वरिष्ठ कहानीकार। चार कहानी संग्रह, तीन उपन्यास। अद्यतन कहानी संग्रह रोहिनी राग

पूरे गांव में कंक्रीट की सड़कें बन गई थीं। पांच हजार जनसंख्या वाले इस नेबूहा गांव में छोटी और बड़ी सभी प्रकार की जातियाँ वर्षों से रहती चली आ रही हैं। परंतु सारी छोटी जातियाँ तो ब्राह्मण और क्षत्रियों की कृपा से रहती आई हैं। उन्हीं की जमीन में घर भी बना था और उन्हीं की जमीन में उनका पूरा निस्तार भी था। इनके साथ सम्मान का व्यवहार तो कभी अच्छा नहीं था, लेकिन जो जिसकी जमीन में बसा था, वह उसका ही निजी जन माना जाता। इसलिए गाली-गलौज या डांट-डपट दूसरा करने में परहेज करता। जो शिकायत होती उस मालिक से होती, जिसके ये जन थे।

नेबूहा गांव पहली बार में ही हरिजन पंचायत हो गया था, जबकि नेबूहा में सवर्णों का प्रतिशत ज्यादा था। सभी के हाथ से तोते उड़ गए थे। मन मार कर पूरे गांव ने दादी राम को निर्विरोध सरपंच यानी गांव प्रधान बना दिया था। दादी राम गांव का चहेता अधेड़ उम्र का हरिजन था, जो पूरे गांव के घरों से मरी उठाता, चमड़े की पनही बना कर लोगों को देता। सुबह नहा-धोकर नीम के पेड़ के नीचे बने बरम बाबा के चबूतरे को धूपबत्ती देकर फिर अपनी गादी में बैठ जाता। किसी के जूते के नीचे तल्ले लगाता, तो किसी की टूटी चप्पल में टांके मारता। बीच-बीच में उठ कर गांव से आई औेरतों के बच्चों को झाड़-फूंक करता। लोग कहते कि जब दादी किसी को हाथ से झाड़ देते हैं तो बच्चों का बड़े से बड़ा मर्ज भाग जाता है।

दादी स्वभाव और कर्म से विनम्र था। परंतु उसके बेटों पर सरपंची सवार हो गई थी। बड़ा बेटा लटकन, जो मास्टर हो गया था, हरिजनों के अंदर जगनिक का काम करने लगा था। उसके रहते कोई बाबू को बेवकूफ भी नहीं बना पाता था। उसने इतना ही नहीं किया। जिन हरिजनों के मकान सरकारी और मालिकों की जमीन में बने थे, दादी से निवास प्रमाण पत्र बनवा कर तहसील में जाकर पटवारी की मदद से सबके नाम करा दिया था। लोगों को पता चला तो उसका विरोध करने लगे थे। बड़े परिवार के लड़के आए दिन मारपीट और गाली गलौज में उतर आए थे। औरतों की इज्जत दांव पर लगने लगी थी। दादी अपने बेटों को समझाता, किंतु कुछ कर नहीं पा रहा था। अंतत: कई परिवार पलायन करने लगे। हरिजन बस्ती के कई लड़के फौज में हो गए। दादी का भी एक बेटा फौज में हो गया था। कमाई होते ही कई परिवार दूसरे गांव में या फिर शहर में घर बनाने लगे थे। धीरे-धीरे हरिजन और छोटे-मोटे लोग नेबूहा गांव से ही मुंह मोड़ने लगे थे।

यही सोचता दादी राम तालाब की मेड़ पर बैठा बकरियाँ चरा रहा था। अस्सी की उम्र पार कर चुका दादी राम अब किसी काम का नहीं रह गया था। हाथ-पांव कांपने लगे थे। छोटा बेटा मांगी राम गांव में किसानों का खेत लेकर अधिया में खेती करता। जबकि कताहुर के बाद हरेमन भी फौज में हो गया था। दादी तो मांगी राम के साथ उसी सत्तर साल पुराने खपरैलवाले घर में रहता, जबकि लटकन और कताहुर ने उसी की बगल में अलग-अलग पक्के मकान बनवा लिए थे। हरेमन तो अपनी ससुराल में जा बसा था। बाद में दादी के कहने पर फिर वापस गांव आ गया था। मांगी राम ने अपने भाइयों की सलाह पर खुद और दादी को मरी उठाने और जूते गांठने के काम से पूरी तरह मुक्त करा दिया था।

तपते सूरज की ओर देख कर दादी अपने आप से कह रहा थानाती दन्नू कब तक स्कूल से आएगा। उसे भूख भी जोरों की लगी थी। तभी दधिमन पंडित जी के बेटे और उनकी पत्नी को कंधे पर मरे बैल को लादे देख कर उसका सर चकराने लगा था। सुबह मांगीराम को बुलाने दधिमन पंडित जी आए थे। उसे बताया था कि कबरा बैल मर गया है काका। मांगी को भेज दीजिये। एक कंधा बेटा दे देगा। पर मांगी कहने पर भी नहीं गया था।

यह सब देख कर दादी परेशान हो उठा था। दधिमन पंडित जी ने इसी मांगी की बीमारी में कभी बहुत मदद की थी। यदि समय पर पैसे न दिए होते तो… दधिमन लकवाग्रस्त हो गए थे। अब लाठी के सहारे धीरे-धीरे चलते थे। दादी राम ने मांगी और अपने भतीजे रमन्ना से कहा था। परंतु रमन्ना ने टके-सा जवाब दे दिया था।

‘हम लोगों ने निर्णय कर लिया है काका, अब किसी की मरी नहीं उठाएंगे। गांव में निकल नहीं पाते। घर के अंदर सुरक्षित नहीं हैं और हम उनकी मरी उठाने जाएँ?’

दादी राम बहुत दुखी रहता। गांव की फिजा ही बदल गई है। कोई किसी का सम्मान नहीं करता। सारे बुजुर्ग तो मर गए। अब मालिकों के बेटे उनकी नहीं सुनते। हरिजन बस्ती की औरतों और मर्दों के साथ गाली गलौज करना आम बात हो गई। भला हो सरकार का जो घर-घर शौचालय बनवा दिया, वरना औरतों को पाखाना जाने में दिक्कत थी। मुश्किल से सात ही परिवार तो बचे हैं, उन्हें भी इज्जत के साथ रहने नहीं दिया जाता।

दधिमन के बेटे और उनकी बूढ़ी माँ बैल को पालकी की तरह बांध कर कंघे पर लादे लिए जा रहे थे। कदम-कदम पर थक जाते और मरी को नीचे उतार कर दोनों सुस्ताते और पसीना पोंछते हुए फिर कंधे पर रख कर चल देते। दीना अपनी अम्मा पर गुस्सा हो रहा था।

‘तुम भी न अम्मा। बहोरी बसोर सौ रुपये मांगा था तो उसे दे देते। वह अपने बेटे को लेकर आता और कबरा को ले जाकर खड्ड में फेंक आता।’

‘दीना, सौ रुपये भी तुम पैदा नहीं कर पा रहे हो। बाबू ठीक होते तो यह दिन थोड़े देखने पड़ते। गांव के हरिजनों को मार कर भगा दिया गया है। उनकी रोजी रोटी पर लोगों ने नजर गड़ा दी। अब तो अपने ही कंधे मजबूत करने होंगे।’

दादी राम धीरे-धीरे चल कर दीना के पास पहुंच गया था। उसने उसकी माँ के कंधे से बांस लेकर मरी को नीचे उतार दिया था।

‘बहू, इतने बुरे दिन नहीं आए कि आपको कंधा देना पड़े। आप तो घर जाओ। मैं धीरे-ध्ीारे दीना बेटा के साथ पहुंचता हूँ।’

उसी समय रोेहिणी सिंह सर पर चारे का बोझ लादे पहुंच गए थे। तब तक दादी राम एक तरफ का हिस्सा अपने कंधे पर रख चुका था। रोहिणी सिंह ने तत्काल अपना बोझ नीचे उतारा और दादी राम के कंधे से बांस अपने कंधे पर रखते हुए बोल उठे, ‘सरपंच जी, आपके कंधे बूढ़े हो गए हैं। आप तो बैठो। मैं दीना के साथ जाकर इसे खड्ड में फेंक आता हॅूं।’ रोहिणी सिंह दादी राम का जवाब सुने बगैर चल दिए थे। दो किलोमीटर की दूरी पर नदी थी। उधर खोह भी थी। नदी के मगरमच्छ और वनविलार दो तीन दिन में पूरा भक्षण कर जाते हैं।

गांव का सक्षम वर्ग आज भी इस समस्या से अनभिज्ञ था। किसी को भी पैसा देकर मरी उठवा कर रवाना कर देते। परेशान दधिमन और रोहिणी जैसे लोग थे। अपनी मेहनत पर ही उन्हें भरोसा था। यह सही है कि गांव के परजे जो अपनी माटी छोड़ कर भागे हैं, उन्होंने बहुत ही अपमान की जिंदगी जीया है। तब भी दादी ने मांगी से कहा था

‘मांगी, पूरी दुनिया के लोग इस मरी के चमड़े की पनही पहनते हैं। मैंने इसी मरी को चीर कर पनही बना कर चारों बेटों को पढ़ाया, लिखाया और पाला पोसा है। दूसरे गांव के लोग इसी मरी को नदी के किनारे चीर कर चमड़ा निकालते हैं और कानपुर में जाकर ऊंची कीमत में बेच आते है। मुद्दसर मुसलमान आज जो करोड़पति बना है, वह इसी चमड़ेे से। दुश्मनी गांव से हो सकती है, लेकिन बेटा, मरी उठाना और चीरना धंधे का काम है। लक्ष्मी को क्यों लात मार रहे हो?’

‘बाबू, इस गांव में पांच घर बढ़ई के थे और इतने ही लोहार के। धोबी तो पहले ही गांव छोड़ कर शहर में जा बसे हैं। मात्र दो घर नाई के हैं, जो मुखियाओं को अपने घर बुला कर ही दाढ़ी बनाता है। अब बाबू तुम ही बताओ, ये सारे लोग गांव छोड़ कर क्यों गए?’

‘तो का, सब नगर-सहर में खुश ही हैं?’ दादी ने गुस्से से पूछा था।

‘नहीं हैं। मगर उनके साथ रास्ते चलते कोई गाली-गलौज करता है का?’

‘अरे मूरख, सरकार ने ऐसा कानून बना दिया है कि अब कोई हरिजन को गाली भी देगा तो सीधे जेल जाएगा।’

‘का बाबू! तुम तो सरपंच रहे हो। भरी सभा में इन दबंगों ने तुम्हें पनही लेकर मारने के लिए दौड़े थे। पुलिस में हमारी बिरादरी का आदमी भी इनके हाथ बिक जाता है।’

दादी राम निरुत्तर हो गया था। उसने एक लंबी सांस ली थी। फिर उसके सर पर प्यार से हाथ फेरते हुए बोला था, ‘मांगी, सोचा था कि बुढ़ापे में लटकन, कताहुर और हरेमन तीनों मेरा और तुम्हारा साथ देंगे। पर तीनों ने अपनी दुनिया अलग कर ली। तुम्हें घर से इसीलिए नहीं जाने दिया था कि बुढ़ापे की लाठी बनोगे। तुम्हारी मतारी तो चली गई। पूरे गांव में जचकी कराती थी। अब तुम अपना पुश्तैनी धंधा मत छोड़ो। ये अघाए पेट के लोग सम्मान-सम्मान चिल्ला रहे हैं। दो रुपये का मददगार कोई नहीं है।’

मांगी की शिकायत अपने धंधे से नहीं थी। उसे गुस्सा इस बात का था कि हरिजन बस्ती में आग इस तरह सेे लगाई गई थी, जैसे पूरी बस्ती अनाथ हो। उस वक्त सब चुप थे। हवा का रुख तेज हो गया था। झोपड़ियाँ आग के हवाले कर दी गई थीं। लोग घर के अंदर से कपड़ा और अनाज-गल्ला निकालने में लगे थे। कुछ लोग कुएँ से पानी निकालने में लग गए थे। तभी आग का रुख दबंगों के घरों की ओर हो गया था। बड़े घरों की औरतों ने चिल्लाना शुरू कर दिया था। आग ने बड़ी बखरी को घेर लिया था। भगदड़ मच गई थी। किसी समझदार ने उसी वक्त कुआं में डीजल पंप का पाइप डाल कर चला दिया था। फिर गांव में कई पंप चल पड़े थे। लेकिन दादी की पत्नी अपनी छोटी नातिन को लेकर जैसे ही बाहर की ओर भागी थी, छप्पर की मयार टूट कर उस पर गिर पड़ी थी। संयोग अच्छा था कि मांगी की पत्नी और बच्चे किसी के यहाँ जजकी कराने गए थे, वे बच गए थे। लेकिन छोटी बेटी जो खटोले में सोई हुई थी, दादी के साथ वह भी खाक हो गई थी।

हालांकि अगड़ा, पिछड़ा और दलितों के घर एक जैसे जले थे। अंतर यह था कि किसी के पास तो कुछ बचा भी था, परंतु हरिजन बस्ती तो जल कर खाक हो गई थी। पुलिसिया कार्यवाही जो हुई सो हुई। परंतु जो दिल टूटा, वह फिर कभी नहीं जुड़ा।

दादी राम यही सोचता बैठा रोहिणी सिंह के आने का इंंतजार कर रहा था। नाती आकर बकरियाँ ले गया था। रोहिणी सिंह को वापस लौटते देख कर दादी राम डंडे के सहारे उठ खड़ा हुआ। करीब आते ही बोल उठा था, ‘ठाकुर दादू।’

अरे सरपंच भाई, आप अभी तक यहीं बैठे हैं। आप घर जाइए। काली खोह के जमुना और बिहरा किसी की भैंस की मरी चीर रहे थे। दूर से देखते ही आ गए थे। कहने लगे कि आदमी मरने के बाद बेकार हो जाता है। मगर जानवर तो मर कर भी हमें अमीर बना जाता है।’ रोहिणी सिंह ने कहा और खुद हँस भी पड़े। दादी राम चुप रहा।

दादी राम दोनों को जानता था। उसकी बिरादरी के हैं। गांव-गांव जाकर हड्डियाँ बिनते हैं। मरी चीर कर चमड़ा पकाते हैं और कानपुर में ले जाकर बेच आते हैं। जमुना तो एक फैक्ट्री में काम भी कर चुका है। वह बता रहा था कि आगरा और कानपुर में कई ऊंची जाति के लोग इस धंधे से जुड़े हैं। जहाँ चमड़ा पकाया जाता है, उस जगह तो हमने कई जातियों को काम करते देखा है। झोपड़ियों में आग लगाने वाले जेल के अंदर सड़ रहे हैं। फिर ऐसी दुश्मनी का क्या फायदा। गंगा नाई के द्वार पर कई बाभन और ठाकुर बाल बनवाने के लिए खड़े रहते हैं। वह अच्छे-अच्छे को हड़का देता है। समाज आज उस नाई की जरूरत समझने लगा है।

आगजनी की घटना के बाद नेबूहा और उसके आस-पास के गांवों में परिवर्तन शुरू हो गया था। प्रशासन की सख्ती के बावजूद रिश्ते में खटास आ गई थी। कइयों ने जमीन बेचकर शहर में घर बना लिया था। ऊंची जाति के लोग भी गांव आना पसंद नहीं कर रहे थे। खेत परती पड़ने लगे थे। कुछ लोगों ने अधिया में दे दिया था। कुछ लोग तो जमीन बेच कर बच्चों को पढ़ाने के बहाने शहर में जा बसे थे।

लेकिन डेढ़ दशक बीतते-बीतते जो घर गिर गए थे, फिर उनके मालिक शहर से लौटने लगे थे। कुछ तो रिटायर होने के बाद लौट रहे थे, कुछ को शहर ने निराश कर दिया था। बाभन-ठाकुरों के लड़कों को जब नौकरी या धंधा नहीं मिला तो उनके पिता ने गांव लौटना ही उचित समझा, फिर खेती को संभालना जरूरी लगा। समझदार लोग शहर के मकान  बेचकर गांव में फिर अपनी जमीन तलाशने लगे थे।

दादी राम ने जब मांगी को बुला कर इस धंधे का महत्व फिर समझाया और कहा कि जाकर देख, तेरी ही बिरादरी के लोग नदी के किनारे क्या कर रहे हैं। तू अक्ल का अंधा तो है ही, मगर अब तो अांख का भी अंधा हो गया है। तीन संतानों को तुझे नहीं पालना है का? कहाँ जाएगा? जहाँ जाएगा, यही सब मिलेगा। जीने की कला सीख। झुकना भी बड़प्पन माना जाता है। मांगी जब नदी के किनारे गया और बिहरा और जमुना को मरी चीरते देखा तो उसे अपनी गलती का अहसास हुआ। उसने गुस्से से जमुना से कहा-

‘मैंने कसम खाया था कि इन अगड़ी जातियों के कंधे पर मरी न उठवा दिया तो असली बाप का बेटा नहीं। और तुम दधिमन पंडत का बैल उठा लाए।’

‘मांगी भैया, मैं भी तुम्हारी तरह गुस्से में था। मगर किसना और जुवैद को जब देखा कि कई गांवों में जाकर मरी उठाकर उसका चमड़ा निकाल-निकाल कर बेच रहे हैं, तब मेरी आंखें खुलीं। मालिकों को कोई फर्क नहीं पड़ता मांगी। जानवर न भी पालेंगे तो भी उनका काम चल जाएगा। हमें तो रोेजगार चाहिए है, इसलिए।’

कई सालों बाद पहली बार मांगी राम अपने बाप के कंधे पर सर रख कर रोया था।

‘बाबू, मेरे तीनों भाइयों ने मुझे बहुत धोखा दिया। मुझे अपना चाकर बना कर रखा।’

‘बेटा मांगी, जब पिता का भार पुत्र के कंधे पर आता है, तभी पुत्र पिता की तरह सोचता है।’ दादी राम ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया था।

मांगी ने पहली बार अपने भाइयों की बदमाशी के बारे में सोचा था। तीनों भाइयों के बच्चे शहर में पढ़ रहे थे। दो तो अच्छी नौकरी में जा चुके थे। तीनों भाइयों ने उसके मन में ऐसा जहर भरा कि उसने अपनी ही फसल में आग लगा ली थी। किसी ने एक पैसे की मदद नहीं की कि कोई धंधा ही कर ले। रास्ता चलते वर्तमान सरपंच बहोरी पटेल मांगी को रोकते हुए बोल उठा था

‘का रे मांगी, कल दधिमन बहू मरी कंधे पर लाद कर ले जा रही थीं। तू देखता रहा और उनकी मदद करने के लिए आगे नहीं आया। तुझे भी तो कल लोगों की जरूरत पड़ेगी। तेरे मरने पर तेरे भाई भी कंधा नहीं देंगे। गांव और शहर दोनों जगह मकान बना लिया है। तू तो अभी भी खपरैल घर में ही रहता है। सबसे बना कर चल। भलाई इसी में है।’

‘सरपंच जी, भूल हो गई है। अपने ही पाले में हार गया। आगे से ऐसा नहीं होगा।’ मांगी ने सफाई दी।

‘राजनीति को अपना काम करने दो। समाज में हमें एक दूसरे के लिए खड़ा होना होगा। तुम नहीं करोगे तो दूसरे गांव वाले आने लगेंगे। देख ले मांगी, शहर वाले दौड़-दोैड़ कर अब गांव लौटने लगे हैं। अपनी जमीन तलाश रहे हैं। किसी धुंध में सब खो गया था।’

दूसरे दिन सोहगौरा जी की भेैंस मर गई। उनका बेटा लल्लन जैसे ही मांगी को बुलाने गया वह रमन्ना को लेकर चला तो उसके साथ केशव और माधव भी चल दिए। तभी हरेमन फौजी बाहर निकला और मांगी के रास्ते में आ खड़ा हुआ।

‘कितनी मुश्किल से मैंने बाबू के कंधे से इन हरामियों का जुआ उतारा था। और तू पूरी पलटन लेकर फिर उनकी मरी को कंधा देने चल दिया।’ तब तक मास्टर लटकन भी आ गया था। यही बात उसने भी दोहराई।

‘वापस लौट जा। वरना दोनों गोड़ तोड़ दूंगा। खोया हुआ सम्मान बहुत मुश्किल से मिला है। आज सीना उठा कर बात करता हूँ। उल्टे उन्हें ही दारू पिलाता हूँ। मुश्किल वक्त में उधारी और दान भी देता हूँ। और तू मेरे किए कराए पर पानी फेर रहा है।’

मांगी राम ने मुस्करा दिया था। फिर गंभीर होकर जवाब दिया था-

‘यही बात पहले बाबू ने भी समझाया था। तब बाबू जी को यह विश्वास था कि मेरे भाई मेरे साथ खड़े हैं।’ फिर मांगी नहीं रुका था और हाथ झटकते हुए चला गया था। उसके भाई उसे देखते रह गए थे।

दोपहर होने वाली थी। मांगी की मेहरिया गांव से एक जचकी कराकर लौटी थी। दादी राम भूख से तड़फड़ा रहा था। बड़े नाती दन्नू से बोला- ‘देख, रसोई में कुछ हो तो लाकर दे। भूख बहुत तेज लगी है।’

‘बाबू, अभी रोटी बनाती हूँ। बंशी काका के यहाँ देर हो गई थी,’ दन्नू की माँ ने कहा।

‘तू पहले बच्चों को रोटी खिला कर स्कूल भेज।’ दादी बीच में ही बोल उठा था। फिर आगे बोला था, ‘मैं भूख से मर नहीं रहा हूँ। जहाँ चार पैसे कमाने की उम्मीद है, वहाँ आत्मसम्मान दिखाई देता है और जहाँ आत्मसम्मान का चीरहरण हो रहा है, वहाँ भाई को कंधे बदलने में तकलीफ हो रही है। ऐसी औलाद भगवान किसी को न दे जो भाई का भी सगा न हो।’ दादी की बात को बहू समझ तो गई थी, परंतु बोली नहीं थी। दादी राम आंगन में बोरी बिछाकर बैठा ही था, तभी मांगी आ गया था।

‘पहुँचा आए?’ दादी ने पूछा।

‘हाँ बाबू, मालिक ने कहा है कि शाम को आना तो गल्ला-पानी ले जाना। अब मैं नदी जा रहा हूँ। रमन्ना मरी चीर रहा है। उसने कहा है कि बाबू को साइकिल में बैठा कर ले आना।’ मांगी ने डरते हुए कहा।

‘चलता हूँ। रोटी खा लूँ। दो रोटी तू भी खा ले। देर हो जाएगी। पिछवाड़े की मढ़िया आज छा ले। चमड़ा वहीं पकता था। लौट कर बकरियाँ ले जाऊंगा।’

लटकन, हरेमन और कताहुर तीनों ने ठान लिया था कि अब मांगी को सबक सिखा कर रहेंगे। ऐसी बेइज्जती करेंगे कि यह आदमी कहीं का नहीं रहेगा। शाम होतेहोते तीनों भाइयों ने अपने द्वार पर बाड़ी लगा दी थी। मांगी को निकलने का रास्ता वहीं था। पीछे तो ठाकुर रणछोड़ सिंह की जमीन थी। यदि ठाकुर साहब ने भी नहीं निकलने दिए तो

 दादी स्वयं दूसरे दिन लाठी टेकते-टेकते उनके दरवाजे पर जाकर चबूतरे के नीचे बैठ गया था। ठाकुर साहब का बेटा दिलबाग सिंह बहुत ही खतरनाक था। दादी को देखते ही समझ गया कि किसी न किसी काम से आया है। फिर भी बाहर निकलकर बड़े सम्मान से पूछा-

‘कैसे आए दादी राम। बड़े ठाकुर तो अब गांव में नहीं रहते।’

दादी राम ने अपने आने का कारण बताया तो दिलबाग सिंह ने ठहाका लगाया। फिर बोला, ‘तुम लोगों को सरकार रास्ता दिला ही देगी। लेकिन मेरे दरवाजे से कोई खाली नहीं गया। जाओ सरपंच साहब, जितनी जगह घेर सकते हो घेर लो। मगर शर्त एक है- न लाठी और न बंदूक। मेरी एक आवाज में मांगी को दौड़ते हुए आना होगा!’

दादी कुछ बोला नहीं और अपना सर जमीन पर टिका दिया। दिलबाग सिंह ने फिर ठहाका लगाया और बिना किसी संकोच के दादी को उठा कर कुर्सी पर बैठाते हुए बोला, ‘सरपंच साहब, बड़े ठाकुर तुम्हारी बनाई पनही ही जिंदगी भर पहने हैं। समय कितना बदल गया। आपस में विश्वास ही उठ गया। तुम लोगों के बल पर तो ये बखरी की शान जिंदा थी। आज तुम्हे पूछना पड़ रहा है कि रास्ता निकाल सकता हूँ कि नहीं।’ दिलबाग सिंह फिर गंभीर हो गया था। मूंछों पर हाथ फेरते हुए बोल उठा था। ‘मेरे पिता के उम्र के हो। जरूरत पड़ेगी तो तुम्हें कंधा देने भी आऊंगा। जाओ और पूरे खेत को ही जोतो बोओ। वैसे ही वह खेत तो बुधिया को बड़े ठाकुर पहले ही दे चुके हैं।’

दादी को पहले लगता था कि जरूरत एक-दूसरे को जोड़ती है, लेकिन उसका अहसास बदला था। गांव की संस्कृति जरूरत से ऊपर की है। बिना स्वार्थ के भी लोग एक-दूसरे के लिए खड़े होते हैं। यही बात वह मांगी को समझा रहा था, तभी उसे दिल का झटका लगा। मांगी ने जैसे ही समझा, तड़पते बाप को छोड़कर भाइयों को आवाज देने पहुंच गया था। दादी जोरों से जमीन खुरेच रहा था। नाती और बहू उसे उठाने की कोशिश कर रहे थे, उसी दौरान दादी राम ने अंतिम सांस ली। उसका मुंह फटा का फटा रह गया। आंखें खुली रह गईं। 

मांगी का तो सब कुछ चला गया था। एक बाप ही था जो हर बुरे वक्त में उसके साथ खड़ा रहा। उसे उम्मीद नहीं थी, लेकिन नेबूहा गांव में पहली बार एक हरिजन की लाश को कंधा देने के लिए क्या बाभन और क्या ठाकुर सभी आए थे। बारी-बारी से कंधे बदल रहे थे। पीछे-पीछे चल रहा मांगी यही देख रहा था कि कौन-कौन कंधा दे रहा है। रोहिणी सिंह और दीना तो कंधा बदल ही नहीं रहे थे। लोग उसके कंधे से अर्थी उठा कर अपने कंधे पर रख लेते। आगे-आगे लटकन कांस और एक छोटी सी गघरी लेकर चल रहा था। अपने घरों में बैठे कतहुरा और हरेमन भी भीड़ में घुस आए थे। वे चाहकर भी बाप की लाश को कंधा देने का मौका नहीं पा रहे थे।

भीड़ फूलों की बरसा कर रही थी। आगे राम नाम सत्य है का कीर्तन गाते लोग चल रहे थे। मांगी को लगा कि बाबू तख्ती पर उलट गए हैं और मुंडी नीचे करके देख रहे हैं। उन्हें भी आश्चर्य हो रहा है कि उनकी शवयात्रा किसी बड़े आदमी से कम नहीं है। घड़ी-घंट और शंख भी बज रहा था। ऐसा लग ही नहीं रहा था कि यह किसी छोटी जाति वाले की शवयात्रा है। एक अनजान आदमी के लिए तो यह किसी दूल्हे की बारात लग रही थी।

जिंदगी भर लोगों के सामने सर झुका कर जीने वाला दादी आज राजा की तरह लोगों के कंधे पर सवार होकर इठलाता जा रहा था। उसने जाते-जाते न केवल कंधों को जोड़ा था, अपितु दिल भी करीब ला दिया था। तभी किसी ने कहा-

‘आज गांव खाली हो गया!’ कइयों की निगाहें उस ओर मुड़ गई थीं। मांगी राम की आंखें अभी भी पानी छोड़ रही थीं।

संपर्क सूत्र : रामेश्वरम’, राजीव-मार्ग, निराला-नगर, रीवा-486002 (म. प्र.) मो-9424770266