राजेंद्र पटोरिया, नागपुर:‘वागर्थ’ का अप्रैल २०२३ अंक। ‘भारतीय नदियों पर संकट’ (प्रस्तुति : रमा शंकर सिंह) विशेष रूप से पढ़ा।इस पर पहले भी संकट था, आज भी संकट है।यदि सरकार योजनाबद्ध तरीके से प्लानिंग बनाकर पूरी निष्ठा, ईमानदारी एवं समर्पण के साथ इस ओर कदम बढ़ाए तो निश्चित ही भारत खुशहाल हो सकता है।भारत को प्रकृति की जो बहुत बड़ी देन है उसका संरक्षण एवं सदुपयोग होना आवश्यक है।

नदियों, नालों, तालाबों आदि पर अरबों रुपये खर्च होते हैं, पर स्थिति पहले से अधिक बदतर क्यों होती जा रही है, इस पर कारगर बहस और सही चिंतन जरूरी है।अभी भी समय है, हम चेत जाएं, नहीं तो भविष्य हमें कभी माफ नहीं कर पाएगा।नदियों और वृक्षों को बचाने के लिए अनेक आंदोलन हुए।अनेकों ने अपने प्राण तक दिए, आमरण अनशन हो रहे हैं, पर हम जहां के तहां ठहरे हुए हैं।इस ओर सरकार की दृढ़ इच्छा शक्ति कब जागेगी?

बड़े-बड़े भाषणों, नदियों के नाम पर अपार बजट बनाने से कुछ नहीं होगा।पूरे समर्पण एवं पारदर्शिता के साथ इसके विशेषज्ञों को साथ लेकर ठोस नीति बनाकर कार्य करना होगा, तभी आगे कुछ संभव है।हमने बहुत कुछ खोया और खोते ही जा रहे हैं।कई नदियां तो लुप्त हो गईं, कुछ लुप्त होने के कगार पर हैं।स्थिति बहुत भयावह है।नदियों बाबत ‘वागर्थ’ पत्रिका ने आवाज उठाई है, अब देश के हर बड़े-छोटे समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और इलेक्ट्रॉनिक मीडिया पर इस बाबत आवाज उठानी होगी, तब कहीं हम सफल हो पाएंगे।

वार्सन शायर की कविता मन को छू गई।

सिद्धेश, कोलकाता:‘वागर्थ’ का अप्रैल २०२३ अंक।कहानियां पहले पढ़ गया।मुझे यह लिखते हुए खुशी हो रही है कि इस अंक की सारी कहानियां अच्छी लगीं।

कहानी एक संपूर्ण अनुभव है, यह उक्ति इन कहानियों में प्रमाणित हो रही है।खासकर ‘रेशमा’ की लेखिका जसिंता केरकेट्टा के कथन, भाषा, चरित्रों का आकलन और कथानक के अंत का निर्वाह बेहद संपे्रषणीय तथा तथ्यगत है।

दूसरी कहानी हंसादीप की ‘मूक सूरज’ है।इसमें कहीं बनावटी संप्रेषणीयता नहीं है।भाषा सहज और देशीय है, जबकि वे कनाडा में रह रही हैं।ओड़िया कहानी ‘अपना-अपना आकाश’ विस्तार से संवेदनात्मक, विश्लेषणात्मक ढंग से संघर्षों की वैचारिक स्तर पर अपने चरित्रों की कथा कहती है।अनुवादक बधाई के पात्र हैं।

प्रत्येक अंक में हिंदी कहानियों के साथ एक आंचलिक कहानी दी जाए तो बेहतर है।इससे भारतीय भाषाओं की कहानियों के विस्तार का परिचय मिलता है।

सुपरिचित शेखर कपूर की अंग्रेजी कविता भी पठनीय है।हिंदी अनुवाद (उपमा ॠचा) से लगता है कि ये हिंदी में ही लिखी गई है।बधाई!

कथाकार मनीषी जैनेंद्र कुमार पर संस्मरण पढ़ने योग्य है।मोहनदास नैमिशराय से अनुरोध है कि वे इसे विस्तार से कहीं लिखे।इनके बारे में पढ़कर प्रेरणा मिलती है।यह अंक कई अन्य अंकों से कहीं अधिक समृद्ध और संग्रहणीय है।

गुरबख्श सिंह मोंगा, मोहाली:‘वागर्थ’ अप्रैल अंक।हंसादीप की कहानी ‘मूक सूरज’ अद्भुत है।विमर्श की विषयवस्तु सीनियर सिटीजन की अवस्था के साथ जुड़ा हुआ उसके अकेलेपन और नम्रता की है।उपर्युक्त गुणों के बावजूद कोई अहंकारी व्यक्ति कैसे उसे प्रताड़ित कर सकता है, वह भी जिसे उस बजुर्ग महिला ने प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कभी कुछ नहीं कहा, यह इस कथा का सार तत्व है।एक अलग तरीके से समाज को खरी बात कहने के लिए लेखिका को साधुवाद।

जसिंता केरकेट्टा की कहानी ‘रेशमा’ नारी विमर्श को आगे बढ़ाती बेमिसाल कथा है।इसमें आदिवासी समाज की गरीबी, अनपढ़ता और लाचारी का सटीक विवरण है, जिसे लेखिका ने बेहतरीन ढंग से प्रस्तुत किया है।

नौशीन परवीन, छत्तीसगढ़:‘वागर्थ’ अप्रैल अंक।भारतीय भाषा परिषद की पूरी टीम को इस सुंदर अंक के लिए बधाई।मेरे लिए कविताएं अंक का सबसे महत्वपूर्ण भाग हैं।सबसे पहले मैं कविताएं ही पढ़ती हूँ। ‘स्त्री त्याग के लिए बनी’ (गोविंद भारद्वाज) कविता ने सबसे ज्यादा प्रभावित किया। ‘मैन ऑफ द होल का मरना’ (जनार्दन), ‘स्त्रियां जब घर बदलती हैं’ (सूर्य देव रॉय), ‘प्रेम के लौटने पर’ (वियोगनी ठाकुर), नई पीढ़ी के कवियों ने अपनी इन रचनाओं में स्त्री मन के भीतर की कई परतों एवं दुखों को उजागर किया है। ‘अंधेरा’ (ब्रजेश कृष्ण), जिंदगी के अंधेरे का रंग होता है बहुत डरावना, ‘फिर भी दिल हिंदुस्तानी’, (अशोक अंजुम) गजल अच्छी लगी।

ताइवानी कविताएं एक अलग छाप छोड़ रही हैं। ‘भविष्यवाणी’ कविता एक ही नज़र में अपनी ओर खींचने को मजबूर कर रही है।

कहानियां- ‘रेशमा’ (जंसिता केरकेट्टा) आदिवासी युवा लेखिका की इस कहानी में एक स्त्री के मर्मस्पर्शी यथार्थ का विवरण है।कहानी में स्त्री के दर्द को उजागर किया गया है। ‘छुई-मुई (सुशांत सुप्रिय) कहानी में धनिया और उसके दोस्तों के साथ बहुत बुरा हुआ।विशेष रूप से अपना-अपना आसमान (गौरहरि दास) कहानी अच्छी लगी। ‘रांग नंबर’ (राजेश पाठक) लघुकथा अच्छी लगी।परिचर्चा ‘भारतीय नदियों पर खतरे’ के अलावा समीक्षा संवाद सार्थक लगा।

विवेक सत्यांशु, इलाहाबाद:‘वागर्थ’ का अप्रैल अंक प्राप्त हुआ, आभारी हूँ।दूसरे पृष्ठ पर लालन फकीर की कविताएं पढ़ने को मिलीं, जो अदभुत हैं।ये समय, जाति-व्यवस्था, पाखंड पर क्रांतिकारी ढंग से चोट करती कविताएं हैं, जो अंक को विशिष्ट बनाती हैं।

आज हिंदी आलोचना की स्थिति बहुत दयनीय है।रचनात्मकता के आधार पर रचनाकार का मूल्यांकन नहीं हो रहा है, वरन साहित्येतर तत्व ज्यादा प्रमुख हो गए हैं।

कहानियां, कविताएं सभी पठनीय हैं। ‘रेशमा’ कहानी दुर्लभ संवेदना का यथार्थ प्रस्तुत करती है।आदिवासी लेखिका जसिंता केरकेट्टा ने आदिवासी स्त्रियों की दुर्दशा को संवेदनात्मक धरातल पर प्रस्तुत किया है।जैनेंद्र कुमार पर मोहनदास नैमिशराय का संस्मरण इस समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करता है।शेखर कपूर की कविताएं नए विचार प्रस्तुत करती हैं।समीक्षा संवाद पूरा सार्थक है।नरेंद्र पुण्डरीक का यह कहना- ‘दुख मुझे सर्वाधिक प्रभावित करता है’ पढ़कर बांदा के ही प्रसिद्ध कवि केदारनाथ अग्रवाल की कविता की यह पंक्ति याद आती है-‘दुख ने मुझको जब-जब तोड़ा/मैंने अपने सूनेपन को कविता की/ममता से जोड़ा।’

राजीव कुमार अग्रवाल, कोलकाता:‘वागर्थ’ के मार्च, २०२३ के अंक में प्रकाशित मनोरंजन व्यापारी की कहानी ‘जो मरने के लिए बचे थे’ ने दिल में तूफान मचा दिया।आधुनिक और प्रगतिशील भारत में इस तरह का भयानक दृश्य कल्पना से बाहर है।दो जून की रोटी के लिए मनुष्य मनुष्यता को दांव पर लगाने को मजबूर हो जाता है।समाज भी इसका पूरा फायदा उठाता है।

लघु कहानी ‘वजूद’ आज के सत्य को उद्घाटित करती है।

कुलदीप सिंह भाटी: अप्रैल अंक में दशरथ  कुमार सोलंकी की कविताएँ उत्कृष्ट हैं।आनंद आ जाता है पढ़कर और प्रेरणा के पुष्प खिल जाते हैं स्वतः ही।

विजय सिंह नहाटा: अप्रैल अंक में हंसा दीप की कहानी ‘मूक सूरज’ एक बार में पढ़ गया।कहानी का संदेश पाठक तक अधिक खुलासे से संप्रेषित हो सकता था।मुझे नहीं मालूम इस कहानी का क्या मैसेज है, जबकि कहानी अंत तक रोचक और पैट्रीशिया के प्रति सहानुभूति से सराबोर है।हंसा मेरी प्रिय कहानीकार हैं।वे ही बताएं।

सुरेश सौरभ, लखीमपुर खीरी:‘वागर्थ’ का अप्रैल अंक।इस अंक की कहानियां, लेख बड़े सुंदर रहे।कहानी ‘रेशमा’ नएपन के साथ आदिवासी विमर्श के एक नए पहलू को खोलती है।नदियों पर परिचर्चा बेहतरीन रही।नई कविताओं को अधिक स्थान न देकर लघुकथाएं एवं छोटे हास्य-व्यंग्य भी शामिल करें।

अरविंद आशिया: अप्रैल २०२३ अंक।जसिंता केरकेट्टा, तुम्हारी सोच और शब्दों को सलाम! रेशमा और उसकी माँ के ज़रिए महिला की बेबसी इस पुरुष प्रधान समाज में बख़ूबी उकेरी तुमने अपनी कहानी में।महिला को मनुष्य मानना ही शायद समाज में सबसे बड़ी चुनौती है, वरना वह सिर्फ ‘महिला’ ही मानी जाएगी .. और पुरुष सबकुछ।

रक्षा गीता: अप्रैल अंक में प्रकाशित जसिंता केरकेट्टा की बहुत सीधी-सादी सरल कहानी अत्यंत गंभीर गहन बात कह जाती है।चिंतन के कितने आयाम पीछे छोड़ जाती है।कितनी विचित्र बात है न कि सभ्यता के चिह्नों ने आदिवासी दुनिया पर भी विकृतियों के भद्दे दाग छोड़ दिए हैं।पढ़ा करते हैं कि आदिवासी समाज में स्त्रियां सुरक्षित हैं, उनके अधिकार सुरक्षित हैं, लेकिन यह कहानी पढ़ने के बाद मन भीतर से दहल गया।आदिवासी समाज में स्त्री पुरुष जीवन के उन्मुक्त संबंध में इस तरह की गिरावट सभ्यता पर फिर से चिंतन करने की मांग करती है।मैं हमेशा ‘सभ्य’ शब्द को स+भय यानी भय सहित मानती हूँ, मेरा यह विचार तथाकथित सभ्य समाज में व्याप्त विकृतियों को देखकर ही बना है।रेशमा की आत्मा के संवादों ने कहानी के मर्म, आदिवासी समाज के बदलते स्वरूप को बेहतर ढंग से व्यक्त किया है।

हिमांशु ठक्कर: अप्रैल अंक में ‘भारतीय नदियों पर संकट’ पर परिचर्चा चित्ताकर्षक है।राइट अप पर रोचक अंतर्दृष्टि प्रदान करते हैं।इनमें दो प्रमुख पहलू नदारद हैं : नदियों का विज्ञान और नदियों का शासन।

सुझाए गए समाधानों में कई प्रासंगिक हैं, पर ये कोई रोड मैप प्रदान नहीं करते हैं कि ये लक्ष्य कैसे प्राप्त किए जा सकते हैं।सोच की सीमा है।

तुलिया कुमारी: अप्रैल अंक में प्रकाशित राजेश पाठक की लघुकथा ‘रांग नंबर’वर्तमान समय की सामान्य-सी दिखने वाली मुख्य समस्या है, जिसे लेखक ने बखूबी प्रस्तुत किया है।संवाद खत्म होने के कारणों में मोबाइल भी एक मुख्य कारण है, जो गंभीर समस्या है।