हिंदी विभाग, डी.ए.वी. पी.जी. कॉलेज, वाराणसी में अध्यापन

काव्यांतरण मात्र अनुवाद-कर्म नहीं है, बल्कि कविकर्म का विशिष्ट मार्ग है- बेहद कठिन लेकिन संतुलित मार्ग। लोकधर्मी परंपरा में अगाध विश्वास और रुचि के कारण राधावल्लभ त्रिपाठी और सदानंदशाही ने अपने काव्यांतरणों के बहाने परंपरा में निहित आधुनिकता की संभावनाओं को रेखांकित किया है। इन्होंने जनपदीय जीवन में संस्कृति का नया मार्ग बनाया है- संभव है यह एक ढंग के कविकर्म का मार्ग हो। संस्कृत काव्य परंपरा की लोकधर्मी चेतना विचार-स्वातंत्र्य की विविधता,सांस्कृतिक गत्वरता, धार्मिक सद्भाव की गहनता का प्रतीक भी है। यह सिलसिला भारतीय काव्य परंपरा में आगे भी जारी रहा है। सद्भाव, संवाद और सहिष्णुता की यह लोकधर्मी परंपरा ही भारतीय समाज-संस्कृति की जातीय परंपरा है। ‘मेरे राम का रंग मजीठ है’ इस सिलसिले की ही अगली कड़ी है।

हिंदी समाज में पहले से विद्यमान काव्यांतरण की शानदार परंपरा का स्मरण जरूरी है- जैसे ‘अभिज्ञान शाकुंतलम’और ‘रधुवंश’का हिंदी अनुवाद (राजा लक्ष्मण सिंह : 1863, 1883); गोल्ड स्मिथ का रचना ‘हरमिट’ का खड़ी बोली में ‘एकांतवासी योगी’ शीर्षक से और काव्यानुवाद (श्रीधर पाठक : 1886); और गोल्डस्मिथ के द डिजर्टेड विलेज का उजड़ग्राम शीर्षक से ब्रजभाषा में काव्यानुवाद (श्रीधर पाठक : 1885); गीत गोविंद का भावानुवाद (महावीर प्रसाद द्विवेदी : 1850); भतृहरि के ‘शृंगारशतक’ का ‘स्नेहलता’ शीर्षक से काव्यानुवाद और कालिदास के ‘ॠतुसंहार’ का ‘ॠतु तरंगिणी’ नाम से छायानुवाद (महावीर प्रसाद द्विवेदी; 1891), तुलसीदास की विनयपत्रिका का संस्कृत में अनुवाद (सुधाकर द्विवेदी; 1899),रामचरितमानस के बालकाण्ड का संस्कृत में काव्यानुवाद (सुधाकर द्विवेदी;1901) और मैथिलीशरण गुप्त द्वारा ‘स्वप्नवासवदत्ता’ और माइकल मधुसूदन दत्त की बांग्ला कृति ‘मेघनाद वध’ का काव्यानुवाद, एडविन अर्नाल्ड की प्रसिद्ध कृति ‘लाइट ऑफ एशिया’ का ‘बुद्धचरित’ शीर्षक से ब्रजभाषा में पद्यानुवाद (रामचंद्र शुक्ल; 1922),ईरान के दार्शनिक कवि उमर खैय्याम की रूबाइयों का अनुवाद (रूबाइयत उमर खैय्याम; मैथिलीशरण गुप्त; 1931) 19वीं-20वीं शताब्दी में काव्यांतरण विषयक समृद्ध परंपरा का प्रमाण है। ध्यान रखने वाली बात यह है कि हिंदी समाज में संस्कृति की विविधता और महान काव्य परंपरा के प्रति भी सहकार का भाव है।

हिंदी में संस्कृत कविता की लोकवादी धारा को उपलब्ध कराने का श्रेय राधावल्लभ त्रिपाठी को है। उन्होंने ‘संस्कृत कविता की लोकधर्मी परंपरा’ पुस्तक के माध्यम से एक तरफ इसपर बल दिया,-‘कालिदास, भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि के समानांतर रची जाती रही भारतीय जनसामान्य की कविता का थोड़ा-सा अंश सुभाषित संग्रहों में संकलित मुक्तकों के माध्यम से बच पाया। पर जितना बच पाया, वह अभिजात-कविता से अलग अपनी प्रखरता और पहचान स्थापित करता है। दरबार की विलासिता …. बौद्धिक ऐय्याशी …. छद्म-सौंदर्य और लालित्य का खोल ओढ़कर बनावटी जिंदगी को प्रस्तुत करनेवाली राजसभा के  … कवियों की कालजयी कविता से भी अलग- इस दूसरी परंपरा की कविता की अपनी ही एक दुनिया है। भारतीय जन की भौतिक विवशताएं यहां नुमाइश की वस्तुएं नहीं हैं, गरीबी कविता में सजावट की तरह इस्तेमाल नहीं की जाती, वह एक जीवंत और झकझोर देने वाला अनुभव है। इस परंपरा का कवि विराट जनसागर से तटस्थ नहीं है, वह उसमें गहराई में डूबता है, निरीह और प्रताड़ित जनों से एकाकार होता है, उनके स्वर को शब्द देता है, बल्कि अधिकांशतया प्रथम पुरुष में होने के कारण इस कविता में कवि और जन के बीच फासला रह ही नहीं सका है, दोनों का तादात्म्य है’ (संस्कृत कविता की लोकधर्मी परंपरा)।

‘गांव-गांव फैला-सा लगता है
पकी धान की फसल में खेत झूमता है
संझा घिरते ही पाला छाने लगता है
कंडों से उठता धुआं झिंझोड़ कर उससे भिड़ता है

राधावल्लभ त्रिपाठी ने संस्कृत काव्य की ‘विराट जनसागर’ से संबद्ध और ‘जीवन के सच्चे रस से उपजी’ मुख्य धारा के बाहर की ‘अनोखी काव्य चेतना’ का हिंदी काव्यांतरण करके एक अचर्चित काव्य परंपरा को व्यापक भावभूमि प्रदान की है। उनकी ‘संस्कृत कविता की लोकधर्मी परंपरा’ पुस्तक का संशोधित संस्करण ‘संस्कृत कविता में लोक जीवन’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ है, जहां वे अभिजन के साथ रहकर बहुत दूर से सामान्यजन को देखने वाली दृष्टि तथा दोनों को द्वंद्व में रखकर देखने वाली दृष्टि और फिर अभिजन का साथ छोड़कर विराट जनसागर में आलोड़न-विलोड़न करने वाली तीसरी दृष्टि के साथ उपर्युक्त काव्यधारा के मर्मस्पर्शी चित्र प्रस्तुत करते हैं।

राधावल्लभ त्रिपाठी और सदानंदशाही द्वारा काव्यांतरित पुस्तकों की मूलधारा एक-सी है, जबकि एक के यहांसंस्कृत साहित्य का जीवनोल्लास उपस्थित है तो दूसरे के यहां भक्तिकालीन कवि की लोक-संपृक्ति और भाव-विह्वलता है। यहां विवेचित राधावल्लभ त्रिपाठी और सदानंदशाही के काव्यांतरण- 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 20वीं शताब्दी के पूर्वार्ध में विकसित हिंदी में काव्यांतरण की परंपरा से भिन्न प्रकार के हैं, क्योंकि दोनों कृतियों का उद्देश्य‘अनुवाद’ या ‘अर्थापन’ भर नहीं है, बल्कि पुरानी ‘भाषा’ का आज की ‘भाषा’ में संतरण है- भावबोध, विचारबोध और अर्थबोध का सम्मिलित संतरण। काव्य-संतरण की इस परंपरा का संबंध20वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में हजारीप्रसाद द्विवेदी (मेघदूत : एक पुरानी कहानी), वासुदेव शरण अग्रवाल (मेघदूत), मुकुंद लाठ (स्वीकरण, तिर रही वन की गंध), गोविंदचंद्र पांडेय (वैदिक संस्कृति), आनंद कुमार सिंह (अथर्वा मैं वही वन हूँ) द्वारा विकसित काव्यांतरण की एक विशिष्ट परंपरा से है। इस संदर्भ में हिंदी समाज में अनूठे प्रयास हुए हैं।

संस्कृत कविता की दूसरी परंपरा के अंतर्गत योगेश्वर, अभिनंद, शरण, लंगदत्त और धरणीधर जैसे अल्पख्यात कवि हैं, बल्कि अधिकांश के नाम भी अज्ञात हैं। कविता की इस अज्ञात या अल्पख्यात परंपरा को अपनी भाषा में पुनर्जीवित करना साहसिक कार्य है। यहां राधावल्लभ त्रिपाठी द्वारा प्रस्तुत काव्यांतरण को देखना दिलचस्प होगा –

हल की ईंस टिका कर उठका भर दिया द्वार
खोल दिया उसने देकर माथे की मार
बचने को पानी की तिरछी बौछार से
घुस आया है भीतर
गेल सींग वाला सांड़, सूने मजूर के घर
चौंक कर ठहरी रह गई है घरवाली
छूट गई है सहसा हाथ से उसके थाली

….

‘गांव-गांव फैला-सा लगता है
पकी धान की फसल में खेत झूमता है
संझा घिरते ही पाला छाने लगता है
कंडों से उठता धुआं झिंझोड़ कर उससे भिड़ता है

यह अकारण नहीं है कि डेनियल इंगाल्स ने 1954 में ‘जर्नल ऑफ अमेरिकन ओरिएंटल सोसायटी’ में प्रकाशित ‘गांव और खेतों की संस्कृत कविता : योगेश्वर और उनके साथी’ शीर्षक लेख में योगेश्वर की कविता की न सिर्फ मुक्त कंठ से प्रशंसा की, बल्कि उनके माध्यम से कविता की लोकवादी धारा के महत्व को उजागर करने का प्रयास भी किया। संस्कृत कविता की इस लोकवादी धारा को हिंदी में उपलब्ध कराने का कार्य राधावल्लभ त्रिपाठी ने किया है।

राधावल्लभ त्रिपाठी और सदानंदशाही के काव्यांतरण भारतीय परंपरा के बेहतर, संघर्षशील और अग्रगामी स्वर से भरे हैं। काव्यांतरण की यह पहल ‘स्वीकरण’ के रास्ते भाषांतर की पहल है। ‘स्वीकरण’ मतलब कविता का रूपांतरण भर नहीं, बल्कि कविता के स्वरूप-स्वभाव और भाव-मर्म को एक नई भाषा में उतारने का रचनात्मक उपक्रम।

राधावल्लभ त्रिपाठी ने ‘आदिम अग्नि’, ‘जंगल माँ’, ‘धरती माँ’, ‘घर-परिवार’, ‘बस्ती और अलाव’ विषयक वर्गीकरण के साथ एक तरफ वैदिक ॠचाओं की संपूर्ण निश्छलता को प्रकृति और मनुष्य के अंत:संबंध की गहरी संवेदना में रूपायित करने की कोशिश की है तो दूसरी तरफ लोकमानस के सहज प्रकृत रूप को पूरी भव्यता के साथ उभारने की कोशिश भी की है। यह जानना दिलचस्प है कि संस्कृत महाकाव्य की वृहत्त्रयी के कवियों- भारवी, माघ और श्रीहर्ष के दौर में जब संस्कृत की अलंकृत कविता अपने शिखर पर थी तब भी लोक-प्रतिबद्ध कविता की धारा लगातार उत्तरोत्तर न सिर्फ उत्कर्ष पर जाती है, बल्कि आभिजात्य आचार्य परंपरा और राजसभा पालित साहित्यशास्त्रियों पर अपना प्रभाव भी छोड़ती है। यही कारण है कि भोज (सरस्वतीकण्ठाभरण) तथा राजशेखर (काव्य-मीमांसा) जैसे साहित्यशास्त्री भी कविता की दूसरी परंपरा के साथ जुड़ते हैं और माघ, बाण, भवभूति जैसे कवि भी।

कविता की इस परंपरा में ‘समूची जिंदगी की तस्वीर यहां है- घर-परिवार, गृहणी, दांपत्य, कामधंधों में लगे लोग, किसान- मजदूर, हलवाहे, लाचार बटोही – ये सब अपने परिवेश के साथ प्रस्तुत हैं। यहां पारिवारिक संबंधों, दांपत्य, ॠतुओं, उत्सवों आदि का अनुभव ठीक वह नहीं है, जो कालिदास, अमरूक आदि की कविता में है। यह कविता गांवों में, खेत-खलिहानों में, गली-मुहल्लों में रमती है, यहां प्रासाद, सौध, हर्म्य या राजमार्ग का विश्व नहीं है …. यहां अपनी दीनता और भुखमरी से जूझता वह पूरा मनुष्य उठ कर खड़ा होता है, जिसकी आकांक्षाएं, स्वप्न और संघर्ष मरते नहीं हैं। पत्नीत्व तथा परकीया प्रेम का जो छुईमुई का संसार अभिजात धारा के कवियों में है, उसकी तुलना में यहां गृहिणी की ठोस वास्तविकताओं की बेलौस दुनिया है … यहां सिंह-शावकों के दांत गिनने वाले और चक्रवर्ती बनने वाले वीर बालक नहीं हैं,सर्दी में अकड़ते, ठिठुरते, धूप का एक टुकड़ा पाने को एक दूसरे को धकियाते-लतियाते बच्चे हैंअथवा बरसात में गढ्ढों में मछलियां पकड़ते लड़के हैं।’ (संस्कृत कविता की लोकधर्मी परंपरा)। लोक जीवन के प्रति लगाव और कविता की जनपक्षधर परंपरा की महत्ता को स्वीकार करने के कारण राधावल्लभ त्रिपाठी और सदानंदशाही के काव्यांतरण आधुनिक साहित्य चिंतन के परिदृश्य में एक विशिष्ट परंपरा का निर्माण करते हैं।

(संसार से) उदास दास रैदास
भ्रम त्याग कर
गुरु के ज्ञान से तप में तप रहा है
भक्त जनों का भय दूर करने वाले, हे परमानंद!
अब तो कुछ उपाय करो!

(मेरे राम का रंग मजीठ है)

सदानंदशाही ने ‘रैदास की कविता’ के काव्यांतरण के बहाने हिंदी समाज में एक पुरानी लगभग बंद पड़ी परंपरा को नया परिप्रेक्ष्य दिया है। यह एक तरह से अपनी ही ‘बोली’ का ‘भाषा’ में रूपांतरण है।एक तरह से पुरानी सांस्कृतिक चेतना और युगबोध का आज की भाषा में रूपांतरण। इसमें एक तरफ जनपदीय जीवन के सुख-दु:ख का आज की भाषा में सहकार भाव है तो दूसरी तरफ वाचिक परंपरा के प्रति गहरा सम्मान भी है। रैदास की कविता का संबंध भक्ति आंदोलन से है और भक्तिकाल की कविता सामान्य जनता के जीवन में रची-बसी कविता है।सदानंद शाही यह जानते हुए कि ‘शोषितों-पीड़ितों तथा धर्मबहिष्कृत सामान्यजन’का कल्याण ही भक्तिकाव्य का उद्देश्य था और इस उद्देश्य के अंतर्गत वर्णाश्रम व्यवस्था का विरोध, सदाचार की प्रतिष्ठा, गुरु की महिमा, शास्त्र ज्ञान की अनिवार्यता का निषेध तथा अनुभूति की प्रामाणिकता पर बल दिया गया। फिर भी आज के भयावह संकट के दौर में सिर्फ रैदास की कविता के काव्यांतरण की जरूरत क्यों है?

कविता कई बार इतिहास और समय का ही काव्यांतरण है। सामान्य तौर पर लग सकता है कि जाति से अस्पृश्य और भद्रवर्गीय काव्य मुहावरे से बाहर होने के कारण शाही जी ने रैदासका चुनाव किया है! वे भक्ति आंदोलन के भीतर क्रांति-प्रतिक्रांति, आभिजात्य और वंचित, ब्राह्मण और दलित की बहस को देखते-समझते हुए भी यह कहते हैं : ‘संत रैदास भारतीय मन की आवाज हैं। उन्होंने अपनी कविता में हर तरह के भेद से मुक्त एक वैज्ञानिक समाज का सपना दिया था- ‘बेगमपुर का सपना’। कवि का यह बेगमपुर वास्तव में एक वैकल्पिक समाज की प्रस्तावना है।’ यह ‘वैकल्पिक समाज’ बनाने की जरूरत इसलिए पड़ी कि सामाजिक अंतर्द्वंद्व और वर्गीय उपेक्षा लगातार जारी थी। लेकिन यह असाधारण बात है कि रैदास की कविता में कहीं भी घृणा, नफरत, प्रतिशोध और कुंठानहीं है। यह एक विलक्षण बात है कि मध्यकालीन भारतीय समाज में अन्याय और निष्ठुरता का सामना करते हुए और सामाजिक विषमता से लड़ते हुए भी रैदास भविष्य की मानवता के लिए उदात्त समाज का सपना (बेगमपुर) प्रस्तावित कर रहे हैं। संभव है कि ‘रैदास बानी के काव्यांतरण’ की एक वजह यह हो! ‘कर्म के अधीन’ बंधकर निरुपाय से रैदास कहते हैं:

(संसार से) उदास दास रैदास
भ्रम त्याग कर
गुरु के ज्ञान से तप में तप रहा है
भक्त जनों का भय दूर करने वाले, हे परमानंद!
अब तो कुछ उपाय करो!

(मेरे राम का रंग मजीठ है)

सदानंदशाही ने काव्यांतरण के बहाने रैदास को नए कविताबंध में पढ़ने-गुनने और समझने के लिए उपलब्ध कराया है। उन्होंने जिस आत्मीयता के साथ रैदास के पदों को खड़ी बोली हिंदी में उतार लिया है, वह ‘पद’ की अर्थ छवियों को मुक्त छंद में रूपांतरित करने की विशिष्टता का प्रमाण है। आज जब ‘राम’ और ‘गंगा’ दोनों पर कुछ लोगों की इजारेदारी का दावा हमारे सामने है तो ऐसे में ‘राम और गंगा’ के प्रति रैदास की हृदय विह्वलता उदात्त सांस्कृतिक भावदशा का ही विस्तार है :

हे नागर जनो! (सुन लो)
मेरी जाति चमार प्रसिद्ध है
मेरे हृदय में बसे हैं राम
और गोविन्द के सारे गुण
शराब भले ही गंगाजल से बनी हो
संत जन उसे नहीं पिएंगे
(लेकिन) शराब या अपवित्र जल
गंगा में मिलकर
बन जाता है गंगाजल’  (वही)

रैदास एक पद में बहुत भाव विह्वल होकर कहते हैं- ‘कहि रैदास सभै जगु लूटिआ/हम तउ एक रामु कहि छूटिआ’-इस भाव विह्वलता को बहुत शांत और संयत भाव से काव्यांतरण द्वारा मानो अर्थापन करने की कोशिश है : ‘सारा जग लुट गया है/जन रैदास कहता है/राम के नाते/मैं केवल (लुटने से) बच गया।’ यहां‘जन रैदास’ न सिर्फ हिंदी समाज की सांस्कृतिक चेतना के अनुकूल है, बल्कि ‘मूल’ से अलग विशिष्ट प्रयोग के माध्यम से अर्थ सौंदर्य का विस्तार भी करता है।

शाही जी ने जिस संतुलन के साथ रैदास की कविता को छंद के बंधन से निकाल कर आज की भाषा में व्यापक अर्थबोध के लिए सुलभ किया है, वह इस बात का द्योतक है कि उन्हें आगे बढ़कर अपभ्रंश की प्रगतिशील काव्य परंपरा और दूसरे संतों की वाणी को भी इसी तरह रूपांतरित करके व्यापक पाठक वर्ग तक सुलभ कराने का उद्यम करना चाहिए, बल्कि इस उद्यम में और लोग भी शामिल हों और यह तरह का सामूहिक प्रयास-सा हो- काव्य के परिधि विस्तार का सम्मिलित प्रयास! बहरहाल यह काव्यांतरण हिंदी में एक पुरानी लगभग बंद पड़ी परंपरा से संदर्भित है और उसी का नया पड़ाव भी।

‘मेरा शहर बेगमपुर/यहां न दुख है न दुख की चिंता/न माल है न लगान की फिक्र/न खौफ न खता न गिरने का भय/मुझे मिला है ऐसा खूबसूरत वतन/जहां खैरियत ही खैरियत है/मजबूत और मुकम्मल है यहां की बादशाहत/यहां न कोई दोयम है न तेयम/सब अव्वल हैं यहां/आबोदाना के लिए मशहूर/यह शहर अटा पड़ा है/दौलतमंदों से/जिसे जहां भावे वहां जाए/नहीं है कहीं कोई रोक-टोक।’

सदानंदशाही ने ठीक ही कहा है, ‘पूरे पद में लगान अदा करने की चिंता से मुक्ति का आश्वासन है, भय से मुक्ति का भाव है।… सामाजिक और आर्थिक विषमता समाज में भेद-बुद्धि पैदा करती है और यह भेद-बुद्धि विधि-निषेध रचती है। बेगमपुर इन सबसे मुक्त है। बेगमपुर कवि का स्वप्न है।’ (‘मेरे राम का रंग मजीठ है’)। इसकविता को पढ़ते हुए अनूदित कविता पढ़ने का भाव नहीं बनता, बल्कि नई कविता का सुख मिलता है। इसलिए ‘काव्यांतरण’ की नवीनता ही‘मेरे राम का रंग मजीठ है’ की विशिष्टता है। मेरा मानना है कि इस अनुवाद में सदानंदशाही ने गोविंदचंद्र पांडेय की काव्यानुवाद-परंपरा का अतिक्रमण किया है और कई जगह राधावल्लभ त्रिपाठी की सर्जनात्मक काव्य संतरण की परंपरा का भी अतिक्रमण किया है। यह अनुवाद मुकुंद लाठ की काव्यांतरण की परंपरा का विस्तार है।

रैदास संत-भक्त कवियों में भिन्न किस्म के कवि हैं- निरीह विह्वलता में डूबे भक्त भी हैं और निडर स्वाभिमानी और दृढ़ संकल्प वाले श्रमशील नागरिक भी। उनका निर्मल भक्त व्यक्तित्व अपने आराध्य से चंदन और पानी की तरह मिल जाता है, बल्कि उसके साथ और भी कई-कई रिश्ते गढ़ते-बनाते हैं – गिरिवर-मोर; चंदा-चकोर, दिया-बाती और तीरथ-यात्री की तरह विशिष्ट और अन्योन्याश्रित रिश्ता। बल्कि वे आगे बढ़कर ‘मेरे और तुम्हारे’ बीच के अंतर को खत्म करने की बात करते हैं : ‘यदि तुम गिरिवर हो/तो हम मोर हैं/यदि तुम चंद्रमा हो/तो हम चकोर हैं/यदि तुम दीपक हो/ तो हम बाती/हे ठाकुर! दूसरा कोई देवता तुम्हारे जैसा नहीं है/तुम्हारे भजन से/कटेगा यम का फंदा/तुम्हारी भक्ति में ही/रैदास गाता है।’ (जहां-जहां जाता हूँ)।

रैदास की कविता की एक विशिष्टता यह भी है कि वहां न कलात्मकता का विन्यास है और न खंडन-मंडन वाली कोरी विदग्धता। रैदास भाव-विह्वल होकर ‘अकर्मण्य साधुता के बरक्स श्रमशील साधुता का आह्वान’ करते हैं और कहते हैं कि ईश्वर किसी के बाप का नहीं है, वह हर उस व्यक्ति का है, जो अपने कर्ममय जीवन के भीतर उसे मन प्राण से चाहता है।भगवत भक्ति की वह अपनी परंपरा बताते हैं, जो अनेक रूपों में विस्तारित है- ‘जाके भागवतु लेखीए अवरू’ और ‘एक ही एक अनेक होह बिसथरिओं।’ इसलिए रैदास भगवत भक्ति के वर्ण-श्रेष्ठता वाले आधिपत्य से अलग ईश्वर भक्ति लेकर उस ‘दूसरी परंपरा’ के लिए तल्लीनता से जगह बनाते हैं, जिसको तरह-तरह के कुचक्र द्वारा खारिज किया जाता रहा है।

सदानन्द शाही ने ‘रैदास बानी’ के काव्यांतरण में उसी आत्मीयता और विह्वलता के साथ उस सामूहिक घृणा और भयावह दंश को भी पर्याप्त जगह दी है, लेकिन अधिक बल सद्भाव, प्रेम, विश्वास और संवाद पर दिया है।इसका उद्देश्य है : ‘रैदास के साथ मिलकर एक ऐसी दुनिया का निर्माण, जिसमें घृणा और द्वेष की समाई न हो’।  यह भी उल्लेखनीय है कि किताब का आवरण चित्र कला मर्मज्ञ मृदुला सिन्हा ने बनाया है, जो अब तक उपलब्ध रैदास के चित्रों से एकदम अलग है।

राधावल्लभ त्रिपाठी और सदानंदशाही के काव्यांतरण भारतीय परंपरा के बेहतर, संघर्षशील और अग्रगामी स्वर से भरे हैं। काव्यांतरण की यह पहल ‘स्वीकरण’ के रास्ते भाषांतर की पहल है। ‘स्वीकरण’ मतलब कविता का रूपांतरण भर नहीं, बल्कि कविता के स्वरूप-स्वभाव और भाव-मर्म को एक नई भाषा में उतारने का रचनात्मक उपक्रम।

जिज्ञासा : संस्कृत काव्य में लोक जीवन से संबद्ध काव्य परंपरा और आभिजात्य परंपरा में कैसा रिश्ता है?

राधावल्लभ त्रिपाठी : दोनों में द्वंद्वात्मक संबंध माना जा सकता है। द्वंद्व का मूल अर्थ युगल या जोड़ी है। उसी अर्थ में मैं द्वंद्वात्मक संबंध कह रहा हूँ। दोनों संस्कृत साहित्य की दो धाराएं, जो गलबाहीं करते हुए बहती रहीं, कभी कभी एक दूसरे से टकराती रहीं, कभी पहली धारा दूसरी को अपने में निगल लेने का प्रयास भी करती रही, दूसरी धारा उससे विलग होकर अपना रास्ता स्वयं बनाती रही।

हमारे शास्त्रों में संबंध कई प्रकार के बताए गए हैं – जैसे अन्योन्याश्रय संबंध, अंगागिभाव संबंध, उपकार्योपकारक भाव संबंध आदि। लोकजीवन से संबंध काव्यपरंपरा का अभिजात काव्य परंपरा के साथ अन्योन्याश्रय संबंधनहीं बनता, क्योंकि दोनों में से कोई दूसरी पर अवलंबित नहीं है। अंगांगिभाव संबंध भी इनमें प्रायः नहीं बनता, दोनों स्वप्रतिष्ठित रही  हैं, और दोनों में से कोई दूसरी का हिस्सा नहीं बन जाती। दोनों धारा के कवियों में जीवनबोध अलग है और दृष्टिभेद भी है। इसलिए संस्कृत की लोकधर्मी काव्यपरंपरा अभिजात काव्यपरंपरा से इस दृष्टि से भिन्न है कि वह समाज के उस वर्ग का जीवन चित्रित करती है, जो प्रमुख रूप से अभिजात काव्यधारा में निरूपित नहीं है, इस कविता के रचनाकारों की जीवन दृष्टि भी अभिजात धारा के रचनाकारों से भिन्न है, तथा उनकी रचना एक अलग आस्वाद देती है, जिसमें तथ्यों को स्पष्टवादिता के साथ प्रकट करने का साहस है। पर ये दोनों परस्पर अंत:क्रिया करती हैं, इसलिए इनमें परस्पर उपकार्योपकारक भाव संबंध अवश्य रहा है। दोनों एक दूसरे को संवर्धित और उपकृत करती रहीं। अभिजात परंपरा के कवियों ने लोकजीवन पर लिखने वाले कवियों से बहुत कुछ ग्रहण किया, उन्हेंने अभिप्रायों और जीवनानुभूतियों को समझा, अपने काव्य में उन्हें उतारा भी। लोकजीवन पर कविता लिखने वाले कवियों ने भी अभिजात धारा के कवियों की अभिव्यक्तियां कभी-कभी ग्रहण कीं।

जिज्ञासा: संस्कृत में इस ‘दूसरी काव्य परंपरा’ की पृष्ठभूमि क्या थी?

राधावल्लभ त्रिपाठी : संस्कृत साहित्य की लगभग पांच हजार साल की  विकास यात्रा में वेद से लगाकर आज तक यह काव्य परंपरा निरंतर सक्रिय रही। जो जारी रहती आई हो और जारी रह सकती हो, वह परंपरा है। ऋग्वेद और अथर्ववेद में निर्धन कवियों की ओर से सत्ता के मद में मदांध धनलोलुपों को चुनौती देने वाले सूक्त हैं, गांव गिरांव, खेती और किसान के जीवन की बात करने वाले सूक्त इन दोनों वेदों में हैं। मैंने अपनी पुस्तक में इनमें से कुछ का अनुवाद भी दिया है और पुस्तक की भूमिका में इन पर चर्चा भी की है। वहां से यह परंपरा चली आई है। यह सही है कि यह आधुनिक साहित्य में होने वाले आंदोलनों – जैसे प्रगतिशील कविता का आंदोलन या अकविता, अकहानी का आंदोलन – इनकी तरह का संस्कृत काव्य में कोई आंदोलन कभी नहीं रहा। आंदोलन समय विशेष की मांग से पनपते हैं और वे क्षीण हो कर समाप्त हो जाते हैं। इस परंपरा के कवियों ने अपना कोई ग्रुप नहीं बनाया। पांच हजार साल की अधिक समयावधि में विस्तीर्ण काव्यपरंपरा ही उनका ग्रुप है। इसीलिए सुभाषित संग्रहों के संकलनकार जब इस परंपरा को अपने संकलनों में व्यवस्थापित करते हैं, तो वे दीर्घ कालावधि में विस्तीर्ण एक बड़ी काव्यपरंपरा के रूप में इसे व्यवस्थापित भी करते हैं। इस परंपरा के कवि भी अपने को इसी बड़ी काव्यपरंपरा में व्यवस्थापित करते हैं।

जिज्ञासा:  संस्कृत आलोचना विमर्श में इन कविताओं के प्रति कैसा दृष्टिकोण है?

राधावल्लभ त्रिपाठी : मैंने अपनी पुस्तक की भूमिका में एक अलग शीर्षक के अंतर्गत विस्तार से इस बात पर विचार किया है कि अलंकारशास्त्र के आचार्यों ने इस काव्यपरंपरा का किस प्रकार नोटिस लिया और इसने उनके चिंतन को कहां तक प्रभावित किया। इस परंपरा के प्रभाव से उन्होंने कविता में नए अलंकारों की परिकल्पना की या पुराने अलंकारों को पुनःपरिभाषित किया, उनके सैद्धांतिक विवेचन पर भी इसका असर आया।

भारतीय विश्वबोध में एक रसवाद या आनंदवाद की दृष्टि है, दूसरी दुखवाद की। वैदिक परंपरा में एक का प्रतिनिधित्व इंद्र करते हैं, दूसरी का वरुण। एक जीवन और जगत में प्राप्त सामग्री को उपभोग्य मानती है और उसी में उपरत होती है। दूसरी दृष्टि जगत की स्थूल सामग्री में ही केंद्रित न रहकर कुछ और अभीप्सा करती है। जगत के विपर्यास का अनुभव करती हुई यह दृष्टि राग और रमने के स्थान पर वैराग्याभिमुख होती है। काव्यशास्त्र के आचार्यों में कुछ ने रस को केवल सुखात्मक अनुभव नहीं माना। यह भी कविता की लोकधर्मी परंपरा का एक प्रतिफलन कहा जा सकता है।

जिज्ञासा: आभिजात्य काव्य परंपरा और लोकधर्मी काव्य परंपरा का स्पष्ट विभाजन कब से दिखना प्रारंभ होता  है?

राधावल्लभ त्रिपाठी : साहित्यशास्त्र की सैद्धांतिकी में इस तरह का विभाजन छठी शताब्दी के आसपास लिखे ग्रंथों में मिलने लगता है, जहां  साहित्य के आचार्य रसकवि, जातिकवि (स्वभावोक्ति कवि) आदि कवियों की कोटियां बनाते हैं। राजशेखर स्पष्ट ही कहते हैं कि एक काव्य ऐसा होता है, जिसकी रसमयता के कारण सज्जनलोग उसे चाट चाट कर उसका स्वाद लेते रहते हैं, एक काव्य वह भी होता है जो वैसा स्वादु नहीं होता,पर उसमें कुछ ऐसा कौतुक होता है कि वह बच्चे, स्त्रियों, ग्वाल-बालों सबकी जबान पर चढ़ जाता है। उन्होंने यहां दूसरी कविता के आस्वादकों को हीनजाति वाला भी कहा है। हीन या छोटी जाति के लोगों के बीच एक मुख से दूसरे मुख तक वह कविता पहुंचती रहती है। यह दसवीं शताब्दी में संस्कृत के लोककाव्य की स्वीकृति है। बारहवीं शताब्दी में हुए बिल्हण भी घोषणा करते हैं कि मेरे मुक्तक कश्मीर के गांव-गांव में देहात तक के लोगों की जबान पर चढ़े हुए हैं।

जिज्ञासा:क्या यह काव्य परंपरा औपनिवेशिक काल में भी संस्कृत में जारी रही?

राधावल्लभ त्रिपाठी : औपनिवेशिक शासन के समय संस्कृत में लिखने वाले साहित्यकारों में सामाजिक और राजनीतिक चेतना का युगबोध के साथ नया अवतरण हुआ। उन्होंने समाज के निम्नवर्ग के लोगों के जीवन पर रचनाएं लिखीं। स्त्रियों के जीवन पर भी नए सामाजिक बोध के साथ रचनाएं लिखी गईं। इस दृष्टि से पंडिता क्षमा देवी राव एक बड़ा नाम है। क्षमा राव ने अनुष्टुप् छंद में भारतीय नारी के जीवन की विडंबनाओं को लेकर कहानियां लिखीं। इन कहानियों में आधुनिक कहानी की विधा तथा पद्यकाव्य या कविता दोनों का समागम हुआ। बंबई के मछुआरों या समाज के पिछड़े वर्ग पर भी क्षमा राव ने रचनाएं कीं। अन्य विवरणों के लिए मेरी पुस्तक संस्कृत साहित्य का समग्र इतिहास का चौथा खंड देखा जा सकता है।

जिज्ञासा:इस लोकधर्मी परंपरा के प्रति आपकी दिलचस्पी की कोई खास वजह?

राधावल्लभ त्रिपाठी : एक कारण तो साहित्य में स्वात्म को पहचानने की इच्छा को मान सकते हैं। मैं संस्कृत साहित्य में अपना और अपने आसपास के लोगों का जीवन खोजना चाहता था। दूसरा कारण यह रहा कि मुझ में अन्य भाषाओं के साहित्य का अध्ययन करने की प्रवृत्ति थी। मैं कुछ ज्यादा ही पढ़ाकू रहा। दस बारह साल की उम्र से हिंदी और अंग्रेजी के उपन्यास और कविताएं पुस्तकालय से ईशू करवा कर पढ़ता रहा। इससे संस्कृत साहित्य को एक अलग दृष्टि से देखने की प्रवृत्ति मुझ में आई। तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि मैं मूलतः विज्ञान का छात्र रहा। मैं यह समझ सकता था कि संस्कृत केवल अनुष्ठान और पूजा-पाठ की भाषा नहीं है। भाषा संस्कृति की वाहिका होती है और वह वैज्ञानिक सोच तथा जीवन की समझ पैदा करने के लिए है। एक अन्य अवांतर कारण संभवतः यह भी हो सकता है कि बचपन से ही शरीर से मैं बहुत कमजोर था, इसलिए मानसिक स्तर पर विरोध करने और पंगा लेने की प्रवृत्ति पनपी।उसके कारण मैं अपने लेखन, अध्ययन-अन्वेषण और सोच में शक्ति और सत्ता के केंद्रों को चुनौती देने वाली परंपराओं की तलाश में रहा।

जिज्ञासा:रैदास की कविता के काव्यांतरण की इस पहल की योजना कैसे बनी?रैदास के प्रति इस आत्मीयआकर्षणकी कोई खास वजह?

सदानंद शाही:  रैदास और कबीर समकालीन तो थे ही, मीत और हमशहरी भी थे।दोनों मिलकर मुक्ति का नया विधान रच रहे थे।कबीर का दोहा – ‘कबीरा खड़ा बाज़ार में लिए लुकाठी हाथ, जो घर जारे आपना चले हमारे साथ’ पढ़ते-सुनते हुए बार-बार यह सवाल मन में आता था कि आख़िर कबीर हमें कहां ले जाना चाहते हैं। इसका उत्तर हमें रैदास की कविता में मिला। रैदास की कविता मेंएक वैकल्पिक समाज का नक़्शा मिलता है, जिसे उन्होंने बेगमपुर कहा है।बेगमपुर की संकल्पना में आज की दुनिया की बहुतेरी समस्याओं का हल है। यह बेगमपुर की अवधारणा इतनी मोहक और दिलचस्प है कि आप रैदास के मुरीद हो जाते हैं। सच पूछिए तो बेगमपुर कबीर और रैदास का साझा उपक्रम है। यह देखकर हैरत होती है कि बेगमपुर की अवधारणा को न तो ठीक से पहिचाना गया और न ही उसका वैसा स्वागत हुआ जैसा होना चाहिए।यही बातें रैदासबानी के काव्यांतरण की ओर ले गईं।

जिज्ञासा :  भक्तिकाल के और कवियों से भी आपका  वैचारिक जुड़ाव रहा है,  मसलन – कबीर, जायसी और कई दूसरे संत भक्त कवि -उनकी भी काव्य चेतना में भागीदारी की कोई योजना है?

सदानंद शाही : संत भक्ति कविता से मेरा सहज लगाव है। सबको लेकर कुछ उधेड़बुन चलती रहती है। कबीर पर कुछ काम भी चल रहा है पर काव्यांतरण जैसी कोई योजना अभी नहीं है। कबीर की सौ कविताओं कारवींद्रनाथ टैगोर ने अंग्रेज़ी अनुवाद किया था। इस अनुवाद की वजह से आधुनिक साहित्य विमर्श में कबीर को प्रमुखता मिली और कबीर पढ़े गए। कबीर मीमांसा की लंबीपरंपरा है।इसलिए आज का पाठक कबीर तक आसानी से पहुंच जाता है। इसी तरह जायसी के पद्मावत तक पहुंचने का रास्ता वासुदेव शरण अग्रवाल ने बना दिया है। रैदास एक तरह से छूटे हुए थे। संत काव्य धारा के एक और कवि पलटूदास पर कुछ कर रहा हूँ।

जिज्ञासा : आपने जिस रचनात्मक लगाव के साथ यह काव्यांतरण किया है, वह मात्र भाषांतर नहीं है। इसे आप किस तरह देखते हैं?

सदानंद शाही : यह काव्यांतरण करते हुए कबीर के बहुतेरे अनुवाद हमारे सामने थे। मुख्यत: रवींद्रनाथ टैगोर,शारलेट वोदविले और राबर्ट ब्लाई के। एक चुनौती सी थी। मुझे अपनी कविता नहीं लिखनी थी। रैदास की कविता को आज के पाठक के लिए प्रस्तुत करना था। रास्ता मल्लिनाथ ने सुझाया न अमूल और न ही कुछ अनपेक्षित।

जिज्ञासा:  रैदास के बहाने आप हिंदी कविता के आभिजात्य के बरक्स दूसरी धारा को किस रूप में देखते हैं?

सदानंद शाही :  जिसे आप आभिजात्य कह रहे हैं,वह एक तरह के गुमान में रहता है। कविता की दूसरी परंपराएं,जो ग़ैर आभिजात्य को व्यक्त करती हैं,आभिजात्य को आईना दिखा सकती हैं या दिखाती हैं। तथाकथित आभिजात्य जितना ही इस आईने में देखेगा उसकी शक्ल सूरत बेहतर होगी। रैदास की कविताएं भी इसी तरह का आईना हैं।कविता ही नहीं और कलाएं भी ग़ैर आभिजात्य से परहेज़ करती आई हैं। जबकि हमारा देश और हमारी संस्कृति का निर्माता तथाकथित ग़ैर आभिजात्य ही है। रैदास के हवाले से एक बात का ज़िक्र कर दूं। रैदास जैसे महत्वपूर्ण संत कवि को लेकर पेंटिंग कितनी बनी हैं? इसकी खोज करेंगे तो निराशा ही हाथ लगेगी। इस पुस्तक के लिए हम रैदास की ऐसी पेंटिंग खोज रहे थे, जिसमें रैदास की कविताई की झलक मौजूद हो। नहीं मिली। मैं आभारी हूँ आधुनिक कला की विशिष्ट कलाकार मृदुला सिन्हा के प्रति जिन्होंने रैदास की कविताओं से रैदास की छवि खोज निकाली।

जिज्ञासा: क्या इस दिशा में कोई और योजना है?

सदानंद शाही : बहुत पहले मैंने चर्यागीतियों को लेकर कुछ काम किया था,जो आधा-अधूरा कहीं पड़ा हुआ है।आपने पूछा तो ध्यान आ रहा है।

जिज्ञासा: आप अपभ्रंश काव्य परंपरा के भी मर्मज्ञ हैं।इस कड़ी में ‘सन्देश रासक’ या दूसरे लौकिक काव्य मुक्तकों को प्रस्तुत करने की पहल के प्रति आपका क्या दृष्टिकोण है?

सदानंद शाही : अपभ्रंश कविता और ख़ासतौर से ‘संदेशरासक’ कविता की दूसरी परंपरा की महत्वपूर्ण कड़ी है। कबीर की तरह इसके रचयिता भी एक बुनकर जुलाहा थे। उन्होंने बाक़ायदा विशिष्ट के बरक्स सामान्य के पक्ष को कविता में दर्ज किया है। इसी तरह हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण में संकलित अपभ्रंश के दोहे भी हैं। उनकी प्रस्तुति करके बेहद ख़ुशी होगी।

 

समीक्षित पुस्तक-

संस्कृत कविता में लोकजीवन: राधावल्लभ त्रिपाठी, यश पब्लिकेशंस, दिल्ली

मेरे राम का रंग मजीठा है रैदास बानी का काव्यांतरण: सदानंद शाही, लोकायत प्रकाशन, वाराणसी