शंभुनाथ
साहित्य महज कुछ लिखना नहीं है, बल्कि यह दुनिया में प्रेम और स्वतंत्रता की खोज है जो कई बार अकेला कर देती है। फिर भी साहित्य लिखना और पढ़ना जरूरी है, क्योंकि यह जीवन की सुंदरताओं को बचाकर रखनेवाली मनुष्यता की सबसे सच्ची अभिव्यक्ति है।
साहित्य का खो जाना सभ्यता की आत्मा का मर जाना है, जैसे तेज रोशनी में अंधेरा छाया हो। इन दिनों दुनिया तेजी से बदल रही है। बाजार ने प्रेम और स्वतंत्रता को वस्तुओं में सीमित कर दिया है। मनुष्य के आंतरिक संसार पर बाहरी चीजों और चिह्नों का इतना बड़ा कब्जा कभी नहीं था। मनुष्य पहले शब्दों की इतनी लुटी-पिटी और खोखली दुनिया में कभी नहीं था।
आज यदि कोई अतीत से रिश्ता बनाता है तो वह उत्तर-आधुनिक ‘डायनामाइट’ लेकर इतिहास में घुसता है। उसे नहीं पता कि उसका अतीत को लेकर पागलपन उसके खोखलेपन को बढ़ाता है। आज के लेखक एक ऐसे ही वातावरण में हैं, जिसमें अतीत को छिन्न-भिन्न करने, वर्तमान को लूटने और भविष्य को धूमिल करने की होड़ है।
साहित्यिक लेखन भिन्न तरह से देखना है
साहित्यिक लेखन कुछ भिन्न तरह से चीजों को देखना है। इसमें आंख खोलकर देखना महत्वपूर्ण है। आलोचना का अर्थ है ‘लोचन’ से कुछ ध्यानपूर्वक देखना। कुछ लेखकों ने आलोचना का अर्थ महज साहित्यिक कृतियों की व्याख्या समझ लिया, जो उनकी साहित्यिक समझ का संकट है। वे आलोचना को अपना राजमुकुट बनाना चाहते हैं। आलोचना सिर्फ साहित्यिक कृतियों के मूल्यांकन का मामला नहीं है, यह पूरे जीवन का मामला है। आलोचनात्मक रूप से देखना वस्तुतः एक सृजनात्मक खोज है, एक कल्पना है। यह कुछ ध्यान से देखने और असहमति-सहमति का मामला है। यह कुछ प्रश्नों को उठाना है। दरअसल आलोचनात्मक दृष्टि संपूर्ण साहित्य और सभी लोगों के जीवन के लिए है।
आज हर तरफ ‘भौतिक समृद्धि’- बौद्धिक रिक्तता’ की जुगलबंदी है। मुख्य सवाल है, लोगों में खुद देखने की कितनी शक्ति बची है। वे वस्तुतः वही देख रहे हैं जो उन्हें टीवी, सोशल मीडिया और चारों तरफ भारी पूंजी की ताकत से निर्मित बिंबों द्वारा दिखाया जा रहा है। यह लोगों के देखने की शक्ति को बड़े स्तर पर नियंत्रित किया जाना है। लोग खुद देखने की क्षमता, अपनी आलोचनात्मक दृष्टि खोते जा रहे हैं। वे असहमति-सहमति का विवेक ही नहीं, बौद्धिक सहृदयता भी खोते जा रहे हैं। आलोचनात्मक दृष्टि का अभाव हो तो अंधविश्वास फैलते हैं, अज्ञान ही ज्ञान के आसन पर बैठ जाता है।
साहित्य क्या कहता है? साहित्य कहता है- देखना सीखो, अर्थात प्रश्न उठाना, तर्क और कल्पना करना। साहित्य विविधताओं को जोड़नेवाला संगीत है। वह कहता है, बौद्धिक सहृदयता लाओ, अपनी संवेदना को ‘स्वानुभव’ से विस्तृत कर लो और दुखद स्थितियों को अधिक संवेदनशीलता से समझो। साहित्य कहता है, चुप मत रहो। वह यह भी कहता है कि हर शब्द के चयन के पीछे एक सौंदर्यबाध हो, खासकर अपशब्दों से भरे दुष्काल में। साहित्य में हर खोज एक ऐसी ही प्रार्थना है।
आज भी समाज में ऐसे नागरिक ज्यादा हैं जो हिंसा की राजनीति और सस्ता मनोरंजन पसंद नहीं करते। उनके लिए जीवन राजनीति का पर्याय नहीं है। वे भीड़मोहिनी बातों या लोकप्रियतावाद में न बहकर बौद्धिक सहृदयता को महत्व देते हैं। वे रोज शेयर के उठते-गिरते भाव में न फँसे रहकर गाने सुनते हैं, पौधों का पानी देते हैं। वे साहित्य के इस असर से परिचित हैं कि जिस किसी भी यांत्रिकता में फँसा हो, साहित्य पढ़कर कोई अपने पास लौट सकता है। वह साहित्य में संकीर्ण की जगह एक बड़ी मानवीय भूमि पा सकता है। कहने की जरूरत है कि यह साहित्य की ताकत है जो मनुष्य को, मनुष्य के इतिहास को अपराजेय बनाती है। यही वजह है कि साहित्य आज भी एक ऐसी जगह है जो हमें विस्मित करती है।
भारतीय संवेदना परंपरा का भी एक इतिहास है
यह देखना रोचक लग सकता है कि प्राचीन काल में काव्य की जो लाक्षणिक अवधारणा बनी थी, वह किस तरह काव्य को धर्म, दर्शन और इतिहास से अलग करती थी। ॠग्वेद काव्य ग्रंथ नहीं माना जाता। लेकिन इसके प्रथम मंडल में ही ‘कवि’ शब्द (1.1.2) है। इसका सायण ने अर्थ किया है क्रांतिदर्शी। इसका अभिप्राय है- जो रूढ़ियां तोड़े, अर्थ उलट-पलट दे और भिन्न तरह से देखे। साहित्य की परंपरा ज्ञान और संवेदना की भूमि पर कुछ न कुछ उलट-पलट देने की परंपरा है। इसके साथ जीवन के नए सौंदर्य और मूल्यों की खोज जुड़ी रही है।
भारतीय ज्ञान परंपरा के साथ भारतीय संवेदना परंपरा का भी एक दीर्घ इतिहास है। यह पहली बार लिपिबद्ध हुआ है रामायण में कविता के जन्म से और दूसरी बार भरत के नाट्यशास्त्र में नाटक की धारणा के जन्म से! ये क्या फर्क लाते हैं, इसपर गौर करें तो कई विस्मयजनक निष्कर्ष सामने आएंगे। रामायण में काव्य रस है तो भरतमुनि ने नाटक के ऐसे कलाकारों को सामने ला खड़ा किया, जो आलोचना करने के कारण ब्राह्मण द्वारा वर्ण व्यवस्था से बाहर निकल दिए गए थे। भरतमुनि ने वर्ण व्यवस्था से बाहर कर दिए गए कलाकारों के नाटक को ‘पंचम वेद’ कहकर सम्मान दिया!
रामायण में कविता का जन्म वेद, वैदिक दर्शन और धर्मशास्त्र से संबंध रखते हुए भी एक अलग भूमि पर हुआ। वाल्मीकि पहली बार कुछ भिन्न तरह से देखते हैं। वे जब क्रौंच वध के बाद बहेलिए का प्रतिवाद करते हैं और अपना गुस्सा व्यक्त करते हैं कि तुम्हें जगत में प्रतिष्ठा नहीं मिलेगी, तो तुरंत यह सोचने लगते हैं कि ‘दुख में अभी-अभी जो मैंने उच्चरित किया है, वह क्या है’! उन्हें विस्मय होता है कि उनके उच्चरित शब्द साधारण बोलचाल की भाषा से अलग है और ये वस्तुतः धर्मशास्त्र की भाषा से भी भिन्न हैं।
वाल्मीकि के महाकाव्य के केंद्र में दुख है, संवेदना है। हम पाते हैं कि अकेली हो गई मादा क्रौंच का दुख ही आगे एक पूरी रामायण खड़ी कर देता है, जिसमें सीता से अलग कर दिए गए राम का दुख है। मुख्य बात यह है कि वाल्मीकि के कंठ से एक नई विधा का जन्म होता है, जिसके केंद्र में जीवन का दुख है, अन्याय का प्रतिवाद है!
साहित्य में जो विश्व है
हम पाते हैं कि भारतीय काव्यशास्त्रियों ने ‘ध्वनि’, ‘अलंकार’, ‘वक्रोक्ति’, ‘रस’, जिस सिद्धांत का भी प्रचार किया, उनका लक्ष्य धर्मशास्त्र से भिन्न काव्य की विशिष्टता का उद्घाटन रहा है। यह बताना रहा है कि कविता कैसे बोलचाल की सामान्य भाषा और धर्मशास्त्र तथा दर्शन की भाषा से भिन्न और विशिष्ट है! वे बताते हैं कि साहित्यिकता कैसे आती है। यह काव्य की भाषा को ज्ञान की परंपरागत शास्त्रीय भाषा से यथासंभव अलग करना और उसे मानव संवेदना से जोड़ना है, यह हम कह सकते हैं!
यदि अभिनवगुप्त ने काव्य को अलौकिक आनंद देने वाला और विश्वनाथ ने इसे ‘ब्रह्मस्वाद सहोदर’ कहा था तो उनका उद्देश्य था काव्य के आनंद को वेद या वैदिक दर्शन या अन्य धर्मशास्त्र से कम महत्वपूर्ण न मानना! एक और उदाहरण है, शैव दर्शन से जुड़े अभिनवगुप्त ने अपने काव्य सिद्धांत के प्रतिपादन के साथ कर्मकांड और जटा-जूट बढ़ाकर घूमने वाले धार्मिक पाखंडियों का विरोध किया था! इस तरह काव्य की प्राचीन उपस्थिति, हर युग में काव्य कृतियों का होना भारतीय संवेदना की एक महान परंपरा का खड़ा होना है, जिसे हमें ज्ञान परंपरा के समानांतर जानना चाहिए। हमें सिर्फ ज्ञान परंपरा की नहीं, संवेदनात्मक ज्ञान परंपरा की जरूरत है।
साहित्य हमें ऐसी जगह ले जाता है, जहां हमें ज्ञात होता है कि दुनिया ऐसे भी देखी जा सकती है। आखिरकार साहित्य में जो विश्व होता है वह सत्ता का विश्व नहीं है, लोक का विश्व है। साहित्य में बौद्धिक स्वतंत्रता एक बड़ा मूल्य है, जो व्यापार पर निर्भर कलाओं में संभव नहीं है। साहित्य की रचना जिस सर्वसुलभ औजार से होती है वह है शब्द, जहां पैसा और इसके प्रभाव को दरवाजे के बाहर रखना संभव है।
मराठी भक्त कवि ज्ञानदेव (13वीं सदी) की ‘ज्ञानेश्वरी’ में कहा गया है, ‘सत्य जुही की कली-सा है तीखा और कोमल।… सत्य संदेहों को चीर देता है अपने लोहे की धार से, पर वह मधुरता को भी मात करता है।… सत्य हमेशा अच्छा है, क्योंकि जो घृणा पर टिका नहीं है, वह सत्य है’ (तख)। यह है साहित्य का काम, जो संवेदना के संसार में चलता है, अर्थात यह निर्भयतापूर्वक बताते रहना कि जो घृणा पर टिका है वह सत्य नहीं है।
अज्ञानता निर्माण उद्योग का पनपना
1990 के दशक में सूचना क्रांति आई तो संपर्कों के तीव्र विस्तार के साथ ज्ञान तक पहुंचना ही नहीं उसका उत्पादन भी सरल हो गया। इसका एक फल यह हुआ कि अज्ञानता निर्माण भी एक उद्योग बन गया। कृत्रिम सूचनाओं के जाल बनते गए, जिनमें करोड़ों लोग फँसे हुए हैं। छल की भाषा और अज्ञानता के प्रचार पर अब किसी को संदेह नहीं होता कि एकबार जांच ले, उलट-पलट कर देख ले!
हर विश्वास संदेह में थोड़ा डूबा हो, तभी मनुष्य छले जाने से बच सकता है। आज संदेह करने को अच्छी दृष्टि से नहीं देखा जाता, जबकि संदेह करना कुछ भी जानने और विकास का सही पथ चुनने के लिए जरूरी है। संदेह सुधार की पूर्वशर्त है। अपने दृढ़ विश्वासों पर भी एकबार संदेह करके जांच लेना चाहिए। हर विश्वास में इतना स्पेस हो कि उसपर प्रश्न किया जा सके। प्रश्न करना विश्वास को छोड़ना नहीं है, बल्कि इसकी जंग छुड़ाना है। यदि ऐसा नहीं होगा, मनुष्य लुट जाएगा- वह ‘प्रचारित आभासी यथार्थ’ में बह कर बहुत कुछ खो देगा। देखा जा सकता है कि हमारे युग का संकट मनुष्य के ‘स्व’ और स्वविवेक के लुट जाने से अधिक गहरा हो गया है।
अखबार पहले इतिहास के रेकार्ड के रूप में देखे जाते थे, वे विश्वसनीय दस्तावेज थे। मीडिया के नए रूप में झूठ छा गए। मीडिया झूठ की आतिशबाजी बन गया, वह बिक गया। देखा जा सकता है कि मीडिया की पूरी जगह राजनीति ने घेर रखी है, उसकी लोकरंजक विविधता समाप्त कर दी गई है। जो है, एक रंग में है।
आज जिधर नजर ले जाइए, ज्ञानियों की भीड़ मिलेगी और एक भी ज्ञानी ऐसा नहीं मिलेगा जो सबकुछ न जानता हो। रामचंद्र शुक्ल ने एक महत्वपूर्ण बात कही थी, ‘ज्ञान प्रसार के साथ भाव प्रसार होता है’। आज ज्ञान के समुद्र में उत्ताल लहरें हैं, तब भी मनुष्य का भाव प्रसार क्यों नहीं हो रहा है? सामान्यतः आदमी अपने सामुदायिक सत्य के कुएं में क्यों है? ज्ञान के उत्तर कांड को देखकर लगता है कि लोग कभी इतने अधिक ज्ञानी न थे और यह भी कि कभी इतनी संवेदनहीनता न थी।
हाल की एक सच्ची घटना है। एक स्कूल में कक्षा तीन के विद्यार्थियों से पूछा गया, ‘तुम बड़े होकर क्या बनोगे?’ किसी ने बताया कि वह डाक्टर बनेगा, किसी ने कहा शिक्षक बनेगा, किसी ने कहा इंजीनियर बनेगा। एक ने कहा, वह बेवकूफ बनेगा। टीचर आश्चर्यचकित हुआ। उसने पूछा, ‘बेवकूफ क्यों बनोगे?’ उस विद्यार्थी ने उत्तर दिया, ‘ताकि किसी को ठग न सकूं!’
छल की भाषा में घिरा आम मनुष्य
इन दिनों छल की भाषा दिग्विजय पर है, उसकी आंधी है। आज से पहले कभी इतना स्पष्ट नहीं था कि छल ही सत्ता और हर फायदे की गंगोत्री है। छल की भाषा का उद्देश्य है ऐसी चीजों को लोगों के विश्वास, अवधारणा या घटना के रूप में स्थापित करना, जिनका यथार्थ आधार न हो। छल की भाषा सम्मोहक होती है। कई दशक पहले ‘लकड़सुंघवा’ की चर्चा होती थी, अब वह एक विराट संगठन है।
छल की भाषा निर्मित करने के लिए झूठ पूरे भावावेग के साथ बोलना होता है और उसे प्रचार की शक्ति चाहिए। लोग प्रदर्शित सब्जबाग में खो जाते हैं, जैसे बच्चे मेले में गुम हो जाते हैं। इसका सबसे विडंबना-भरा रूप तब सामने आता है जब नागरिक सिर्फ उस यथार्थ से ही दूर नहीं कर दिए जाते जो वे वस्तुतः रोज भोग रहे हैं, बल्कि वे अपनी श्रेष्ठ परंपराओं और आधुनिक मूल्यों से भी विच्छिन्न कर दिए जाते हैं। सब खोते-खोते अंत में बची रह जाती हैं कुछ पुरानी खाइयां- कुछ नई जंजीरें!
छल की भाषा का निर्माण कई तरह से होता है, जिनमें एक है सफाई से तथ्य को विकृत करना। छल की भाषा से अपने को ढका जा सकता है, क्योंकि कोई क्षमतावान व्यक्ति अब अपना वास्तविक चेहरा दिखाना नहीं चाहता। इसलिए वह झूठ को आभासी सच में बदलता रहता है। उसकी भाषा चालाकियों से भरी होती है। कैसी भयावह स्थिति है, प्रचार में जो है वही सच है!
आज पांडवों के इंद्रप्रस्थ-महल जैसा ही संसार है। जहां जल है, वहां थल दिखता है और जहां थल है वहां जल दिखता है। साहित्य का काम है सचाई पर से सभ्यता के कृत्रिम आवरण को हटाना, जबकि साहित्यकार पर इस सभ्यता का भारी दबाव है। उसकी सामाजिक हैसियत नगण्य कर दी गई है। वह बोलता है, पर इतना अंतर्विभाजित है कि अब सुना नहीं जाता।
अतीत एक घायल पक्षी है
अब वे बाजार नदारद हैं या सिकुड़ते जा रहे हैं जहां हम दुकानदारों को चाचा-भैया, चाची-मौसी-दीदी कहकर बात करते थे। अब आनलाइन खरीद बढ़ रही है। आज के डाक्टर पहले जैसे डाक्टर बाबू नहीं हैं। आज के शिक्षक पहले जैसे गुरु नहीं है। आज के व्यापारी पहले जैसे अस्पताल, स्कूल, धर्मशालाएं खोलने वाले व्यापारी नहीं हैं, क्योंकि पैसा अब सबकुछ डुबो देने वाली एक भयंकर बाढ़ है।
पुनरुत्थानवादी उभार के साथ अतीत विलास आया है। यह सुखी लोगों का अतीत विलास है। नए इतिहासकारों ने अतीत के कई स्वर्णिम युग खोज लिए हैं। पुरानी चीजें खोजते-खोजते कोयले की खदान से हजारों साल पहले के किसी सांप की फासिल मिल जाती है तो उसे वासुकि या शेषनाग घोषित कर दिया जाता है। अतीत एक घायल पक्षी है!
दूसरे विश्वयुद्ध में शामिल सैनिकों में अब शायद दो-तीन बचे हों! एक नौजवान व्यक्ति ऐसे ही एक बचे पूर्व सैनिक के साथ जापान में ट्रेन यात्रा कर रहा था और मोबाइल में एक ‘वार फिल्म’ देख रहा था। वृद्ध पूर्व-सैनिक ने ‘हलो’ किया और पूछा, ‘क्या तुम्हें वार फिल्में पसंद हैं?’ नौजवान यात्री ने कहा-हाँ, मैं देशभक्त हूँ। मुझे पसंद हैं। वृद्ध पूर्व-सैनिक ने फिर पूछा, ‘क्या तुमने कोई युद्ध देखा है?’ नौजवान यात्री ने कहा, नहीं। वृद्ध पूर्व-सैनिक ने बताया, ‘मैं 1942 में पंद्रह साल का था। मेरी पढ़ाई छुड़ाकर मुझे जापान की नौवाहिनी में जबर्दस्ती शामिल कर लिया गया और विश्व युद्ध में झोंक दिया गया।’
वृद्ध पूर्व-सैनिक ने कुछ घटनाएं सुना कर अंत में कहा, ‘मैंने युद्ध देखा है। मैंने सैनिकों को मरते हुए इन आंखों से देखा है। वे जब मर रहे थे, अपने शरीर में बची शक्ति से कोई मां का नाम ले रहा था, कोई अपनी बीवी-बच्चों का नाम ले रहा था। कोई भी अपने देश या शासक का नाम नहीं ले रहा था! वह वृद्ध पूर्व-सैनिक था 82 साल का जापानी नोबुआ निशिजाकी, जो बाद में जापान में स्पोर्ट्स का प्रोफेसर बना था। (तोशोन चकमा के ब्लाग के आधार पर)। अतीत की ऐसी चीजें शिक्षा देती हैं, यह अतीत विलास नहीं है। जड़ों में उतरो, जड़ मत हो जाओ!
लेखक कैसा होता है
लेखक कैसा होता है, यह समझने के लिए निराला की एक पंक्ति है- ‘मरा हूँ हजार मरण’! लेखक को अपने भीतर कई बार जन्म लेना पड़ता है, हर नई रचना के साथ एक नया जन्म, ताकि वह घिसे रिकार्ड-सा न बजे। यह कठोर सामुदायिक उभार, ‘मास कल्चर’ और प्रलोभनों से भरे जमाने में कठिन है। लेखक होना कठिन है, खासकर जब साहित्यिक आत्मविसर्जन के दृश्य आम हैं। साहित्य तो ऐसी जलधारा है जो आम स्वभाव के विपरीत घाटी से ऊपर पहाड़ की ओर बहती है!
हर युग के लेखक को अपने चेतन होने का दंड भोगना पड़ता है। यह दंड वह बाहर से ज्यादा अपने भीतर भुगतता है। वह कुछ रचता है, तभी बचता है, अन्यथा भीड़ में खो जाता है। इसी तरह पाठक होना, साहित्य पढ़ना अपने को अंधी भीड़ में खो जाने से बचाना है।
हम ऐसे युग में लिख रहे हैं जब हर कोने से सिर्फ ‘वफादार मस्तिष्क’ की खोज हो रही है। हालांकि प्राचीन क्लासिकल साहित्य से लेकर आज तक के लेखन को देखकर लग सकता है कि हर युग का अच्छा और महान साहित्य ‘रूढ़िभंजक सृजनात्मक मस्तिष्क’ की देन है। हर ऐसे साहित्य में स्वाधीन चिंतन, उदार सौंदर्यबोध और जीवन की व्यापक सचाइयों का प्रकाश हुआ है। हर भाषा के साहित्य संसार में ऐसे लेखक आज भी हैं, जिनकी रीढ़ अभी गली नहीं है।
अपनी रीढ़ को गलने न देना दुनिया में लेखक को अकेला करता है। यह उसे कई बार ‘अनपॉपुलर’ बनाता है। एक लेखक के सामने आज सबसे बड़ी चुनौती है कि वह क्या चुने- भीड़ की जयजयकार या अकेलापन? कई बार लेखक का अकेला हो जाना बुना नहीं है और आज थोड़ा अकेला तो वह हर कोई है जिसके पास जरा भी अंतरात्मा बची है।
हम सामूहिक रूप से ही बच सकते हैं, यह अहसास सिर्फ साहित्य देता है। हमारा कलाओं और साहित्य के साथ होना मनुष्यता की सबसे सुंदर अभिव्यक्तियों के साथ, सबसे नैतिक आबोहवा में होना है। समाज की साहित्यिक गतिविधियां पुल, फ्लाइओवर और विभिन्न प्रांतों को जोड़ने वाली सड़कें बनाने से कम महत्वपूर्ण नहीं हैं। चिंताजनक है कि ऐसे सुंदर संसारों में आज भेदभाव और भय व्याप्त है। हस्तक्षेप बढ़ा है। कलाएं और साहित्य सत्ताओं के वैचारिक सांचे में ढाले जा रहे हैं। कई लेखकों के दिमाग में सेंध लग गई है और ‘क्या करना है-क्या नहीं करना’ का दबाव है। किसी का सिक्का कैसे चलेगा, इसके लिए निर्देश हैं, शर्तें हैं। कई लेखक-कलाकार अपना सिक्का चलाने के लिए स्व-अनुशासित हो चुके हैं। उन्होंने सुरक्षित जगह चुन ली है। यह अस्वाभाविक नहीं है, क्योंकि जहां गुड़ है वहां चिर काल से मक्खियां इकट्ठी होती रही हैं।
साहित्य का संसार याद रखना जानता है
छल की भाषा के विस्तार ने किस तरह हमारा सांस्कृतिक पाथेय लूटा है, कैसा भयंकर सामाजिक विष फैला है, परिचित होकर भी लोग अब एक-दूसरे से कतरा रहे हैं और पृथ्वी की संतानों का जीवन अंधकारमय होने से एक कितनी बड़ी चुनौती खड़ी है, यह निराला की एक अचर्चित कविता (अर्चना, 1950) में दूरदर्शिता से उपस्थित हैः
चोट खाकर राह चलते होश के भी होश छूटे
हाथ जो पाथेय थे, ठग-ठाकुरों ने रात लूटे,
कंठ रुकता जा रहा है, आ रहा है काल देखो।
भर गया है जहर से संसार जैसे हार खाकर
देखते हैं लोग लोगों को सही परिचय न पाकर
बुझ गई है लौ पृथा की जल उठो फिर सींचने को।
इस समय जितना क्षय, शोर और आत्मविमुग्धता है क्या फिर से मूल्यों, सौंदर्यबोध और मानवता को सींचना संभव है? बहुत-सी जगहों पर साहित्य सामुदायिक राजनीति में ‘रिड्यूस’ हो गया है। सीमित स्वार्थ पर आधारित सिद्धांत बन रहे हैं। खासकर महानगरों में साहित्य सिकुड़ता जा रहा है। वहां की साहित्यिक गतिविधियों से साहित्य की आत्मा बाहर निकलती जा रही है। छोटे नगरों में सच्चे साहित्यिक प्रयास ज्यादा बचे हैं, वहां आवाजें हैं।
सियारामशरण गुप्त के निबंध ‘छुट्टी’ में एक महत्वपूर्ण बात है, ‘मैं छोटा हूँ, छोटे रूप में ही संसार को मैंने देखा है… क्या यह वृंदावन छोटा-सा है? हो, छोटा-सा ही हो। छोटा होकर भी वह ओछा नहीं है। उसमें स्थान है, अवकाश है। वह याद रखना जानता है।’(झूठ सच)। आज भी वैयक्तिक स्तर पर छोटे-छोटे प्रयास हैं, छोटे-छोटे सांस्कृतिक संगठन हैं और ऐसे पाठक हैं जो साहित्य की भूमिका और महत्व को समझते हैं। महसूस किया जा सकता है कि स्मृति ध्वंस के वर्तमान युग में अपने-अपने सत्य के कुएं से बाहर आना और कुछ भिन्न सोचना कितना जरूरी है।
यह एक नया युग है, जब ‘ग्रेनाइट की पुरानी मूर्तियां’ टूट रही हैं और ‘घटिया किस्म के बलुहे पत्थर की नई मूर्तियां’ गढ़ी जा रही हैं। संदिग्ध अतीत वाले कई चेहरे त्याग और संघर्ष की गाथाओं के नायकों पर छा जाना चाहते हैं। इसके लिए अतीत के प्रेत जगाए जा रहे हैं। प्रेत प्रेत से नहीं डरता। प्रेत केवल आग से डरता है, वह स्मृतियों, कल्पनाशक्ति और स्वप्नों से डरता है!
जितने लेखक हैं उनके अकेलेपन के उतने अर्थ हैं
लेखक के अकेलेपन का अर्थ उसके संपर्कों का टूट जाना नहीं है, बल्कि संबंधों का अभाव है। यदि किसी दौर में सिर्फ अपनी जाति, धर्म या प्रांत के लोग ही पीड़ा के समय साथ खड़े होते हों तो यह मामला एक संवेदनशील लेखक को अकेलेपन का अहसास करा सकता है। यदि बाजार छल के चिह्नों से भरा दिखे, शिक्षालय अमानवीय जगह बन गए हों और सांस्कृतिक दुनिया में चतुराई छाई हो, तो लेखक अकेलेपन का अनुभव कर सकता है। अपने दौर की बेईमानी का अंग न बन पाना और समय का गहरा संकट ही अकेलापन लाता है। अकेलापन एक विद्रोह है। यह भीड़ का अंग न बनकर अपने पास रहना है। भौतिक रूप से अकेला न होकर भी मनुष्य अकेलेपन का अनुभव करता है। यह उसकी संवेदनशीलता का दंड है।
एक ज्ञानी थे गाड़ीवान रैक्व। वे अकेले अपने शकट के नीचे पड़े रहते थे। भक्त कवियों की भक्ति शंख-घड़ियाल के शोर में डूबने की जगह ईश्वरानुभूति में अकेले हो जाने का आनंद है। वर्ड्सवर्थ को लगता है, वे ‘भटकते बादल की तरह अकेले’ हैं। गांधी एक समय कितने अकेले हो गए थे। महादेवी वर्मा और अज्ञेय दोनों को दीप अकेला ही ज्यादा आकर्षित करता था। हाल के ‘एलगोरिद्म’ ने हमारे साझेपन पर एक दूसरे कोण से हमला किया है। महानगरों ने हमें अकेलेपन की नागरिकता दी है, फिर भी हम साहित्य पढ़ते हुए जानते हैं कि हम अकेले नहीं हैं। हालांकि मोबाइल, पागल भीड़ और विराट मनोरंजन उद्योग ने इधर हमारे हाथ से साहित्य की किताबें छीन ली हैं।
लेखक इसलिए लिखता है कि पाठक पढ़ें। पिछले कुछ दशकों से पढ़ने की संस्कृति का व्यापक क्षय हुआ है। यह क्षय खुद साहित्य के शिक्षकों, लेखकों और नौजवानों के बीच सबसे ज्यादा है। यदि कोई पढ़ने वाला न हो, लेखक किसके लिए लिखे! पाठक लेखक का जनक है। इसलिए लेखक को बचाने के पहले मिलजुलकर पाठक को बचाना होगा!
यह समस्या सभी भारतीय भाषाओं में है, पर हिंदी में इसलिए ज्यादा है कि गर्व के साथ हिंदी भाषियों की संख्या 55-60 करोड़ बताई जाती है। पर उनके बीच किसी अच्छी साहित्यिक पुस्तक के पहले संस्करण की दस-पांच हजार प्रतियां भी न बिकें तो इससे हिंदी भाषी समाज की बौद्धिक दरिद्रता की झलक मिलती सकती है। पब्लिक किसी बड़े साहित्यकार से अधिक इज्जत शहर के एक अपराधी किस्म के विधायक को देती है, समाज यहां पहुंच गया है। वस्तुतः लेखक जिस समाज से गहरा प्रेम रखते हुए लिखता है, उसमें ही वह एक करुण विलगाव से गुजरता है।
हिंदी प्रदेशों में साझी साहित्यिक संस्कृति विकसित नहीं की जा सकी। लेखक सांस्कृतिक अल्पसंख्यक होते हुए भी अलग-अलग द्वीपों की तरह बिखरे हैं। उनके बीच विद्वेष, दूरियां और आत्मविमुग्धता अलग से समस्याएं हैं। हिंदी की साहित्यिक दुनिया सैकड़ों बंद गलियों में विभाजित है। लेखक कभी जाति, कभी धर्म, कभी प्रांतीयता की निगाह से देखा जाता है। वह समुद्र में एक जलते जहाज पर खड़ा है!
लेखक अकेलेपन का क्यों नहीं अनुभव करे? वह अपनी ही भाषा में ‘आउटसाइडर’ हो चुका है। उसका अकेलापन बहुत कुछ एक आदर्श समाज की धारणा और अंधी भीड़ के बीच फँसी चीज है। लेखक हँसते-बोलते हुए, मिलजुलकर साथ काम करते हुए इसे भी जीता रहता है। उसका अकेलापन उसे एक जगह कहीं बचाकर रखता है, यह उसके प्रेम के विश्व को भी बचाकर रखता है।
लेखक का अकेलापन एक नई दुनिया, जिसका वादा था, न मिल पाने का दुख है। उसके सामने बड़े-बड़े राजनीतिक आश्वासनों का इतना ऊँचा कचरा है कि अंततः उसका अकेलापन ही उसकी सृजनात्मकता का हरा उद्गम है।
जितने लेखक हैं, उनके अकेलेपन के उतने अर्थ हैं!
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बेहतरीन संपादकीय आलेख सर। आज के टेक्नोलॉजी और सुर्ख चटख रंगों के लिबास में लिपटी मनोरंजन के समक्ष सीधी सादी हिंदी साहित्य को बचा पाना यक्ष प्रश्न सा लगता है।साहित्य के प्रति बढ़ती लोगों कीअरुचि निसंदेह लिखने पढ़ने वालों के लिए एक भारी आपदा के समान है।फिर भी आप जैसे साहित्यकारों के रहते यही आशा कर सकते हैं कि यह दीप अकेला है गर्व भरा…..।