युवा कवयित्री। पत्रपत्रिकाओं में कविताएं प्रकाशित।

मेरे हठ इंकार की भाषा है हिंदी

हमारे सामूहिक दुख की भाषा है हिंदी
दादी की कहानियों का सार है

मां के कारुणिक गीतों की पुकार है
मैंने हिंदी में ही कहा माँ से
आगे पढ़ना है शहर जाने दो

मैंने हिंदी में ही कहा पिता से
अभी विवाह नहीं करना है
प्रतीक्षा करें

मैंने भाई से हिंदी में कहा
भरोसा रखो मुझ पर

पढ़ना है
और कुछ बनना है मुझे
अपने भविष्य को अपने हाथों से गढ़ना है मुझे
मैंने यह घर से कहा, परिवार से कहा
रिश्तेदार से कहा खुद से बार-बार कहा

मां ने हिंदी में ही मुझे प्यार किया
पिता ने दुलार किया
हिंदी में ही
भाई ने हिंदी में लिखी मेरे लिए कविताएं

मैं बचपन से इसी भाषा में सोचते हुए रोती हूँ
मुझे प्यार हुआ इस भाषा के भीतर ही
इंकार किया मैंने इस भाषा में ही
घुटने टेके इसी भाषा के आगे
खड़ी हुई इसी के बल पर

पाठको! श्रोताओ!
मेरे ‘प्यार’ की भाषा है हिंदी
सपनों के इंतजार की भाषा है हिंदी
मेरे ‘हठ-इंकार’ की भाषा है हिंदी।

खिड़की पर उम्मीद

वापसी के पहले
मां खोल देती है खिड़कियां
बंद कर लेती है किवाड़

घर पहुंचते ही सबसे पहले मैं
झांकती हूँ खिड़कियों से

मुझे देखते ही मां खोलती है किवाड़
एक चुंबन के साथ छिपा लेती है
अपने आंचल से
फिर उतारती है मेरे सिर से
लोगों की बुरी नजरें

मैं पूछती हूँ
‘मां क्यों बंद कर लेती हो किवाड़
जबकि तुम्हें पता है कि
मैं आ रही हूँ
क्या मेरा आना तुम्हें अच्छा नहीं लगता?’

मां तब कहती- ‘नहीं मेरी बिटिया!
तेरा आना ही तो मुझे सबसे अच्छा लगता है
मैं किवाड़ नहीं बंद करती
बंद करती हूँ अपना इंतजार’

फिर एक लंबी सांस के साथ माथा चूमते हुए
कहती है- ‘मेरी बिटिया!
याद रखना दरवाजे पर रहता है इंतजार
और खिड़की पर उम्मीद रहती है।’

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