शंभुनाथ
हमारा समय प्रेमचंद को भूलने के दौर में है। 1960-70 के दशक में आधुनिकतावादी उभार के समय प्रेमचंद को बैलगाड़ी के जमाने का कथाकार कहा जा रहा था। वे सामान्यतः याद नहीं किए जाते, क्योंकि लोगों की चेतना पर प्राचीन-नए दबाव बढ़ गए हैं। बहुत कौशल से अंधेरे में समा चुकी चीजों पर उजाला चढ़ाया जा रहा है और पहले जो उजाले में था, उसे अंधेरे के सुपुर्द किया जा रहा है। ऐसी विभ्रांति छाई है कि हम बहुत कुछ से विच्छिन्न होते जा रहे हैं, यहां तक कि स्पष्ट सचाइयों से भी।
प्रेमचंद यथार्थवादी कहे जाते हैं, पर वे आधुनिक कैसे नहीं हैं? उनकी आधुनिकता आज भी आश्चर्यचकित करती है। वे किसी भी रूढ़ि, अंधविश्वास और प्रचलित बौद्धिक फैशन के आगे घुटने नहीं टेकते। वे स्त्री की स्वाधीनता का समर्थन करते हैं। यहां तक कि मेहता और मालती के संबंध का तर्क देते हैं, विवाह के बिना भी उनके प्रेम से साथ रहने को एक पूर्ण संस्था मानते हैं। यह आज के लिव-इन-रिलेशनशिप जैसा है।
प्रेमचंद कन्या को ‘वस्तु’ नहीं मानते, इसलिए विवाह में कन्यादान का विरोध करते हैं। दहेज का विरोध करते हैं। आम कृषकों के दुख-दर्द के साथ-साथ गंगी, हल्कू और घीसू-माधव जैसे वंचितों-दलितों के भी विलगाव का यथार्थ उपस्थित करते हैं। नैतिक मरजाद पर चलने वाला होरी दलित सिलिया को गर्भावस्था में अपने घर में पनाह देता है। उस समय पिछड़ा-दलित संबंध कुछ ऐसा ही सहयोगपरक रहा है। होरी अपने बेटे गोबर का दूसरी जाति में विवाह स्वीकार कर लेता है। वह मंगरू साह द्वारा श्राद्ध में पांच हजार रुपये फूंके जाने का विरोध करता है। आज के कितने लोग इतने भी आधुनिक हैं? प्रेमचंद की आधुनिकता एक अन्वेषण ही नहीं, परिवर्तन भी है। वह मानव मूल्यों और संवेदना की रक्षा करती है तथा नए स्वप्न बोती है।
प्रेमचंद के जमाने में धार्मिक दिखावा और सामाजिक कुप्रथाओं के विरोध में एक विश्वव्यापी बौद्धिक लहर थी। बहिष्कारपरक की जगह समावेशी राष्ट्रीयता जनप्रिय हो रही थी। शिक्षित लोग साहित्य, दर्शन, विज्ञान, राजनीति, इतिहास- एक साथ बहुत से विषयों में थोड़ी या बहुत रुचि रखते थे, एकायामी न थे। खासकर वैश्वीकरण (1991) के युग में इन प्रवृत्तियों को तेज धक्का लगा। ‘राष्ट्र’ के स्तर पर विद्वेष और विघटन तेज हुआ। खाइयां चौड़ी होने लगीं, पुलों की चिंता नहीं की गई। आर्थिक उदारवाद सामाजिक-बौद्धिक अनुदारवाद ले आया। देश जलने लगा!
गुलामी के चिह्न धार्मिक अतीत और औपनिवेशिक आधुनिकता दोनों में हैं
भौतिक रूप से एक तृप्त या अतीत में लिप्त आदमी के पास स्वप्न नहीं होते। वह वर्तमान का कैदी होता है या वर्तमान और अतीत दोनों का। प्रेमचंद को भारत का स्वप्न-नायक इसलिए कहा जाना चाहिए कि उन्होंने देश के धार्मिक अतीत और औपनिवेशिक आधुनिकता दोनों में गुलामी के चिह्न देखे थे और इनसे मुक्ति की कथाएं कही थीं।
प्रेमचंद ने अपने ऐतिहासिक दौर के बारे में लिखा था, ‘यह समय राष्ट्र के निर्माण का है।’ उन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के साथ जाति व्यवस्था, पुरुषसत्ता और धर्माचार्यों के पाखंडों को भी चुनौती दी थी। हालांकि उच्छेदवादी बुद्धिपरकता का परिचय न देते हुए यह भी लिखा था, ‘अगर एकाएक जनता को कोई भगवान से अलग करना चाहे तो संभव नहीं है।… दुखी आशा में ईश्वर में भक्ति रखता है, सुखी भय से।’ उनके कथा साहित्य में प्रेमशंकर (प्रेमाश्रम) और अमरकांत-सुखदा (कर्मभूमि) से लेकर मेहता-मालती (गोदान) तक कई मध्यवर्गीय चरित्र हैं, जो नए स्वप्न रचते हैं और राष्ट्रीय जागरण लाने की कोशिश करते हैं। सूरदास (रंगभूमि) जैसा आम आदमी लड़ाई का अनोखा उदाहरण है।
प्रेमचंद लिखते हैं, ‘एक तरफ बेहूदा रूढ़ियां हैं, दूसरी तरफ पश्चिम की अंधाधुंध नकल है।’ यही वजह है कि वे धार्मिक अतीत को चुनौती देते हुए राष्ट्रीयता की एक भिन्न धारणा देते हैं,
‘हम जिस राष्ट्रीयता का स्वप्न देखते हैं, उसमें तो जन्मजात वर्णों की गंध तक न होगी। वह हमारे श्रमिकों और किसानों का साम्राज्य होगा, जिसमें न कोई ब्राह्मण होगा, न हरिजन, न कायस्थ, न क्षत्रिय। उसमें सभी भारतवासी होंगे।’ एक बड़े मन का मनुष्य ही ऐसा सोच सकता है।
प्रेमचंद की एक कहानी है ‘परीक्षा’। यह एक राज्य के दीवान के पद पर नए व्यक्ति को चुनने की कथा है। सुजान सिंह नौजवानों का अनोखे तरीके से टेस्ट लेते हैं। उम्मीदवारों में मार्निंग वाक करने वाले और सिगार पीने वाले आधुनिक सज्जनों के अलावा धार्मिक प्रवृत्ति के भी कई व्यक्ति थे, ‘शर्मा जी घड़ी रात से ही वेद मंत्र पढ़ने लगते थे और मौलवी साहब को नमाज और तलावट के सिवा और कोई काम नहीं था।’ इस तरह औपनिवेशिक आधुनिकता और रूढ़िवादी धार्मिकता दोनों ही परीक्षा टेबल पर थी।
एक दिन सभी उम्मीदवार हॉकी खेलकर लौट रहे थे। रास्ते में एक बूढ़े किसान की अनाज से भरी गाड़ी नाले के कीचड़ में फंसी हुई थी। सभी आधुनिक सज्जन और अपने-अपने धर्म में डूबे हिंदू-मुसलमान स्वार्थ और मद में पास से गुजर गए। भारतीय समाज में शिक्षित वर्गों और साधारण लोक के बीच आज भी सामान्यतः इससे भिन्न संबंध नहीं है। कहानी आगे बढ़ती है, हॉकी के खेल में घायल होकर भी जानकीनाथ कीचड़ में उतरकर बूढ़े किसान की गाड़ी को नाले से बाहर निकाल देता है। जाहिर है, दीवान के पद पर जानकीनाथ चुना गया, क्योंकि उसमें दक्षता के साथ संवेदनशीलता भी थी।
प्रेमचंद शिक्षा और योग्यता में आगे बढ़े हुए बौद्धिक समुदाय पर टिप्पणी करते हैं, ‘वह इस झूठे आडंबर और बनावट की जिंदगी का, इस व्यावसायिक और औद्योगिक प्रतियोगिता का इतना प्रेमी हो गया है कि उसकी बुद्धि में सरल जीवन का विचार आ ही नहीं सकता। उसकी निगाह मौजूदा रहन-सहन के रौशन पहलू की तरफ जमी हुई है, उसके अंधेरे पहलू को वह जानबूझकर या स्वभाववश देखना नहीं चाहता।’ (वर्तमान आंदोलन के रास्ते में रुकावटें)। लक्षित किया जा सकता है कि देश में सादगीपूर्ण जीवन पसंद करनेवाले लोग कम होते गए, कृत्रिमता बढ़ती गई।
आज जो दक्ष हैं, शिक्षित हैं, क्या वे संवेदनशील हैं? प्रेमचंद ने जानकीनाथ में एक आशा देखी और कहानी का अंत इस प्रकार किया, ‘ऐसा आदमी गरीबों को कभी न सताएगा। उसका संकल्प दृढ़ है, जो उसके चित्त को स्थिर रखेगा। वह चाहे धोखा खा जाए, परंतु दया और धर्म से कभी न हटेगा।’ बताने की जरूरत नहीं है कि प्रेमचंद का यहां धर्म से क्या आशय है। वे कहानी में दिखाते हैं कि समाज में धर्म और आधुनिकता दोनों ही किस तरह आडंबर बन गए हैं।
रवींद्रनाथ और प्रेमचंद
एक बार बनारसीदास चतुर्वेदी ने रवींद्रनाथ के सामने एक आयोजन में प्रेमचंद से उनकी मुलाकात कराने का प्रस्ताव रखा। रवींद्रनाथ ने मौन रहकर उत्तर दे दिया। प्रेमचंद रवींद्रनाथ के आलोचक थे, ‘बुद्धि और आध्यात्मिकता की यह खींचतान वर्तमान आंदोलन के रास्ते में भयानक रुकावट होगी और जबसे उसके समर्थक रवींद्रनाथ टैगोर जैसे दूरदर्शी, गहरी नजर वाले लोग हैं तो इस रुकावट को रास्ते से हटाना आसान न होगा।’ (विविध प्रसंग-2)।
प्रेमचंद और रवींद्रनाथ के बीच दूरी थी, लेकिन एक खास मामले में दोनों के विचारों में गजब की निकटता थी। दोनों लेखक विश्वविद्यालयों में दी जा रही शिक्षा के कटु आलोचक थे। रवींद्रनाथ ने समानांतर रूप से एक प्राकृतिक परिवेश में विश्वभारती की स्थापना (1921) की थी। वे कलकत्ता विश्वविद्यालय को बुराइयों की जड़ मानते थे, हालांकि वहां दीक्षांत भाषण (1937) देने चले गए थे!
प्रेमचंद ने लिखा, ‘काश ये यूनिवर्सिटियां नहीं होतीं, काश आज उनकी ईंट बज जाती, तो हमारे देश में द्रोहियों की इतनी संख्या न होती। ये विद्यालय नहीं गुलाम पैदा करने के कारखाने हैं।’ (वही)। प्रेमचंद के इस कथन को उच्च शिक्षा का विरोध मानना गलत है। दरअसल उन्हें लग रहा था कि इस देश की शिक्षा पर पश्चिमी सभ्यता का नकारात्मक असर ज्यादा है। इसलिए अधिक शिक्षा अधिक खुदगर्ज और अधिक भिन्नतावादी बनाती है। वे कहते हैं, ‘पश्चिम ने जो हमें सबसे जहरीला पाठ पढ़ाया है, वह खुदगर्जी है। जो सज्जन नए ढंग में जितने रंगे हैं, उनमें संकीर्णता उतनी अधिक है।’
देखा जा सकता है कि आज धार्मिक भेदभाव, विद्वेष और हिंसा की रचना करनेवाले सभी लोग शिक्षित वर्गों के हैं। उनमें कोई गरीब नहीं है। दरअसल कारपोरेटता और कूपमंडूकता एक सफल युग्म है।
सुखों के बीच कितने खुश हैं लोग
आज सबको अधिक सुख चाहिए। अधिक सुख के लिए अधिक पैसा, अधिक अमीरी चाहिए। आज किसी के पास दो-चार करोड़ की संपत्ति हो तो भी वह अपने को गरीब के रूप में देखता है, क्योंकि उसके सामने दस करोड़ की हैसियत वाला आदमी खड़ा है। उसकी छोटी कार के पास दूसरे की बड़ी कार खड़ी है। भौतिक सुख के पीछे निरंतर दौड़ने वाला व्यक्ति चाहे जितना हुनरमंद हो, वह बौद्धिक रूप से दरिद्र होता है। उसकी चालाकी का विस्तार और संवेदना का क्षय स्वाभाविक है।
वर्ल्ड हैप्पीनेस रिपोर्ट तैयार करने वालों ने सुख और खुशी में फर्क किया है। 2023 की रिपोर्ट में विश्व के 146 देशों में भारत का 126वां स्थान बताया गया है, अर्थात-भौतिक सुख के जितने चमकते तारे बन रहे हों, लोग खुश नहीं हैं। लोगों को धर्म, बाजार और लोकतंत्र के नए-नए स्वप्नलोक दिखाकर कहा जा रहा है-खुश रहो, पर लोग खुश नहीं हैं। उनके दुख के टांके खुल जा रहे हैं।
वे आमतौर पर नैतिकता, राजनीति, प्रशासन, शिक्षा, स्वास्थ्य–सुविधाओं के गिरते स्तर से परेशान हैं। वे अन्याय और अशांति से घिरे हैं। उन्हें वह खुशी नहीं मिल पा रही है, जो मनुष्य की क्षमताओं के विकास के लिए जरूरी है। दरअसल शेयर बाजार के उतार–चढ़ाव की संख्या से ध्यान हटाकर कभी–कभी देश में बढ़ी विषमता और घटी खुशी के आंकड़ों को भी देख लेना चाहिए या खुद से पूछ लें कि कितना खुश हैं।
प्रेमचंद ने लक्षित किया, सुखी लोग खुश नहीं हैं। ‘गोदान’ के खन्ना के पास बहुत पैसा है, लेकिन न वे खुश हैं और न उनकी पत्नी गोबिंदी। रायसाहब खुश नहीं हैं। ‘कर्मभूमि’ में सुखदा सुखभोग को ही अपने जीवन का आदर्श मानती है। पर उसका हृदय बदलता है, ‘भोग विलास पर प्राण देने वाली सुखदा आज सेवा और दया की मूर्ति बनी हुई है।’ सुख के पीछे दौड़ने का अर्थ है ‘स्वत्व’ खोना। प्रसाद ने लिखा था, ‘अधिकार का सुख बड़ा मादक होता है’ (स्कंदगुप्त)। प्रेमचंद की यह बात बीते जमाने की मानी जाएगी, ‘धन खोकर यदि हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह कोई महंगा सौदा नहीं।’ सिर उठाकर जीने के लिए कुछ अभावों को चुना जा सकता है।
स्थिति यह है कि पैसे, सुख और सत्ता की दौड़ में शामिल लोग स्वकेंद्रित हो जा रहे हैं। वे अपने से बाहर किसी चीज को, यहां तक कि प्रेमचंद को भी कैसे याद रखें!
सौंदर्य का अर्थ कैसे लौटे
आज सौंदर्यबोध अमानवीय दिशाओं में जा रहा है। एक मोटा उदाहरण है, 2011-22 के 12 सालों में 16 लाख भारतीय लोग अपनी नागरिकता छोड़ कर विदेश की चमचमाती दुनियाओं में चले गए। उन्हें भारत पसंद नहीं आया। इनमें सवा दो लाख लोगों ने अकेले 2021 में देश को त्यागा है। ऐसे व्यक्ति अवसर, सुख और सुविधाओं के लिए विदेशों में जाकर बस रहे हैं। लाखों परिवार हैं, जिन्हें इस बात पर गर्व है कि उनके बच्चे विदेशों में हैं। क्या यह सच नहीं है कि इस समय जो जितना अमीर या क्षमतावान है, उसमें उतना कम देशप्रेम है?
‘रंगभूमि’ में उद्योगीकरण के लिए सूरदास की जमीन छीन ली जाती है। अंग्रेजी सत्ता जॉनसेवक के साथ है। इस उपन्यास में विस्थापन का दर्द पहली बार व्यक्त हुआ है। प्रेमचंद ने सूरदास के झोपड़े का चित्र दिखाने के साथ-साथ जमींदार कुंवर भरत सिंह के भवन का वर्णन किया है। वहां बाग-बगीचों के अलावा हैं, ‘दीवारों पर मनोहर पच्चीकारी, कमरों में दीवारों पर बड़े-बड़े आदमकद आईने… जापान, चीन, यूनान और ईरान की कला निपुणता के उत्तम नमूने, सोने के गमले, लखनऊ की बोलती हुई मूर्तियां, इटली के बने हुए हाथीदांत के पलंग…।’ इस चित्र को मुंबई में बने 27 मंजिले एंटीलिया तक लाया जाए तो छवि कुछ ऐसी है-चार लाख वर्गफुट का निवास स्थान, 160 गाड़ियां रखने का गैरेज, तीन मंजिलों का हैलीपैड, 600 नौकर-चाकर आदि!
एक समाचार है, दिल्ली के एक सरकारी आवास के सिर्फ नवीकरण पर लगभग चालीस करोड़ रुपये खर्च हुए हैं- नए पर्दे, टाइल्स, फर्नीचर और भव्य साज-सज्जा पर। आखिर यह कैसा सौंदर्यबोध पनप रहा है, जो ‘कृत्रिम जीवन-निम्न विचार’ ला रहा है? बाहर की कृत्रिमताएं हमेशा अंदर के खोखलेपन का प्रतिबिंब होती हैं।
आज भवनों, स्मारकों, मंदिर-मस्जिदों, सड़कों की रोशनी, गृह सज्जा, मॉल आदि जगहों पर सुंदरीकरण की धूम है। सब सुंदर से सुंदर हो। यहां तक कि जब होटलों में खाने की सजी डिश आती है, कइयों के मुंह से निकलता है, ‘वाउ, कितना सुंदर’! देखोगे या खाओगे? आजकल सौंदर्य ज्यादातर आतंक पैदा करने के लिए होता है। वह सोचने से रोकता है और बौद्धिक निद्रा का औजार बन जाता है। कई बार ऐसे सौंदर्य से कुरुचि और विचारों की दरिद्रता झांकती है। भरपूर देखना नहीं होता।
आज हर जगह सब विराट, ऊँचा और किसी बड़े आश्चर्य की तरह चाहिए, सिर्फ विचारों की दुनिया को छोड़कर, क्योंकि यहां संकीर्णता ही सुंदर है! प्रेमचंद ने लिखा, ‘हमें सुंदरता की कसौटी बदलनी होगी।’ उन्होंने ‘पंच परमेश्वर’ के न्याय, ‘ईदगाह’ के चिमटे, और ‘रंगभूमि’ में सूरदास की अविचलित दृढ़ता में सौंदर्य देखा। ‘गोदान’ में वे ब्राह्मण मातादीन के दलित सीलिया से जन्मे अपने बच्चे से प्रेम में सौंदर्य रचते हैं। बदल चुका मातादीन साहस के साथ अपने दोनों हाथों में बच्चे का शव लेकर जाता है।
प्रेमचंद ने धनिया के गुस्से में और मेहता की सुख की चीजों का इस्तेमाल करते समय होने वाली मध्यवर्गीय आत्मग्लानि में सौंदर्य देखा। इस तरह के सौंदर्य में एक अलग आनंद है। प्रेमचंद के हिंदुस्तान में एक उदात्त सौंदर्यबोध विकसित हो रहा था, जिसमें ‘स्माल इज ब्यूटीफुल’ की चेतना थी।
21वीं सदी का कृत्रिम सौंदर्यशास्त्र सुंदरता, सृजनात्मकता और जीवन के बारे में धारणाओं को तेजी से बदल रहा है। कृत्रिम सौंदर्यशास्त्र विचारों पर गहरा असर डाल रहा है। आम आदमी बड़ी-बड़ी चीजें देख रहा है, पर उसकी सोच में मानवता का खुला आकाश नहीं है। उसमें स्पेस का अभाव है, जिससे भावनाओं के सौंदर्य में ह्रास आया है।
क्या हम सौंदर्य को पहचानने की शक्ति खोते जा रहे हैं? साहित्य से दूर हो जाने पर सौंदर्यबोध सीमित हो जाता है। इसलिए कहने की इच्छा होती है, सौंदर्य का हमारा अर्थ लौटा दो!
अतीतवाद के पहाड़ हिले थे
राष्ट्रीय आंदोलन के दिनों में स्त्रियों ने आवाज उठानी शुरू कर दी तो अतीतवाद के पहाड़ हिले, नदियां मुस्कराईं और इतिहास ने उनके लिए दरवाजा खोल दिया। प्रेमचंद को यह सब अच्छा लग रहा था, ‘जायदाद और शिक्षा की कोई कैद उन्हें पसंद नहीं और राष्ट्रीय एकता का जितने जोर से स्त्रियों ने हर अवसर पर समर्थन किया है, उसपर बहुमत से हिंदू और मुसलमान पुरुषों को लज्जित होना पड़ेगा। जिन महानुभावों को हमारी देवियों की विचारशीलता पर संदेह था, उन्हें अपने विचारों में तरतीम करनी पड़ेगी।’ आमतौर पर स्त्रियां जितनी धार्मिक रही हैं, उतनी ही वे अ-सांप्रदायिक भी रही हैं। भले आज की स्थिति कुछ भिन्न हो। फिर भी कोई दंगा स्त्रियों से पूछकर नहीं हुआ!
उल्लेखनीय है कि उस जमाने के दलितों और स्त्रियों के सामने अपने-अपने सामुदायिक मुद्दों के साथ ‘राष्ट्र’ के मुद्दे भी महत्वपूर्ण थे। वे बड़े पैमाने पर मिलकर उपनिवेशवाद-विरोधी स्वाधीनता आंदोलन में शामिल थे। इसका बड़ा दृश्य ‘कर्मभूमि’ में है।
एक बार जब नागपुर में दलितों के लिए अलग छात्रावास बनाया गया, प्रेमचंद ने टिप्पणी की, ‘इससे तो अछूतपन मिटेगा नहीं और दृढ़ होगा। उन्हें तो साधारण छात्रावास में बिना विचार के स्थान मिलना चाहिए।’(1932)। प्रेमचंद के कथा साहित्य में स्त्री और दलित पहली बार विस्तार से बोलते हैं और उनकी आवाज में एक व्यापक अपील है।
गोदान का एक दृश्य याद आ रहा है। खन्ना की मिल में श्रमिकों का वेतन आधा कर दिया जाता है। गोबर सहित सभी श्रमिक हड़ताल करते हैं, लेकिन मिल के बाहर ऐसे बेरोजगारों की भीड़ खड़ी हो जाती है जो पहले से आधी मजदूरी पर भी काम करने के लिए तैयार हैं। दोनों श्रमिक समूहों के बीच हिंसक संघर्ष शुरू हो जाता है। गोबर सहित कई लोग घायल हो जाते हैं। आज वैश्वीकरण के युग में फिर श्रमिकों की वैसी ही दुर्दशा है। वे आवाजहीन हैं।
राष्ट्रीय आंदोलन में ऐसा बहुत कुछ था, जो दिखावा था। प्रेमचंद ने इसपर टिप्पणी की, ‘अभी जो कुछ हो रहा है, उसमें दिखाने का भाव ही प्रधान है और दिलों की सफाई अभी बहुत दूर की बात है।’ सबसे महत्वपूर्ण बात है, मन में जमी हजारों साल की मैल छुड़ाना। हम जिस आईने में अपना चेहरा देखते हैं, उसे साफ करते रहना जरूरी है। गौर करने की चीज है कि प्रेमचंद के दलित पात्रों की आंखों में घृणा की जगह जुझारू मनुष्यता की ज्योति है। वे प्रति-घृणा में समस्या का समाधान नहीं पाते और प्रति-घृणा से समाधान आज भी नहीं हो पा रहा है, क्योंकि एक अति-बड़ी धार्मिक घृणा बाकी घृणाओं पर भारी हो गई है।
क्या नागरिक समाज में ऊंचे आदर्शों की वापसी संभव है
प्रेमचंद ने यह सवाल उठाया था, ‘सभी दल अपनी-अपनी रक्षा करेंगे, राष्ट्र की रक्षा कौन करेगा?’ आज धर्म, जाति, प्रांतीयता की बढ़ी दीवारों के कारण सिविल सोसाइटी के विघटन की बात कही जाती है। ‘गोदान’ की नगर कथा में नागरिक समाज के संगठित होने का एक महत्वपूर्ण वृत्तांत है। इसमें रायसाहब और खन्ना के अलावा मेहता, मालती, खुर्शीद, ओंकारनाथ, तंखा जैसे बुद्धिजीवी हैं। रायसाहब के घर एक पार्टी में मालती अपने समय के नागरिक समाज का परिचय देती है, ‘हममें से कोई ब्राह्मण नहीं है, कोई शूद्र नहीं है, कोई हिंदू नहीं है, कोई मुसलमान नहीं है, कोई ऊँच नहीं है, कोई नीच नहीं है।… जो लोग भेदभाव में विश्वास रखते हैं, जो लोग पृथकता और कट्टरता के उपासक हैं, उनके लिए हमारी सभा में स्थान नहीं है।’ रायसाहब के महल की यह सभा रासरंग में डूबे नागरिक समाज की है, जिसमें सभी लोगों के अपने निजी हित हैं और स्वतंत्र इच्छाएं हैं और सभी देशप्रेमी भी हैं! क्या ऐसे देशप्रेमी राष्ट्र की रक्षा कर सके?
प्रेमचंद ने नागरिक समाज की विडंबनाओं को उभारते हुए भी बताया है कि इसमें सबकुछ नकारात्मक और बुरा नहीं है। मध्यवर्ग के लोगों में ‘बुरे’ से ‘अच्छा’ बनने की शक्ति है, उनमें आत्मसंघर्ष की प्रवृत्ति है। कई अपने को बदलते हैं। मालती तितली से मधुमक्खी हो गई, वह धनिया के गांव गई। प्रेमचंद ने निम्नवर्ग के चरित्रों के संदर्भ में ‘ट्रैजडी’ और मध्यवर्ग के चरित्रों के मामले में ‘हृदय परिवर्तन’ की शैली चुनी है।
‘गोदान’ में सामाजिक सुधार में लगे बुद्धिजीवियों पर व्यंग्य करने से प्रेमचंद नहीं चूकते, ‘मुझे उन लोगों से जरा भी हमदर्दी नहीं है जो बातें तो करते हैं कम्युनिस्टों की सी, मगर जीवन जीते हैं रईसों-सा, उतना ही विलासमय, उतना ही स्वार्थ-भरा हुआ।’ देखा जाना चाहिए कि आखिर लगभग सौ सालों की यात्रा (1925-2024) के बाद 21वीं सदी में प्रगतिशील-मानवतावादी लोग किन सरणियों से कहां पहुंचे और दूसरी तरफ, अंध-राष्ट्रवादी उन्हीं सौ सालों में किन सरणियों से कहां पहुंचे! देखा जाए तो वर्तमान विपर्यय लोकतंत्र-प्रेमियों के चरित्र के दोहरेपन के कारण घटित हुआ। नियति से मुठभेड़ बिखर गई। प्रेमचंद को अपने समय में इसकी आशंका थी।
फिर भी मध्यवर्ग में ऐसे लोग अभी भी हैं जो व्यवस्था को एक्सपोज करते हैं। दरअसल मध्यवर्ग के बुनियादी अस्तित्व में ‘सहकारिता’ और ‘आपसी द्वंद्व’ दोनों तत्व हैं। हम पाते हैं कि नागरिक समाज के आज भी काफी लोग अपने धर्म, जातिवाद और प्रांतीयता से ऊपर उठे हुए हैं। वे आघात पाकर सामान्य मुद्दों पर इकट्ठे होते हैं, भले निजी हितों को सुरक्षित रखते हुए। उनके बीच कभी हँसमुख तनाव होता है, कभी मार्मिक लगाव!
प्रेमचंद ने चर्चिल से असहमति व्यक्त की
चर्चिल ने कहा, ‘भारत की जनता कोई परिवर्तन नहीं चाहती।’ प्रेमचंद ने इसका विरोध करते हुए लिखा(1932), ‘चर्चिल शायद भूल जाते हैं कि यह बीसवीं सदी है और संसार जिस तरफ जा रहा है, उधर ही भारत का जाना अवश्यंभावी है।’ वे सामंती व्यवस्था के संदर्भ में आशा कर रहे थे, ‘(अंग्रेज) सरकार उसकी कितनी ही हिमायत करे, मगर जनतंत्र के तूफान से उसे बचा नहीं सकती।’
कितने आश्चर्य की बात है कि जिस यूरोप के कारखाने में ‘राष्ट्र’ की धारणा बनी थी, वही भारत को ‘राष्ट्र’ बनने देना नहीं चाहता था, जबकि भारत बहुविभाजित रहते हुए भी स्वाधीनता संग्राम के भीतर से अपने उदीयमान ‘राष्ट्र’ में एक बड़ी मानवता की रचना कर रहा था। इसपर सोचने की जरूरत है कि 21वीं सदी में भारत के उन बढ़ते कदमों को अतीत और पश्चिम के संकीर्ण विचारों ने फिर कैसे जकड़ लिया और पूरी दुनिया फिर एक नई मानवता की ओर कैसे बढ़ेगी।
प्रेमचंद के पीछे कोई सत्ता नहीं है
प्रेमचंद की एक बड़ी चीज आज के समय में खो गई है, जो उनके पात्रों के मन में गूंजती रहती थी- ‘क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?’ आज कोई आदमी जरा भी नुकसान उठा कर सच्ची बात कहने या त्याग के लिए तैयार नहीं है। इसलिए वह कई मुद्दों पर चुप रहता है और अपनी चुप्पी को रणनीति बताता है।
आज जीवन में चुनी हुई चुप्पियों के अलावा नई-नई उपभोक्ता चीजों का आकर्षण है। अब उत्तेजना पैदा किए बिना कुछ भी अधूरा है। मानवीय संबंध अल्पकालिक हो गए हैं। आत्मकेंद्रिक नगर जीवन में प्रत्यक्ष मिलकर बात करने वाले, बहस करने वाले, अड्डा मारने वाले लोगों का अभाव है। अब विकल्प के तौर पर ह्वाट्सऐप, फेसबुक, इंस्टाग्राम जैसे ऐप हैं। जिधर देखो, चटकदार या हिंसक भाषा है, जो किसी के प्रति जवाबदेह नहीं है। कैसे पहुंची हमारी भाषा इस मोड़ पर?
मानवता, लोकतंत्र, राष्ट्रीयता, समाजवाद, विकास, सामाजिक न्याय, विमर्श, धर्म और जनसेवा कैसे बन गए अपराधियों के छिपने की जगहें और ये चीजें क्यों रिक्त होकर चिह्नों में बदल गईं? इस देश, दुनिया और समाज की मूल्यवान चीजों का चिह्नों में बदलना एक बड़ी बौद्धिक रिक्तता की देन है। बौद्धिक रिक्तता लोकतंत्र में घुन का काम करती है।
क्या प्रेमचंद भी चिह्न में बदले हैं? ऐसा नहीं हुआ है, क्योंकि हर चिह्न के पीछे सत्ता होती है- बाजार सत्ता या राज्य सत्ता। सत्ताओं के पास ही चिह्न निर्मित करने की ताकत है, क्योंकि उन्हें छिपने की जगहें चाहिए। प्रेमचंद के पीछ कोई सत्ता नहीं खड़ी है, क्योंकि यह एक असुविधाजनक जगह है। इसलिए आज लोग याद करना नहीं चाहते उनके सूरदास, धनिया, जानकीनाथ, मंगल, हामिद, जाहिद जैसे चरित्रों को, उनके दो बैलों को, उनकी आवाज की साहसिक ईमानदारी को, उनके सादे विद्रोही जीवन को!
इस युग में स्मृतियों, अनुभवों और भविष्य कल्पना की जरूरत सामान्यतः खत्म हो चुकी है, क्योंकि टेक्नोलॉजी तेजी से बदल रही है। चीजें जल्दी पुरानी और गैर-जरूरी हो जा रही हैं। इसलिए सकारात्मक स्मृतियां काम नहीं आ रही हैं, नकारात्मक स्मृतियों का उपयोग भले हो रहा हो। हमेशा एक अनिश्चितता है। सबकुछ बदलते तकनीकी संसाधनों और तात्कालिक जरूरतों पर निर्भर होता जा रहा है। हर दस दिन पर सत्ताएं बताती हैं कि क्या याद करना है और क्या नहीं। इस तरह लोगों की खुद याद रखने और भविष्य कल्पना की क्षमताओं का धीरे-धीरे ह्रास होता जा रहा है, जबकि सिर्फ अ-मानव के लिए ही स्मृतियां और भविष्य कल्पना अर्थहीन हैं।
जाग मच्छिंदर गोरख आया
गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ बौद्ध और हिंदू परंपराओं के बीच पुल की तरह देखे जाते हैं। उनसे जुड़ी एक कथा है। वे एक बार कदलीवन में फंस गए, जो सिर्फ स्त्रियों का स्थान था। यहां वे अकेले पुरुष थे, बाकी सभी स्त्रियां थीं। कदलीवन में भौतिक राग-रंग और भोग की प्रधानता थी। मत्स्येंद्रनाथ आत्मज्ञान भूल गए, सब भूल गए और देह-सुख में लिप्त हो गए। एक दिन जब उनके शिष्य गोरखनाथ ने कदलीवन के बाहर चक्कर लगाते हुए जोर-जोर से आवाज देनी शुरू की-‘जाग मच्छिंदर, गोरख आया’, तब जाकर वे जगे। उनकी स्मृति लौटी और सोचा- कहां भटक गए!
प्रेमचंद को भूलने से पहले यह कथा याद कर लेनी चाहिए। भौतिक बल से दबाई गई सकारात्मक मानवीय स्मृतियां पलटवार करती हैं। वे भविष्य कल्पना के लिए फिर से आदर्श जमीन रचती हैं।
साहित्य हर युग में स्मृतियों और यथार्थ की रोशनी में भविष्य कल्पना का खेल ही तो है!
प्रेमचंद को कभी भी भुलाया नहीं जा सकता। उनके साथ साहित्य का एक बड़ा युग जुड़ा हुआ है। सामाजिक सरोकार रखने वाले, प्रतिगामी एवं संवेदनशील लोगों के लिए प्रेमचंद आज भी प्रासंगिक हैं। संपादकीय लेख में प्रेमचंद की रचनाओं के माध्यम से उनकी असाधारण दूरदर्शिता नजर आती है।वर्तमान समय की समस्याओं के समाधान के लिए हम आज भी उनकी रचनाओं का आधार ले सकते हैं। प्रेमचंद की रचनायें हमारी विविधतापूर्ण संस्कृति की धरोहर हैं।
रोचक और तथ्यपूर्ण संपादकीय!
इसीलिए वह प्रेमचंद है।
मुनासिब बहस, आभार।