समाचार संपादक/ प्रेस ट्रस्ट आफ इंडिया (पीटीआई) की हिंदी सेवा ‘भाषा’
कंजिया ने सिर पर बंधा मुरैठा उतारा और सड़क पर खड़े हाथ ठेले का सहारा लेकर माथे का पसीना पोंछा। पजामे की जेब से खैनी की डिब्बी निकाली और हथेली पर मसलने लगा। खैनी को चुटकी में भरा और मुंह में एक ओर दबा लिया।
अभी-अभी सदर बाजार से माल लेकर आया था। एक गट्ठर में पांच सौ साड़ियां होती हैं और सदर से नई सड़क तक आते-आते आंखों के आगे अंधेरा छाने लगता है।
उसने प्याऊ पर जाकर पानी पिया और फिर से आकर ‘शिवसागर साड़ी हाउस’ के बाहर पटरी पर बैठ गया।
भूख के मारे दम निकल रहा था। तीन बजने को थे लेकिन अभी तक टाइम ही नहीं मिला था कि पेट में कुछ डाल सके।
‘कंजिया! कंजिया!’ शोरूम के भीतर से लाला जी की आवाज सुनाई दी।
वह उठा और दौड़ते हुए शोरूम के दरवाजे को धकेल कर भीतर पहुंचा।
भीतर कैसा स्वर्ग था। ठंडी हवा वाली मशीन चल रही थी। एक नहीं पांच-पांच।
वह हाथ बांध कर जा खड़ा हुआ।
‘जा, ये मैडम का सामान जरा गाड़ी में रखवा के आ। गाड़ी हरदयाल लाइब्रेरी की पार्किंग में है।’
उसने बिजली की गति से साड़ियों के भारी-भारी पैकेट सिर पर रखे और कुछ पैकेट हाथ में उठा लिए।
भीतर ही भीतर वह बड़ा खुश हुआ।
‘हो सकता है, मेमसाहब कुछ बख्शीश दे दें। और ऐसा करूंगा कि आते हुए सीसगंज गुरुद्वारे की ओर से निकल कर आ जाऊंगा। लंगर में कुछ खा लूंगा।’ मन ही मन हिसाब लगाते हुए वह मेमसाहब के पीछे पीछे चलने लगा।
मेमसाहब भारी बदन की महिला थीं, गोरी चिट्टी, लंबी तगड़ी… धीरे-धीरे कदम उठा रही थीं। लेकिन कंजिया पर लगातार बरस रही थीं, ‘अरे, जरा जल्दी कदम बढ़ाओ, अभी चार बजने वाले हैं। फिर सड़कों पर आफिस का ट्रैफिक हो जाएगा। चांदनी चौक से ग्रेटर कैलाश जाना कोई आसान काम थोड़े ही है।’
मेमसाहब के मिजाज से बख्शीश की उसकी उम्मीद जाती रही। गाड़ी में साड़ियों के पैकेट रखवाकर वह लगभग दौड़ते हुए फव्वारे की तरफ से निकल कर सीस गंज गुरूद्वारे पहुंचा और पंगत में बैठ गया।
उसके जैसे और भी बहुत सारे मजदूर पंगत में बैठे खा रहे थे।
कंजिया ने जल्दी-जल्दी रोटियां हलक से नीचे उतारीं और दुकान की ओर दौड़ पड़ा। वह चाहता था, शाम तक जितने ज्यादा गट्ठर ढोए जा सकें, उतना अच्छा है। एक गट्ठर पहुंचाने के पांच रुपये मिलते थे। दिनभर में 20 गट्ठर तो उठाने को मिल ही जाते थे। यानी दिनभर में सौ रुपया बन जाता। रोटियां तो गुरुद्वारे में खा ही लेता था तो खाने का खर्चा बच जाता।
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गांव सिबनिया, जिला सीतामढ़ी, बिहार। यही था कंजिया का पता। इतनी सी ही थी उसकी पहचान।
साल 2002 में इंद्र देवता इतने नाराज हुए कि पूरा गांव तो क्या पूरा जिला और पूरा बिहार ही डूब गया। जमींदारों की सब फसल चौपट हो गई। फसल ही चौपट हो गई तो कंजिया को भी कोई काम धाम नहीं मिला और घर में खाने के लाले पड़ गए।
उसके कच्चे मकान की आधी-आधी दीवारें पानी में डूब गईं। किसी तरह घरवाली और दो बच्चों को लेकर कंजिया पीपल के पेड़ पर जा चढ़ा और हफ्ता भर वहीं बैठा रहा। दूर दूर तक पानी ही पानी। उसे ये सोचकर तसल्ली थी कि एक अकेला वही बेघर नहीं हुआ था। उसके जैसे सभी लोगों का यही हाल था।
कुछ दिन बाद पानी तो उतर गया लेकिन फिर बीमारियों ने घेर लिया। उसका चार साल का बच्चा शरीर में पानी की कमी के कारण चल बचा। छह साल की एक लड़की भर बची रही।
इसी बीच, गांव के ही कुछ लोगों के साथ कंजिया काम की तलाश में दिल्ली आ पहुंचा।
‘हमारी फिक्र मत करना, अपना ख्याल रखना। पेट से हो, बच्चा होने तक अपनी माँ के यहाँ रहोगी तो ठीक रहेगा। यहाँ तो सब डूब ही गया है।
पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन के सामने इत्ता बड़ा बाजार देखकर वह घबरा गया।
यह चांदनी चौक था। कहते हैं कोई बादशाह था शाहजां। उसी ने बसाया था ये बाजार। कंजिया पहली बार चांदनी चौक के ठाठ देखकर दंग रह गया था। एक से एक खाने-पीने की दुकानें। एक से एक बढ़िया कपड़ा लत्ता, चमचमाता जूता। क्या क्या नहीं था चांदनी चौक में!
उसके नाना ने बचपन में एक बात बताई थी। वही बात अचानक उसे याद हो आई।
‘एक शहर है दिल्ली। वहां एक है चांदनी चौक। चांदनी चौक में ऐसे ऐसे ठग रहते बताए कि अनजान आदमी को अंधेरी गलियों में ले जाकर लूट लेते हैं। ऐसी भूल-भुलैया गलियां है कि अजनबी खो जाए तो जिंदगीभर ना निकल सके।’
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बच्चा साल भर का हो गया था, तब तो कहीं जाकर उसे खबर मिली थी। उसके गांव का ही कोई आदमी दिल्ली आया था, रोजेगार की खातिर।
जमाना अलग था। अब तो मोबाइल फोन आ गया है। चाहो तो सारा दिन मेहरारू से बतियाते रहो। पर इतना बखत कहां धरा है। रोज पांच बजे उठना और उसके बाद तो चांदनी चौक की गलियों, सदर बाजार, तुर्कमान गेट और दरियागंज तक जो दौड़ होती तो रात को 12 बजे ही कमर जमीन पर लगती थी।
पिछले 12 साल में वह चार बार ही गांव गया था। लड़की ब्याह लायक हो चुकी थी। और लड़का अभी चौथी कलास में था।
कंजिया को लड़की की ही चिंता थी।
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सीसगंज गुरुद्वारे से निकल कर कंजिया परांठे वाली गली से होते हुए, बल्लीमारान में गालिब की हवेली जा पहुंचा। और भीतर ही भीतर गलियों से निकलते हुए नई सड़क पर आ गया। शोरूम के सामने। उसे कोई चार मिनट लगे होंगे।
‘कंजिया! अबे कहां मर गया था! जा ये गट्ठर सदर बाजार पहुंचाने हैं। और हां, जरा जल्दी आना।’
दिनभर दौड़ते-दौड़ते वह थक कर चूर हो चुका था।
लाला गुस्से वाला लेकिन थोड़ा रहम दिल था। शाम छह बजे शोरूम के कर्मचारियों को एक प्याली चाय और एक मठरी मिलती थी। कई साल से लाला के यहां दिहाड़ी पर काम करते करते एक चाय और एक मठरी उसे भी मिलने लगी थी।
चाय पीने के बाद उसे कुछ आराम मिला। उसने खैनी रगड़ कर फिर से मुंह में दबा ली तो उसकी बाकी थकान भी जाती रही।
शोरूम बंद होते-होते रात के दस बज गए। लाला लोग तो बड़ी-बड़ी कारों में जाएंगे।
कंजिया भी बाकी मजदूरों की तरह थका-हारा चल पड़ा, सीसगंज गुरुद्वारे की ओर।
नई सड़क पर साड़ियों, सूटों के बड़े-बड़े शोरूम थे।
औरतों के पुतले सुंदर-सुंदर लहंगा चोली पहने दुकानों के शोकेस में खड़े थे।
लहंगा चोली और चुनरी इतनी खूबसूरत थीं कि ऐसा लगता, पुतला अभी बोल पड़ेगा।
ज्यादातर लाल रंग के लहंगा चोली थी। कोई गुलाबी, गाजरी, गोल्डन, पीला, नीला और हरे रंग का भी था। उन पर सलमा सितारे जड़े थे… सुंदर-सुंदर कसीदाकारी थी, फूल पत्तियां कढ़ी थीं… किसी पर जरदोजी का काम था तो किसी पर पारसी कढ़ाई, किसी पर दबके का काम था तो कोई तारकशी का। हर चीज इतनी सुंदर थी कि कंजिया की शुरू में तो आंखें ही चुंधिया गई थीं।
कंजिया अब चांदनी चौक की मेन सड़क पर आ गया था। एक छोर पर लालकिला दिख रहा था तो दूसरे छोर पर फतेहपुरी मस्जिद।
‘अरे भैय्या! कहते हैं, किसी जमाने में यहाँ छोटी-सी नहर बहती थी। इस एक छोर से दूसरे तक। मुगल बादशाह की बेगमें और शाहजादियां पालकियों में बैठकर आती थीं खरीददारी करने। हीरे-जवाहरात बिकते थे इस बाजार में।’
कमरू ने अपनी समझ और ज्ञान बघारने की कोशिश में कहा।
‘सैंकड़ों साल पुराना है चांदनी चौक। बीचोंबीच बहती नहर में जब चांदनी रात में चांद का अक्स पड़ता था तो कहते हैं कि नहर की खूबसूरती के आगे मल्लिकाओं का भी हुस्न शरमा जाता था।’
‘इसीलिए तो इसे चांदनी चौक कहते हैं।’ कंजिया ने कहा। वह भी इतने सालों में चांदनी चौक के बारे में बहुत कुछ जान गया था।’
‘अरे रामभज, चांदनी चौक ने बड़े-बड़े मंजर देखे हैं। वो तुम्हें नादिरशाह का किस्सा नहीं मालूम? कैसे जालिम ने फतेहपुरी मस्जिद पर खड़े होकर तबाही मचायी थी। चांदनी चौक की गलियां लाशों से पट गयी थीं। ऐसा कत्लेआम, कहते हैं कि दिल्ली ने कभी नहीं देखा।’ कमरू ने बीच में ही टोक कर कहा।
इन्हीं ख्यालों में खोए हुए कंजिया चला जा रहा था।
शोरूमों के शटर गिर रहे थे। लाइटें बंद हो चुकी थीं और अब केवल बुतों के लहंगों के सितारे अंधेरे में चमक रहे थे। कल फिर से ये बुत ऐसे ही चमक लिए सजे धजे नजर आएंगे। कस्टमरों को लुभाते हुए।
वह सीसगंज गुरुद्वारे में गया और पंगत में बैठ गया।
….
‘सुनो, बिन्नी के मामा ने एक लड़का बताया है। यहां आकर एक बार रिश्ता पक्का कर जाते तो ठीक रहता।’ फोन पर दूसरी ओर कंजिया की घरवाली थी।
‘मामा से कहो, खुद ही देखभाल के रिश्ता पक्का कर दे।’
‘हम कोई सीतामढ़ी में थोड़े ही बैठे हैं कि बस पकड़कर चार घंटे में सिबनिया पहुंच जाएं। दिल्ली से सीतामढ़ी का भाड़ा इतना है कि जो दो पैसे बचाएं हैं वे भी सब हवा हो जाएंगे। अपने भाई से कहो, सब देखभाल करके खुद ही तय कर ले।’
‘जैसे तुम्हें ठीक लगे।’ घरवाली दबी जबान में बोली।
‘ये लो, जरा बिन्नी बात करना चाहती है।’
‘पिताजी, हमारी सहेली है न ठाकुर जी की पोती। वो कह रही थी कि चांदनी चौक में शादी ब्याह के लहंगा बहुत गज़ब का मिलता है। हमारा भी ब्याह में वही पहनने का मन है। यहां जब आओ तो लहंगा जरूर लाना।
कंजिया ने बिन्नी के ब्याह के लिए ही तो सब जोड़ जमा किया था। पर कभी लहंगे चोली का ख्याल नहीं आया।
……
‘बिन्नी कितनी सुंदर लग रही है लहंगा चोली और चुनरी में। एकदम परी जैसी ।’’ बिन्नी ने सुहाग का वही जोड़ा पहना था जो कंजिया चांदनी चौक से लेकर आया था।
कंजिया ने बेटी के सिर पर दुलार से हाथ रखा और अचानक उसकी नींद टूट गई।
जमुना बाजार की झुग्गी में लेटे-लेटे वह बिन्नी के ब्याह के बारे में सोचता रहा। उसके अगल बगल चार-पांच साथी मजदूर सो रहे थे। रात भर को पैर पसारने के लिए उसे पांच सौ रुपया महीना देना पड़ता था।
कंजिया ने अब तो ठान लिया था कि बेटी के लिए सुहाग का जोड़ा चांदनी चौक से ही लेकर जाएगा। पर उसे तो पता ही नहीं था कि सुहाग जोड़े की कीमत कितनी होगी। साड़ियों के शोरूम में मजूरी भर करता था कंजिया। उसे तो लहंगे तो क्या, नए कपड़े तक को छूने का मौका नहीं मिला था।
इन्हीं ख्यालों में खोया हुआ कंजिया जमुना बाजार से नई सड़क पहुंच गया। आज सीसगंज गुरुद्वारे जाकर उसका खाने का मन नहीं हो रहा था। दिमाग में सुहाग का जोड़ा ही घूम रहा था।
‘कंजिया! ये जरा बुतों को शोकेस में लगा दे और मैनेजर से लेकर इनके जोड़े बदल दे।’
कंजिया को अपने कानों पर यकीन नहीं हुआ। बुतों के कपड़े बदलने वाला रमेश आज आया नहीं था और इसीलिए परमात्मा ने उसकी सुन ली।
उसने ऊपर की मंजिल पर जाकर मैनेजर से चार नए जोड़े लिए और नीचे आकर बुतों को संवारने लगा।
‘कैसा नरम मुलायम रेशमी कपड़ा था! छूने भर से फिसल फिसल जाए। रंग-बिरंगे सलमा सितारे, चमकीला गोटा, मोतियों की झालर….’ कंजिया ने मन ही मन सोचा। बुत को सजा कर उसने चुनरी ओढ़ाई और अचानक उसका हाथ बुत के सिर पर आशीर्वाद के लिए उठ गया।
अब तो बिन्नी उसे बार-बार याद आने लगी। ‘मैनेजर बाबू, एक सुहाग जोड़े की क्या कीमत होगी भला?’ कंजिया हिम्मत करके पूछ ही बैठा।
‘हा हा हा’, मैनजर बाबू खूब जोर से हँसे।
‘अरे कंजिया! जिंदगी भर मजूरी करता रहेगा, तो भी सुहाग जोड़े की कीमत जितना पैसा नहीं जुटा पाएगा। भइया, ये जोड़े महलों वालियां पहनती हैं, तुम तो खुद को खुशकिस्मत समझो कि तुम्हें ये सब देखने भर को मिल रहा है।’
कंजिया महीना भर में कमाता था दो ढाई हजार रुपया, पांच सौ रुपया झोपड़ी का किराया, पांच सौ रुपया ऊपर से खर्चा, कुछ दवा दारू में निकल जाता था। रोटी का जुगाड़ तो गुरुद्वारे में था ही। लेकिन इस सब के बावजूद किसी तरह पेट पर पट्टी बांध कर कंजिया सात आठ सौ रुपये ही बचा पाता था।
‘बिटिया बड़ी हो गई है। लगन करना है। चांदनी चौक का सुहाग जोड़ा पहनने की इच्छा है बिटिया की।’ कंजिया ने मायूसी से कहा था।
‘तुम्हें लहंगा चोली लेना है तो बाहर पटरी बाजार से देख लेना, छह-सात सौ का मिल ही जाएगा।’ मैनेजर ने कहा था।
कंजिया को कुछ उम्मीद बंधी और वह जमा पूंजी का मन ही मन हिसाब लगाने लगा।
जमुना बाजार की झुग्गियों में पिछले जेठ के महीने में आग लग गई थी। रात को सिर छुपाने का आसरा भी जाता रहा। अब कंजिया साड़ी शोरूम के बाहर गलियारे में ही सोता है। लेकिन गलियारे में चार फुट जगह कौन मुफ्त में मिली है। ठेकेदार को आठ सौ रुपया महीना देना पड़ता है। हर गली का अलग ठेकेदार है जो रात को गलियारों में सोने वाले मजूरों से उगाही करता है।
……
‘मिश्रा जी, जरा हिसाब बता दोगे, मेरा अभी तक कितना पैसा जमा हुआ है आपके पास।’ कंजिया ने पान वाले मिश्रा जी से डरते-डरते पूछा। मिश्रा जी की चावड़ी बाजार मेट्रो स्टेशन के पास ही कोने में छोटी सी दुकान है। ‘बनारसी पान भंडार’।
‘कंजिया! कहां पैसे बचे हैं तुम्हारे। पिछले महीने ही तो तुमने चार हजार रुपये मेहरारू के इलाज के लिए नहीं भिजवाए थे गांव?’
‘जो भी बचत होती है, सब तो तुम्हारी घरवाली को मनीआर्डर कर देता हूँ। अब कहाँ हैं तुम्हारे पैसे?’ मिश्रा जी ने पान के पत्ते पर चूना लगाते हुए कहा।
‘फिर भी कुछ तो बचा ही होगा?’ कंजिया ने हिम्मत जुटा कर सवाल किया।
‘लो भइया, हमारे तो हवन करते हाथ जले जा रहे हैं। एक तो तुम्हारा पैसा संभाल कर रखो और ऊपर से तुम शक करते हो।’
‘नहीं मिश्रा जी, ऐसी बात नहीं। दरअसल, बिटिया का ब्याह पक्का हो रहा है। उसके लिए एक सुहाग जोड़ा खरीदना है।’ यह सुनकर मिश्रा जी कुछ गौर से कंजिया को देखने लगे।
‘कंजिया’…. धीरे से फुसफुसाते हुए मिश्रा जी ने इशारे से उसे पास बुलाया।
‘देखो, हमारे पास धरे-धरे पैसा तो बढ़ने से रहा। तुम कहीं ठीक जगह पैसा लगाओ। अभी तुम्हारा सात हजार रुपया बचा है, एक कंपनी खुली है, उसमें जमा कराओगे तो बढ़िया ब्याज मिलेगा और सालभर में पैसा दोगुना।’’
‘लेकिन मिश्रा जी, कंपनी वाला पैसा लेकर भाग गया तो?’ कंजिया के मन में उम्मीद के साथ ही शंका का फन भी खड़ा हो गया।
‘अरे, ऐसे ही कंपनी बंद हो जाएगी। चांदनी चौक के आधे से ज्यादा दिहाड़ी मजूरों ने अपना पैसा इसी कंपनी में जमा करा रखा है। अब बैंक-वैंक में तो तुम्हारा खाता खुलने से रहा। न तो तुम्हारे पास राशनकार्ड, न आधार कार्ड, न वोटर आईकार्ड। और वैसे भी बैंक में तो पैसा दोगुना होने में छह-सात साल लग जाते हैं।’ मिश्रा जी ने कंजिया को समझाते हुए कहा।
‘अभी तो अगले कार्तिक में है ब्याह। पूरा साल भर पड़ा है। सात के चौदह हो जाएंगे और कुछ कंपनी से उधार पर ले लेना।’
कंजिया की आंखों के आगे फिर से सुहाग जोड़ा घूमने लगा। उसने जी कड़ा करके कंपनी में पैसा जमा करा दिया।
……
‘अपनी लाडो के लिए सुहाग जोड़ा जरूर लाऊंगा। बता तुझे कौन से रंग का पसंद है?’
‘बाबा, हमें तो लाल रंग वाला चाहिए।’ बिन्नी ने शरमाते हुए फोन पर कहा।
कार्तिक बीत रहा था। दिवाली जा चुकी थी।
छठ आने वाली है। गांव में कैसी धूम मची होगी। कंजिया शोरूम के बाहर गलियारे में लेटा हुआ था। नीचे प्लास्टिक के खाली बोरे बिछा रखे थे। उन पर लेटा कंजिया फटे कंबल को कभी इधर तो कभी उधर लपेट रहा था।
‘इतने बरस हो गए दिल्ली आए लेकिन ऐसा जाड़ा पहले कभी नहीं देखा। सीतामढ़ी में भी जाड़ा पड़ता है लेकिन फूस की झोपड़ी में थोड़ी गर्माहट रहती है। पुआल बिछाने पर तो और ठंड कम लगती है। लेकिन यहाँ सीमेंट की दीवारें बर्फ की सिल्ली सी जान पड़ती हैं।’ कंजिया ने बगल में लेटे रामभजन से बात करनी चाही। लेकिन रिक्शावाला रामभजन पहले ही पेट में गोड़ गड़ाए सो रहा था।
‘भागो, बचाओ … अरे कोई फायर ब्रिगेड को फोन करो … अरे बचो, बिजली के तारों में करंट आ गया है …. अरे आग पर पानी डालो…’
चारों ओर अंगारे बरस रहे थे, आग से शोरूमों के कांच तड़क तड़क कर टूट रहे थे।’
कंजिया नीम बेहोशी में था, शरीर जैसे भट्ठी पर रखा हुआ था, आंखें अधखुली थीं।
आंखों के सामने धुआँ-धुआँ-सा था। अचानक कुछ पैर उसे रौंदते हुए निकल गए। लोग इधर-उधर भाग रहे थे।
‘अरे, ये जिंदा है! उठाओ, उठाओ।
कंजिया को लगा, वह हवा में तैर रहा है। उसके आगे-पीछे कुछ लोग उसे उठाए चल रहे हैं …चारों तरफ चीख पुकार मची है, टूं टूं टूं टूं ……रात के अंधेरे में सायरन की आवाज के नीचे बाकी सब आवाजें दब रही हैं।
कंजिया को अचानक लगा, गलियों के आसमान में बिछा तारों का जाल टूट कर उसके ऊपर आ गिरा।
उसकी आंखें अब बंद हो चुकी थीं।
……
उसे समझ ही नहीं आया कि वह कहाँ है। रात सोया था तो बस इतना याद है कि ठंड बहुत थी लेकिन अब तो ऐसा लग रहा है कि उसकी सारी देह जल रही है।
रात काफी हो चुकी थी, लेकिन ठंड के मारे कंजिया को नींद नहीं आ रही थी। कंबल ऐसा लग रहा था, मानो जमुना जी के पानी में भीगा हुआ है। उसने दोनों पैर मोड़ कर छाती से सटा लिए और दोनों हाथों को अगल-बगल दबा लिया।
‘अरे कंजिया भैया राम राम! सो गए क्या?’
‘कहाँ भइया, ऐसे जाड़े में नींद कहाँ आती है।’
उसके गांव का ही किसन था। सिर पर दूध का बर्तन लिए जा रहा था। रात ढलते ही किसन की नौकरी चालू हो जाती है। वह सालों से परांठे वाली गली में ‘दौलत की चाट’ बेचता है। दौलत की चाट जाड़े की रातों में सबसे बढ़िया बनती है।
दिल्ली की गुलाबी सर्दी में जब रातें बेहद सर्द हो जाती हैं और पाला पड़ता है तो ऐसी ही सर्द रातों में पुरानी दिल्ली के कुछ खानसामे दूध के बड़े-बड़े कड़ाह लेकर खुले मैदान में पहुंच जाते हैं।
सारा शहर सो रहा होता है और ये खानसामे दूध को फेंटने में जुट जाते हैं, घंटों मथते रहते हैं, दूध को इतना मथा जाता है कि उसमें खूब सारे झाग बन जाते हैं। इसके बाद चांदनी रात में आसमान से ओस की बूंदें झाग पर गिरनी शुरू हो जाती हैं। खानसामे के साथ काम करने वाले नौकर बड़ी सावधानी से इस झाग को एक अलग बर्तन में इकट्ठा करने लगते हैं। और रात भर के इस रतजगे के बाद कहीं जाकर बनती है ‘दौलत की चाट’। कहा जाता है कि चांदनी चौक गए और ‘दौलत की चाट’ नहीं खाई तो क्या खाया! ‘दौलत की चाट’ बनाने का जो सलीका है, वह किसी रूमानी शायरी से कम नाजुक नहीं है। और खास बात यह है कि दौलत की चाट का लुत्फ सिर्फ सर्दी के मौसम में ही उठाया जा सकता है।
रामरतन एक दिन कह रहा था, ‘दिल्ली में इसे ‘दौलत की चाट’ कहते हैं, लेकिन हमारे कानपुर में इसे ‘मलाई मक्खन’ कहा जाता है। यही वाराणसी का ‘मलाईयू’ और लखनऊ का ‘निमिश’ है।’
‘दौलत की चाट’ दौलत वालों के लिए ही है। इतनी महंगी है कि कंजिया से तो कभी खाते नहीं बना। कंजिया के मुंह में अचानक पानी सा आ गया।
‘दौलत की चाट’, रामरतन, किसन, बिन्नी, ब्याह ….यही सब उसके अवचेतन में दौड़ रहा था।
……
आग में शोरूम के शीशे चटक गए थे। कुछ किरचें कंजिया के शरीर में भी जा घुसी थीं, आग में हाथ पैर, कमर और सिर के बाल भी झुलस गए।
‘किरचों के घाव भरने में कम से कम महीना भर लगेगा, जले हुए के घाव भी भरने में कुछ वक्त लेंगे।’ सरकारी अस्पताल का डाक्टर, राउंड पर आए अपने सीनियर डाक्टर को बता रहा था।
‘ठीक है, थोड़ा सा हालत ठीक हो जाए तो डिस्चार्ज कर दो, बेड की बहुत डिमांड है।’
कंजिया डिस्चार्ज होकर जाता भी तो कहाँ जाता। वहीं कुछ दिन अस्पताल के ही गलियारे में पड़ा रहा। थोड़ा चलने-फिरने लायक हुआ तो दिहाड़ी पर लौट आया।
शोरूम में मरम्मत का काम चल रहा था और कारोबार भी। वह भी और दिनों की तरह काम में जुट गया। जख्म भरने का इंतजार करे, इतना वक्त कहाँ था उसके पास।
किस को चिंता थी कि कोई उससे उसका हालचाल पूछता।
महीने भर में वह कोई मुश्किल से बीस दिन ही काम पर आया होगा। इसलिए दिहाड़ी भी उसी हिसाब से मिली थी। कुल मिलाकर यही कोई 800 रुपया हुआ होगा।
वह ‘बनारसी पान भंडार’ की ओर बढ़ चला।
‘अरे कंजिया, कैसे हो? हम तो समझे थे कि भैया तुम भी निकल लिए। चलो शुक्र है रामजी का।’
‘पान लगाएं?’ मिश्रा जी कंजिया को अनदेखा सा करते लगे।
‘नहीं मिश्रा जी, ये कुछ पैसे जमा कराने थे कंपनी में।’ कंजिया ने खींसे में उमेठ कर रखे सौ-सौ के नोट निकाले।
लेकिन मिश्रा जी की बात सुनकर तो उसे चक्कर आ गया।
‘‘देखो कंजिया, तुम्हारा शक सही था। कंपनी वाला तो पैसा लेकर भाग गया। ’’
‘‘तुम्हें तुम्हारे गांव वाले रामरतन ने बताया नहीं । उसके भी चार हजार रूपये डूब गए । ’’
‘‘ और हम दूसरे का दुख क्या कहें, हमने खुद 12 हजार रूपया जमा कराया था। ’’ मिश्रा जी की सूरत रोने वाली हो रही थी।
‘‘लेकिन अब कोई मरा थोड़े ही जाता है। सुना है, पुलिस का कंपनी पर छापा भी पड़ा । कंपनी वाले को पहले ही खबर हो गई थी, वह सब रूपया पैसा लेकर चंपत हो गया।’’
कंजिया की आंखों के आगे अंधेरा छा गया । सिर पकड़ कर पटरी पर बैठ गया।
‘‘ सुहाग जोड़े का क्या होगा? बिन्नी की शादी कैसे होगी ? ’’
कंजिया की आंखों के आगे लाल रंग का सुहाग जोड़ा तैरने लगा, लहंगे पर लगे सलमा सितारे, रेशम के बूटे, …..लाल रंग …. पीला रंग ….. गाजरी रंग …..हरा रंग ….. सारे रंग जैसे गड्मड् होकर उसकी आंखों में फैल गए ।
‘‘कंजिया! अरे सुनो, देखो भाई …….बात समझने की कोशिश करो….’’ मिश्राजी पीछे से आवाज लगा रहे थे । लेकिन कंजिया मुर्दे की तरह पांव घसीटते हुए शिव साड़ी हाउस की तरफ चल पड़ा।
‘‘ ये नहीं , वो पिंक और मोव कलर वाला ज़रा दिखाइए ,’’ एक अल्ट्रा मॉड महिला अपनी बेटी को लहंगे पसंद करवा रही थी। ’’
‘‘ मैडम, इससे बेशकीमती और खुबसूरत लहंगा आपको पूरे चांदनी चौक में नहीं मिलेगा।’’ लाला जी ने यह कहते हुए लहंगे की खूबसूरत किमखाब की ओढ़नी महिला के सामने फैला दी।
‘‘ कपड़ा खास ईरान से मंगवाया गया है, उस पर यूरोपीय स्टाइल की कसीदाकारी है ।’’
‘‘आह ! जरा छूकर इसकी मुलायमियत तो देखिए। अनुष्का ने जो लहंगा अपनी शादी में पहना था न, अरे आपने जरूर देखा होगा, वह एकदम इसी कपड़े का बना था। बिटिया के ऊपर तो यह और भी खूब जंचेगा।’’
लाला जी के चेहरे पर चौड़ी मुस्कान थी।
‘‘कंजिया, जरा ये गट्ठर दरियागंज में हुसैनी साहब के यहां दे आओ । ’’लाला जी ने कंजिया को देखते ही कहा।
कंजिया अपने मुर्दा पैरों को घसीटते हुए आगे बढ़ा । उसने गट्ठर नहीं उठाया। सीधा शोकेस में सजे बुतों की ओर बढ़ गया ।
शोकेस में हर रोज की तरह लहंगे चोली और ओढ़नी में बुत दुल्हन से सजे खड़े थे ।
कंजिया एक बुत के पास जा खड़ा हुआ।
उसने अपने हाथ फैलाए और एक बुत को कसकर कंधों से पकड़ लिया।
बुत को सीने से लगाकर जोर से भींच लिया और ……. शोरूम उसके रूदन से थर्रा उठा।
कंजिया का रूदन शोरूम के कांच को चटकाकर चांदनी चौक की संकरी गलियों में फैलता चला गया।
संपर्क सूत्र : न्यूज एजेंसी पीटीआई भाषा में पिछले 20 साल से बतौर समाचार संपादक कार्यरत/ मो. 9810464249
आपने गरीबी का मार्मिक चित्रण किया है। यही हाल है बिहार से जाने वाले अधिकतर गरीब मजदूरों का। उनकी मजबूरी कोई समझने वाला नहीं है।
धीरज जी, आपको कहानी पसंद आई, इसके लिए धन्यवाद