कवि कथाकार। चार उपन्यास, आठ कथा संग्रह, नौ कविता संग्रह, समीक्षा व साक्षात्कार की पुस्तकें प्रकाशित। मराठी के चर्चित उपन्यास बारोमास के अनुवाद के लिए उन्हें केंद्रीय साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त।
वह रोज पिछले हिस्से में लगी सीढ़ियों से ऊपर अपने हॉल तक पहुंचता। सामने की लिफ्ट और सीढ़ियों का इस्तेमाल करना उसने लगभग दो महीने से बंद कर दिया है। लिफ्ट के पास थर्मल टेस्ट होता है। सेनिटाइज़र रखा होता है। लोग मास्क लगाकर ही आते हैं। यह कोविड-19 का काल बहुत डरावना हो गया है। लिफ्ट एक साथ चार हैं। आमने-सामने। उनमें से दो ‘फास्ट’ हैं। इक्कीस माले की बिल्डिंग है। लिफ्ट में एक साथ पंद्रह लोग आसानी से जा सकते हैं, पर इस कोरोना काल में केवल पांच लोगों को ही जाने की अनुमति है। इसका पालन कड़ाई से किया जाता है। मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग कम्पलसरी!
देव का आफिस तीसरी मंजिल पर है। वह चुपचाप पिछली सीढ़ियों से जाने लगा है। इन सीढ़ियों से सामान्यत: कोई आता-जाता नहीं। किसी खास काम के लिए इसका इस्तेमाल होता है। पर गेट पर चौकीदार होता है। वह लगभग एक हफ्ते से ही देव को इन सीढ़ियों से जाता देखता है। पर उसने देव को कभी नहीं टोका। क्योंकि उसे मालूम है कि देव तीसरी मंजिल की कंपनी में काम करता है। देव भी एक मुस्कान फेंककर ऊपर चढ़ने लगता। चौकीदार को लगता कि देव भीड़ टालने के लिए इधर से ऊपर जा रहा होगा। पर ऐसा नहीं था। दरअसल हफ्ते भर से देव को बुखार-सा लग रहा है। कभी जुकाम भी होता है और हल्की-सी खांसी उसे अकसर होती है। उसे डर है कि उसे कहीं कोरोना का हल्का प्रभाव तो नहीं। सामने लिफ्ट से जाने पर थर्मल टेस्ट से कुछ साफ हो गया तो…? वह सिहर जाता… मारे डर के… आफिस में कर्मचारियों की उपस्थिति बहुत कम। हालांकि अब लॉकडाउन में ढील दी गई है। फिर भी आफिस में कम ही आते हैं। बारी-बारी से उनकी ड्यूटी लगाई जाती है। जो अधिक सावधानी बरतते हैं वे छुट्टी पर चले जाते हैं। चूंकि हर काम में ठहराव है, इसलिए छुट्टी मिलना भी आसान है। पर आफिस का न्यूनतम काम तो होना ही चाहिए। इसलिए जो कर्मचारी-अधिकारी आते हैं उन्हें निवास से आफिस जाने-आने के लिए टैक्सी-किराया दिया जाता। क्योंकि लोकल-ट्रेन और बसें बंद हैं।
मुंबई में लोकल का बंद हो जाना पूरी आवाजाही को ठप कर देता है। वह लगभग रोज आता है। वह मुंबई के विलेपार्ले इलाके में रहता है। आते समय तो टैक्सी से आ जाता और लौटते में वह टैक्सी के बजाय उधर से जानेवाले किसी कारवाले का इंतजार करता… कोई न कोई मिल ही जाता। वैसे लौटते समय टैक्सी मुश्किल से मिलती… पर वह कोई न कोई बहाना बनाकर लिफ्ट मांग लेता।
देव को अकसर अनंत कुमार से लिफ्ट मिल जाती। देव जूनियर अफसर था और अनंत कुमार उसी डिपार्टमेंट में सीनियर अफसर। पर सीधे एक ही सेक्शन से जुड़े नहीं थे। दोनों मध्य प्रदेश से थे, इसलिए अतिरिक्त करीबी थी। अनंत कुमार मालाड़ में रहते थे। वे हाई वे पर ही विलेपार्ले उतार देते देव को।
देव बहुत गुमसुम और अकेले-अकेले रहना पसंद करता। दूसरों से बस काम से काम। न घुलना-मिलना, न खुलकर किसी से बात करना। चेहरे पर कोई न कोई बोझ हमेशा झलकता। लंच भी अकेले-अकेले। अनंत कुमार से भी खुलकर बात नहीं। दबी जुबान और निगाह से केवल आफिस से घर जाने का सफर तय होता। अनंत कुमार सीनियर होने के बावजूद बातचीत में खुला, किसी प्रकार का दबाव नहीं, साथ ले जाने में हिचक नहीं, न ही एहसान जताने का कोई व्यवहार… आफिस में दबदबा होने के बावजूद अनावश्यक दबाव दिखाने का कोई स्वभाव नहीं था। आफिस से निकलने के बाद, आफिस की बात लगभग नहीं के बराबर। देव के साथ भी वार्तालाप कम ही होता सफर में। अब बातचीत तो कोरोना पर ही होती अधिकतर। बस दफ्तर में किसे कोरोना हुआ। मुंबई के हालात और कोरोना की मौतों का जिक्र यदाकदा होता। जब भी चर्चा होती देव सहम जाता। शून्य में ताकता रहता। मरीन ड्राइव से गुजरते हुए एक नजर भी समंदर को न निहारता, कहीं गुम होता वह! शायद खुद में या किसी दहशत में। अनंत कुमार के कुछ कहने पर चौंक पड़ता और क्या बात थी, उसे सूझता ही नहीं। केवल मुस्करा देता या सिर हिलाता।
देव थोड़ा-बहुत संवाद करता केवल अनंत कुमार के साथ। अनंत कुमार को मध्य प्रदेश का संदर्भ मोहित करता। देव वापसी-यात्रा के संदर्भ को लेकर आत्मीय हो उठता। टैक्सी के पैसे बच जाते और यात्रा सुखद हो जाती।
‘पिछले कुछ दिनों से कुछ कमजोरी लगती है!’ बहुत साहस करके देव ने बात कही।
‘कोरोना-समय में सब्जियां वगैरह हम कम खा रहे हैं न… इस कारण भी कुछ दिक्कतें हैं खान-पान की… वैसे आजकल टिफिन में क्या लाते हैं?’ अनंत कुमार ने बात बढ़ाई।
‘कुछ खास नहीं…!’ वैसे पत्नी की तबीयत भी ठीक नहीं रहती। इसलिए पास के ही परचून की दुकान में रोटी मिलती है। सस्ती भी होती है- पचीस रुपये की पांच… पिछले कुछ दिनों से उसी से गुजारा होता है। अचार के साथ काम चल जाता है। देव कहीं शून्य में देखता हुआ बोला।
‘अरे, लाना ही है तो किसी अच्छे होटल से लाओ… जब तक आफिस की कैंटीन शुरू नहीं होती… ऐसे परचून की दुकान में रोटियों की क्या स्थिति है, मालूम है?’ अनंत कुमार ने सिग्नल पर कार रोककर देव की ओर देखा। देव ने भौंचक हो अनंत कुमार को जिज्ञासा से देखा। अनंत कुमार ने देव की ओर देखे बिना हरी बत्ती लगते ही कार आगे बढ़ाते हुए कहा, ‘ये जो होटलों में रोटियां बच जाती हैं- रात तक… उन रोटियों को गरम करके गरम कपड़े में लपेट देते हैं। इस तरह पता नहीं कब की बासी रोटियां ये परचून की दुकानवाले फिर बेचते हैं। नहीं तो पचीस रुपये की एक रोटी भी मुश्किल से होटल में मिलती है और उधर पचीस रुपये की पांच कैसे मिल जाती हैं…!’
देव मुंह फाड़कर अनंत कुमार को सुन रहा था। ‘…और एक बात जान लो कि कुछ बिस्कुट तो इन्हीं बची बासी रोटियों को सुखाकर बनाते हैं। रोटियों की यात्रा होटलों से होती हुई झोंपड़ी-झुग्गियों से फैक्ट्री पहुंचकर बिस्कुट बनकर फिर परचून की दुकान में पहुंचती हैं…!’ अनंत कुमार की बातों को देव फटी आंखों और खुले मुंह से सुन रहा था।
अनंत कुमार ने बात आगे बढ़ाई, ‘रोटियां घर की लाया करो, जरूरत पड़े तो खुद बनाया करो या अच्छे होटल से लाया करो। पैसे बचाने के चक्कर में लेने के देने पड़ जाएंगे। मैंने यह सब अपनी आंखों से देखा है, इसलिए मैं खुद सावधानी बरतता हूं। तुम भी अपना खयाल रखो…। ’
देव विस्मय से सुन रहा था और यह भी ध्यान दे रहा था कि एयरपोर्ट का क्रॉसिंग आते ही उसे उतरना होगा। उसे इसका भी अहसास था कि बातों की धुन में अनंत कुमार विलेपार्ले से आगे न निकल जाए। पर अनंत कुमार ने तयशुदा जगह पर कार साइड में ले ली। देव चुपचाप उतर गया। बिना आंख मिलाए ‘थैंक्स, गुडनाइट’ कहकर एक पल के लिए खड़ा रहा। अनंत कुमार ने भी उसकी ओर नहीं देखा, पर शब्द देव को सुनाई दिए ‘तबीयत का खयाल रखना… खानपान पर ध्यान देना…। ’
रात के आठ बजे होंगे। अनंत कुमार का मोबाइल बजा, ‘मैं बोल रहा हूं’ दूसरी ओर से आवाज आई।
‘बोलो देव, क्या बात है?’
‘आज पता नहीं क्यों बहुत कमजोरी लग रही है। कुछ बुखार भी लगता है। छींक निरंतर है, जुकाम और कुछ खांसी भी। घर के लोगों का कहना है कि कहीं कोरोना तो नहीं है, टेस्ट कराना चाहिए… मुझे भी लगता है…!’ देव एक सांस में बोल गया।
‘बुखार कितना है?’ अनंत कुमार ने संतुलित होकर पूछा।
‘९९’ देव ने तुरंत कहा।
‘डॉक्टर को फोन किया था। उसने कहा घबराने की जरूरत नहीं। उसने वाट्सअप पर दवाई लिख भेजी है और मैंने केमिस्ट से मंगवा भी ली है। पहला डोज खाने के बाद ले ली है। डॉक्टर ने यह भी कहा कि यह वायरल बुखार है, टेस्ट कराने की जरूरत नहीं। ’
‘ठीक है, शांति से सो जाओ। घबराओ नहीं। सब ठीक होगा।’ अनंत कुमार को यह कहना ही था। देव को ढाढ़स बंधाना था। देव किसी और से इतनी बात भी नहीं करता।
दूसरे दिन फोन आया। बुखार तो गया। खांसी और जुकाम कुछ-कुछ है। बाकी सब ठीक है। पर कमजोरी है। दो दिन तक देव का अनंत कुमार को फोन नहीं आया। वह आफिस भी नहीं आया। अनंत कुमार को याद तो आई थी, पर कुछ सोचकर उसे फोन नहीं किया। बस कहना चाहता था कि कुछ पौष्टिक भोजन भी करना चाहिए। कमजोरी दूर करने के लिए खानपान में कुछ गरिष्ठ चीजें शामिल की जानी चाहिए, पर कुछ सोचकर उसने कोई सुझाव न देने में बेहतरी समझी। अनंत कुमार को मालूम था कि देव बहुत कंजूस किस्म का इनसान है, वह इस सुझाव को उपदेश समझेगा।
तीसरे दिन उसका फोन आया। उसकी आवाज में बेचैनी थी, ‘घर के लोगों का दबाव था कि अस्पताल जाकर जांच कराई जाए। लीलावती में हॅूं। ओपीडी ने कहा कि पहले कोविड की जांच होगी। वैसे मुझे कंधे का दर्द था। पिछले साल इसी के लिए भर्ती हुआ था, सो अब फिर दर्द उभरा है। सोचा हिस्ट्री यहीं है। पर उन्होंने पहले कोविड का टेस्ट किया है। मुझे बहुत डर लग रहा है। मुझे कोविड हो गया तो मेरी पत्नी और बच्चों का क्या होगा!’ देव की आवाज लड़खड़ा गई।
‘घबराओ नहीं, सब ठीक होगा!’ अनंत कुमार ने एक सामान्य-सी आश्वासक लाइन कह दी। वह देव के शंकालु और डरपोक स्वभाव से परिचित था। इसलिए हिम्मत बंधाते हुए कहा, ‘रिपोर्ट आने दो… देखेंगे… आजकल लगभग नब्बे प्रतिशत लोग ठीक हो रहे हैं। घबराने की कोई बात नहीं। ’
अनंत कुमार को मालूम था कि देव आफिस में किसी को नहीं बताएगा… डर जाएगा… कोरोना यानी बदनामी; यह दहशत भी उसके भीतर थी।
लगभग २ घंटे में उसकी रिपोर्ट उसे मिली। कोविड के हल्के लक्षण हैं। घर में ही कोरंटीन होने की सलाह दी गई। अस्पताल में जगह नहीं थी। जो बेड थे वे स्पेशल थे। उसका खर्चा उसकी हैसियत से अधिक था। कंपनी का इस अस्पताल के साथ कोई संबंध नहीं था। उन्होंने केवल सलाह दी कि कंधे के दर्द का इलाज और फिजियोथैरिपी कोविड से ठीक होने पर ही हो सकता है। तब तक घर में कोरंटीन हो जाएं। घर में कोरंटीन होने की स्थिति भी उन्होंने समझायी- अलग कमरा, अलग वाशरूम, सबसे दूर- अलग खाना-पीना आदि आदि।
देव को इसकी भनक भी लग गई थी कि अस्पताल ने उसको कोरोना होने की जानकारी कार्पोरेशन को दे दी है। सभी अस्पतालों और पैथोलॉजिकल लैबोरेटरीज को यह हिदायत दी गई है कि रिपोर्ट पॉजिटिव आते ही तत्काल कार्पोरेशन को सूचित किया जाए। तभी तो दूसरे दिन किसी शहर के नए मरीजों की संख्या प्रसार माध्यमों में दिखाई देती है।
जैसे ही, अनंत कुमार के मोबाइल पर देव का नाम झलका, अनंत कुमार के ध्यान में आ गया कि रिपोर्ट आ गई है। देव के संबंध में कई सवाल उभरे… उधर देव की आवाज उभरी… ‘डॉक्टर के अनुसार हल्के लक्षण हैं कोरोना के, और घर-कोरंटीन, अलग कमरा, अलग बाथरूम कहां से लाऊं… मेरे पास तो केवल एक हॉल-किचन है। घर पहुंचते ही कार्पोरेशनवालों का फोन आया है, चलो कार्पोरेशन के अस्पताल में भर्ती करेंगे… मुझे कार्पोरेशन में भर्ती नहीं होना है। वहां जाना तो लगता है, मरने जाना है… आप मेरे लिए कुछ रास्ता निकालें…वहां तो मेरा दम घुट जाएगा।’
अनंत कुमार ने सही अंदाजा लगाया था। देव उसी तरह घबराया हुआ दयनीय याचना कर रहा था। अनंत कुमार रास्ता निकालने में बहुत निपुण है। कह दिया, ‘अरे, डरने की कोई बात नहीं। जब भी आएं पांच-सौ-हजार रुपये दे देना। काम हो जाएगा। देव सुनता रहा। उसकी कुछ समझ में नहीं आया। फिर अनंत कुमार ने एक घटना के उदाहरण से बात समझा दी कि एक कार सर्विसिंग सेंटर में ३५ लेबरर और १७ स्टाफ काम करते थे। कार्पोरेशनवाले वहां पहुंचे कि टेस्ट करना है। पॉजिटिव होने पर अस्पताल में भर्ती करना होता। सुना है एक मरीज के पीछे डेढ़ लाख रुपये मिलते हैं! बस ५२ में से कोई न कोई पॉजिटिव तो निकल ही आता है। सेंटर के मैनेजर ने एक हजार रुपये देकर टरका दिया… फिर तुम क्यों घबरा रहे हो…। ’
‘मुझे वहां जाने से बहुत डर लग रहा है। सुनते हैं, वहां अस्पताल में कुछ भी ठीक नहीं है। न साफ-सफाई, न खान-पान, न दवा-पानी ऊपर से भारी भीड़… वहां तो बेड की भी कमी है, कई लोग जमीन पर पड़े हैं… बहुत डरावना है वहां सब कुछ!’ देव ने एक सांस में अपनी बात कह डाली।
पता नहीं अनंत कुमार के मन में उसके प्रति हमदर्दी क्यों है। शायद अनंत कुमार हर किसी को मदद करने में आगे रहता है। शायद पहले यूनियन में काम करने की वजह से इसमें रुचि रही हो। अनंत कुमार की वरिष्ठ अधिकारियों के बीच अच्छी पैठ थी। किसी की मदद करने की हैसियत थी। कंपनी का ‘नवजीवन’ नामक अस्पताल से कारोबारी संबंध थे।
देव को ‘नवजीवन’ में बेड मिल गई। देव को कोई लक्षण नहीं था। जांच में हल्का प्रभाव बताया गया था। पर डर और घर की जगह की कमी, खाने-पीने की कमी और कार्पोरेशन के अस्पताल की दहशत उसे दयनीय बना गई। पर अनंत कुमार के संपर्क-सूत्र काम कर गए। ‘नवजीवन’ में जगह मिल गई, लेकिन एक कमरे में दो मरीज…
दिन तो किसी तरह गुजर गया। रात होते ही बगल वाला मरीज चिल्लाने लगा। पीड़ा से कराहने लगा। उसके पलंग से लगी पेशाब की थैली, नाक-मुंह पर ऑक्सिजन की टोपी, सिर के पास लगे मॉनिटर को देख-देखकर देव की हालत पतली हो जाती।
रात आठ बजे भोजन आया। अच्छा भोजन दो चपाती, दाल-चावल, दो अच्छी सब्जी, एक कटोरी खीर, सलाद, रायता… देखकर उसकी तबीयत खुश हो गई… यह तो घर से भी अच्छा है और सब कंपनी की ओर से…
गहरी नींद में था वह। रात के ग्यारह बजे थे। तभी बगल के पलंग पर जोर-जोर से खांसी और छींक उठने लगी। ऑक्सीजन की टोपी नाक-मुंह से छिटक गई थीं। मरीज तड़प रहा था, चिल्ला रहा था… देव हड़बड़ाकर उठा। पसीने-पसीने… घबराहट में कुछ सूझा नहीं… सिरहाने लगी बेल की बटन पता नहीं कितनी बार दबाई… नर्स आने के बाद ही बटन को छोड़ा। नर्स ने डॉक्टर को बुलाया। नाड़ी टटोली गई, सीना दबाया गया, मॉनीटर पर लगातार नज़र दौड़ाई गई… इंजेक्शन दिया गया आक्सीजन ठीक किया गया। तब कहीं जाकर मरीज शांत हुआ। देव को लगा, बेहोश तो नहीं हो गया। नर्स-डॉक्टर चले गए। मरीज शांत! देव लगातार उसके पेट-सीने को ताकता रहता… सांस तो चल रही है!… सोचते-सोचते रात गुजरते ही देव ने फिर अनंत कुमार को फोन किया कि उसे मौत के कगार पर पड़े मरीज के साथ रखा गया है। देख-देखकर डिप्रेशन होता है… सर सिंगल कमरे में शिफ्ट करवाएं तो बड़ी कृपा होगी।
कंपनी इंश्योरेंस की थी। ‘नवजीवन’ महानगर का बड़ा अस्पताल था। कंपनी से इस अस्पताल के कारोबारी संबंध थे। अनंत कुमार ने वरिष्ठ अधिकारियों तक यह बात सफलता से पहुंचाई कि ‘माइल्ड’ मरीज को ‘क्रिटिकल’ मरीज के साथ रखना ठीक नहीं है।
देव को सुबह-सुबह सिंगल रूम में शिफ्ट कर दिया गया। दूसरा मरीज दयनीय मौन आंखों से देव को देख रहा था।
यह नया सिंगल रूम वीआइपी रूम था। क्योंकि दूसरा कोई कमरा खाली नहीं था। कोई वीआइपी अचानक आ जाए तो अन्यत्र जाना होगा इस शर्त पर देव को यह कमरा मिला था। अब तो भोजन और बेहतर, खजूर, दलिया, पनीर, अच्छा-सा सूप, गरम पानी, दवाइयां… दिन में तीन बार जांच… बुखार कम हो रहा था- धीरे-धीरे…!
भोजन और सुविधाओं ने देव को मोह लिया। टीवी अतिरिक्त रूप से। चादर रोज बदली जाती। उसके कपड़े रोज बदले जाते। जांच हर तरह की समय-समय पर होती। घर पर बात करता और सुविधाओं की तारीफ करता, खासकर भोजन का ब्यौरा देना वह न भूलता… बल्कि बहुत गर्व से बयान करता। सोता, टीवी देखता या मोबाइल पर पत्नी से बातें करता। सोचता, इतनी सुविधाएं घर पर मिलती तो कोरोना की क्या मजाल, ऊपर से ये सारा खाना, सुविधाएं कंपनी की कृपा से। अपनी ओर से केवल एंबुलेंस से यहां आने का खर्च!
छठवें दिन टेस्ट हुआ। देव पूरी तरह निगेटिव हो गया। उसे बताया गया आज शाम पांच बजे डिस्चार्ज हो जाएगा। घर जाने की व्यवस्था कर ली जाए।
देव भौंचक्क! इतनी जल्दी! फिर अपने दड़बे में जाना होगा। इतना अच्छा भोजन, इतनी सुविधाएं, इतनी जांच सब समाप्त… वह सिहर गया! सुना था कि चौदह दिन तो अस्पताल में रखा ही जाता है। छह दिन में ये मुझे घर भेज रहे हैं। अनंत कुमार को फोन मिलाया… ‘ये लोग तो मुझे छठवें दिन ही वापस भेज रहे हैं। सर, चौदह दिन तो रखा ही जाता है। कोई वीआइपी तो नहीं आ रहा है…! पर मैंने पता किया, कोई नहीं आ रहा है। बस मुझे निगेटिव घोषित कर मेरी छुट्टी की जा रही है। … अब तो कुछ कमजोरी दूर हो रही थी। कम से कम चौदह दिन तो रखना ही चाहिए न! सर, आप जरा किसी तरह चौदह दिन तक बढ़वा दीजिए न…!!
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