युवा कवयित्री।दो कविता संग्रह शब्दों की दुनिया’, ‘कंचनजंघा समयसहित आलोचना की कुछ पुस्तकें प्रकाशित।उत्तर बंग विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग में प्रोफेसर।

 
उसने सोख लिए मेरे दुख

मन जब भी होता था मलिन
पनप जाता था कोई न कोई दुख
अंत: की तलछट में जमा थे कितने अवसाद
दुखों की कुलबुलाहटें थीं

मैं अपना दुख किसी से साझना चाहती थी
पर सबके पास पहले से ही दुखों का जखीरा था
दुखों को ढोने की झुंझलाहटें थीं
ऐसे में और क्या कहती किसी से

एक दिन बदहवास
दौड़ी-दौड़ी पहुंची नदी के पास
शायद बहा ले जाए वह मेरा अवसाद
देखती हूँ उसके शरीर पर सैकड़ों घाव
उत्खनन कर किसी ने बांध दिया था उसे
तब और मैं क्या कहती

मैं देखने लगी आसमान
और फिर चिड़ियों की उड़ान
दम साध कर उनका बढ़ना
अपने लक्ष्य की ओर
बीच में बल खाकर इठला लेना
अनवरत ऊब को तोड़ते हुए
वे कहां सुन पातीं मेरी सिसकी

अचानक मेरी नजर किनारे उगी घास पर पड़ी
मैं कुछ भी बोले बिना
उसे एकटक देखने लगी
उसने सोख लिए मेरे सारे दुख मैं हरी हो गई
अंदर की सब मलिनता वहीं खो गई।

तुम अद्वितीय

मन के एक अंश को उजला रखकर
जाते हो तुम
ऋतुओं से मिलने
ढूंढते एकांत के थोड़े से पल
महसूस कर पाते हो उनकी आवाजाही
और थोड़ी-सी गतिविधियां
तब कितने दिखते हो तुम समर्थ!

बसंत बिखेर देता है अपने रंग और गंध
तुम महसूस करते हो कि तुम्हारा उजलापन
दिपदिपा उठा है
आम, पलाश और चंपा की आभा से

ग्रीष्म अपनी फरहरी फहराता है तुम पर
और तुम्हारा आलस्य हो जाता है छू मंतर
भर उठते हो अमलतास के वैभव और
कृष्णचूड़ा की सामर्थ्य से

वर्षा का जल और सावन की हरियरी
इस तरह बस जाती है मन में
कि मालूम भी नहीं पड़ता तुम्हें
शरद के कांस और शेफाली से टपकती ओस में
डूबकर तुम्हारी आंखें
जब चांद से करती हैं बातें
तब फेंक देते हो तुम
शरीर पर पड़ी अपनी सिंथेटिक चादर

हेमंत की हेमता आ चुकी होती है
जब तुम्हारे आसपास
पुराने पल्लव समेट लेते खुद को
और ठहर जाते पेड़ों के पत्ते अपनी जगह
तुम मिलने चले जाते उनसे
शिशिर को देखकर सिकुड़ जाती नदियां
सड़ने लग जाते ताल और तालाब
मंद पड़ जाता मछलियों का प्रजनन
उधर फूट रही होती हैं कचनार की चटक कलियां
तुम हेरने लगते पलाश
काले खोल को चीड़ कर अंखुआती उत्तेजना
कितनी मोहक लगती है तुम्हें!

हे मेरे प्राणप्रिय!
महसूस जब करती मैं तुम्हारा मन
उजले भाग पर छपे
ऋतुओं के ढेर सारे रंग
कितने अद्वितीय लगते तुम!

शिशिर का आना

तनिक-सा कलेवर वाला हरा
ठिठुर कर दिख रहा है भूरा
जैसे कि बिछी हुई हरी घास

पत्ते पड़ कर कमजोर
कहीं चित्त गिर रहे हैं कहीं पट्ट
शीत का कोड़ा चल रहा है
खुलेआम सटासट

बिन घर बिन कपड़े के
निर्धन है बेहाल
सारे प्राकृत पशुओं का
हो रहा बुरा हाल

पानी का सोता सूख जाने से
सिकुड़ी पड़ी हैं तमाम नदियां
मेरे बिलकुल पास से बह जाने वाली
तीस्ता हो महानंदा या बालाशन की अंगड़ाइयां

कनेर छुप गया है कहीं
अड़हुल का खिलना संक्षिप्त है
तीरा-मीरा जा चुकी ससुराल
स्वर्ग लौट गया हरसिंगार

दिल में गुदगुदी मचाकर
गदगद हो रहा गेंदा
गुलदाऊदी भी कुछ कम नहीं
झूम रहा होकर पैदा

फूटकर निकला है पिटुनिया
मुस्कराने को है डालिया
क्या कहने कचनार के
खिलखिला रहा बोगनवेलिया

शिशिर के आने से
कुछ खुश हैं कुछ उदास
शिशिर के जाने से
ऋतु छोड़ती उच्छ्वास

असल बात फिर भी यह
शिशिर का आना
माने फैलना सिकुड़न और ठिठुरन का।

तट की व्यथा-कथा

एक सूनी नाव
कुछ सुघड़ पत्थर

छाया छोड़ देती साथ
पकड़ कर धूप का हाथ

पसर कर पड़ा रहता पेड़
जैसे भोजन के बाद शेर

नमी सब सोखती रहती
कई जन्मों की प्यासी रेत।

संपर्क : हिंदी विभाग, उत्तर बंग विश्वविद्यालय, राजा राममोहनपुर, सिलीगुड़ी, जिला दार्जिलिंग -734012 मो.9434462850