युवा कवयित्री।अतिथि प्राध्यापक, स्नातकोत्तर हिंदी विभाग, दरभंगा हाउस, पटना विश्वविद्यालय।

उसकी आग

टूट कर
जी रही हूँ
जैसे डाली से टूट कर
जीता है कोई पत्ता
और
किसी चूल्हे में एक दिन
जल जाता है
ताकि कोई
उसकी आग को
रोटियों में दबाकर खा सके।

मेरे सपने

रात के आखिरी पहर में
हवा की उंगली पकड़
छत पर टहल रही थी
चारों ओर सघन चुप्पी में
चांद मुस्करा रहा था
मुझे टहलते देख
थकी हुई रात
धीरे-धीरे
मुझसे उंगली छुड़ा रही थी
तभी मेरी नजर
आकाश की ओर गई
अपलक आकाश को निहारते हुए
मैंने जाना
कि मेरे सपने
आकाश की तरह ही
होने चाहिए अनंत।

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