वरिष्ठ कवि, आलोचक और लोक साहित्य के विद्वान। ‘साखी’ पत्रिका के संपादक।रैदास के पदों का काव्यांतरण हाल में प्रकाशित।बनारस हिंदू विश्वविद्याल के हिंदी विभाग में प्रोफेसर।
वह बनारस की एक पवित्र सुबह थी
ताज़ा फूलों की ख़ुशबू
गंगा की लहरों पर तैर रही थी
मंदिर की घंटियों की आवाज
पक्षियों की चहचहाहट से होड़ ले रही थी
ऐसी ही एक सुबह का लुत्फ लेने
निकला था संग तराश
संग तराश
जिसे पहाड़ सुंदरता की खान दिखते
संग तराश
जो लगातार बेचैन रहता
सुंदरता के उत्खनन के लिए
संग तराश
जिसने लाल-हरे-नीले-पीले-सफेद पत्थरों से
खोज निकाली थीं
अनगिनत जीवित आकृतियां
आज निकला था
सुब्ह-ए-बनारस का जायजा लेने
जब वह निकला पेड़ों पर कलरव करते
पक्षियों के समूह ने उसका इस्तक़बाल किया
बीच सड़क पर अलसाए खड़े
पगुराते बनारसी साड़ों ने भी
बड़े अदब से
उसे रास्ता दे दिया
धरती के सबसे पुराने नागरिक पेड़
एक लाइन से खड़े होकर
उसे सलामी दे रहे थे
संग तराश के दिलोदिमाग़ में
कुलबुला रही थीं
असंख्य सौंदर्य मूर्तियां
जो पहाड़ों के गर्भ में पड़ी-पड़ी
हजारों वर्षों से विकल हो रही थीं
सबको आश्वस्त करता
सधे कदमों से
चलता चला जा रहा था
संगतराश
उसे जुट जाना था
पथराई दुनिया को
सुंदर में बदल देने के काम में
उसे पत्थरों में जान डाल देनी थी
उस खूबसूरत सुबह के गर्भ में
घात लगाए बैठा था
एक अदृश्य ‘लेकिन’
संग तराश के इंतजार में
जिसे
सुंदर मात्र से चिढ़ थी
चिढ़ थी सुंदरता के उजास से
इसके पहले कि संग तराश लौटता
उसे दबोच लिया नृशंस लेकिन ने
उस सुबह किसी ने नहीं देखा
कि धरती फटी
और संग तराश उसमें समा गया
उस सुबह किसी ने नहीं देखा
गंगा की लहरों को आते
और संग तराश को
अपने साथ ले जाते
किसी चील कौवे तक ने नहीं की
उसकी शिनाख्त
उसे सूरज खा गया था
या हवाएं उड़ा ले गई थीं
किसी को कुछ भी नहीं पता था
इधर ख़ालिश बनारसी गपोड़िए थे
जिनका जन्म ही
बिना कुछ जाने
चरम सत्य बोलने के लिए हुआ था
वे रचते रहे कहानियां
कि संग तराश ऐसा था
वे रचते रहे किस्से
कि संग तराश वैसा था
इस ऐसा और वैसा के बीच
एक जीता जागता आदमी जो संग तराश था
ग़ायब हो गया
सौंदर्य का सर्जक अदृश्य हो गया था
और
संस्थाएं चलती रहीं अपनी लय में
शहर चलता रहा अपनी लय में
लोग बाग चलते रहे अपनी लय में
साजिशें चलती रहीं
अखबार निकलते रहे
और पढ़े जाते रहे
मंदिरों में बजती रहीं घंटियां
बजते रहे शंख
मस्जिदों से आती रहीं
अजान की आवाजें
गुरुद्वारों में चलती रही अरदास
सहकर्मी लौट गए थे
अपने काम पर
सुबह वैसे ही हो रही थी-
जैसे होती थी
शाम वैसे ही हो रही थी
जैसे होती थी
अपने घोड़ों की उदासी के बावजूद
सूरज का रथ चलता रहा
ज्यों का त्यों
पक्षी उदास हो गए थे
सांड़ों के माथे पर
पड़ गया था बल
पेड़ पहले से ज़्यादा
गमगीन हो गए थे
आंसू की तरह
बहे जा रही थी गंगा
उस सुबह को हुए इतने दिन बीत गए
जो किसी भी शाम से ज्यादा काली थी
किसी भी खौफ से ज्यादा खौफनाक
आज भी
हवाओं में गूंजता रहता है संग तराश का नाम
जिसे सुनते हैं
इंतज़ार में खड़े पहाड़
पत्थरों की आंखों से
बरबस
ढुलक जाते हैं आंसू…
इस तरह
एक संग तराश
जो बनारस की एक पवित्र सुबह
अदृश्य हो जाने से पहले मौजूद था
पत्थरों की दुनिया में
किंवदंती बन गया।
संपर्क : साखी, एच 1/2 वी.डी.ए. फ्लैट, नरिया, बी.एच.यू. वाराणसी-221005 मो. 9450091420
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