(1939-2020)
साठोत्तरी दौर के एक चर्चित कथाकार। तीन कहानी-संग्रह और चार उपन्यास प्रकाशित। कुमाऊँ अंचल से संबद्ध होने के कारण पहाड़ी जीवन की संस्कृति और भाषा की समृद्ध झलक उनकी कहानियों में है। ‘पनचक्की’, ‘तुन महाराज’, ‘सीसकटी’, ‘गुनो लौट गई’ जैसी कहानियों के लिए विशेष रूप से जाने गए।
अपना बच्चा बनाम गोबर का कीड़ा
इजा की गतिक्रिया निबटी तो पिता जोधा बाबू ने अपने कोट पर ब्रुश मारते हुए बड़े प्यार से कालू को पास बुलाया और पुखपाल से कुछ टिमटुम-गिटपिट कर कोट के आस्तीन में बांह डालते हुए उससे बोले, ‘अरे बेटे, आज शे जैशे हम अपने काम पर जा रहे हैं, वैशे ही अगरचे टू भी अपना कारोबार शुरू कर दे, टो कैशा रहे? मटलब जुवाई-बुआई का काम! जो है शो, घर का मालिक टो टू ही हुआ, भाई! हम लोग टो राट के मेहमान ठहरे’, और हँसे। ‘यह ले’- उन्होंने नोटों की गड्डी में से दो का एक लाल कर्राता नोट निकाल उसकी ओर बढ़ा दिया : ‘टेरी बीड़ी-माचिश के लिए।’
बढ़ाया हुआ हाथ कालू ने सहमकर खींच लिया और नजर चुराकर पहले पिता की तरफ, फिर जूतों के तसमे बांध रहे पुखपाल की तरफ देख लिया और सिर झुकाकर रोनी आवाज में बोला, ‘मैं बीड़ी कहाँ पीता हूँ! मैंने कभी बीड़ी नहीं पी, लोग झूठी शिकायत करते हैं।’
‘अरे जो है शो, पीटा भी है टो कौन-शा जुर्म करटा है! मरद बच्चा’ ही टो पीटा है, कोई लुघाइयाँ थोड़े ही पीटी हैं, ले ले, शरमा मट।’ उन्होंने नोट उसकी तरफ डाल दिया और रूमाल की तह करते हुए बोले, ‘टो बेटे, आज शे ही शुरू कर डे अपना कारोबार… शब्बाश, मेरा बेटा!’
नोट वहीं जमीन पर पड़ा रह गया।
जोधा बाबू जब पुखपाल से उसी तरह टिमटुम-गिटपिट करते हुए कचहरी के लिए निकल गए, तब जाकर कालू ने नोट की तरफ देखा और जब वे लोग काफी दूर पहुँच गए और उसे यकीन हो गया कि सच्ची में बौज्यू यह नोट उसकी बीड़ी-माचिस के लिए ही दे गए हैं, कोई उसका मन टटोलने के लिए नहीं, तो उसे एक उल्लास छू गया कि देखो, बौज्यू मेरे से कितना प्यार करते हैं! बीड़ी पीता है तो कौन-सा जुलुम करता है। मरद का बच्चा ही तो पीता है बीड़ी! और एक बेचारा पुखिया है, चाय भी दो से तीन टैम पी गया तो बौज्यू बाघ की तरह दहाड़ने लग जाते हैं। सचमुच बौज्यू मुझसे ही ज्यादा प्यार करते हैं। उसने उस कर्राते नोट को उठाकर फट से चूम लिया। फिर हथेलियों की एक ही रगड़ से नली की तरह मोड़कर टोपी के कल्ले में खोंस लिया।
अब किसका डर! उसने आँगन की दीवार पर खड़े होकर एक बीड़ी जला ली और बेखटके ढेर-सा धुआँ उगल दिया। इस पहली ही कश में वह उम्र के बचे-खुचे लड़कपने को झटकार कर ‘भरपूर मर्द’ की ऊंचाई पर जा खड़ा हुआ था!
सांझ ढलती। दिये जलते। जोधा बाबू और पुखपाल संध्या-पूजन में बैठ जाते। फिर ले श्लोक पर श्लोेक! उस पूरे समय कालू बाहर आंगन-चबूतरे पर बैठा बीड़ी चूसता रहता और खेत-वनों में गांव की नई-नवेलन भौजियों के साथ हुई ठिठोलियों के ख्यालों में ऊभ-चूभ होता गुनगुनाता रहता :
अतरे की गटी, नान भौ की लटी,
तेरी मेरी प्रीत, सुआ, नान छिना बटी,
बिनसर ल्है जानूँ धुर!
(जिस तरह अतर की गोली का नशा और छोटे बच्चे की लट बचपन से ही हो जाते हैं उसी तरह तेरी मेरी प्रीत, ओ मेरी सुग्गी! छुटपन से है। चल दोनों बिनसर के वनांचलों में चले चलते हैं।)
यादों की तल्लीनता में कभी गुनगुनाना। जब स्वर कुछ ज्यादा ऊंचा हो उठता तो भीतर कमरे से पुखपाल का मंत्रोच्चार भी तेज हो जाता। गाली-गलौज की तरह तीखा और कड़वा। कालू का ध्यान पलटा खाता। वह फौरन चुप पड़ जाता। उसे जोधाबाबू का कहा हुआ याद आ जाता कि बेटे, जिस समय हम लोग ध्यान-पूजा में होते हैं या कुछ लिखने-पढ़ने में लगे होते हैं, तू उस समय अपना गाना थोड़ा हौले-हौले ही गाया कर, ध्यान में खलल पड़ता है। वैसे तेरा गला बड़ा सुरीला है और तू गाने भी बहुत अच्छे-अच्छे गाता है।
कुछ देर में अंदर से शंख बज उठता। मतलब, पूजा समाप्त। इसके बाद खाने का कार्यक्रम शुरू हो जाता। जोधा बाबू-पुखपाल दोनों व्यक्ति धोती लपेटे चौके में आ बैठते और ठुलिजा उनकी थालियाँ लगाती। कालू की थाली इसमें नहीं होती। जब तक उसका जनेऊ नहीं हो जाता, उनके साथ बैठकर वह खाना नहीं खा सकता है। कालू को यह विषमता कभी नहीं खटकी। उलटे, जनेऊ उसे एक परेशानीवाली बात लगती है। फिर तो उसे भी संध्या पाठ करना पडेगा। रोज सुबह-सुबह धारे में जाकर नहाना पड़ेगा। आग लगे! कालू का ऐसा जनेऊ जितना न हो उतना चोखा। हाँ, सुकुँवार कंधों पर हाथ रखकर सतफेरे लेने की उसकी चाहना जरूर अंकुराने लगी है। उस समय तो यह चाहना और भी पगली हो उठती है, जब खेत-वनों में वह दुल्हन भौजियों से हँसी-ठट्ठों में उतर आता है या गा उठता है :
ना जा भौजी बुज पना,
कान बुड़ाला चुच पना!
(झाड़ियों की ओर मत जा, ओ भौजी! वहाँ उरोजों में कांटे चुभेंगे!)
और जब गुदगुदे घूसों की मार पीठ पर पड़ने लगती है, तो चूड़ियों की खनखनाहट दिल में उतर-उतर आती है।
खाना खाकर पुखपाल-जोधा बाबू बिस्तरों में चले जाते हैं। वे रामायण, गीता या कल्याण की पोथियों में डूब जाते हैं। बात भी करेंगे तो वही टिमटुम-गिटपिट। ऐसे में कालू बीड़ी जलाकर फिर गांवों-घरों की तरफ निकल जाता है जहाँ रात देर तक गपशप, हँसी-ठिठोली, गाने-बजाने चलते रहते हैं या कभी-कभी ताश-फल्लास के हाथ भी! फिर चांद ढले लौटकर चुपचाप किवाड़ खोल, वहीं उल्टे हाथ से ढंक देना और चुपचाप बिछौने पर जा पड़ना। जोधा बाबू का कहा हुआ है-लौटने को तो देर-सबेर जब भी लौटे तू, कोई खास बात नहीं है…। छोरे-छड़े हुए, घर में बड़े-बूढ़ों के साथ मन कहाँ लगने वाला। पर यार बेटे, जब लौटे तो किवाड़ जरा आहिस्ते से खोलने-ढकने चाहिए। नींद में खलल पड़ जाता है… इससे बड़ी मौज और क्या हो सकती है! यह सब बौज्यू के ही प्रसाद से है, उनके ही राज में परापत हो रहा। इजा थी तो दीया जलने के बाद घर से बाहर पांव नहीं रखने देती थी। छज्जे के पास बैठे रहो, शोक में डूबे हुए जैसे! या बूढ़े-बीमार की तरह सई साँझ ही सो जाओ। आखिर कोई मतलब तो हो उसका! खैर, अब उस कैदखाने से मुक्ति मिल गई है, अब तो बस दिन में काम-धन्धे पूरे कर दो घर के। फिर जहाँ चाहे जाओ-जो मन में आए करो। पूरी तरह आजाद हो, शहनशाह हो!
तीज-त्योहारों के दिन आते हैं, खासकर होली-दिवाली के, तो जोधाबाबू-पुखपाल लोग समाज में नहीं निकलते, कहते हैं, ‘खसियों-गुबरैलों के बीच जाकर अपनी पोजीशन डाउन करानी है क्या?’ तो भी समाज अपना रिवाज पूरा करता है- होली-होलियारों की होली नाचती-गाती घर-घर आंगन-आंगन धूम मचाती हुई जोधा बाबू के आंगन में भी जा पहुंचती है।
मत जाओ, पिया, होली आई रही,
राधा नंद कुंवर समझाइ रही…!
मगर यहाँ कोई आग-पानी का प्रबंध नहीं, कोई चिलम-सुल्फीे का जुगाड़ नहीं और गुड़-गुलाल की थाली नहीं। घर के कपाट बंद, दीया-बत्ती गुल। सब सन्नाटा, सब अंधेरा। गोया घर-आंगन यह उजड़ गया हो। लेकिन कालू है कि खानदान का सारा खामियाजा खुद भुगत देता है, टोली के साथ रात-रात भर नाचता-गाता हुआ। और छठे दिन की धूलड़ी तक उसकी आवाज साँ-साँ में पहुँच जाती है। जोधा बाबू उससे कुछ नहीं कहते, कहते हैं तो सिर्फ अपने बच्चो से यह कि ‘करने दो हरामी को, जो कुछ करता है। गोबर के कीड़े को आखिर गोबर ही अच्छा लगनेवाला हुआ!’
एक टूटे हुए पुल पर
घंटा भर हो गया, कालू बैठा रहा। पहर बीत गया। कालू बैठा रहा। छायाएं लंबी हो चलीं। कालू बैठा रहा। सूरज ढलने लगा…।
सड़क किनारे की उस चट्टान पर बैठे कालू के अंदर भी अब कोई सूरज ढलने लगा था। आज भी वह उस चट्टान पर इस तरह बैठा हुआ था कि सामने सड़क से आने वाले आदमी की नजर सीधे उसकी पीठ पर पड़े।
दूर से पैरों की आहट सुन पड़ती तो उसके अंदर कुछ तन जाता, कोई चीज लक्कड़ बन जाती, चेहरा ऐंठ जाता। आहट करीब से करीबतर पहुंच रही होती…
-अरे कालू…!
उसे कोई मतलब नहीं।
-अरे तू यहाँ बैठा है। मैं तेरे को ढूंढते-ढूंढते परेशान हो रहा हूँ।
ऐसी-तैसी! वह तना हुआ था। कतई कसा हुआ। कतई चुप।
-चल उठ…! वह अडिग।
-अरे उठ, न! दुल्हन की तरह रूठ रहा बेकार में…!
वह सख्त। पत्थर की तरह सख्त। अकड़ा हुआ।
-अरे यार, गलती हो गई। माफ कर दे। घर में तो बड़ी-बड़ी बातें हो जाती हैं। उठ!
-मेरा कोई घर नहीं! अब जाकर वह बोला है।
-ये लो। मैं तो पागल हूँ ही, ये आदमी मेरा भी बाप बन रहा। मेरा कोई घर नहीं…? तो फिर कहाँ है तेरा घर? उठ-उठ। ज्यादा मूरखपना ठीक नहीं।
-मुझे नहीं जाना कहीं!
-अरे तो साले इस खोपड़े पर दस जूते मार ले यार! और क्या चाहता है तू! अब तो उठ…
पैरों की आहट बगैर रुके तब तक आगे को बढ़ चुकी होती, झटक कर कालू देख लेता। वह कोई दीगर राहगीर निकलता।
सूरज ढल चुका था। पहाड़ियों के पीछे भी, कालू के अंदर भी। अब परताप सिंह को किसी कालू की जरूरत नहीं रह गई। लगा कि एक चोट में दुनिया कटकर अलग हो गई है और वह इस अकेली चट्टान तक सीमित रह गया है। अब वह कहीं नहीं जा सकता। उठकर कुछ देर के लिए चट्टान पर ही खड़ा रह गया।
रात घिर आई थी और कालू भटक रहा था। इस मोड़, उस पुल, उस पगडंडी, उस चोटी… थक जाता तो बैठ जाता। और फिर भटकने लगता।
परताप के यहाँ से निकल आया है। अब दुनिया की हकीकतों के बीच भटक रहा है। लगता है कहीं आसरा नहीं मिलने का। इसी तरह भटकते रह जाना। कैसे जादू की छड़ी की तरह यह दुनिया एक झटके में बेगानी हो गई। कल तक वहम था, सब ही अपने हैं। आज अपना कहने को कोई नहीं रह गया।
साठ-बासठ की उम्र कर ली। कितनों-कितनों के घर बना-बसा आया, अपने लिए पल्ले में चार पैसे नहीं रखे। न कोई घर, न कोई आसरा। जिंदगी ने खाली खंखड़ कर बाहर कर दिया…। जेब में बीड़ी तक नहीं रह जाने दी! क्या। नंगा मजाक है!
हाँ, माँ तो हमेशा रही… छाया की तरह! प्रतिध्वनि की तरह! पर वह उसे कैसे कलपाता था। मजे लेता था। तब पता न था ‘अपना’ क्या होता है। जब पता हुआ, माँ जा चुकी थी।
कितने बरस हो गए उसे मरे। अब तो अनुहार भी भूलने लगी है। पर उसकी ममता नहीं भूली है। …कितना अकेला पड़ गया है वह माँ के बगैर। क्या उसकी आत्मा कालू को याद करती होगी? …माँ, तू कहाँ है? कहाँ गायब हो गई तू? मैं बहुत अकेला, बेसहारा हो गया हूँ, माँ!… वह अंधेरे में एक टूटे हुए पुल पर बैठा था। बेबस से आंसू बह रहे थे।
हवा में रोटियाँ सिंकने की महक लगी। पीछे से तमाखू की खूशबू भी तैर आई। उसने इधर-उधर देखा। सब अंधेरा। सब सन्नाटा। साला वहम!
मोड़ काटकर निकला तो लोगों की आवाज सुन पड़ी। देखा, जहाँ सड़क से हटकर पुरानी धर्मशाला है, वहाँ मुसाफिर लोग रुके हुए हैं, चूल्हा चेत रहा है। रोटियाँ बन रही हैं। वे लोग चूल्हे को घेरकर बैठे तमाखू पी रहे हैं। और गप्प कर रहे हैं और हँस रहे हैं। पास पहुंचकर वह खांसा।
‘कौन है रे?’ उनमें से एक ने डपट कर पूछा और सबके सब मुड़कर देखने लगे।
‘अरे दाज्यू , मैं भी आप ही लोगों की तरह एक मुसाफिर हूँ।’ कालू बढ़ आया।
‘कैसा मुसाफिर? कहाँ से आ रहा इतनी रात? कहाँ का रहनेवाला है? अकेला क्यों है?’ इकट्ठे ही सबने अपनी-अपनी तरफ से सवाल दे फेंके।
‘अरे दाज्यू लोगो, बहुत दूर से आ रहा हूँ। रास्ते में अचानक तबीयत बिगड़ गई तो आते-आते रात हो गई। आप लोगों को देखा तो भरोसा मिला। रात काटनी है, और क्या।’ वह वहीं एक तरफ बैठ गया।
वे लोग टक-टक उसे घूर रहे थे। ‘लेकिन बोझा-बरतन तो कुछ नहीं है रे तेरे पास…! एक तरफ टेक लेकर बैठे एक बुढ़ऊ ने शक किया।
‘हाँ, सच! बोझा-बर्तन तो कुछ भी नहीं है। दूसरे साथियों ने भी गौर किया।
‘गठरी-बोझा क्यों। नहीं है रे तेरे पास?’
‘बगैर गठरी-बोझे का कैसा मुसाफिर है यह?’ वे सब शक में आ गए।
‘दाज्यू लोगो!’ कालू बोला, ‘इतना शक्कीे होने की जरूरत नहीं। गठरी-बोझा पिछली रात एक दुकान में रखा था, कोई उचक्का मार ले गया। खुद ही गरदिश में हूँ। आप लोग ऊपर से शक और कर रहे हो। फर्ज करो कोई गलत ही आदमी निकल गया मैं, तो तुम तो छै-सात जने हो, आराम से मेरा भुर्ता बना सकते हो। लाओ तमाखू इधर बढ़ाओ, मैं भी ठाकुर ही हूँ।’
उसकी भुर्तेवाली बात पर सबको हँसी आ गई। उन्होंने हुक्का बढ़ा दिया। गप्पें चल निकलीं।
सुबह वहाँ से चले, तो बुढ़ऊ वाली गठरी कालू ने खुद उठा ली। अब वह अकेला नहीं था। वे सब लोग एक साथ थे। सब बुढ़ऊ के आदमी थे। बुढ़ऊ उन्हें लेकर रामगढ़ सेब बागानों में जा रहा था। वह सेब बागानों का ठेकेदार था। कालू चूँकि उनमें अकेला ही पढ़ा-लिखा आदमी था और उसे बिजनस-बही खाते का तजुर्बा भी था, इसलिए तय हो चुका था कि वह हिसाब-किताब रखने का काम करेगा। साथी लोग उसे अभी से ‘मुंशीजी’ बोलने लगे थे।
वे लोग अलमोड़ा पहुँचे। कुछ सौदा पत्ता-खरीदना था, खरीदा। और फिर एक होटल में बैठकर सब्जी ली, रोटियों की गठरी निकाली।
अब फटाफट मारो लड़को। और फिर चल पड़ो। रास्ता लंबा है।’ बुढ़ऊ बोले और लड़कों ने फटाफट मारना शुरू कर दिया।
तभी एक चक्कर पड़ गया। होटल वाला उधर एक लकड़हारन से मोलभाव में उलझा था। वह डेढ़ रुपये से बढ़ते-बढ़ते दो रुपये पर आकर रुक गया था, लेकिन लकड़ीवाली दो रुपये-दो आने पर ही अडिग थी। दुअन्नी का फासला रह गया था और वह तय नहीं हो पा रहा।
‘अरे, तू बड़ी अड़ियल औरत लग रही है। वो तो बेचारा डेढ़ रुपये से बढ़ते-बढ़ते दो पर आ गया है, मगर तू वहीं दो रुपये-दो आने पर ही अड़ी हुई है। ऐसे होता है क्या भाव-ताव में! कुछ तू भी तो घट! दो आने की बात है।’ चाय पी रहे ग्राहक ने फटकार जैसी दी।
‘नहीं, मुझे दो रुपये-दो आने ही चाहिए। कम कैसे लूँ।’
‘बड़ी लीचड़ औरत है! दुअन्नी में मरी जा रही है… अच्छा तो जरा इस तरफ घूम।’ दुकानदार बोला।
लकड़हारन घूम गई।
‘दूसरी तरफ को घूम।’
लकड़हारन दूसरी तरफ को घूमी।
तो गोया धरती घूम गई! जबर्दस्त धक्का लगा- ‘भौजी?’ और कालू हाथ की रोटी समेत बाहर आ गया और सीधा गट्ठा उसके सिर से उठा लिया : ‘लकड़ियाँ नहीं बिकेंगी!’ बोला और गट्ठा अपने कंधे पर रख लिया : ‘भौजी तुम जाओ!’
‘मुझे पैसों की जरूरत है।’ दुरोपती ने असहाय हो कर उसकी ओर देख लिया और गिड़गिड़ा गई ‘दवा ले जानी है। दो रुपये दो आने-’
‘अच्छा तो बोल दिया- तुम जाओ!’ खूंखार होकर कालू ने उसे डांट दिया, ‘तुम जाओ यहाँ पर से!’
सिर झुकाए दुरोपती को चुपचाप चला जाना पड़ा।
संपादन और प्रस्तुति : शंभु गुप्त
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