते हैं और एक वे जो उसे सिर्फ नौकरी की तरह करते हैं। जो सिर्फ नौकरी की तरह करते हैं उनमें भी दो तरह के लोग हैं – एक वे जो पेशेवर जरूरतों को पूरा करते हैं और दूसरे वे हैं जो पेशेवर जरूरतों को पूरा नहीं करते हैं। इन तीन हिस्सों के हिसाब से हिंदी शिक्षकों की प्रतिक्रिया का पता चलता है। जो शिक्षक अपने काम को लेकर बहुत गंभीर हैं, यानी वे अपनी रुचि से शिक्षण के क्षेत्र में आए हैं, वे उस काम में आने वाली सभी बाधाओं के प्रति सतर्क हैं। और इसीलिए जब बाधाएँ इतनी बलीभूत हो जाती हैं कि ये उनके शिक्षण में बाधा डालने लगती हैं तब वे परेशान होते हैं, चिंतित होते हैं, उदास और निराश होते हैं।
दूसरे वे शिक्षक हैं जो नौकरी की तरह शिक्षण कर रहे हैं लेकिन पेशेवर नैतिकता का पालन करते हैं और पेशेवर जरूरतों को पूरा करते हैं। वे भी कहीं न कहीं पहली श्रेणी के शिक्षकों से कम या ज्यादा प्रतिशत में बाधाओं से प्रभावित होते हैं और परेशान और चिंतित होते हैं।
तीसरी श्रेणी में वे शिक्षक हैं जिनका मुख्य लक्ष्य केवल काम निकालने के लिए काम करते रहना होता है। कई बार मैं मजाक में कहता हूँ कि भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता ‘जुगाड़’ है। आप जानते हैं कि हमने कोई नई टेक्नोलॉजी पैदा नहीं की है। जो टेक्नोलॉजी यूरोप से आई है, हमने अपनी जरूरतों के हिसाब से उसे ढाल लिया। जिनके पास मौलिक वैज्ञानिक या तकनीकी चीजें बनाने की क्षमता नहीं है, वे अकसर जुगाड़ों से काम लेते हैं और इनके प्रति नकारात्मक नहीं होना चाहिए, क्योंकि ये जरूरत से पैदा हुई एक व्यवस्था है।
कई वजहों से हिंदी शिक्षकों के ऊपर दबाव सबसे ज्यादा है। इसके बावजूद, इस प्रश्नावली में इसकी कोई चर्चा नहीं है। हिंदी के गंभीर, संवेदनशील, अपनी परंपरा, विरासत और अपनी समकालीनता के प्रति चिंतित शिक्षक इन परिस्थितियों में भी अपने काम को बेहतर ढंग से करने की कोशिश कर रहे हैं। मैं समझता हूँ कि पिछले तीन दशकों में सामान्य रूप से और पिछले एक-डेढ़ दशक में विशेष रूप से हिंदी शिक्षकों ने बहुत महत्वपूर्ण कार्य किए हैं।
(5)मैं इस बात का जवाब नहीं दे रहा हूँ कि विद्यार्थी आत्मसम्मान का अनुभव कैसे कर सकेंगे, क्योंकि मैं इससे एक हद तक असहमत हूँ कि विद्यार्थी आत्मसम्मान का अनुभव नहीं कर रहे हैं। वे कठिन दौर में हैं, दबाव में हैं। सभी भाषाओं, कलाओं और तमाम तरह की पारंपरिक विद्या से जुड़े हुए लोग दबाव में हैं, यहां तक कि आधुनिक विद्याओं से जुड़े हुए लोग भी। इसलिए मैं प्रश्न के दूसरे हिस्से को छोड़ कर पहले हिस्से का जवाब दे रहा हूँ।
हिंदी साहित्य एक हजार साल से ज्यादा का और बहुत सारी बोलियों और भाषाओं में लिखा गया, बहुत से रूपों में लिखा गया साहित्य है। इसलिए कोई एक पाठ्यक्रम उसके साथ पूरी तरह न्याय नहीं कर पाता है और एक तरह की सार्वदेशिकता के आग्रह के कारण, एक तरह की सर्वभौमिकता के आग्रह के कारण हिंदी के पाठ्यक्रम अपनी पूरी परंपरा और स्थानीयता के साथ न्याय नहीं कर पाते हैं। मैं इसे जरूरी समझता हूँ कि हिंदी के पाठ्यक्रमों को चार-पांच हिस्सों में बांट दिया जाए।
हमें ज्ञात है कि नई शिक्षा नीति के अनुसार बी.ए. का पाठ्यक्रम चार वर्ष का होगा। इसमें पहले दो वर्षों का यानी चार सत्रों का पाठ्यक्रम तो एक ऐसा पाठ्यक्रम हो जिसे हम ‘फाउंडेशन कोर्स’ कह सकते हैं। हिंदी के सर्वभौमिक और सार्वदेशिक आग्रहों के आधार पर पिछले सौ सालों से जो पाठ्यक्रमों का ढांचा बना हुआ है, उसमें एसेंस के रूप में सबकुछ पहले का मौजूद रहे। इन्हें हम कुछ आदिकालीन, भक्तिकालीन, रीतिकालीन, नवजागरण युगीन, कुछ छायावादी, प्रगतिवादी, कुछ प्रगतिवाद के बाद की, कुछ समकालीन और कुछ विभिन्न विधाओं की प्रतिनिधि चीजें पढ़ाएं।
लेकिन बाद के दो वर्ष यानी चार सत्रों का पाठ्यक्रम फोकस्ड होना चाहिए। उसे कई हिस्सों में बंटा हुआ होना चाहिए और कई विकल्प होने चाहिए, जैसे- हम एक विशेषज्ञता का क्षेत्र बनाएं जिसमें हम प्राचीन साहित्य में विशेषज्ञता को विशेष महत्व दें। कम लोगों की दिलचस्पी होने के बावजूद संस्कृत विद्या को लगभग सवा-सौ वर्षों से हमने पाठ्यक्रम का हिस्सा बनाए रखा है, जिसके कारण संस्कृत विद्या समकालीन समाज में सांसें ले रही है। उसकी उपयोगिता क्या है, इसको लेकर के एक बहस हो सकती है।
उसी तरह हिंदी के आदिकाल के साहित्य में विविध धाराएं हैं जो एक खास तरह के युग का बोध कराती हैं। उसपर फोकस होना चाहिए। जैसे इतिहास में होता है कि विद्यार्थी इतिहास की डिग्री ले लेता है- एम. ए. इन हिस्ट्री, लेकिन या तो अपने पढ़ने में वह ऐन्शिएंट इंडियन हिस्ट्री लेगा या मेडिवीयल हिस्ट्री या मॉडर्न हिस्ट्री में स्पेशलाइज करेगा। ठीक उसी तरह हिंदी का विद्यार्थी एक फाउंडेशन कोर्स पढ़े। उसके बाद वह किसी क्षेत्र में विशेषज्ञता हासिल करे। इसी तरह की विशेषज्ञता भक्तिकाल या मध्यकाल में हो सकती है। इस तरह हम विशेषज्ञता के कुछ क्षेत्र निर्मित कर सकते हैं।
पूरी दुनिया में सौ साल का प्रवासी भारतीय साहित्य लिखा गया है। भारत के अंदर विस्थापित लोगों का साहित्य भी है- चाहे वह निराला का साहित्य हो या पंत, अज्ञेय, मुक्तिबोध और शमशेर का साहित्य हो। यह सब अपने जड़ों से विस्थापित होकर एक तरह की यायावरी में रहने वाले लोग हैं, जिन्होंने नागर परिस्थितियों और पूंजीवाद से उपजी हुई ‘ऐलिअनेशन’ में रहते हुए साहित्य लिखा। इस तरह के ‘सिलेबस’ भी फॉर्म किए जाने चाहिए।
हमें ऐसे पाठ्यक्रम का निर्माण करना चाहिए जिसमें इतिहास और साहित्य के साथ सीधी साझेदारी हो सके। यानी हम मध्यकाल में विशेषज्ञता रखें तो मध्यकाल का इतिहास भी पढ़ाया जाए और मध्यकाल का साहित्य भी पढ़ाया जाए। मध्यकाल के हिस्टॉरिकल टेक्स्ट जैसे ‘बाबरनामा’, ‘आईने अकबरी’, बदायूँ का इतिहास आदि भी हमारे पाठ्यक्रम का हिस्सा हो। दूसरी तरफ कबीरदास, तुलसीदास भी पाठ्यक्रम के हिस्सा हों। यानी मध्यकालीन भारत की विशेषज्ञता ऐसी विशेषज्ञता के रूप में निर्मित हो, जिसमें उस जमाने की बहुत सारी भाषाओं का साहित्य भी शामिल रहे। कुल 10-12 तरह के नए पाठ्यक्रमों का निर्माण हो सकता है जो हमारे युग की जरूरतों के अनुकूल होगा।
पिछले 40-50 साल से हम एक खास तरह के बहुलतावाद और बहुसंस्कृतिवाद के बीच से यात्रा कर रहे हैं। इन विषयों को लेकर हम पाठ्यक्रम का निर्माण कर सकते हैं। हम हिंदी और सिनेमा को लेकर पाठ्यक्रम का निर्माण कर सकते हैं।
एक ही तरह की हिंदी हमारे सब तरह के हिंदी विद्यार्थियों की जरूरतों को पूरा नहीं कर सकती। सिलिगुड़ी का विद्यार्थी और कुन्नूर का विद्यार्थी, इटानगर का विद्यार्थी और सौराष्ट्र के किसी हिस्से में रहने वाले हिंदी-विद्यार्थियों की जरूरतें एक नहीं हो सकतीं। उनका मानस एक नहीं हो सकता। जो कल्चरल बैकग्राउंड है, उस कल्चरल बैकग्राउंड के हिसाब से भी पाठ्यक्रम होना चाहिए।
अफ्रीकन, अमेरिकन, लैटिन अमेरिकन और एशियन मुल्कों के अंदर जो अंग्रेजी के पाठ्यक्रम हैं, क्या वे सब एक जैसे हैं? नहीं हैं। इसी तरह हिंदी के अनेक पाठ्यक्रम बनाए जाने चाहिए। अनूदित साहित्य पर जोर देना चाहिए। हिंदी-उर्दू क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए ऐसे अलग पाठ्यक्रम होने चाहिए, जिनमें अवधी, ब्रज और उर्दू पर अलग तरह का जोर हो। ऐसे पाठ्यक्रमों का निर्माण होना चाहिए जो नए युग की सांस्कृतिक जरूरतों को पूरा करे।
अभी तक महा-वृत्तांत का स्थान लेने के लिए लघु-वृत्तांत नहीं आ पाए हैं। ग्रैंड नैरेटिव का किस्सा तो समाप्त हो चुका है, लेकिन उसके विकल्प के रूप में जो चीजें उभरनी चाहिए थीं, वे अभी तक नहीं आई हैं। बहुत सारी चीजें की जा सकती हैं। एक ऐसा पाठ्यक्रम अनुवाद का हो सकता है, जिसे हम फाउंडेशन कोर्स में पढ़ाएं। अलग-अलग विश्वविद्यालय पाठ्यक्रम का अलग-अलग विस्तार करें।
अब एम.ए., नेट, जे.आर.एफ. और पी-एच.डी. हिंदी का शिक्षक होने के लिए जरूरी डिग्रियां नहीं हैं। इसलिए हिंदी में संप्रेषण कौशल, अभिव्यक्ति कौशल, लेखन कौशल और समाज और मनुष्य से रिलेट करने के कौशल की जांच करने की व्यवस्था होनी चाहिए। इस जांच की प्रक्रिया को पारदर्शी होना चाहिए। बहुत ही नकारात्मक बात यह हुई है कि भारत में विश्वविद्यालयों और एकैडेमिक संस्थाओं के भीतर बढ़ते हुए भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के कारण ऑब्जेक्टिव नॉलेज पर ज्यादा जोर दिया जाने लगा है।
अब आप सोचिए की नेट, जे.आर.एफ. करने के लिए एक लाइन या एक पैराग्राफ लिखने की क्षमता का भी पता नहीं होता है। पी-एच. डी. के लिए एनालिटिकल पावर होनी चाहिए।
शोधार्थी होने से पहले भी और हिंदी के शिक्षक होने के पहले भी बी.ए., एम.ए. का जो रूटीन नॉलेज है या नेट, जे.आर.एफ. का जो परीक्षा पैटर्न है, यहां तक कि विश्वविद्यालय में जो साक्षात्कार प्रक्रिया है वह अच्छे हिंदी शिक्षक का चयन कर पाने में असमर्थ है। इसलिए इस दिशा में भी बहुत सारे परिवर्तन होने चाहिए।
मेरे हिसाब से एक महीने का कैंप करके हिंदी टीचर का चयन करना चाहिए। बहुत सारी जगहों पर ऐसा होता है। फिल्मों की स्क्रीनिंग ऐसे ही होती है। इस पूरे कैंप के दौरान हम अभ्यर्थी की भाषिक क्षमता, संप्रेषण क्षमता, लोगों से मिलने-जुलने की क्षमता और तमाम मानवीय और साहित्यिक-सांस्कृतिक योग्यताओं से परिचित होंगे। भारत जैसे देश में यह होना कठिन है, क्योंकि तुरंत अन्य सामाजिक कारक इस प्रक्रिया को प्रभावित करने लगते हैं। वर्ण, जाति, धर्म, इलाका, नातेदारी-गोतेदारी और तमाम तरह की गुरु-परंपराऐं इसे प्रभावित करती हैं। उससे बचने के क्रम में हमने जो विकल्प अपनाए हैं, वे हमें कमजोर शिक्षकों तक ले जा रहे हैं।
(6)मैं सिर्फ पहले हिस्से का जवाब देना चाहता हूँ। आज से 10 साल पहले मैं भारत सरकार द्वारा आयोजित एक संगोष्ठी में गया था। उसमें बार-बार यह कहा गया था कि जो मॉडर्न इक्विपमेंट्स हैं, उनका इस्तेमाल करके हिंदी शिक्षण को बेहतर बनाया जा सकता है। हमने कोविड के दरम्यान देखा कि हमने मॉडर्न इक्विपमेंट्स का मजबूरी में उपयोग किया। हमने फेसबुक लाइव, यू-ट्यूब, जूम मीटिंग, गूगल मीट आदि के माध्यम से पढ़ने-पढ़ाने की कोशिश की। लेकिन इन 4-5 वर्षों के भीतर मुझे इस पूरी प्रक्रिया की कमजोरियों का अहसास होने लगा। मुझे लगता है कि जैसे संगीत की सबसे बेहतर शिक्षा पारंपरिक तरीके से ही हो सकती है वैसे ही सारे ‘डेमोक्रटायजेशन’ के बावजूद एक ‘स्पेस’ चाहिए जिसमें शिक्षक और विद्यार्थी 1 टू 1 सीख सकें।
हिंदी पाठ्यक्रम के बारे मेरा स्पष्ट मत है कि आधुनिक युग में विश्वविद्यालयों में जिस नई पद्धति का विकास हुआ है, उस पद्धति से आचार्य शुक्ल, आचार्य द्विवेदी, नामवर सिंह आदि के द्वारा कक्षाओं में प्रयुक्त भाषण पद्धति ही सबसे बेहतर पद्धति है। उसमें कुछ चीजें और हो सकती हैं, जैसे शिक्षकों के साथ-साथ लेखकों, कवियों और ‘प्रैक्टिशनर्स’ को हम बुलाएं और विद्यार्थियों के साथ उनके संवाद की व्यवस्था करें।
इसका यह अर्थ नहीं कि कवि आएंगे तो हम कविता लिखना सीखेंगे। कवि की संगति मात्र से हम जो सीख सकते हैं, वह किसी और तरीके से नहीं हो सकती है। दूसरी चीज यह है कि साहित्य का लैबोरेटरी समाज होता है। यानी साइंस के लिए एक लैब चाहिए, जिसमें केमिकल्स और इक्विपमेंट्स होनी चाहिए। लिटेरचर के लिए जो लैब है वह ‘सोसाइटी’ यानी समाज है।
विद्यार्थियों को भाषिक ज्ञान के लिए बाजारों, मेलों, ठेलों और विशिष्ट भाषा उपजाने की क्षमता रखने वाले जो पेशे हैं यानी स्त्रियां, रसोइए, सड़कों पर काम करने वाले लोग आदि को मिलाकर जो पब्लिक स्पेस बनता है, उस पब्लिक स्पेस में विद्यार्थियों का जाना पाठ्यक्रम का हिस्सा बना दिया जाना चाहिए। इस तरह उनको भाषा के प्रति ज्यादा रचनात्मक और मुक्तद्वारी बनाया जाना चाहिए। भाषा का सबसे रचनात्मक रूप स्त्रियों और श्रमिकों के बीच में होता है। उन जीवित समाजों के पास विद्यार्थियों को ले जाना चाहिए, ताकि वे विश्वविद्यालयी और अकादमिक बर्फीलेपन को हटा सकें।
स्त्री विमर्श हम केवल क्लासेस के भीतर न सीखें, बल्कि स्त्रियों के विभिन्न समुदायों के बीच जाकर सीखें। आप विद्यार्थियों को कहें कि 5 स्त्रियों के आख्यान इकट्ठी करके लाएं। हम एक नई तरह से सोच सकते हैं। यदि हम ‘गोदान’ पढ़ा रहे हैं तो हम विद्यार्थियों को ऐसी जगहों पर ले जाएं, जहां किसान आंदोलन कर रहे हैं।
मैं देखता हूँ कि स्कूल के टीचर्स जब बी. एड. करते हैं तब उनको बहुत सारी ट्रेनिंग दी जाती है। लेकिन यूनिवर्सिटी में टीचर होने के लिए ऐसा कोई कोर्स नहीं हैं। ओरिएंटेशन कोर्स और रिफ्रेशर कोर्स अच्छा टीचर बना पाने में अक्षम हैं। जैसे-जैसे ग्लोबलाइजेशन की चुनौती बढ़ रही है, उससे निपटने के लिए हमें उस-उस तरह से – ‘तू डाल डाल मैं पात-पात’ के डायरेक्शन में काम करना चाहिए। पर दुनिया तो डाल डाल हो रही है, पर हम पत्तों से गिर के अपनी ही जड़ों को खोदने में लगे हुए हैं। यह पूरी प्रश्नावली बहुत ही निराशा से भरी हुई है और इस निराशा के साथ कोई भी सकारात्मक कार्य नहीं किया जा सकता है।
न्यू जी–22, हैदराबाद कॉलोनी, बी.एच.यू., वाराणसी–221005 मो.7007116565
अच्युतानंद मिश्र चर्चित युवा कवि तथा लेखक। अद्यतन कविता संग्रह ‘आंख में तिनका’ और लेखों का संग्रह ‘बाजार के अरण्य में’। |
हिंदी विभाग में सर्वत्र उदासीनता और नकारात्मकता का माहौल है
(1)इस प्रश्न को समझने के लिए हमें पीछे की ओर जाना होगा। सामान्य मनुष्य की आवश्यकताओं का निर्माण और तकनीक का विकास, ये दो परस्पर संबद्ध परिघटनाएं हैं, जिन्हें पिछले आठ दशकों में पूरी दुनिया में संभव किया गया। यह बताया गया कि मनुष्य का उद्देश्य होना चाहिए- जीवन को आरामदेह बनाना। आरामदेह जीवन के तर्क ने अनेक तरह के शोषण को नए संदर्भों में स्वीकार्य बना दिया। मनुष्य की एकमात्र पहचान रह गई-उपभोक्ता। आज जब हम हिंदी शिक्षण की बात कर रहे हैं, तो जरूरी सवाल यह है कि इस उपभोक्ता समाज में, साहित्य और भाषा की भूमिका क्या रह गई है? क्या वह बाजार के लिए मुफीद है? क्या हिंदी को वैश्विक भाषा के रूप में बचाया जा सकता है? क्या वह विश्व-व्यापार की भाषा बन सकती है?
आमतौर पर हिंदी का छात्र इन प्रश्नों के साथ हिंदी की पढाई शुरू करता है। एक तरह की उदासीनता और नकारात्मकता उसे घेरे रहती है। वह हर वक्त इस दबाव में रहता है कि वह निरर्थक का, निरुद्देश्य का संधान कर रहा है। उच्च शिक्षा के स्तर पर हिंदी का अध्ययन उसे मात्र एक डिग्री की तरह दिखाई देता है। शिक्षा और जीवन की चुनौतियों के बीच वह एक न भरने वाली खाई को देखता है। ऐसे में हम हिंदी पढ़ने वाले छात्रों से क्या उम्मीद कर सकते हैं। वे जीवन की अनिवार्यताओं में, उसकी संभावनाओं में, हिंदी के अपने अध्ययन को नाकाफी ही नहीं, गैर-जरूरी भी पाते हैं। इसका यह अर्थ कतई नहीं है कि हिंदी में बुनियादी समस्या है। इसका सिर्फ इतना अर्थ है कि तकनीक ने जीवन में, कला-संस्कृति, भाषा और साहित्य की भूमिका को गैर-जरूरी बना दिया है। उनका उद्देश्य मनोरंजन और आनंद तक रह गया है। वे अतिरिक्त की भूमिका में हैं। अंग्रेजी की स्थिति भिन्न होने का सबसे बड़ा कारण यह है कि वह वर्चस्व की और विश्व-व्यापर की भाषा है। वह तकनीक और अनुसंधान की भाषा है। वह शासन-प्रशासन और शोषण की भाषा है।
(2)हिंदी का बाजार नहीं है। वह उपभोक्ता नहीं बना सकती। वह बाजार में हैं तो खरीददार नहीं है। वस्तु और जिन्स में ढलते समाज में, हिंदी की जरूरत किसी को नहीं न घर को, न बाजार को न शासन को न प्रशासन को और न ही विश्वविद्यालयों को। हिंदी के लिए अनुदान नहीं मिलता। मानविकी विभागों में आप अंग्रेजी या परफोर्मिंग-आर्ट्स के विभागों को छोड़ दें तो कमोबेश अन्य विभागों की भी स्थिति यही है। देश भर के विश्वविद्यालयों में भारतीय भाषाओं के विभाग या तो बंद हो चुके हैं या बंद होने की प्रतीक्षा में हैं। हम एक ऐसे समय में जी रहे हैं जिसमें हर चीज को चाहे वह सजीव हो या निर्जीव -उसे अर्थोत्पादन के संघर्ष में खपना पड़ रहा है। सार्थकता का एक ही पैमाना बचा रह गया है- धन पैदा कर सकने की क्षमता। जो कोई भी -वस्तु, मनुष्य, भाषा, समाज और समुदाय- ऐसा कर सकने में सक्षम नहीं हैं, उसे निरर्थक मान लिया जा रहा है। उसे समाप्त किया जा रहा है।
भाषा, मनुष्य, प्रकृति, समाज, साहित्य, कला और संस्कृति ये ऐसे तत्व हैं, विषय हैं जो उपभोक्तावाद को, बाजारवाद को धन की संस्कृति को चुनौती दे सकते हैं। ये उपभोक्ता को मनुष्य बना सकते हैं। मानविकी अध्ययन विभागों में इन्हीं तत्वों पर, विषयों पर विचार होता है। जाहिर सी बात है कि व्यवस्थाएं, शासन-प्रशासन इससे असहज महसूस करती हैं। वे इन्हें नियंत्रित करना चाहती हैं। वे अनुदान में कटौती करती हैं। शिक्षकों को नियुक्ति के नियमों को बदल देती हैं। वे हर उस कोशिश को अंजाम देती हैं, जिससे इन विषयों की ठीक से शिक्षा-दीक्षा न हो सके। इन विषयों पर लिखने-पढ़ने वालों पर वे निगरानी रखती हैं। उन्हें चेतावनी दी जाती है। हिंदी में उच्च शिक्षा को भी इन स्थितियों से गुजरना होता है। इसका प्रतिफल यह होता है कि बहुत थोड़े से लोग इसका प्रतिरोध करते हैं, अधिकांश इसके अनुरूप खुद को ढाल लेते हैं। वे किताबें लिखने अनुसंधान करने की जगह कारोबार विकसित करने, घर खरीदने और विदेश यात्राओं के प्रलोभन में फंस जाते हैं। कुल मिलाकर पढ़ने-पढ़ाने के प्रति उदासीनता का माहौल बनता जाता है।
(3)जैसा मैंने पिछले प्रश्न में कहा कि उदासीनता का नकारात्मकता का माहौल हिंदी विभागों में सर्वत्र दिखाई देता है। जाहिर सी बात है कि इसका सबसे व्यवहारिक रूप हम प्रश्न पत्रों में, पाठ्यक्रमों में देखते हैं। एक ही ढर्रे पर चीजें दशकों से चल रही हैं। किसी भी तरह के परिवर्तन का पुरजोर विरोध किया जाता है। अगर किन्हीं दबावों के तहत उसे स्वीकार किया भी जाता है तो वह सिर्फ कागजों पर होता है, व्यवहार में नहीं।
जहां तक हिंदी शिक्षण का सवाल है आप देखेंगे कि वहां नए के प्रति नकार का वातावरण है, हर तरह की गंभीरता और जटिलता से बचने की भरसक कोशिश होती रहती है। कई बार ऐसा भी लगता है कि उदासीनता ने एक समानांतर प्रारूप विकसित कर लिया है, एक आम सहमती की तरह जहां न विद्यार्थी कुछ चाहते हैं न शिक्षक कुछ देना चाहता है। दोनों मिलकर यथास्थिति बनाए रखने और शिक्षा को महज औपचारिकता में बदल देने की कोशिश में लगे रहते हैं। पाठ्यक्रम, क्लासरूम में शिक्षा, प्रश्नपत्र और वर्तमान समय इन सबके बीच किसी तरह का समन्वय नजर नहीं आता। शोध की स्थिति सचमुच दयनीय है।
हमने यह मान लिया है कि शोध का एक ही प्रारूप है, और वह वैज्ञानिक शोध। आप पाएंगे आज की तारीख में हिंदी में शोध-कार्य को लेकर कोई गंभीर पुस्तक नहीं है। समाज-शास्त्रीय शोध को ही हिंदी में अपना लिया जाता है। उन्हें साहित्य और भाषा की दृष्टि से देखने-समझने की किसी दृष्टि की बात कही नहीं जाती। शोध-प्रविधि पर कुछ एक पुस्तकें हैं, जिन्हें पीढ़ियों से इस्तेमाल में लाया जा रहा है।
(4)हिंदी शिक्षण के प्रश्न को हिंदी समाज और भाषा से अलग करके नहीं देखा जा सकता। हिंदी भाषी समाज की संस्कृति और मनोविज्ञान पर विचार करना महत्वपूर्ण होगा। क्या कारण है कि हिंदी को लेकर हिंदी समाज वैसा गौरव महसूस नहीं करता, जैसा बांग्ला-भाषी, मराठी या मलयाली समाज महसूस करता है? हिंदी समाज की सांस्कृतिक जड़ें उनकी लोक-भाषाओं में है। खड़ी बोली और लोक-भाषाओं को धीरे-धीरे आमने-सामने खड़ा किया गया। व्यावहारिक स्तर पर दफ्तरों में, स्कूलों में, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में तो हिंदी शिक्षण-प्रशिक्षण के कार्यक्रम चलाए गए, लेकिन भाषा की संस्कृति का विकास नहीं हो पाया। लोक और साहित्य के अलगाव को यहां समझना जरूरी है। इस अलगाव के वातावरण के फलस्वरूप हिंदी का विकास बहुत बुनियादी स्तर पर नहीं हुआ। साहित्य और भाषा का प्रसार शिक्षण-प्रशिक्षण संस्थानों तक सीमित रह गया। जीवन और सामाजिक व्यवहार में हिंदी की भूमिका और संस्थाओं में हिंदी की भूमिका अलग-अलग दिखाई देने लगी। एक हिंदी (लोक) दूसरी हिंदी (संस्था) के बीच के अंतर्विरोध पिछले एक शताब्दी में गहरे ही होते गये। इस अलगाव ने अंग्रेजी की भूमिका को महत्वपूर्ण बना दिया। आज सचाई यह है कि हिंदी ज्ञान-विज्ञान और समाज-विज्ञान की भाषा नहीं है। जाहिर है ऐसे में हिंदी के विद्यार्थियों को एक पिछड़ी हुई हिंदी से काम चलाना होता है। अधिकांश समाज-शास्त्र के विभागों में यह बात अखिल भारतीय स्तर पर प्रचलित है कि हिंदी विभागों में सिर्फ प्रेमचंद की पढ़ाई होती है। इस प्रश्न पर कोई सुझाव तो मैं देने की स्थिति मैं स्वयं को नहीं पाता, पर मैं इतना समझता हूँ कि हिंदी को लोक समाज से, संस्कृति से, भाषा के गौरव से, ज्ञान-विज्ञान और सामाजिक विज्ञान से जोड़ने की जरूरत है। उस आत्म-सम्मान को पाने की जरूरत है, जिसे आप रचनात्मक उत्खनन से, व्यापक प्रसार से, रोजमर्रा के व्यवहार से अर्जित करते हैं।
(5, 6)हिंदी को परंपरा के साथ-साथ आधुनिकता के नए प्रस्थान बिंदुओं से जोड़ने की जरूरत है। आधुनिकता को आत्मसात किए बगैर, परंपरा के प्रति सही आलोचनात्मक विवेक का निर्माण संभव नहीं। एक उदाहरण से मैं अपनी बात कहूं-
पिछले दिनों साहित्य सिद्धांत (लिटरेरी थ्योरी) की कई पुस्तकें लाइब्रेरी में देखी। अंग्रेजी के अकादमिक और बौद्धिक दोनों ही हलकों में जिस गंभीरता से इस पर काम हुआ है, उतना शायद ही किसी और क्षेत्र में हुआ हो। सामान्य विद्वान से लेकर तमाम बड़े बौद्धिकों ने इस पर काम किया है। बहुत सारी गुत्थियों को सुलझाया है। टेरी ईगलटन और रेमंड विलियम्स का तो बहुत सारा कार्य इसी दिशा में है। इसके अतिरिक्त जूलिया क्रिस्तेवा और जूडिथ बटलर ने भी इस क्षेत्र में काम किया है। बौद्धिकों की दूसरी जमात भी है जो इन कामों को व्याख्यायित करती है। जिसमें डगलस केलनर, जोनाथन कूलर आदि लोग हैं।
लेकिन एक बात गौर करने की है कि आज की तारीख में हिंदी में एक पुस्तक नहीं है, जो इस काम को पूरा करती हो। एक ऐसे समय में जब हिंदी में आलोचना और समीक्षा की दर्जन भर पत्रिकाएं हैं। एक प्रमाणिक पुस्तक का नहीं होना साबित करता है कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाने वाली हिंदी वास्तविकता से कितनी अधिक दूर है, विलग है। मालूम हो कि अधिकांश विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में- साहित्य सिद्धांत, आधुनिक सौंदर्य-शास्त्र, उत्तर-आधुनिकता, उत्तर संरचनावाद, आधुनिक भाषा विज्ञान- शामिल हैं। बिना किसी बुनियादी पुस्तक के इन विषयों को पढ़ाया जाता है। इन विषयों में इस्तेमाल होने वाले पदों का न तो हिंदी अनुवाद विकसित हुआ है और न ही उनकी व्याख्या। सवाल यह है कि फिर इनकी पढ़ाई कैसे होती है? विद्यार्थी परीक्षाएं कैसे लिखते हैं- यह न बताया जाए तो बेहतर है।
आज की तारीख में हिंदी में साहित्य सिद्धांत पर कोई ऐसी पुस्तक नहीं जो पठनीय हो, जो पिछले दो सौ वर्षों के साहित्य चिंतन को सामने रखती हो। यह तब है जब आए दिन इन विषयों में सेमिनार और भाषण होते रहते हैं। आप अंदाजा लगा सकते हैं कि उत्तर-आधुनिकता और उत्तर-उपनिवेशवाद के नाम पर सेमिनारों में, गोष्ठियों में किस तरह के पर्चे और व्याख्यान दिए जाते हैं। विमर्श पर हिंदी में इधर खूब काम हो रहा है- विमर्श की सैद्धांतिकी पर पुस्तकें नहीं हैं। विमर्श पर काम करने वाले शोधार्थी उसके बगैर ही अपना शोध पूरा कर लेते हैं।
सवाल यह है कि एक ही संस्थान में अंग्रेजी विभागों में पढ़ने वाले छात्र लिटरेरी थ्योरी में क्या पढ़ते हैं और हिंदी वाले छात्रों के हिस्से में क्या आता है? आखिर हिंदी पढ़ने वाले विद्यार्थियों का क्या कसूर है। हिंदी में कुछ कुंजियां हैं, जिसमें गूगल से किया हुआ भ्रष्ट अनुवाद है। इस प्रक्रिया से हम कैसी हिंदी बना रहे हैं, इसका हमें अंदाजा नहीं। भारतीय इतिहास, समाज शास्त्र, दर्शन शास्त्र, सौंदर्य-शास्त्र, भाषा-विज्ञान आदि पर हिंदी में लिखी मौलिक पुस्तकें जिनमें पिछले सौ वर्षों का संदर्भ शामिल हो, उपलब्ध नहीं हैं। उन्हें लिखने की आवश्यकता महसूस नहीं होती- क्यों?
आए दिन नए विचार और चिंतन पर निबंध लिखने वालों को यह कहा जाता है कि आपको भारतीय संदर्भ में लिखना चाहिए। भारतीय संदर्भ का अर्थ क्या है? क्या उनके जीवन में इस नई पूंजी ने सारे संदर्भ बदल नहीं दिए? तमाम चीजें बदल गई हैं, लेकिन उनसे जुड़ने वाले ज्ञान-विज्ञान को हम बुनियादी जिज्ञासा का विषय नहीं बनाना चाहते तो इस मानसिकता पर विचार करने की जरूरत है।
हिंदी को न सिर्फ साहित्य और कला के विषय के तौर पर पढ़ना-पढ़ाना चाहिए, बल्कि ज्ञान माध्यम के तौर पर भी हिंदी का विकास किया जाना चाहिए। क्या संगीत पर, खेल पर, चिकित्सा पर हिंदी में इधर स्तरीय पुस्तकें लिखी जा रही हैं?
समाज-शास्त्र, इतिहास, अर्थशास्त्र, दर्शनशास्त्र, सौंदर्यशास्त्र आदि विषयों की पढ़ाई हिंदी में भी होनी चाहिए। इन विषयों पर मौलिक पुस्तकें लिखी जाएं। हिंदी विभागों का इन अनुशासनों से संबंध विकसित हो। इन विषयों को हिंदी के पाठ्यक्रम में शामिल किया जाए तभी हिंदी के बेहतर और उज्ज्वल भविष्य की बात का कोई आधार हम विकसित कर सकेंगे।
हिंदी का कोई भी भविष्य भारतीय भाषाओं के बगैर संभव नहीं। भारतीय भाषाओं से जुड़कर ही हिंदी अखिल भारतीय बन सकती है। इस परस्परता में ही हिंदी फल-फूल सकती है। अंग्रेजी का मुकाबला कर सकती है। आज हिंदी के सामने दो बुनियादी जरूरतों को हम देखते हैं, एक तरफ अपनी जड़ों से गहरे अर्थों में जुड़ना तो दूसरी तरफ आधुनिक प्रवृतियों और ज्ञान माध्यमों के प्रति जिज्ञासा, उन्हें आत्मसात कर सकना। इन दो स्तरों पर काम करके ही हिंदी विभाग आत्म-सम्मान और आत्म-गौरव अर्जित कर सकते हैं।
हिंदी विभाग, श्री शंकराचार्य संस्कृत यूनिवर्सिटी,कलाडी–683574, जिला : अर्नाकुलम, केरल मो.9213166256
संपर्क प्रस्तुतिकर्ता : द्वारा कुलदीप साहू, मकान नंबर : 273/ 274, दीनदयाल उपाध्याय नगर, सेक्टर 4, रायपुर, छत्तीसगढ़– 492001 मो. 9340791806
भाषा शिक्षण वह बुनियाद है जिसके बगैर साहित्य का सार्थक पठन-पाठन असंभव है.
दुर्भाग्यवश हिंदी विभागों में अब ऐसे शिक्षक कम रह गए हैं जो हिंदी के शब्दों का सही उच्चारण कर पाते हों, हिंदी मुहावरों का सम्यक ज्ञान रखते हों और जिनके पास स्वाभाविक वाक्य विन्यास की समझ भी हो.
वाक्य में कहाँ तत्सम और कहाँ तद्भव का इस्तेमाल होना चाहिए या कहाँ उर्दू शब्द आने चाहिए, इसकी समझ के बिना हिंदी का अध्ययन -अध्यापन असंभव है.
आए दिनों फेसबुकीय लेखन में हिंदी अध्यापकों एवं छात्रों की गलतियों के मद्देनज़र स्थिति संतोषजनक नहीं कही जा सकती.
साहित्य के अध्ययन -अध्यापन क्रम में रचनाओं के मूल पाठ से गुजरने की प्रवृत्ति कम होती जा रही है, यह चिंताजनक है.
अध्यापन तो एक पेशा है। शिक्षक साथियों की आज ऐसी दशा है कि उन्हें लगता है की नौकरी पाने के लिए तो वह बहुत पढ़ चुके हैं, काम कर चुके हैं। अब नौकरी पाने के बाद भी पढ़ते ही रहें और काम से प्रेम करें ऐसी मूर्खता क्यों करें? इस कारण भाषा और साहित्य शिक्षण संस्थानों में एक मजाक बनकर रह गया है.
अध्यापन तो एक पेशा है। शिक्षक साथियों की आज ऐसी दशा है कि उन्हें लगता है की नौकरी पाने के लिए तो वह बहुत पढ़ चुके हैं, काम कर चुके हैं। अब नौकरी पाने के बाद भी पढ़ते ही रहें और काम से प्रेम करें ऐसी मूर्खता क्यों करें? इस कारण भाषा और साहित्य शिक्षण संस्थानों में एक मजाक बनकर रह गया है.