युवा कवयित्री।कविता संग्रह, ‘मैं थिगली में लिपटी थेर हूँ।संप्रति शिक्षण में।

यह देश हमारा है

एक विशाल पुस्तकालय में
किताबें उदास पड़ी थीं
जमी धूल उनका उपहास था

बेचैन युवा
शांत मन की तलाश में पलट रहा था किताब
भींच कर मुट्ठी थाम रहा था क़लम
कागज से मिटा रहा था विभेद की रेखाएँ
यह शुरुआत अच्छी थी

देश की बेचैनी तुम्हारे बोलने से है
तुम अपना सिर ओखली में डालकर
मूसल का इंतज़ार आख़िर कब तक करोगे

तुम ही अकेले नहीं थे
शहर अकेला था
यहां की भीड़ अकेली थी

दांत भींचकर
बालकनी में खड़े होकर
चीखने से बदलाव कब हुआ है
सीढ़ी का इस्तेमाल उतरने के लिए कब करोगे

कानून की देवी ही क्यों खड़ी है हर अदालत में
आंखों पर पट्टी बांधे
तराजू पकड़ी स्त्री चाहती है अब बदलाव

सभ्यताओं के दामन पर छिड़का जा सके इत्र
मनुष्यता की हो खेती
जिसमें सबकी हो बराबर की भागीदारी

मालिक या कि मजदूर
सबके कोष में जाए भरपेट अनाज
सबके कुएं में हो पानी

बच्चों के हाथ में
जूठे कप प्लेट की जगह हों किताबें
पढ़ने के बाद तलने न पड़ें पकोड़े
हाथों में न हो पत्थर न धर्म का कोई झंडा

देश की लंबी गहरी सांसों में
जहर की जगह हो ऑक्सीजन
टाइम से ऑफिस के लिए निकलते हों युवा

एक युवा स्त्री निगल लेना चाहती है
अपनी ग्रीवा में समस्त पुरुष सत्ता
ताकि जन्म दे सके समरूप सत्ता
बने नया इतिहास
लिखी जाए नई इबारत

देश न जाने कब से कराह रहा है
वह चाहता है एक नया मजबूत स्तंभ

एक बूढ़ी स्त्री लड़खड़ाते तेज कदमों से
चलती हुई कहती है – जय हिंद!

यह देश हमारा है
हमारे बच्चों का है।

बम से लिपटा रिबन

स्त्री की चाहनाएं
मृत देह पर भिनभिनाती मक्खियों सी थीं
जिन्हें बार-बार
किसी फटे पुराने गमछे से उड़ा दिया जाता
वे बार-बार बैठने की कोशिश करतीं
बार-बार स्त्री उन्हें उड़ाने की कोशिश करती

इन कोशिशों में गहन चुप्पी थी
अंतस की आंधी का पता तब चला
जब आधी रात स्त्री जागती

उसी वक्त स्त्री जीती थी अपने अंदर की आग
गहन भ्रामक था वह रास्ता
जिसपर चलकर मूक बनी स्त्री
कानों से सुनते हुए भी वह बधिर थी
उसका बोलना गौरैया के चीं जितना था
कनेर के बागों में मन का कोना सहलाती
खोंस आती वहां मन के उभरे तंतु
कुमार्गी होने से सहज था
चुपचाप सह जाना

श्वास के रोकने जितना बेढब था
अनचाहे रिश्ते को दो टांगों के बीच जगह देना

जलकुंभी-सी देह को कुंभलाती रही
ग्रास बनती रही देह अपनी ही देह की
गांठें और गहरी हुईं

बम बारूद के बीच आत्मचित्र बनाती रही
कूल्हे और जांघों पर
नीले निशान के बावजूद उगाती रहीं
चांद पर सेमल के फूल

स्त्री अपार सौंदर्य का
एक धड़कता हुआ जिंदा प्रतीक है

आंद्रे ब्रेतों ने यूं ही एक स्त्री फ़ीदा काहलो को
बम से लिपटा मुलायम रिबन नहीं कहा था!

संपर्क : ग्रामरानीगंज (बंगाली टोला), वार्ड नं.07, बरबन्ना, पोस्टमेरीगंज, जिलाअररिया, पिन-854334 बिहार मो.8252613779