जोनाली बरुवा

विभागाध्यक्ष एवं एसोसिएट प्रोफेसर मरिधल महाविद्यालय धेमाजी, असम। प्रकाशित पुस्तकें: ‘सेतु’, (अनुवाद कहानी संकलन), ‘कोलाहल’ (काव्य संग्रह), ‘अरण्य रोदन’ (काव्य संग्रह), ‘असमिया लोक समाज में डाक प्रवचन’।

नगेन शइकिया

(जन्म 11 फरवरी 1939) वरिष्ठ लेखक। डिब्रूगढ़ विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर। 1986-1992 तक राज्यसभा के सदस्य भी रहे। लघु कथा संग्रह अंधरत निज़ार मुखके लिए 1997 में साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित।

 

मई महीने की प्रचंड धूप और गर्मी।

डॉ. गोगोई और मैं सोनारी से बस में आ रहे हैं। रास्ते से एक और मित्र हमारे साथ हो लिए, बस में तीन लोगों के लिए बनी लंबी सीट में तृतीय यात्री के रूप में वे हमारे साथ बैठ गए। वे डॉ. गोगोई के बचपन के मित्र हैं और वर्तमान में एक सरकारी अधिकारी हैं। मुझसे उनका परिचय करवाते हुए गोगोई ने कहा, ‘इन्होंने अपना आधा जीवन सामाजिक कार्य करते हुए गुजार दिया। कॉलेज में पढ़ाई के दौरान भी अगर कहीं किसी व्यक्ति की मृत्यु हो जाए तो जनाब सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में हाजिर हो जाते थे। कहीं आगजनी हुई तो घटनास्थल तक पहुंचने वाले प्रथम व्यक्ति आप ही होते थे। कोई बीमार है तो उसे अस्पताल या डॉक्टर के घर तक ले जाने के लिए सदैव तत्पर रहते थे।’ हम तीनों ने ठहाके लगाए। उन्होंने मुस्कराते हुए कहा, ‘अब और कहां सामाजिक कार्य। अब तो दफ्तर में सरकारी फाइल वर्क और घर में श्रीमती जी का आदेश बजाते हुए होमवर्क।’

उनकी बातों से एक बार और ठहाके गूंजे।

बस सोनारी से नाज़िरा होते हुए शिवसागर तक जाएगी। एक चौराहे में बस रुकी। बस के रुकते ही धूप और गर्मी की प्रचंडता का अहसास हुआ। दो युवक बस में सवार हुए। उनमें से एक गोल-मटोल चेहरे वाला हट्टा-कट्टा नौजवान है और दूसरा थोड़े दुबले बदन का। चालक की बाईं ओर की दो सीटों में वे जम गए। दोनों ने रंगीन बूटेदार कमीज और जीन्स पहन रखी है।

बस में सवार होते ही बड़े ही लापरवाह तरीके से बैठ गए और चालक से कहा- ‘ब्रदर, गाड़ी जरा तेज चलाओ, हमें जल्दी पहुंचना है।’ उम्रदराज और अनुभवी चालक ने एक बार मुड़कर दोनों युवकों की ओर देखा और फिर निर्विकार भाव से सामने की ओर देखकर गाड़ी चलाने लगा।

गोल-मटोल चेहरे वाले युवक ने अपनी जेब से सिगरेट निकाली और एक सिगरेट अपने दोस्त की ओर भी बढ़ा दी। बस की दीवार में लिखा है- बस के अंदर धूम्रपान करना मना है। मुझे मन ही मन बड़ा गुस्सा आया। एक बार सोचा कि कंडक्टर को बुलाकर कहूँ कि वह बस के अंदर बैठकर सिगरेट पी रहे यात्री को मना क्यों नहीं करता। लेकिन उन युवकों के व्यवहार को देखकर लगा कि कुछ बोलने से वे अपमान भी कर सकते हैं। गोगोई और उनके मित्र भी असहज महसूस कर रहे थे। उनके चेहरे पर असंतोष और गुस्से का भाव साफ झलक रहा था। हमने आपस में ही अपना क्रोध व्यक्त किया और धीमे स्वर में बातचीत करने लगे।

गोगोई ने कहा- ‘यह समस्या आजकल हर जगह है। अब कोई भी माता-पिता अपने बच्चों को अपने नियंत्रण में नहीं रख सकते।’

गोगोई के मित्र ने कहा- ‘देखा न आपने, बस में कितने सारे बुजुर्ग लोग हैं, इस बात से उनपर कोई फर्क नहीं पड़ता।’

हमें बहुत गुस्सा आ रहा है, लेकिन हम कुछ बोल भी नहीं सकते। ऐसे ही चुपचाप विरक्त भाव से चले जा रहे हैं। एक चौराहे पर बस रुकी।

एक दुबले-पतले बाईस-तेईस वर्षीय लड़के ने हिचकिचाते हुए पूछा, ‘क्या मैं शिवसागर तक जा सकता हूँ?’

कंडक्टर ने बिना कुछ बोले हुए बस का दरवाजा खोल दिया और और अंदर आने का इशारा किया।

लड़का बस के अंदर घुस आया। उसने एक फटी-पुरानी पैंट और बेरंग होकर लगभग स़फेद होता सा नीले रंग की एक सर्ट पहन रखी है। पांवों में हवाई चप्पल है।

उसके मुखमंडल में भूख और दरिद्रता साफ झलक रही है। धंसी हुई आंखें, पिचके हुए गाल और निस्तेज चेहरा। कंडक्टर ने दो और तीन नंबर वाली सीटों में बैठे हुए उद्दंड युवकों के पास खाली पड़ी एक नंबर वाली सीट में उसे बैठ जाने का संकेत दिया। खिड़की से आती हुई धूप के कारण वह सीट खाली पड़ी थी।

लड़का चुपचाप जाकर वहां बैठ गया।

कंडक्टर ने एक टिकट बनाकर लड़के की ओर बढ़ा दी।

लड़के के चेहरे में एक लाचार और दीनता का भाव दिखाई दिया। वह सकुचाते हुए धीमे स्वर में बोला, ‘मेरे पास पैसे नहीं हैं।’

कंडक्टर ने धमकी भरे स्वर में कहा- ‘पैसे नहीं हैं तो बस में क्यों चढ़े। यह बस किसी की जागीर नहीं है। सरकारी बस है। चुपचाप पैसे निकालो।’

लड़का बेचारा वैसे ही घबराया हुआ था, उसे मानो सांप सूंघ गया। फिर भी हिम्मत बटोरकर डरते हुए कहा- ‘मेरे पास बिलकुल पैसे नहीं हैं। मां अस्पताल में है। थोड़ी देर पहले ही खबर मिली है कि मां की हालत बहुत नाजुक है।’

लड़के ने बड़े ही कातर स्वर में कहा- ‘मुझे किसी तरह शिवसागर तक ले चलो भैया।’

लड़के ने आरंभ में ही ‘क्या मैं जा सकता हूँ’ कहकर पूछा था, तभी मुझे लगा था कि इसके पास पैसे नहीं हैं। उसका कातर जवाब सुनकर मेरी सोच को मुहर लगी।

एक बार लगा कि उसकी सहायता कर दूँ। लेकिन क्या कहूंगा! बस के अन्य यात्री सोचेंगे- यह देखो, एक दानवीर कर्ण निकल आया।

गोगोई ने धीरे से कहा- ‘आजकल किसी पर भरोसा नहीं किया जा सकता। यह लड़का भी पता नहीं कहां, क्या गुल खिलाकर बस में चढ़ गया है।’

तब तक कंडक्टर ने बस की घंटी बजाकर गाड़ी रोक दी और गुस्से से बस का दरवाजा खोलते हुए उस लड़के को उतर जाने का आदेश दिया- ‘बस से उतर जाओ।’ लड़का एक कदम आगे बढ़कर रोनी सूरत बनाते हुए बोला- ‘मुझे ले चलो भैया।’

कंडक्टर और अधिक कठोर स्वर में बोला- ‘उतर जाओ।’

लड़के ने कातर भाव से चारों ओर देखा।

कंडक्टर फिर गरजा- ‘उतर जाओ।’

अचानक आगे की सीटों में अभद्र और लापरवाह तरीके से बैठकर सिगरेट पीने वाले युवकों में से एक, गोल-मटोल चेहरे वाले युवक ने मुड़कर देखा और आदेशात्मक आवाज में कहा- ‘ऐ लड़के! ठहरो। जाओ और अपनी सीट में बैठो।’ कंडक्टर की ओर देखकर उसने पूछा- ‘किराया कितना है?’

कंडक्टर ने जवाब दिया- ‘साढ़े तीन रुपए।’

युवक ने अपनी जीन्स की पीछे की जेब से बटुआ निकाला और उसमें से पांच रुपये का एक नोट निकालकर कंडक्टर को थमा दिया। लड़का घबराता हुआ दुबारा अपनी सीट पर जाकर बैठ गया। कंडक्टर ने बस का दरवाजा बंद कर दिया। गाड़ी चलने लगी।

दोनों युवकों ने फिर से दो सिगरेट सुलगा लिए। मुझे अपनी जेब में पड़े बटुए को छूने में भी शर्म महसूस हुई। गोगोई और उनके समाज-सेवक  मित्र की ओर देखने में भी लज्जा का अनुभव हुआ और सबसे अधिक लज्जाबोध उन दोनों युवकों की ओर देखने में हुआ।

सहायक प्राध्यापक, शंकर देव विद्या निकेतन स्कूल के पास, नागखेलिया, धेमाजी, असम-787057