कवि और लेखक। अद्यतन नवगीत संग्रह,‘धुंध में लिपटे हुए दिन’।
हाँफते दिन भर
कई युगों से
लकीरें हाथ की हम
बांचते दिनभर
महल में नाचतीं परियां
पहनकर मणि जड़े गहने
विलासी मधुक्षणों के सुख
वहीं आकर लगे रहने
इधर हम
रोज पन्ने भाग्य के हैं
जांचते दिनभर
सुगंधित भोग की थालें
वहां दिनभर महकती हैं
हमारे पेट में अनुदिन
जठर बनकर दहकती हैं
इधर हम
एक रोटी के लिए ही
नाचते दिनभर
इधर तो प्यास के मारे
हमारे हैं गले सूखे
सुबह से शाम तक हम तो
रहे गिरते रहे टूटे
लिए हम
अनबुझी चाहें डगर में
हांफते दिनभर।
सपने नई भोर के
सपने
नई भोर के लादे बच्चे कहां धरें
कैसे पीर हरें
अम्मा के संग बीन रहे जो
कूड़ा पॉलीथीन
और पिटारी लिए सांप की
बजा रहे जो बीन
बचपन के दिन
ट्रेनों में जो नट के खेल करें
कैसे पीर हरें
पढ़ने के दिन दुकानों पर
रो-रो धोते प्लेट
सड़ा-गला जो कुछ मिल जाता
बेमन भरते पेट
रात अंधेरी
कैसे गुजरे चीखें और डरें
कैसे पीर हरें
कुछ बच्चे तो हाथ पसारे
मांग रहे हैं भीख
काम करो कुछ दाता देते
मात्र खोखली सीख
लोकतंत्र के
हरे खेत को दाता लोग चरें
कैसे पीर हरें।
बादल सिरजो
ओ विज्ञानी!
बंद करो ये तोप मिसाइल
बादल सिरजो
तुम्हें पता है धरती मां की
कोख हुई कितनी ही खाली
फेंक-फेंक कर परा बैंगनी
बजा रहा सूरज भी ताली
ओ विज्ञानी!
नये शोध संधान करो अब
बादल सिरजो
धरती के तन फटी दरारें
हिमनद कई विलीन हो गए
सांसें मंद हुईं नदियों की
तट बंजर श्रीहीन हो गए
ओ विज्ञानी!
खग मृग मीन पियासी संसृति
बादल सिरजो
मंगल और चांद पर जाकर
माना शातिर लोग बसेंगे
किंतु हमारे धरतीवासी
बिन पानी किस तरह जिएंगे
ओ विज्ञानी!
सागर जल पर यंत्र लगाकर
बादल सिरजो।
संपर्क: 21 चाणक्यपुरी, ई–श्याम नगर , न्यू पी.ए.सी. लाइंस, कानपुर–208015 / मो: 09795111907 Email : sribnath@gmail.com
भाई बृजनाथ जी, वागर्थ के जुलाई 21 अंक में आपकी कविताएँ पढ़ी । बहुत सुन्दर । साधुवाद ।
बहुत सुंदर गीतों का प्रतिष्ठित पत्रिका मे प्रकाशित होना महत्वपूर्ण उपलब्धि है।
बहुत बहुत बधाई आदरणीय भाई साहब!