कविता संग्रह ‘खुले आकाश में’ प्रकाशित।
1-पुकार
मैं तुम्हारे दुख में शामिल था
चुपचाप
पर कहा नहीं तुमसे
मैं देख रहा था तुम्हें
फूट फूट कर रोते हुए
पर उंगलियों से अपनी
पोंछे नहीं मैंने तुम्हारे आंसू
मैं देख रहा था
तुम खोई हुई थी
और तैर रही थी
एक लंबी थकान भरी नींद
तुम्हारी खुली, उदास आंखों में
मैं देख रहा था
एक आत्मा को मरते हुए
कि एक स्त्री
सीता की तरह रुंधे गले से
रो-रो कर पुकार रही थी –
‘हे पृथ्वी मां!’
2-अक्स
नारियल के वृक्ष पर
देखता हूँ जब
हरे भरे नारियल
सोचता हूँ
पसीने में भीगे प्यासे राहगीरों के लिए
पृथ्वी ने शायद सहेज कर रखी हैं
मीठे पानी की छोटी छोटी मटकियां
मटकियों में रखे
मीठे पानी के अक्स में
दिखती है मां!
सिरहाने इस किताब को खोलते समय
सिर्फ पन्ने ही नहीं खुलते इसके
खुल जाती हैं नदियां आकाश समंदर
दिख जाते हैं ऊंची उड़ान भरते पंछी
लहलहाते खेत
पेड़ों पर लौटता वसंत
गुलाब की टहनी पर चटखती कलियां
आंगन में खिली धूप
चूल्हे पर रखी हांडी
स्कूल जाते बच्चे,
घर संवारती औरत
मैं रखता हूँ
अपने सिरहाने
एक भरी-पूरी जिंदगी
हर रात
सुबह के लिए!
3-नींद
समुद्र में
जाल फेंकते हैं
जैसे मछुआरे
और पकड़ लेते हैं मछलियां
मैं भी फेंकना चाहता हूँ
एक जाल
पूरे जोर से
आकाश में
और पकड़ लेना चाहता हूँ
थोड़ी छांव
कुछ हवा के झोंके
कुछ मीठे सपने
मिट्टी की खुशबू
अंजुरी भर चांदनी जिसे ओढ़ा दूँ
रोते हुए उस बच्चे को
जिसे झुला रही है
सड़क किनारे
धूप में पत्थर तोड़ती हुई मां।
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अंजुरी भर चांदनी जिसे ओढा़ दूं
रोते हुए उस बच्चे को
जिसे झुला रही है
सड़क किनारे
पत्थर तोड़ती मां ।
अक्स _ ” छोटी-छोटी मटकियां ”
ममस्पर्शी भाव एवं अद्भुत बिम्ब