लंबे समय तक अखबार में समाचार संपादक के पद पर कार्य। कई नुक्कड़ नाटकों का लेखन, निर्देशन और अभिनय। दो कहानी संग्रह दक्खिन टोलाऔर पत्थलगड़ी और अन्य कहानियांप्रकाशित।

राजा बनोगे तो क्या खाओगे…?

सोनाचूर का भात, रहर की मसालेदार दाल और आलू-कटहल की तरकारी…।

और राजा बनोगे तो क्या पहनोगे…?

धोआ की धोती और मलमल का कुरता…।

फिर जोर का ठहाका। फुटबॉल खेलकर थके-मांदे सैदुल्लाहपुर गांव के लड़के जब पुलिया पर बैठकर सुस्ताते तो हर आने-जाने वाले से यही सवाल पूछते और सबका जवाब यही होता। पूछने वाले को जितना आनंद आता, जवाब देने वाला उतने ही मजे लेता। पिछले दो साल से यह सवाल केवल लड़के ही नहीं, गांव के बूढ़े-बुजुर्ग और खेतों में काम करने वाले किसान भी एक दूसरे से पूछ रहे हैं। बच्चे से लेकर बूढ़े तक। बूढ़ी महिलाओं से लेकर स्कूलों में रस्सी फांदने वाली बच्चियों तक। ये सवाल और जवाब सबका मनोरंजन कर रहे हैं। पता नहीं इन सवालों को पूछने और इनका जवाब देने वाले लोगों ने कभी किसी राजा को खाते-पहनते देखा है या नहीं। लेकिन यह तो तय है कि किसी के घर से सोनाचूर चावल के पकने पर उठने वाली खुशबू जब आस-पड़ोस के लोगों के नथनों में घुसती है तो उन्हें लग जाता है कि आज तो इस घर में कुछ खास है। या तो बेटे-बेटी की शादी की बातचीत करने के लिए अगुवा आ रहे हैं या कोई ऐसा पैसा अचानक मिला है जिसकी उम्मीद नहीं थी।

सैदुल्लाहपुर बक्सर जिले का एक बड़ा गांव है। एकदम चौसा से सटा हुआ। जी हां, वही चौसा जहां कभी एक छोटे से राजा शेरशाह सूरी ने मुगल सम्राट हुमायूं को धूल चटा दी थी। सैदुल्लाहपुर में सभी जातियों के लोग हैं। हां, कुछ लोगों ने यहां की अपनी जमीन बेचकर पटना-दिल्ली में अपने बाल-बच्चों के पास शरण खोज ली है। लेकिन ऐसे लोग भी इस गांव की मस्ती को भूल नहीं पाए हैं और साल-दो साल पर गांव का चक्कर लगा ही लेते हैं। एक मामले में सैदुल्लाहपुर का खूब नाम है। वह है- इस गांव के लड़कों का फुटबॉल का खेल। मोबाइल फोन से चिपककर रहने के इस युग में भी गांव के लड़कों में फुटबॉल के प्रति दीवानगी में कोई कमी नहीं आई है। जब गांव के लड़के मैदान में उतरते हैं तो गेंद तो जैसे उनके इशारों पर नाचती है। अपने ही जिले नहीं, आसपास के कई जिलों में भी होने वाले टूर्नामेंटों में उनका झंडा फहरा है। गांव के बूढ़े-बुजुर्ग भी इस खेल को लेकर लड़कों का खूब हौसला बढ़ाते हैं। आलम यह है कि जब भी गांव के लड़के कोई मैच जीतकर आते हैं तो गांव में मानो जश्न मनता है। लड़के जीते हुए कप या शील्ड के साथ जुलूस निकालते हैं और बनता है- सोनाचूर चावल का भात और खस्सी का मांस। मांस नहीं खाने वाले आलू-कटहल या आलू-परवल की सब्जी से इस जश्न का मजा उठाते हैं। इस मौके पर जमकर नारा लगता है- राजा बनोगे तो क्या खाओगे…?

मजेदार बात तो तब हुई जब गांव के हरेराम सिंह के इकलौते बेटे विनोद सिंह की शादी बक्सर में ठीक हुई। विनोद सिंह की नौकरी हाल ही में बैंक में हुई है। कहते हैं कि शादी में हरेराम सिंह ने लड़की पक्ष वालों से जमकर उगाही की। बहरहाल जब बारात बक्सर के सिविल लाइंस मुहल्ले में पहुंची तो लड़की वालों ने जयमाल की व्यवस्था कर रखी थी। विनोद सिंह ने जैसे ही लड़की के गले में जयमाला डाली बारातियों ने नारा लगाया- विनोद बाबू, राजा बनोगे तो क्या खाओगे…? हरेराम सिंह कटकर रह गए। उन्हें लगा कि गांव वालों को पता चल गया है कि दहेज में उन्होंने मोटा माल वसूल लिया है और इसीलिए ये नारा लगा रहे हैं। मात्र यही नहीं अब तो प्रेम कहानियों में भी ये नारा अपनी जगह बनाने लगा है। फुटबॉल खेलकर थक जाने के बाद गांव के लड़के कभी-कभी मंदिर के पीछे के पुरनका पोखरा के किनारे भी अड्डा जमाते हैं। अब यहां जिसे जो पसंद है वही बात करता है। कुछ लोग मोबाइल फोन के बारे में बात करते हैं तो कुछ लोग नई फिल्मों के बारे में चर्चा करते हैं। कुछ लड़के पढ़ाई-लिखाई और परीक्षाओं के मसले पर गंभीर विमर्श खड़ा करते हैं। लेकिन सारी चर्चाओं का अंत इसी बात पर आकर खत्म होता है कि आजकल गांव के किस लड़के का किस लड़की के साथ इश्क परवान चढ़ रहा है। अब एक दिन पुरनका पोखरा के किनारे बैठे लड़कों को शकील ने बड़ी मजेदार घटना बताई। उसके अनुसार बेचन तिवारी की बेटी सीमा का प्रेम अमर महतो के बेटे रोहित के साथ पूरा परवान चढ़ा है। अब खतो-किताबत का जमाना रहा नहीं, लिहाजा वीडियो कॉल पर दोनों रात-रात भर बात करते हैं। लेकिन मिलने-जुलने पर पाबंदी वही है जो पचास साल पहले थी। अब दो दिन पहले ही रोहित ने बड़ी मुश्किल से सीमा को गांव के मीडिल स्कूल के पीछे पकड़ा और मुस्कुराते हुए गुनगुनाया- ‘आज से तेरी सारी गलियां मेरी हो गईं।’ उसे उम्मीद थी कि सीमा भी जवाब में कोई गीत गुनगुनाएगी। लेकिन सीमा ने उसके हाथ को कसकर दबाया और मुस्कुराकर कहा- ‘राजा बनोगे तो क्या खाओगे मेरे राजा…?’

हो सकता है कि आपके दिमाग में यह सवाल उठ रहा हो कि सैदुल्लाहपुर के लोग एक-दूसरे से यही बात क्यों पूछते हैं? आखिर राजा के खान-पान और पहनावे को लेकर इस गांव के लोगों की इस मुहब्बत का कारण क्या है? तो इस सवाल के पीछे भी एक कहानी है जो उनकी जमीन ही नहीं उनकी रोज-ब-रोज की जिंदगी से भी जुड़ी हुई है। दरअसल गांव के लोगों को लगता है कि उनके दुख के बादल अब छंटने ही वाले हैं। अब उनके पास पैसों की कोई कमी नहीं होगी और उनकी सारी समस्याओं का चुटकी बजाते ही समाधान हो जाएगा। एकदम राजा की तरह। उनकी यह सोच अकारण भी नहीं है। बात ऐसी है कि अभी से लगभग 15 साल पहले सरकार ने तय किया था कि सैदुल्लाहपुर में बिजली बनाने का कारखाना लगेगा। बड़ी जोर-शोर से तैयारी हुई। लेकिन कारखाने के लिए जमीन चाहिए थी। सरकारी अधिकारी गांव पहुंचे और किसानों से कहा गया कि कारखाने के लिए वे अपनी जमीनें दें। किसानों को इसके कई फायदे समझाए गए। बताया गया कि इससे उनके गांव ही नहीं आसपास के सभी इलाकों में बिजली की समस्या हमेशा के लिए दूर हो जाएगी। बिजली कभी कटेगी ही नहीं। दूसरा फायदा यह कि गांव के लोगों के रोजगार के नए रास्ते खुलेंगे। यहां कारखाने में काम करने वाले लोगों के लिए कॉलोनी बनेगी तो उस कॉलोनी में रहने वालों के लिए बाजार भी बनेगा। अब बाजार में दुकानें तो सैदुल्लाहपुर के लोगों की ही होंगी। इसके अलावा किसानों की जो जमीन ली जाएगी उसका भुगतान भी बाजार दर से किया जाएगा। 

उस सैदुल्ल्लाहपुर के लिए यह नायाब प्रस्ताव था, जहां के अधिकतर घरों के लड़के 20 साल के होते न होते काम की तलाश में दिल्ली-कोलकाता की राह पकड़ लेते हैं। किसानों को लगा कि यहां बिजली का कारखाना खुल जाने से कम से कम उनके लड़कों को काम के लिए बाहर नहीं जाना पड़ेगा। और फिर सरकार की ओर से तय जमीन की कीमत भी उन्हें मिल जाएगी। लिहाजा थोड़े ना-नुकुर के बाद किसान अपनी जमीन कारखाने के लिए देने को तैयार हो गए। गांव के लगभग सभी किसानों के हिस्से की कुछ न कुछ जमीन इस कारखाने के लिए गई। इधर कारखाना बनने का काम शुरू हुआ और उधर किसान जमीन के मुआवजे का इंतजार करने लगे। लेकिन साहब, सरकारी काम तो सरकारी ही होता है। तीन साल बीते, पांच साल बीते और देखते-देखते पंद्रह साल से भी अधिक बीत गए। गांव के किसान बक्सर के डीएम ऑफिस से लेकर चौसा के बीडीओ ऑफिस तक का चक्कर लगाते रहे। ऑफिस में अलसाए-ऊंघते बाबुओं का एक ही जवाब होता- ‘फाइल पर काम चल रहा है।’

उस समय जन्म लेने वाले बच्चे जवानी की दहलीज पर आ गए और जवानों ने बुढ़ापे की राह पकड़ ली लेकिन जमीन का मुआवजा नहीं मिला। किसानों की जमीन पर कारखाना तो बनकर खड़ा हो गया लेकिन न तो इसमें बिजली बननी शुरू हुई और न ही उसमें काम करने वाले लोग आए। किसानों ने संगठन बनाए, आंदोलन किए और इस मसले को लेकर चुनाव का बहिष्कार तक किया लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ।

ये सारा मामला चल ही रहा था तभी एक अनोखी बात हुई। हुआ यह कि सैदुल्लाहपुर से होकर एक नई चार लेन वाली सड़क निकालने का प्रोजेक्ट मंजूर हो गया। इस सड़क को सीधे बक्सर और बनारस के बीच बनने वाली सड़क से जोड़ने का फैसला किया गया। इधर यह फैसला हुआ और उधर सैदुल्लाहपुर और इससे सटे गांवों की जमीन के भाव आसमान छूने लगे। दुगुने-चौगुने नहीं छहगुने तक। अब जिन किसानों की जमीन बिजली कारखाने के लिए ली गई थी उन्हें लगा कि उन्होंने सरकार की बात मानकर भारी गलती कर दी। गांव में बैठक हुई और उस बैठक में किसानों ने तय किया कि चूंकि सरकार ने उनकी जमीन का कोई मुआवजा नहीं दिया है इसलिए वे अपनी जमीन वापस लेंगे और उसपर खेती शुरू करेंगे।

जैसे ही यह खबर बक्सर पहुंची, हंगामा मच गया। अधिकारियों के कान खड़े हो गए। अभी हाल ही में दिल्ली में हुए किसान आंदोलन का असर वे लोग टीवी पर देख चुके थे। और फिर अगले ही महीने बिजली कारखाने को चालू करने की घोषणा सरकार ने कर रखी थी। आनन-फानन में बक्सर से अधिकारियों का दल सैदुल्लाहपुर पहुंचा। गांव में कैम्प लगा और किसानों को बताया गया कि राज्य सरकार ने उनकी जमीन के मुआवजा के लिए पैसा भेज दिया है। जल्दी ही किसानों को बाजार की दर से मुआवजे का भुगतान कर दिया जाएगा। इसके लिए किसानों को बक्सर तक की दौड़ नहीं लगानी होगी। दो महीने के भीतर गांव में ही इसके लिए कैम्प लगाया जाएगा। अधिकारी से लेकर कर्मचारी तक की ड्यूटी उस कैम्प में लगाई जाएगी। चूंकि जमीन के अधिग्रहण का लंबा समय बीत गया है इसलिए किसान अपने कागज-पत्तर के साथ उस कैम्प में आएंगे। सारी जांच-पड़ताल के बाद किसानों के खाते में सीधे राशि चली जाएगी। सैदुल्लाहपुर के किसान बड़े प्रसन्न हुए। अब क्या दिक्कत है। जमीन का भाव तो आसमान छू रहा है। सरकार भी बाजार भाव से पैसे देने के लिए तैयार है। मुआवजे के भुगतान के साथ सारे काम आसान। उस दिन कृष्णमोहन मिश्र जब अपनी मोटरसाइकिल से दनदनाते हुए गांव की चट्टी पर चाय की दुकान पर पहुंचे तो वहां जैसे पूरा गांव जमा था। बिजली के कारखाने में सबसे ज्यादा जमीन कृष्णमोहन मिश्र की ही गई थी। वहां पहले से मौजूद इम्तियाज अहमद ने मुंह में पान की पीक घुलाते हुए कहा- ‘का बाबा, सलाम।’

कृष्णमोहन मिश्र ने मुस्कुराते हुए अपना सिर नीचे किया। दो चाय का आदेश देते हुए उन्होंने इम्तियाज अहमद को अपने बगल में बैठने का इशारा किया। इम्तियाज अहमद ने चुटकी ली- ‘का बाबा, अब तो राजा बन जाइएगा। खाइएगा का?’

कृष्णमोहन मिश्र ने जोर से कहा- ‘खाएंगे सोनाचूर का भात, रहर की मसालेदार दाल और आलू-कटहल की तरकारी। पहनेंगे धोवा की धोती और मलमल का कुरता। तुमको कोई ऐतराज है तो बताओ।’ इसके बाद दुकान पर लगा जोर का ठहाका।

इम्तियाज अहमद ने हँसी के बीच ही कहा- ‘और बाबा हम तो खाएंगे सोनाचूर का भात और खस्सी का गोश्त। खाना होगा तो आ जाइएगा। अभी से नेवता दे देते हैं।’ इस बार ठहाके की आवाज दुगुनी हो गई।

वह दिन भी आ ही गया जो लोगों के राजा बनने की राह खोलने वाला था। गांव के सरकारी स्कूल के अहाते में सरकार का कैंप लगा। स्कूल के ठीक बगल में तालाब है और तालाब के किनारे घने पेड़। गरमी के दिनों में जब स्कूल की छुट्टी होती है तो आधा गांव इन्हीं पेड़ों के तले डटा रहता है। कोई ताश के मजमे का खेल लगाता है तो कोई लूडो में अपनी ताकत आजमाता है। हालांकि अधिकतर युवा अपने मोबाइल फोन में ही लगे रहते। लेकिन आज स्कूल के अहाते का माहौल बदला-बदला था। अहाते में कई कुर्सी और टेबुल लगे थे। इनपर सरकारी बाबू लोग अपने कागज-पत्तर के साथ जमे थे।

सैदुल्लाहपुर में तो जैसे होली-दीपावली का त्योहार हो। घरों में काम जल्दी-जल्दी निपटाए जा रहे थे। सभी को तैयार रहने का आदेश दिया जा रहा था। कैंप में पता नहीं कब किसकी जरूरत पड़ जाए। बूढ़े लोग नहा-धोकर धोती-कुरता में सज गए थे और दरवाजे पर बैठकी जमा ली थी। गांव के युवा सुबह से ही कैंप में आए बाबुओं के स्वागत में लगे थे। उनके लिए कभी नाश्ता तो कभी चाय के कप लगातार आ रहे थे। पान खाने वाले बाबू के टेबुल पर खास बक्सर से मंगवाई गई पान की गिल्लोरियां रखी हुई थीं। एक तरफ बेल का शरबत तो दूसरी तरफ आम के पन्ने का इंतजाम किया जा रहा था। इन सभी कामों की जिम्मेवारी खुद नरेंद्र यादव ने संभाल रखी थी। नरेंद्र यादव गांव के ही नेता हैं। इस बार मुखिया का चुनाव लड़ने की उनकी योजना है।

स्कूल के हेडमास्टर के कमरे में कोई बड़ा अधिकारी पहुंचा हुआ था जिसे लोग हाकिम नाम से संबोधित कर रहे थे। वह कैंप की सारी चीजों पर नजर रख रहा था। अहाते में एक लाउडस्पीकर लगा हुआ था जिससे मुआवजे को लेकर रह-रह कर कुछ न कुछ घोषणा हो रही थी। जैसे ही घड़ी की सूइयों ने दस बजने का ऐलान किया हाकिम ने एक चपरासी को माइक अपने पास लाने का हुक्म दिया। माइक आते ही हाकिम ने पहले फूंक कर देखा कि यह बराबर काम कर रहा है या नहीं। इसपर भी संतोष नहीं हुआ तो तीन बार हलो-हलो-हलो कहा। पूरी तरह से संतुष्ट हो जाने के बाद उसने अपनी गंभीर आवाज में कहा- ‘कृपया ध्यान दें। सैदुल्लाहपुर के ऐसे सभी किसानों के मुआवजे की राशि आ गई है जिन्होंने अपनी जमीन बिजली के कारखाने के लिए दी है। आपलोग कतार में लगकर अपने जरूरी दस्तावेजों साथ आवेदन जमा कर दें। कौन-कौन से दस्तावेज जमा करने हैं इसकी सूची स्कूल के गेट पर लगा दी गई है। कृपया हंगामा नहीं करेंगे। आपलोग जितनी शांति से रहेंगे आपका काम उतनी ही जल्दी होगा।’

देखते-देखते स्कूल के गेट के पास किसानों की भीड़ लग गई। गांव के ही विनोद रजक सूची पढ़कर बता रहे थे और किसान अपने दस्तावेजों से उसका मिलान कर रहे थे।

ये सब अभी चल ही रहा था कि लाउडस्पीकर पर फिर आवाज गूंजी। लोगों ने अपने कान लाउडस्पीकर की ओर ओड़ लिए। इस बार यह आवाज मानो कहर बनकर टूटी थी। लोगों को भरोसा नहीं हुआ कि लाउडस्पीकर से हो रही घोषणा एकदम सच है। स्कूल के गेट पर जमा किसानों ने पहले एक-दूसरे का चेहरा देखा और फिर नरोत्तम तिवारी की ओर लपके। नरोत्तम तिवारी गांव के लोगों और प्रखंड ऑफिस के बीच की कड़ी थे। आम बोलचाल की भाषा में ऐसे लोगों को दलाल कहा जाता है लेकिन गांव के लोग उन्हें मुखिया जी कहते थे। वैसे नरोत्तम तिवारी मुखिया बनने की बात तो दूर उसका चुनाव तक नहीं लड़े थे। वह तो उन्होंने एक बार गांजे की झोंक में मुखिया का चुनाव लड़ने की मंशा गांव के ही कुछ लड़कों के सामने जता दी थी और फिर वे पूरे गांव के लिए मुखिया जी हो गये थे। बहरहाल, नरोत्तम तिवारी खुद लाउडस्पीकर पर हो रही घोषणा को सुनकर सकते में थे। उनकी भी पांच कठ्ठे जमीन इस मामले में फंसी थी। गांव के लोगों ने उन्हें झकझोरा तब वे होश में आए। उन्होंने बड़ी देर से मुंह में जमी पान की पीक फेंकी और बुदबुदाये- ‘साला, पगला गया है का सब?’

वह तेजी से उस कमरे की ओर बढ़े जिसमें बैठकर हाकिम लगातार माइक पर बोले जा रहा था। नरोत्तम तिवारी के पीछे-पीछे किसानों का भी रेला बढ़ा। अब कोई भी लाउडस्पीकर पर हो रही घोषणा को नहीं सुन रहा था। सभी लोग अपनी बात कह रहे थे। बात कह क्या रहे थे, दरअसल वे चीख रहे थे। एक साथ सभी लोगों के चीखने के कारण किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि सामने वाला क्या कह रहा है।

हेडमास्टर का कमरा वैसा ही था जैसा आम तौर पर गांव के स्कूलों में होता है। एक बड़े से बरामदे के एक सिरे पर हेडमास्टर का कमरा था तो दूसरे सिरे पर रसोई घर। इस रसोईघर में बच्चों के लिए दिन की खिचड़ी बनती थी। हेडमास्टर का कमरा छोटा सा था। इसमें बड़ी सी टेबुल और कुर्सी लगाने के बाद जो जगह बची थी उसमें से आधे पर आलमारी का कब्जा था। बाकी आधे में आगंतुकों के लिए दो कुर्सियां रखी थीं।

हेडमास्टर वाली कुर्सी पर हाकिम कहा जाने वाला शख्स विराजमान था। गोरा रंग, दरमियाना कद, पेट जबरदस्त तरीके से बाहर निकला हुआ, छोटी-छोटी मिचमिचाई सी आंखें, उन आंखों पर छोटी फ्रेम वाला लेकिन मंहगा चश्मा, खड़ी नाक और खिचड़ी बाल। उम्र पचास के लपेटे में। जब नरोत्तम तिवारी कमरे में घुसे उस समय वह दरवाजे की तरफ ही देख रहा था गोया उसे उम्मीद हो कि गांव के लोग उससे बात करने आएंगे। नरोत्तम तिवारी के पीछे-पीछे गांव के लोगों का भी रेला घुसा लेकिन अंदर जगह नहीं मिलने के कारण उन्हें बरामदे में ही रुक जाना पड़ा। तिवारी जी के साथ नरेंद्र यादव भी अंदर घुसे लेकिन जगह की कमी के कारण उनका केवल सिर अंदर जा पाया था। नरोत्तम तिवारी अंदर घुसते ही चीखे- ‘ये क्या हो रहा है हुजूर? इससे तो किसान मर जाएंगे।’

‘क्या हो गया? आप लोग यहां कैसे आ गए?’ हाकिम ने टेबुल पर रखे गोल पेपरवेट को नचाते हुए पूछा।

‘हुजूर, अभी आपने लाउडस्पीकर पर कहा है कि किसानों को मुआवजा उस समय के रेट से दिया जाएगा जब जमीन ली गई थी।’ नरोत्तम तिवारी अपने पीछे खड़े किसानों की ताकत से लबालब भरे हुए थे।

‘तो..?’ हाकिम मुस्कुराया।

‘हुजूर उस समय यहां की जमीन का रेट दस हजार रुपये कठ्ठा था और अभी लाख के आसपास है। जब सरकार मुआवजा अब दे रही है तो अभी के रेट से मिलना चाहिए।’

अचानक इम्तियाज अहमद धकियाते हुए अंदर घुसे। कम जगह होने के बावजूद नरोत्तम तिवारी और नरेंद्र यादव को सरकाते हुए उन्होंने अपने लिए जगह बना ही ली। हाकिम ने इम्तियाज अहमद की पतली-दुबली देह को चश्मा सरका कर देखा और फिर कहा- ‘भाई जब आपलोगों से जमीन ली गई तो सरकार ने एग्रीमेंट किया था। अब उसी एग्रीमेंट के अनुसार आपको मुआवजा दिया जा रहा है।’

‘लेकिन हाकिम, तब हमें मुआवजा मिला ही नहीं। और अब दस साल बाद इसे दिया जा रहा है तो अभी के रेट से मिलना चाहिए न?’ इस बार नरेंद्र यादव ने मुंह खोला।

‘देखिए, आपको मुआवजा लेना हो तो कागज-पत्तर जमा कीजिए। कानून बतियाना है तो डीएम से बात कीजिए। सरकार से बात कीजिए।’ हाकिम ने थोड़ी ऊंची आवाज में कहा।

‘लेकिन हुजूर, हमारे लिए तो सरकार आप ही हैं। आप हमारे घर में आए हैं। आप हमारी बात नहीं सुनेंगे तो कौन सुनेगा?’ इम्तियाज अहमद ने झुककर कहा।

इस बार हाकिम खड़ा हुआ, दोनों हाथों को ऊपर उठाकर खींचा और जम्हाई लेते हुए कहा- ‘देखिए भाई। आपकी बात मेरी समझ में नहीं आ रही है। लेकिन क्या है न भाई, मैं तो केवल फैसलों को लागू करने वाला हूँ। अगर आपलोगों ने मुआवजा ले लिया तो वाह-वाह, नहीं तो मैं सरकार को बता दूंगा कि आप इसके लिए तैयार नहीं है। लेकिन जो भी फैसला करना हो जल्दी कीजिए। इस गरमी में मेरी हालत खराब है। और इस हेडमास्टर का पंखा साला घूम कम रहा है और आवाज ज्यादा कर रहा है।’

‘तो सर, एक बात तो फाइनल है। गांव का कोई भी किसान पुराने रेट से जमीन का मुआवजा नहीं लेगा।’ नरेंद्र यादव ने चिल्लाकर कहा। उन्होंने कह तो दिया लेकिन उन्हें उम्मीद कम थी कि उनकी बात से गांव के लोग सहमत होंगे। उन्होंने घूमकर पीछे देखा और हैरत में पड़ गए। बरामदे में खड़े लोग जोर-जोर से नारे लगा रहे थे- ‘पुराने रेट से मुआवजा नहीं लेंगे, नहीं लेंगे-नहीं लेंगे।’

नारे की आवाज सुनते ही स्कूल के कैंपस में खड़े पुलिस वाले दौड़े। वे बरामदे से किसानों को जबरन खींच-खींचकर नीचे उतारने लगे। हालांकि किसानों का नारा लगाने का क्रम मुसलसल जारी था। लगभग एक घंटे के भीतर स्कूल का कैंपस खाली हो चुका था। गांव का एक भी किसान वहां मौजूद नहीं था। कर्मचारी अपने टेबुल से उठकर पेड़ों के नीचे पसर गए थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। तभी हाकिम तेज-तेज कदमों से चलता हुआ आया और कहा- ‘शाम के पांच बजे तक जमे रहना है। एक भी किसान ने मुआवजे के लिए आवेदन दे दिया तो हमारा कैंप सफल। कोई नहीं आया तो सरकार जाने और बिजली कंपनी का प्रबंधन। साला, एक जगह का लफड़ा खत्म होता नहीं कि दूसरी जगह का शुरू हो जाता है।’

शाम के पांच बज गए और गांव के किसान तो क्या उनके मवेशी भी स्कूल के कैंपस में नहीं पहुंचे। और तो और किसानों ने बेल की शरबत और आम के पन्ने की व्यवस्था भी वहां से हटा ली थी। अलबत्ता पानी का ड्रम और गिलास छोड़ दिया था। लेकिन शाम होतेहोते ड्रम का पानी इतना गर्म हो गया गोया किसी ने खौलाकर रख दिया हो। इसे पीना तो दूर हाथपांव भी धोना मुश्किल था।

शाम पांच बजते ही बाबू लोग और हाकिम ने वहां लगी सरकारी गाड़ियों से बक्सर की राह पकड़ी। स्कूल शांत पड़ गया। शाम गहराने के साथ हवा थोड़ी ठंडी हुई। लेकिन गांव में बह रही हवा कुछ ज्यादा ही गर्म थी। इस गर्म हवा से हर कोई बेचैन था। जवानों को तो लग रहा था कि उनके सीने के अंदर आग लगी हो। वे बार-बार बिजली कारखाने के भवन की ओर देखते उनके नथने फूलने-पिचकने लगते। शाम के सात बजे तक गांव के सभी लड़कों के फोन में मैसेज घूम रहा था- कल सुबह सात बजे बिजली कारखाने के नए भवन के सामने जुटना है। मैसेज भेजने वाले गांव की फुटबॉल टीम के लड़के थे। पंद्रह से बीस साल तक के लड़के। पता नहीं उनके दिमाग में यह बात कैसे आ गई कि जुटान वहीं हो जहां से लड़ाई शुरू करनी है।

तो सुबह सात बजे मानो पूरा गांव बिजली कारखाने के सामने जमा था। मैसेज तो लड़कों के मोबाइल फोन पर घूमा था लेकिन जमा होने वालों में बड़े-बूढ़ों की संख्या भी कम नहीं थी। कारखाने के गेट के सामने बरगद का एक विशाल पेड़ था। इस पेड़ के नीचे लड़कों ने बड़ी सी दरी बिछा दी थी। हालांकि उम्मीद नहीं थी कि पूरा गांव ही यहां जुट जाएगा। नतीजा यह हुआ कि दरी छोटी पड़ गई थी। जो लोग दरी पर नहीं अट पाए वे यूं ही जमीन पर बैठ गए थे। गेट पर खड़े बिजली कारखाने के सुरक्षाकर्मी हैरत से गांव वालों को देख रहे थे। बरगद के पेड़ के नीचे बैठे लोग आपस में बातचीत में मगन थे तभी गांव की फुटबॉल टीम का कप्तान शकील खड़ा हुआ। शकील बीस-बाइस साल का लंबा सा नौजवान था। सांवला रंग, छोटे बाल और गठीला शरीर। उसने हाथ के इशारे से सबको शांत रहने के लिए कहा और इसके बाद गंभीर आवाज में कहना शुरू किया- ‘हमलोगों के यहां जमा होने का एक खास मकसद है। सरकार और बिजली कंपनी वाले मिलकर हमारी जमीन कौड़ियों के मोल लेना चाहते हैं। लेकिन यह तय है कि हम ऐसा नहीं होने देंगे। या तो सरकार हमारी जमीन वापस करे या आज के रेट के हिसाब से हमारी जमीन का मुआवजा दे। मैं चाहूंगा कि अवध बिहारी तिवारी जी इस पर रोशनी डालें।’

अवध बिहारी तिवारी खड़े हुए। लगभग साठ साल के अवध बिहारी तिवारी कभी फौज में थे। रिटायर होने के बाद गांव में ही रहते थे। इकलौता बेटा बंगलोर में सेट था और उसने कई बार उनसे जमीन बेचकर बंगलोर आ जाने के लिए कहा था। लेकिन वे नहीं माने और गांव में ही रह गए। गांव वाले उनकी बड़ी इज्जत करते थे। अवध बिहारी तिवारी ने बुलंद आवाज में कहा- ‘देखिए, जब मैं सीमा पर देश के दुश्मनों से लड़ रहा था तब सोचा भी नहीं था कि कभी अपने हक के लिए सरकार से भी लड़ना होगा। मेरा सुझाव है कि आज से हमलोग तय कर लें कि इस कारखाने को तब तक चालू होने नहीं देंगे जब तक हमारी जमीन की उचित कीमत नहीं मिल जाती। इस कारखाने के गेट का घेराव करेंगे और किसी भी अधिकारी को न अंदर जाने देंगे और न ही किसी को बाहर आने देंगे।’ इतना कहकर वह बैठ गए। लोगों में खुसर-फुसर शुरू हो गई थी। अचानक इम्तियाज अहमद खड़े हुए और जोर से कहने लगे- ‘हम तैयार हैं। हम लड़ेंगे तो सरकार हमारी बात मानेगी। चुप बैठ जाएंगे तो जो रेट सरकार देना चाहती है वही लेना पड़ेगा, आज से और अभी से कारखाने का घेराव शुरू करें।’ उनके इतना कहते ही सामने बैठे लोग जोर-जोर से बोलने लगे। कुछ लोग कारखाने में घुस जाने तो कुछ लोग हमला करके बिल्डिंग की दीवारें तोड़ देने की बात कर रहे थे। आवाज बढ़ती जा रही थी और इधर कारखाने के दरवाजे पर खड़े सुरक्षा प्रहरी सकते में थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि गांव के लोग कारखाने के अंदर घुसने लगेंगे तो वे उन्हें रोकेंगे कैसे। तभी अवध बिहारी तिवारी दुबारा खड़े हुए और चिल्लाकर कहा- ‘हम न तो कानून हाथ में लेंगे और न ही तोड़-फोड़ करेंगे। हम शांति से धरना देंगे लेकिन किसी भी कीमत पर कारखाने का काम शुरू नहीं होने देंगे।’ थोड़े हो-हंगामे और चीख-पुकार के बाद लोगों ने उनकी बात से सहमति जता दी।

धरना शुरू हुआ। गांव के लड़कों ने तय किया कि कुछ दिनों के लिए फुटबॉल का खेल बंद। पढ़ाई-लिखाई भी अब कारखाने के गेट के सामने के बरगद के पेड़ के नीचे ही होगी। सुबह से गांव के बड़े-बूढ़े धरना देते तो दोपहर के बाद महिलाएं पहुंच जातीं। शाम होते-होते गांव के लड़के जुट जाते और धरना के साथ गाने-बजाने का कार्यक्रम भी चलता। देर रात तक गांव गुलजार। दो दिन में ही धरना की चर्चा बक्सर ही नहीं पटना तक पहुंच गई। इधर धरना जमना शुरू ही हुआ था कि कारखाने को चालू करने की घोषणा को अमली जामा पहनाने के क्रम में बिजली कंपनी के अधिकारी इसका मुआयना करने सैदुल्लाहपुर पहुंचे। उनकी गाड़ी कारखाने के भवन के सामने रुकी ही थी कि किसानों ने घेर लिया। किसानों ने अधिकारियों को साफ बता दिया कि जब तक उनकी जमीन का मुआवजा नहीं मिल जाता तब तक न तो कारखाना चालू होगा और न ही कोई अधिकारी अंदर जाएगा। अधिकारियों ने कानून बताना शुरू किया तो किसानों ने उन्हें दौड़ा लिया। अधिकारी जान लेकर भागे। लेकिन इधर अधिकारी बक्सर पहुंचे और उधर से पुलिस सैदुल्लाहपुर पहुंची। चार गाड़ी पुलिस वाले। पहले पुलिस अधिकारियों ने किसानों से कहा कि वे धरना दें लेकिन यहां नहीं। कारखाने के सामने से हट जाएं और इसे चालू करने दें। किसानों ने साफ कहा कि जब तक उन्हें सही-सही मुआवजा नहीं मिल जाता तब तक उनके यहां से हटने का सवाल ही नहीं है। पहले दिन पुलिस ने कोई सख्ती नहीं दिखाई और चुपचाप वापस लौट गई। जाहिर था कि वह लौटने के लिए वापस गई थी। गांव वालों को भी यह पता था कि आज नहीं तो कल उन्हें जबर्दस्ती वहां से हटाने का खेल होगा। लिहाजा रात में उसी बरगद के नीचे गांव के लोग फिर बैठे। लड़कों ने कहा- ‘पुलिस लाठी-गोली चलाएगी, यह तय है। जेल भी जाना होगा। तय कर लीजिए।’

गांव के बड़े बुजुर्गों ने कहा- ‘अब जो होना है, हो जाए। पीछे नहीं हटेंगे। या तो जमीन वापस हो या सही मुआवजा मिले। इससे एक नया पैसा कम मंजूर नहीं।’

फिर शकील खड़ा हुआ। उसने धीरे से कहा- ‘मेरा एक सुझाव है। अब बुजुर्ग लोग घर पर रहें। महिलाएं भी नहीं आएं। नौजवान लोग ही 24 घंटे रहे। पता नहीं कब लाठी चल जाए। ऐसे में बूढ़े-बुजुर्गों और महिलाओं को बचाना जरूरी होगा। तो कल से…।’

उसने अपनी बात पूरी भी नहीं की थी कि अवध बिहारी तिवारी चिल्लाए-

‘पगला गए हो क्या तुम? अभी हमलोग लड़ सकते हैं और हमें ही आगे रहना चाहिए। पता नहीं कितने दिनों तक लड़ाई को चलाना पड़े इसलिए तुमलोगों को बचाना बहुत जरूरी है।’ उनके बोलने के साथ सभी लोग जोर-जोर से बोलने लगे। शकील खड़ा हुआ, मुस्कुराया और फिर कहा- ‘तो फिर ठीक है। कल से बनाइए मोर्चा। हो लड़ाई।’

अगले दिन पौ भी नहीं फटा था कि पूरा सैदुल्लाहपुर गाड़ियों की आवाज से गूंज उठा। सभी पुलिस की गाड़ियां। ट्रक में भरे पुलिस वाले तो जीप में भी लदे हुए। साथ में एक खाली बस भी। एक ट्रक तो पूरी तरह से जालियों से घिरी हुई थी। अंदर कुछ दिखाई भी नहीं पड़ रहा था। उसकी छत से एक बंदूक की नाल निकली थी। यह नाल थोड़ी ज्यादा बड़ी, चौड़ी और गोल थी। अवध बिहारी तिवारी शकील के कान में फुसफुसाए- ‘यह आंसू गैस के गोले बरसाती है। आंखों की हिफाजत के लिए सबको चश्मा पहन लेना चाहिए।’

अभी वह अपनी बात खत्म भी नहीं कर पाए थे कि एक जीप पर सवार पुलिस अधिकारी चीखा- ‘सभी को पांच मिनट की मोहलत दी जाती है। आपलोग इस जगह को खाली कर दें। पांच मिनट के बाद पुलिस कार्रवाई के लिए मजबूर होगी और उसकी सारी जिम्मेवारी आपलोगों की होगी।’

शकील और अवध बिहारी तिवारी ने सोचा कि पुलिस पहले बातचीत करेगी। लेकिन यह तो सीधी चेतावनी थी। अचानक इम्तियाज अहमद खड़े हुए और जोर से चिल्लाए- ‘आपको जो करना हो, कर लीजिए। हमलोग यहां से हटने वाले नहीं हैं।’

उनकी बात अभी खत्म भी नहीं हुई थी कि दर्जनों पुलिसवाले किसानों की ओर लपके और उन्हें पकड़कर खींचने लगे। किसानों ने एक-दूसरे को कसकर पकड़ लिया। कुछ लोगों ने बरगद के पेड़ को भर अंकवारी जकड़ लिया तो कुछ लोगों ने कारखाने के गेट को पकड़ लिया। लाख कोशिशों के बाद भी पुलिस जब उन्हें अलग नहीं कर पाई तो उन्होंने अपनी लाठियों से कोंचना शुरू किया। एक पुलिस वाले ने लाठी से अवध बिहारी तिवारी के सर पर वार किया। उनका सर फट गया। शकील उनके पीछे ही खड़ा था। पुलिस का जवान लाठी का अगला वार करता तभी शकील ने लपककर उसकी लाठी छीनी और उसके ऊपर चला दी। इस बार सिपाही के माथे से खून की धार बह निकली। इसके बाद तो पुलिस के जवान मानो पागल हो गए। लाठियां दनदनाने लगीं। जो सामने मिला उसपर लाठी। किसी का सर फटा तो किसी के हाथ टूटे। आधे घंटे के भीतर किसान जमीन पर पसरे पड़े थे और पुलिस के जवान विजेताओं की तरह टहल रहे थे। पुलिस अधिकारी किसी को फोन पर बता रहा था- ‘सर, गेट को खाली करा लिया गया है। लेकिन माहौल बहुत तनावपूर्ण है। पता चला है कि अब महिलाएं घेराव करने के लिए आ रही हैं। कारखाने को अभी चालू करना ठीक नहीं होगा।’

इधर पुलिस ने घायलों को जबरिया उठाकर खाली बस में ठूंसना शुरू कर दिया था। कृष्णबिहारी मिश्र ने अपने गमछे को माथे पर लपेटकर बहते खून को रोकने की कोशिश की। बगल में इम्तियाज अहमद टूटकर लटक रहे अपने हाथ को सहारा देने की कोशिश कर रहे थे। कृष्णबिहारी मिश्र ने नाक पर बह आये खून को पोंछते हुए जोर से कहा- क्या इम्तियाज भाई, राजा बनोगे तो क्या खाओगे?

संपर्क : फ्लैट नं. ३०१, निरंजन अपार्टमेंट, आकाशवाणी मार्ग, खाजपुरा, बेली रोड, पटना८०००१४ मो.९९३४९९४६०३

(All Images Badri Narayan )