वरिष्ठ कवि। ‘वृत्तांत’ साहित्यिक पत्रिका का संपादन।
ओ पिता!
मेरे भीतर बहता है
एक द्रव्य,जिसमें तुम हो
जंगल के बीच कलकल करती
पहाड़ी नदी की तरह
भयावह समय के
बेचैन क्षणों के दरम्यान
पाया तुम्हीं को
सुबह की उजास की तरह
अंधेरा चीरकर रास्ता दिखाते हुए
पिता, ओ पिता!
खौफनाक राहों से चलकर
बहुत दूर निकल आया हूं
जहां से लौटना अब संभव नहीं
चारों तरफ युद्ध की विभीषिकाएं हैं
क्रूरताएं चरम पर हैं
न्याय अधोगति में
बिछी हुई हैं लाशें
गिद्ध नोच रहे हैं मनुष्यता का मांस
जातीय,धार्मिक
और नस्लीय उन्माद में
ढोल-नगाड़े पर नंगा नाच रही हैं सभ्यताएं
संवेदनाओं का क्षरण चरम पर है
फलदार लदराय पेड़ सूख गए हैं
फूल भी सूख गए हैं
कहीं सुगंध नहीं
ऐसे में कहो कैसे बांसुरी बजाई जाए
बुद्ध लंबा लेटे हुए हैं कुशीनगर में
कहो, किस नगाड़े को बजाकर उठाया जाए
पिता, ओ पिता!
जानना
जानने के लिए जानना चाहता था
क्या क्या है जानना
और कितना कितना
कैसे गिरकर ऊपर उठना
उठकर चलना
चील की तरह उड़ना
आसमान को अंकवार में बांध लेना
पागल बनकर
पहाड़ों को बेतहाशा चूमना
क्षत विक्षत होठों से खून का टपकना
चुपचाप मारात्मक पीड़ा सहना
आसान नहीं है कवि!
गहरी नदी में डूबकर
उंगुली से बालू पर कविता लिखना
गढ़ना, पाट-पाट खोलना
जानना-जनना कितना दारुण है
और मारात्मक पीड़ा की अनुभूति
महाकवि!
स्त्रियां जानती हैं
साये में धूप की तरह खिलना
खुलना गांठ-गांठ
मारात्मक पीड़ा सहना
जानना-जनना!
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