शंभुनाथ

प्रेमचंद ने हिंदी प्रांतों के गवर्नर मालकम हेली की एक टिप्पणी ‘भारत 1983 में’ का विरोध करते हुए लिखा था, ‘सर मालकम हेली के विचार में भारत की परंपरा और उसकी संस्कृति प्रतिनिधि (लोकतांत्रिक) शासन के अनुकूल नहीं है। यह कथन हमें चिंता में डाल देता है।… यह मानव प्रकृति की समानता को अस्वीकार करना है।’ (विविध प्रसंग-2)। अंग्रेज भारतीय परंपराओं में प्रेम, स्वतंत्रता और न्याय के आदर्श न देखकर असभ्यता देखते थे। वे कहते थे कि उन्होंने ही भारत को ‘स्थिरता’ से मुक्त कर ‘परिवर्तन’ से परिचित कराया। कुछ यही घटना 21वीं सदी की है, जब कहा जाता है कि ‘आवाजें’ अब उठी हैं या ‘स्वतंत्रता’ अब मिली है!

31 जुलाई को प्रेमचंद जयंती है। बहुतों को लगता है कि प्रेमचंद बैलगाड़ी युग के कथाकार हैं, जबकि यह रॉकेट और सेटेलाइट का युग है। आमतौर पर इन दिनों लोग प्राचीन और आधुनिक काल के महान कवियों, दार्शनिकों, लेखकों और उनकी उच्च परंपराओं को याद नहीं करते। कुछ वे ‘तत्काल के सुख’ में डूबे होते हैं और कुछ उन्हें उच्च परंपराओं के सामने खड़े होने पर नंगा दिखने का डर होता है!

देश की महान परंपराओं से विच्छेद को स्मृति-ध्वंस कहा जाता है, लेकिन इसे एक बड़े परिप्रेक्ष्य में समझने की जरूरत है। यह अचानक नहीं हुआ कि लोग जो सामने दिखता है, उसके बाहर अब कुछ नहीं सोचते। कई वर्तमान के इस तरह कैदी हैं कि उनका भविष्य ही नहीं, अतीत भी पूर्णतः छिन गया है। उनका ‘अपरूटेड’ होना आत्म-विच्छिन्नता है, यह अपने देश को धीरे-धीरे बाजार में खो देना भी है।

परंपराएं संवाद करती हैं

प्रेमचंद युग की खूबी है कि उस दौर में नए परिवर्तनों को अपनाने के साथ परंपराओं से भी व्यापक संबंध बन रहा था और परंपराओं को आलोचनात्मक समावेशिकता में देखा जा रहा था। यह दूसरे को अपने छाते के नीचे लाना नहीं, बल्कि हर व्यक्ति खुद अपना आत्मविस्तार चाहता था। वह कृत्रिम भिन्नताओं और संकीर्णताओं से बाहर निकलना चाहता था। परंपरा और आधुनिकता को सम्मिलित कर एक मिश्रित भारतीय अंतर्दृष्टि बन रही थी, एक राष्ट्रीय साझेपन का निर्माण हो रहा था। इसी दौर में गांधी ने कबीर का ‘चरखा’ और तुलसी का ‘रामराज्य’ दोनों को एकसाथ चुना था। दरअसल भारतीय परंपराओं के बीच टकराव ही नहीं, संवाद और अंतर्मिश्रण की घटनाएं भी रही हैं।

प्रेमचंद ने प्रसाद के ऐतिहासिक नाटकों को ‘गड़े मुर्दे उखाड़ना’ कहा, पर बाद में उनकी सराहना की और ‘कंकाल’ उपन्यास की प्रशंसात्मक समीक्षा भी लिखी। एकबार जैनेंद्र कुमार ने प्रेमचंद के समक्ष ‘प्रेमचंद स्कूल’ और ‘प्रसाद स्कूल’, दो भिन्न दृष्टियों की मौलिक सूझ पेश की। प्रेमचंद ने उन्हें अपने पत्र में जवाब दिया, ‘मैं तो कोई स्कूल नहीं मानता। आपने ही एकबार प्रसाद स्कूल-प्रेमचंद स्कूल की चर्चा की थी। शैली में जरूर कुछ अंतर है, पर वह अंतर कहां है, यह मेरी समझ में खुद नहीं आता।… प्रसाद जी के यहां गंभीरता और कवित्व अधिक है। ‘रियलिस्ट’ हममें से कोई नहीं है। हममें से कोई भी जीवन को उसके यथार्थ रूप में नहीं दिखाता, उसके वांछित रूप में ही दिखाता है। मैं नग्न यथार्थवाद का प्रेमी नहीं हूँ।’ (जैनेंद्र कुमार, ‘ये और वे’)। कई व्यक्तियों ने प्रसाद और प्रेमचंद की वह तस्वीर देखी होगी, जिसमें वे मुस्कराते हुए साथ खड़े हैं!

प्रेमचंद और छायावाद एक ही युग की घटना थे। वे विपरीत परंपराएं नहीं हो सकते थे। फिर भी शिक्षा और साहित्य के संसार में ‘प्रेमचंद स्कूल’ में यशपाल, नागार्जुन आदि को रखकर तथा ‘प्रसाद स्कूल’ में जैनेंद्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा आदि को रखकर लंबे समय तक व्यर्थ का विवाद चलता रहा है। मानो एक समूह रूस हो और दूसरा अमेरिका!

साहित्यिक परंपराओं को इकहरेपन में देखने की विडंबनापूर्ण घटनाओं का यहीं अंत नहीं हुआ। आधुनिकतावादियों ने प्रसाद के साथ-साथ प्रेमचंद से भी नाता तोड़ लिया। राजेंद्र यादव ने  ‘हंस’ का उपयोग किया हो, पर प्रेमचंद को नहीं माना। उन्होंने इनके योगदान को महत्व न देते हुए लिखा, ‘प्रेमचंद एक बिंदु के बाद अपने को एक विचित्र अंधी गली में पाते हैं।… और उसी समय कुछ लोग ऐसे थे जिन्होंने खतरे को सूंघ लिया था।… प्रेमचंद की कहानियां आदमी और परिवार, आदमी और समाज के रिश्तों में कहीं कुछ गड़बड़ा जाने, उनके टूटने की कहानियां हैं, जिन्हें वे आदर्शवाद, सुधारवाद और हृदय परिवर्तन के सरेस से बार-बार जोड़ते हैं और अंत में हारकर प्रयत्न छोड़ देते हैं।’ (प्रेमचंद की विरासत)। प्रेमचंद वस्तुतः राष्ट्रीय आंदोलन में राष्ट्र और हाशिया (स्त्री, दलित और किसान) के बीच कमजोर रिश्तों को लेकर चिंतित थे। इसके अलावा, वे सांप्रदायिक सौहार्द के प्रबल पक्षधर थे।

पश्चिमीकरण और कूपमंडूकता के बीच सैंडविच होना

प्रेमचंद रवींद्रनाथ और हिंदी के छायावादी कवियों की तरह ही अंतरराष्ट्रीयता और वसुधैव कुटुंबकम् के समर्थक थे। हालांकि वे पश्चिमी सभ्यता में रंगते जा रहे कूपमंडूक लोगों को देखकर कहते थे, ‘यूरोप से हमने अगर कुछ सीखा तो वही सीखा, जो उसकी संस्कृति का सबसे निकृष्ट पहलू है। अभी बहुत दिनों की बात नहीं है कि हमें पश्चिम की सभी चीजें अपनी सभी चीजों से बढ़िया लगती थीं। उनका रहन-सहन, उनके रीतिरिवाज, उनके खान-पान-सबमें हमारे लिए एक न रुकने वाला आकर्षण था। यूरोप वाले देर से सोकर उठते हैं, इसलिए हमें भी देर से सोकर उठना चाहिए!… यूरोप वाले खूब शराब पीते हैं, इसलिए शराब पीना भी संसार पर विजय पाने का एक मंत्र है।… वही अपने से नीचे दरजे के आदमियों से पृथक रहने की आदत, वही मुंह में सिगार दबाकर चलना, गरज हमने बंदरों की तरह पश्चिम वालों की नकल शुरू की और अभी तक करते आ रहे हैं।’ (1933 का कथन, विविध प्रसंग-2)। बाहर पश्चिमी जीवन शैली और भीतर अतीत की कूपमंडूकता भारतीय मध्यवर्ग की प्रधान खूबी बनती गई है।

प्रेमचंद ने अतीत की कूपमंडूकता और पश्चिम के अंधानुकरण- दोनों पर प्रहार किया। कहना न होगा कि अंधानुकरण और प्रभाव में फर्क है। भारतीय मध्यवर्ग के लोगों ने आमतौर पर अंधानुकरण को चुना। वे अपने में सुधार लाने की जगह धार्मिक-जातिवादी रूढ़ियों से जकड़े रह गए। गौर किया जा सकता है कि रवींद्रनाथ अपने अंतरराष्ट्रीयतावादी झुकावों के बावजूद पश्चिमी शैली के अनुकरण में नहीं फंसे। शांतिनिकेतन में देशज परिवेश था। उनका जो लंबा चोंगा जैसा पहनावा था, वह कई देशों की पोशाकों का मिश्रण था और अनोखा था। उनकी उदार दृष्टि में भी इतना मिश्रण था कि यहां यदि वेदांत था तो कबीर भी थे और बाउल भी!

प्रेमचंद लिखते हैं, ‘जीवन क्या है? जीवन केवल जीना, खाना, सोना और मर जाना नहीं है!’(कुछ विचार)। उनकी एक गहरी चिंता है, ‘संसार में अनेक मतों और धर्मों और करोड़ों धर्मोपदेशकों के रहते हुए भी जितना वैमनस्य और हिंसा भाव है, उतना शायद पहले कभी नहीं था। आज दो भाई एकसाथ नहीं रह सकते।’ (1933, वही)। देश का हाल जानने के लिए यह उदाहरण भी देखा जा सकता है :1932 में काशी के वर्णाश्रम स्वराज्य संघ ने एक आंदोलन शुरू किया था, ‘अछूतों को मंदिर में जाने देना पाप है’। उसने वाइसराय के पास डेपुटेशन भी भेजा कि वे हिंदू मंदिरों की अछूतों से रक्षा करें। प्रेमचंद ने वर्णाश्रम स्वराज संघ का विरोध किया। वे इस अवसर पर वेदांत का उदाहरण देते हैं, ‘संपूर्ण ब्रह्मांड में एक आत्मा व्यापती है।’

विभिन्न परंपराओं का ज्ञान मानसिक परिधि का विस्तार करता है

भारत विविधताओं से भरा देश है, जहां परंपरा की व्याख्या को लेकर कई तरह की गलतफहमियां हैं। हजारी प्रसाद द्विवेदी ने परंपरा की सबसे अच्छी व्याख्या की है, ‘परंपरा का शब्दार्थ है एक का दूसरे को, दूसरे का तीसरे को दिया जाने वाला क्रम। वह अतीत का समानार्थक नहीं है।… परंपरा से हमें समूचा अतीत नहीं प्राप्त होता। उसका निरंतर निखरता- छंटता-बदलता रूप प्राप्त होता है।’ (परंपरा और आधुनिकता)। स्पष्ट है, रूढ़ि परंपरा का वह छंटा हुआ रूप है जो प्रगति में रुकावट है। रूढ़ि वह है जिससे सत्य खो गया है। रूढ़ि परंपरा का शव है। रूढ़ियां समाज को मुर्दा बनाकर रखती हैं, चाहे वे अतीत की हों या आधुनिक युग की। उनमें नवोन्मेष की शक्ति नहीं होती।

भारतीय परंपराओं को जानने के लिए सबसे पहले बुद्धि की जरूरत है। बुद्धिपरकता के बिना परंपरा अंधे के हाथ का आईना है। रूढ़ियों से भिन्न, परंपराएं बुद्धि से निखरती हैं, प्रयोग से पुनर्नवता हासिल करती हैं और संवाद से विकसित होती हैं। इस तरह पहली सावधानी यह बरती जानी है कि रूढ़ियों को परंपरा न माना जाए।

प्रेमचंद के लिए साहित्य का महत्व इसलिए है कि यह रूढ़ियों और बंधनों से मुक्त करता है। वे लिखते हैं, ‘हम साहित्यकार से यह भी आशा करते हैं कि वह अपनी बहुज्ञता और विचारों की विस्तृति से हमें जाग्रत करे, हमारी दृष्टि तथा मानसिक परिधि को विस्तृत करे।’ (कुछ विचार) अगर यह उद्देश्य हो, तब हम वस्तुतः अन्य परंपराओं की आलोचनात्मक समझ बनाते हैं, उनपर अंध-आक्रमण नहीं करते।

दरअसल उत्तर-प्रेमचंद युग में भारतीय परंपराओं से प्रगतिवाद और आधुनिकता दोनों के रिश्ते  खराब होते गए। आलोचनात्मक समावेशी दृष्टि की जगह अंध-उच्छेदवाद आ गया। परंपरा और आधुनिकता के बीच तनाव पैदा हुआ। अब कइयों को परंपरा से नाता नहीं रखना था, उन्हें सिर्फ वर्तमान चाहिए। कुछ प्रगतिवादी बुद्धिजीवियों और दलित-स्त्री विमर्शवादियों ने और इधर के नव-धार्मिक विमर्शकारों ने भारतीय परंपराओं को संकुचित दृष्टि से देखा। वे प्राचीन अतीत और आधुनिक अतीत की महान पंरपराओं की उपेक्षा करने लगे। महापुरुषों पर कीचड़ उछालने लगे। या उन्हें पिछवाड़े में कर दिया। ऐसे लोगों की मानसिक परिधि का विस्तार अवरुद्ध होने लगा। भारतीय परंपराओं से एक व्यापक विच्छेद घटित हुआ, जो आज चरम पर है।

यदि साहित्यिक दुनिया से उदाहरण रखें, तो कई ‘बनाम’ निर्मित हुए। प्रेमचंद बनाम प्रसाद का मामला पहले से था। कबीर बनाम तुलसी, रामचंद्र शुक्ल बनाम हजारी प्रसाद द्विवेदी, रामविलास शर्मा बनाम नामवर सिंह, अज्ञेय बनाम मुक्तिबोध के खाते भी खुल गए। बनाम के खेल में एक लेखक पूरी तरह त्याज्य और दूसरा पूर्ण नायक होता है। एक की उपलब्धियां और दूसरे की सीमाएं नहीं दिखतीं। इस तरीके से मानसिक परिधि संकुचित होती गई और बुद्धिजीवियों की बौद्धिक-सांस्कृतिक संपदा घटती गई। इस प्रक्रिया में आम लोगों से संपर्क भी टूटता गया। ‘और’ की आलोचनात्मक समझ भारतीय चित्त को बड़ा करती, लेकिन ‘बनाम’ की दृष्टि ने समझ को विकसित होने नहीं दिया।

विमर्शों ने कुछ दबी चीजों को उभारने का काम किया। हर विमर्श में अपने अनुसार चुनकर  किसी खास वर्चस्व और कुछ खास रूढ़ियों पर प्रहार है और बाकी की उपेक्षा है। हर विमर्श में उच्छेदवाद और स्व-महिमामंडन है। सभी विमर्शों में भारतीय परंपराएं व्यर्थ घोषित कर दी गईं, मानो सच्चे भारतीय साहित्य की शुरुआत अब जाकर इन विमर्शकारों के लेखन से हो रही हो। परंपराओं से विच्छेद ने उन्हें स्वानुभव-केंद्रित कर दिया और वस्तुतः कमजोर किया। अपशब्दों का व्यवहार भी हुआ। अपभाषा वहां शुरू होती है, जहां विचार खत्म होते हैं। इसका शैक्षिक-बौद्धिक जगत में जो नतीजा सामने आया, वह है भौतिक समृद्धि-बौद्धिक रिक्तता!

यह एक बड़ी विफलता है कि हाल के स्थानीयतावादी या दलित-स्त्री विमर्श अपने इकहरे संसार से बाहर आकर एक बृहत्तर नैरेटिव की रचना न कर सके, वे एक बड़ा ‘अ-पर’ न खड़ा कर सके। नतीजा यह है कि वे सत्ता-व्यवस्था द्वारा निगल लिए गए। उनकी आवाजें फीकी हो गईं। उन्हें कुछ सीढ़ियां मिल गई हों, थोड़ा बाजार बना हो पर ये खंड-खंड आवाजें कोई नवोन्मेष न ला सकीं। अधिकांश विमर्शकार अपनी विच्छिन्नता में इधर-उधर भटकते रहे और अंततः आवाजें दब गईं।

वैश्वीकरण ने बाजार अर्थव्यवस्था और तकनीकी क्रांति के साथ अपने कदम रखे थे। उसने दुनिया के देशों में संस्कृतियों, परंपराओं और उदार मूल्यों पर भारी असर डाला है। बुरा असर अधिक है। नतीजतन भारतीय परंपराओं की निर्माणात्मक भूमिका में अवरोध पैदा हुए हैं।

वैश्वीकरण आमतौर पर विविधता सहन नहीं करता। अब एक ऐसी अनोखी मायानगरी है, जहां रीतिरिवाज, प्रथाओं और रूढ़ियों में खूब चमक है, पर खासकर महान साहित्यिक-बौद्धिक परंपराएं धूमिल और छिन्न-भिन्न हैं। वे परंपराएं महाकाव्यों की हों या भक्त कवियों की या राजा राममोहन राय, ज्योतिबा फुले, नारायण गुरु, गांधी, विवेकानंद, प्रेमचंद, महादेवी वर्मा आदि की!

जैसे क्रिकेट में गेंदबाज पीछे जाता है

भारत के लोगों ने सामान्यतः पश्चिम और अपने अतीत से वह लिया जो बुरा और रूढ़ि है, और दोनों जगहों का वह छोड़ दिया जो अच्छा और उत्थानशील है। पश्चिम की ओर दिमाग को खुला रखने के बावजूद हमारे देश के अधिकांश लोगों का अतीत के मुर्दा हिस्सों के इर्द-गिर्द चक्कर काटना नहीं छूटा। अतीत का जीवंत सार फिसल गया, हाथ में छिलका रह गया। इस तरह न आधुनिकता-विवेक पनप पाया और न परंपरा-विवेक, जो एक बड़ी भारतीय विडंबना है।

किसी देश या प्रांत के लोगों की पहचान उस देश या प्रांत की परंपराओं से होती है, जो दार्शनिक, सांस्कृतिक और कला-साहित्यिक हैं। इसका अर्थ यह नहीं है कि परंपराएं एक कठोर बाउंडरी बनाती हैं या वे महज पृथकता दिखाने के लिए हैं। प्रथाएं अतीत की ओर देखती हैं, पर परंपराओं का संवाद हमेशा महान भविष्य से होता है। जैसे क्रिकेट के खेल में गेंदबाज पीछे जाता है, आगे की तरफ गेंद फेंकने के लिए!

परंपरा राख को बचाना नहीं है, बल्कि अग्नि-प्रकाश लेकर चलना है। यह अपनी जड़ों से जुड़ना है, जड़ हो जाना नहीं है। परंपराएं प्राचीन या आधुनिक अतीत के ऊंचे आदर्शों से ही नहीं, आमलोगों से भी कनेक्ट करती हैं। ये जीवन की हँसी-खुशी को व्यापक करती हैं। परंपराओं से संपर्क  रूढ़ियों तथा बंधनों से लड़ने के एक दीर्घ इतिहास से जोड़ता है और हरेक को उसकी बौनी छाया से मुक्त करता है।

अतीत परंपरा का अर्थ निर्धारित नहीं करता, उसकी उपस्थिति भले हो। वर्तमान ही परंपरा का अर्थ घोषित करता है और उसे पुनर्नवता देता है। पुनर्नवता पुनरुत्थान नहीं है। इसलिए अपने देश की साहित्यिक-सांस्कृतिक परंपराओं को महज अतीत के स्मारक के रूप में नहीं देखना चाहिए, बल्कि वे वस्तुतः ऐसी स्मृतियां हैं जिन्हें अलग-अलग उद्देश्यों से दबा देने, विरूपित करने या विभाजित करने के बार-बार प्रयत्न हुए हैं।

भारत में मनुष्य-मनुष्य के बीच प्रेम और न जाने कितनी महान धार्मिक और लोकतांत्रिक आवाजों को, देश के नवजागरण के महान व्यक्तित्वों को, शहीदों के स्वप्नों, आकांक्षाओं और वैश्विक आदर्शों को तामझाम से भरे झूठ के शक्तिशाली प्रचारों ने स्मृति से बाहर निकाल फेंका है। स्वेच्छाचारी और व्यक्तिवादी प्रवृत्ति के व्यक्ति ऐसे भी महान पंरपराओं और आम लोक आकांक्षाओं की परवाह नहीं करते। प्रेमचंद भी बहिष्कृत किए गए, क्योंकि अब जोकर ही महान हैं!

रंगभूमिभारतीय आत्म की खोज है

गांधी और प्रेमचंद के युग में भारत का विभाजित ‘आत्म’ जुड़ रहा था। वह अपने मिथ्या अंतर्विरोधों से उबरते हुए एक होकर बोलना शुरू कर चुका था। इस दौर में राष्ट्रबोध के साथ-साथ राष्ट्र और हाशिए के संवाद को प्रेमचंद ने अपनी कई कृतियों के अलावा अपने उपन्यास ‘रंगभूमि’ (1925) में रखा है। इसका केंद्रीय चरित्र एक दलित मंगता-गवैया सूरदास है जो कबीर, मीरा, दादू, कमाल, पलटू आदि संतों को गाता था। उसने गांव के लोगों के उपयोग में आने वाली अपनी जमीन बचाने के लिए व्यापारी, जमींदार और अंग्रेजी राजसत्ता की एक बड़ी ताकत से संघर्ष ठान लिया। उसे उसकी जमीन से सिगरेट का कारखाना लगाने के लिए विस्थापित किया जा रहा था। वह इसके लिए किसी कीमत पर तैयार नहीं था।

‘रंगभूमि’ है तो विस्थापन की समस्या पर, लेकिन यह उपन्यास मुख्यतः ‘भारतीय आत्म’ की खोज है। सूरदास जिस तरह लड़ रहा था और अपने भीतर जैसा अग्नि-प्रकाश लेकर लड़ रहा था, प्रेमचंद दिखाना चाहते थे कि आखिरकार भारत कैसे लड़ सकता है। उनकी दृष्टि में हर लड़ाई ही नवनिर्माण के साथ जो कुछ मूल्यवान है उसको बचाने से जुड़ी है। वे सूरदास की जमीन के लिए लड़ाई को प्रेम, स्वतंत्रता और न्याय के एक अनोखे राष्ट्रीय संग्राम में बदल देते हैं।

‘रंगभूमि’ का सूरदास एक हड्डी का आदमी था। लेकिन ‘वह यथार्थ में खिलाड़ी था- वह खिलाड़ी जिसके माथे पर कभी मैल नहीं आया, जिसने कभी हिम्मत नहीं हारी, जिसने कभी कदम पीछे नहीं हटाए, जीता तो प्रसन्नचित्त रहा, हारा तो प्रसन्नचित्त रहा, हारा तो मारने वाले से कीना नहीं रखा, जीता तो हारनेवाले पर तालियां नहीं बजाई, जिसने खेल में सदैव नीति का पालन किया, कभी धांधली नहीं की।… कभी तन पर वस्त्र पहनने को नहीं मिला पर हृदय धैर्य और क्षमा, सत्य और साहस से भरा हुआ था। देह पर मांस नहीं था पर हृदय में विनय, शील और सहानुभूति भरी हुई थी।’ एक लड़ाई इस तरह भी होती है!

‘रंगभूमि’ का सूरदास 20वीं सदी के तीसरे दशक की एक ऐसी व्यापारिक शक्ति से टकरा रहा था जिसके साथ सामंतवाद और आधुनिक राजसत्ता मजबूती से खड़े थे। सूरदास के पास आज जैसा ‘कौशल’ नहीं था। वह न आज जैसा ‘कैलकुलेटिव’ था और न उसका जीवन ‘ड्रामा’ था। सूरदास का मूल गुण था, ‘न्याय-प्रेम, सत्यभक्ति, परोपकार, दर्द या उसका जो नाम रख लीजिए। अन्याय देखकर उसे रहा नहीं जाता था, अनीति उसे असह्य थी।’ गांधी के समय भारत के अनगिनत लोगों में यह गुण था, वे अन्याय सह नहीं पाते थे। 21वीं सदी में भी एक वैसी ही त्रिमुखी बाजार शक्ति है। सवाल है, क्या इस युग में प्रेम, स्वतंत्रता और न्याय के लिए लड़ने वालों में उपर्युक्त गुण बचे हैं या अब सबकुछ कौशल-निर्भर है? क्या भारत ने अपने को पुनर्उपलब्ध करके खो दिया?

आज टेक्नोलॉजी और सामाजिक भेदभाव के औजारों का उपयोग करके उच्च भारतीय परंपराओं से विच्छेद पैदा किया जा रहा है, जो चिंताजनक है। यदि ‘भारतीय आत्म’ को खो जाने से बचाना है, प्रेमचंद के सूरदास जैसे चरित्र के गुणों को जीवन में थोड़ी जगह देना जरूरी है। भारत के लोगों में यदि न्याय से प्रेम, दूसरों का दर्द समझकर उपकार की भावना और अन्याय के प्रति असहिष्णुता जैसे गुण ही खत्म हो जाएंगे तो भारत उखड़ जाएगा। प्रेमचंद ने एक बार पूछा था, ‘क्या बिगाड़ के डर से ईमान की बात नहीं कहोगे?’ इस सवाल के सामने हरेक को खड़ा होना चाहिए।

क्या शिक्षित होने का अर्थ चालाक होना है

प्रेमचंद देख रहे थे कि शिक्षा उदारवाद की जगह खुदगर्जी ला रही है। मध्य वर्ग, ‘झूठे आडंबर और बनावट की जिंदगी का, इस व्यावसायिक और औद्योगिक प्रतियोगिता का इतना प्रेमी हो गया है कि उसकी बुद्धि में सरल जिंदगी का विचार आ ही नहीं सकता।… काश ये यूनिवर्सिटियां न खुली होतीं, काश आज इनकी ईंट से ईंट बज जाती तो हमारे देश में द्रोहियों की इतनी संख्या न होती।… हमारा तजरबा तो यह है कि साक्षर होकर आदमी काइयां, बदनीयत, कानूनी और आलसी हो जाता है।’ उच्च शिक्षा व्यवस्था के प्रति कुछ ऐसा ही उग्र स्वर रवींद्रनाथ का भी था।

दरअसल आज का विपुलसंख्यक मध्यवर्ग भारतीय विरासत का सब अच्छा छोड़ चुका है और पश्चिम का वह सब जो बुरा है, उसे अपना चुका है। एलीट लोग न सिर्फ सामाजिकता से निर्लिप्त हैं, बल्कि वे अन्याय देखकर सामान्यतः उत्तेजित नहीं होते। अब उनमें आधिपत्य-प्रेम ज्यादा है। वे आत्मसेवा में डूबे रहते हैं।

प्रेमचंद के उपन्यासों और कहानियों से हम जानते हैं कि मेहनत, सादगी और जनसक्रियता किस तरह आदमी को अधिक मानवीय बनाती है, जबकि आज के जमाने का धर्म, शिक्षा और भौतिक समृद्धि किस तरह आदमी से उसकी मनुष्यता छीन लेती है। प्रेमचंद का लेखन परिवार, राष्ट्र और वैश्विकता का सही अर्थ बताता है और स्पष्ट करता है कि साहित्य क्यों है।

प्रेमचंद साहित्य को बड़े अर्थ में लेते हुए कहते हैं, ‘वह उस विद्रोह का नाम है जो मनुष्य के हृदय में अन्याय, अनीति और कुरुचि से होता है।’ इन दिनों न्याय, नीति और सुरुचि के बल में काफी ह्रास आया है। बड़बोलापन बढ़ा है। प्रेमचंद सार्वभौम पतन के दृश्य देखकर दृढ़तापूर्वक कहते हैं, ‘सियासी (राजनीतिक) रहबरों ने जो काम खराब कर दिया है, उसे अदीबों (साहित्यकारों) को पूरा करना पड़ेगा।’ यह कथन फिर से ताजा हो उठा है जब राजनीति धर्म, जाति और प्रांतीयता के डंडे के बिना चल नहीं पा रही है।

साहित्य एक जगह है जहां लेखक हो या पाठक, वह इंसानियत को बचाकर रख सकता है और हारा हुआ सत्य सांस ले सकता है। यहां साहित्य को सांस्कृतिक-बौद्धिक निर्माणों की हजारों छोटी-छोटी दुनियाओं के रूप में देखना चाहिए। साहित्य राजमहल नहीं है, यह आवाज वालों की बस्ती है।

प्रेमचंद हिंदुस्तान को जानने की खिड़की हैं

हिंदी परिवेश का लेखक बड़े विचार रखते हुए भी कितना शक्तिहीन होता है, यह भी प्रेमचंद को देखकर जाना जा सकता है। प्रेमचंद अपनी बेटी के विवाह के दिन मानसिक उथलपुथल से भरे थे। उन्हें विधि-विधान में आडंबर पसंद न थे। अमृत राय ने ‘कलम का सिपाही’ में उनका आत्मसंघर्ष दिखाया है, ‘पत्नी ने कहा-कन्यादान तो आपको करना ही होगा। उन्होंने कहा-कन्यादान कैसा? बेजान चीज दान में दी जाती  है। फिर लड़की का दान कैसा? यह सब मुझे पसंद नहीं।… आखिर कन्यादान का अवसर आया तो डाक्टर भट्ट जाकर उनको जबर्दस्ती गोद में उठा लाए और मंडप में बैठा दिया। फिर भी कन्यादान किया लड़की की मां ने ही, मुंशी जी मूर्तिवत बैठे रहे।’ हिंदू समाज ऐसी बुराइयों से तभी मुक्त होगा, जब लड़कियां खुद विरोध में बोलें कि वे दान की वस्तु नहीं हैं!

प्रेमचंद की मृत्यु से कुछ दिन पहले निराला उनसे मिलने के लिए निकले थे। उन्होंने लिखा है, रास्ते में ‘मुझे बार-बार प्रेमचंद की याद आती रही।… सोच रहा था, प्रेमचंद जी को न मंगलाप्रसाद पारितोषिक मिला, न कोई अभिनंदन। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के सभापति भी नहीं चुने गए।… मैंने (मन ही मन) कहा- मैं भी इसी तरह गुजरूंगा। कुछ काम कर सका तो, नाम-यश मुझे नहीं चाहिए।’ निराला को देखते ही प्रेमचंद ने कहा, ‘अब तो अंतिम विदा है।’ निराला ने अपना संस्मरणात्मक लेख समाप्त करते हुए लिखा, ‘हे ईश्वर, केवल दस वर्ष!’ पर कहां, अब तो प्रेमचंद कुछ दिनों के मेहमान थे!

हिंदी के कई बड़े लेखकों को दुख-रोग से गुजरते हुए बहुत छोटी जिंदगी मिली। खासकर भारतेंदु (34 वर्ष), प्रेमचंद (56 वर्ष), प्रसाद (48 वर्ष) और निराला (61 वर्ष) को। उन सबने रवींद्रनाथ और आजकल के लेखकों जैसा एक भी विदेश भ्रमण नहीं किया। उन्हें बड़े पुरस्कार नहीं मिले और न उन्होंने आजकल के लेखकों की तरह कभी चाहा। वे आत्मप्रचार, दल-आधारित प्रचार से दूर रहे। उन्होंने सिर्फ काम किया और पाठकों पर भरोसा रखा, जो अपने में एक बड़ा संदेश है।

प्रेमचंद हिंदुस्तान को जानने की खिड़की हैं। भारतीय संस्कृति में जो कुछ मृत और जीवंत है, ह्रासमान और विकासमान है, उसके सच्चे चित्र प्रेमचंद के साहित्य में हैं। वे आशावाद से भरे लेखक थे। इसलिए देखते थे कि आम लोगों की जिंदगी में बहुत-सी अच्छाइयां बची हुई हैं। आज के भारत में प्रेमचंद के हिंदुस्तान का ‘बुरा’ बचा हुआ है तो ‘अच्छा’ पूरी तरह मिटा नहीं है। पर वह सब जो अच्छा है, आज गहरे संकट में है। इसलिए इसकी जरूरत महसूस हो सकती है कि जीवन में ऐसी परंपराओं से संवाद बचाकर रखा जाए जो प्रेम, स्वतंत्रता और न्याय का बोध पैदा करती हैं और हमारे चित्त को बड़ा बनाती हैं।