दिल्ली विश्वविद्यालय के हिंदी विभाग के पूर्व प्राध्यापक। चंद्रशेखर वाजपेयी कृत रसिक विनोद’, ‘उत्तर छायावादी काव्य भाषाऔर रचना से संवाद’ (आलोचना) पुस्तकें प्रकाशित।

प्रसिद्ध कवि केदारनाथ सिंह के काव्य संग्रह ताल्सताय और साइकिल (2005) के शीर्षक को देख कर थोड़ा अजीब-सा लगा था। कहां उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी उपन्यासकार ताल्सताय और कहां साइकिल! दोनों में क्या तालमेल हो सकता है, यह सोचते हुए संग्रह खोला और ‘ताल्सताय और साइकिल’ नाम की कविता ढूंढ कर पढ़ गया था। पर मैं अर्थ-संगति नहीं लगा सका। स्पष्ट कहूँ, तब इस कविता ने मुझे कुछ खास प्रभावित नहीं किया। बल्कि इस संग्रह की एक दूसरी कविता ‘पानी की प्रार्थना’ बुद्ध पर उनकी कविताओं ने ऐसा हिलाया कि इस कविता के अंशों से अभिभूत हो, इसका मैंने जगह- जगह पाठ किया। लोक से संपृक्त और सधी हुई भाषा में कवि ने इन कविताओं में बहुत कम बिंबों- प्रतीकों से बेधक बातें कह दी हैं। ‘पानी की प्रार्थना’ की कुछ पंक्तियां देखें :

पर कोई करे भी तो क्या
समय ही कुछ ऐसा है
कि पानी नदी में हो
या किसी चेहरे पर
झांककर देखो तो तल में कचरा
कहीं दिख ही जाता है।

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पर चिंता की कोई बात नहीं
यह बाजारों का समय है
और वहां किसी रहस्यमय स्रोत से
मैं हमेशा मौजूद हूँ
पर अपराध क्षमा हो प्रभु
और यदि मैं झूठ बोलूं
तो जल कर हो जाऊँ राख
कहते हैं इसमें-
आपकी भी सहमति है!

आज के उपभोक्तावादी समय में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने मुनाफे की रणनीति के चलते जल-जंगल-जमीन को हड़प लिया है। उन्हें बर्बाद कर दिया है और अब उसी के उत्पाद बनाकर बेच रहे हैं। वे हवा-पानी और जमीन सभी को अपने कब्जे में लेकर उन्हें जन-सामान्य से ही नहीं जीव-जंतुओं तक से छीन लेना चाहते हैं। मूल निवासी मरें या जियें – इससे उन्हें कोई मतलब न था और न है। यही तो है भूमंडलीकरण। सत्ता अपने लालच में सब कुछ कार्पोरेट जगत के हाथों सौंपती चली जा रही है। आज पर्यावरण की चर्चा  बहुत है। उसके संरक्षण की चिंता भी विश्वव्यापी है, पर बड़ी शक्तियों और व्यवस्थाओं को इसे लेकर कोई खास फिक्र नहीं दिखाई देती।

खैर! बात मैं केदारनाथ जी की ‘ताल्सताय और साइकिल’ कविता पर कर रहा था। साइकिल का महान उपन्यासकार ताल्सताय से क्या संबंध है, यह एक गुत्थी थी। मैं 2014 में मास्को गया। मेरी इच्छा हुई कि मैं महान रूसी उपन्यासकार ताल्सताय का संग्रहालय देखूं। कहते हैं कि ताल्सताय उन्नीसवीं सदी के अंत में जब तब अपने गांव से आकर मास्को वाले इस घर में कुछ समय बिताया करते थे। उसे ही अब संग्रहालय में बदल दिया गया है। जब मैं संग्रहालय में ताल्सताय द्वारा उपयोग में लाए जाने वाली चीजें देख रहा था, वहां मैंने उनकी मेज-कुर्सी, उनकी स्वयं जूता बनाने की बहुत सी सुइयां, उनके अपने हाथों बने जूते तथा अन्य सामानों के साथ एक साइकिल को भी देखा, जिसे वह इस्तेमाल में लाते रहे थे। सहसा मेरे मानस में केदारनाथ जी की ताल्सताय और साइकिल कविता कौंध गई। मैं सोचने लगा कि साइकिल तो तभी तभी आई होगी। उसका आविष्कार ज्यादा पुराना नहीं है। जाहिर है कि उस समय यह नई वस्तु थी। महंगी भी बहुत रही होगी। उस समय साइकिल पर चलते होंगे ताल्सताय। साइकिल पर चढ़ते ताल्सताय कैसे लगते होंगे, मैं कल्पना करने लगा। तभी केदारनाथ जी की इस कविता का अर्थ मेरे सामने धीरे-धीरे खुलने लगा। कविता देखें:

आपने कभी सोचा है/महान ताज में क्यों नहीं रही/वह पहली-सी चमक?/वह पहली-सी गूंज/रोम के घंटे में?/वह आश्चर्य पहला सा दीवार में/चीन की?/पर क्यों क्यों/आपकी गली से गुजरती हुई एक जर्जर साइकिल की छोटी-सी घंटी में/वही जादू है/जो उस दिन था जब ताल्सताय ने पहले पहल/देखी थी साइकिल/और ताल्सताय चूंकि ताल्सताय थे/इसलिए वे एक उदास घोड़े से/कर सकते थे बातें/कर सकते थे कोशिश एक रंगीन चित्र को/कागज से उठा कर/जेब में रखने की/दे सकते थे आदेश समुद्र की लहरों को/एक अभय मुद्रा में हाथ उठा कर/पर ताल्सताय गिर सकते थे साइकिल से/साइकिल सीखते हुए/यास्नाया पोलियाना की उस कच्ची सड़क पर/उस दिन जो साइकिल ने/धूल झाड़ कर इतिहास में प्रवेश किया/तो जैसे आज तक/हर आदमी के पीछे पीछे घंटी बजाती हुई/उससे बाहर निकलने का/रास्ता खोज रही है…।’

कविता बहुत लंबी नहीं है। इसके दो हिस्से हैं। पहले में विश्व की प्रसिद्ध धरोहरों या अजूबों की चर्चा है। इनमें से एक आगरा का ताजमहल है। पर इसे एक बार देख लेने के बाद दूसरी बार उसमें वह चमक नहीं रहती जो पहली बार दिखाई देती है। उस पुरातन काल में रोम के इस घंटे की गूंज ने तब न जाने कितने मनुष्यों के हृदय को उल्लसित किया होगा, पर आज इसका वैसा कोई महत्व नहीं रह गया है। यही हाल चीन की सीमा पर बनी उस ऐतिहासिक दीवार का है जो ऊंचे-नीचे, खाई- खंदक, पर्वत और मैदानों पर दो हजार साल पहले बनी थी या बननी शुरू हुई थी। वैसे भी आम आदमी के लिए उसकी क्या उपयोगिता? इसके बरक्स हमारे गली-कूचों के बीच से घंटी बजाते हुए आम आदमी को दूर तक ले जानेवाली छोटी-सी साइकिल आज भी कितने काम की है। यह जब भी आसपास से गुजरती है तो जिज्ञासा और आकर्षण दोनों पैदा करती है। कवि केदारनाथ सिंह की प्रगतिशील दृष्टि है जो पूरी कविता के बिंबों-प्रतीकों में अनुस्यूत है।

ताल्सताय जितने संवेदनशील रचनाकार हैं उससे कहीं अधिक महान उनका जीवन-दर्शन है। कहते हैं कि उन्हें अपने जीवन में यह बात अखरने लगी थी कि उनकी कथनी और करनी या उनके उपदेश और व्यवहार में विसंगति है। उन्होंने राजसी ठाठ-बाट छोड़ साधारण किसान-मजदूरों की तरह पहले अपने खेतों में स्वयं काम करना शुरू किया। क्रमशः उन्होंने अपना जीवन मानव-सेवा में लगा दिया। दरअसल वे जीवन का वास्तविक अर्थ ढूंढ रहे थे। लोग उन्हें पागल, सनकी समझने लगे थे। उन्होंने साइकिल को अपने लिए उपयोगी पाया होगा तो कोई आश्चर्य की बात नहीं। खुद चलेंगे। किसी पर सवारी नहीं करेंगे।  ताल्सताय मानते थे कि अहिंसा और नैतिकता ही मनुष्य के मूल गुण हैं। युद्ध और हिंसा पाप हैं । ताल्सताय की इस जीवनदृष्टि के आलोक में देखें तो समझ में आता है कि घोड़ागाड़ी को छोड़ उन्होंने साइकिल पर चलना अधिक नैतिक और उचित क्यों समझा होगा। सामान्य आदमी के उस वाहन को उन्होंने अपनी दूरदृष्टि से पहचान लिया था कि यह आम आदमी के लिए भविष्य की सवारी बनेगी। यह अर्थ-संगति मैं पहले नहीं बिठा पा रहा था। क्या बात है! यह सोच कर मन खुश हो गया।

इसीलिए केदारनाथ जी ने कविता में कहा कि ताल्सताय तो ताल्सताय थे। वे घोड़े की उदासी पहचान सकते थे। उसके दुख-सुख की सुध ले सकते थे। उससे बातचीत कर सकते थे। अपने ऊपर एक आदमी को बैठाकर दौड़ लगाने में घोड़े को कितनी तकलीफ होती होगी- यह ताल्सताय जैसा संवेदनशील व्यक्ति ही अनुभव कर सकता था। उन्होंने जवानी के दिनों में युद्ध के मोर्चे पर  हिंसा और बर्बादी के अनेक रूप देखे होंगे। वे रईस स्त्रियों की दिखावटी और खोखली दुनिया से भी अनजान नहीं रहे होंगे। उन्होंने सब अनुभव किया होगा। बेचैन रहे होंगे। संभवतः इसीलिए केदारनाथ जी ने कविता में यह संक्षिप्त अभिव्यक्ति दी कि वे रंगीन चित्रों को कागज से उठा कर जेब में रख सकते थे।

केदारनाथ सिंह ने कविता में अपने भावों और विचारों को संकेतों में व्यक्त किया है। वे प्रत्यक्ष कथन से बचते हैं। वे लक्षणा-व्यंजना के कवि हैं। वे बताते हैं कि ताल्सताय गरिमायुक्त महान व्यक्ति थे। वे न केवल आम आदमी की भांति रहना चाहते थे, वरन आम आदमी की गरिमा और स्वाभिमान पर दृढ़ विश्वास करते थे। वे अपने गांव यास्नाया पोलियाना की कच्ची सड़क पर बच्चे की तरह साइकिल चलाना सीखते हुए कैसे लगते होंगे, मैं सोचने लगा। साइकिल चलाने और सीखने के क्रम में वे गिरे भी होंगे। चोट भी खाई होगी। धूल धूसरित हुए होंगे। ऐसे में केदारनाथ जी की कल्पना है कि उस दिन धूल झाड़ कर जो साइकिल खड़ी की गई होगी, वह मामूली घटना नहीं थी। वह ताल्सताय की भविष्य-दृष्टि थी कि गिर- गिर कर उठना और साइकिल सीखना सामान्य आदमी का जीवन है।

केदारनाथ सिंह कहते हैं कि तभी से यह साइकिल इतिहास में प्रवेश कर गई और तभी से वह आज तक हर आदमी के पीछे घंटी बजाती हुई हरेक को निरंतर आकर्षित कर रही है। तभी कवि ने कहा है कि इसके सामने संसार के ये सारे अजूबे बेमानी हैं। प्रदर्शनमूल्य के अलावा उनकी क्या उपयोगिता है?

एक बात और, जब देश दुनिया के सभी वाहनों से दम-घोटू प्रदूषण फैलता जा रहा है तब साइकिल ही है जो प्रदूषण-रहित है। इसके सामने विश्व के सभी नए से नए वाहन बेकार हैं। इस बात को केदारनाथ जी ने ताल्सताय के बहाने अपनी कविता में बहुत अच्छे से दर्ज कर दिया है। यही केदारनाथ जी की कविताओं की विशेषता है कि वे बिना किसी चकाचौंध के धीरे से पाठक के मर्म में प्रवेश कर जाती हैं और पता नहीं चलता।

बुद्ध भी केदारनाथ जी को अत्यंत प्रिय रहे हैं। बनारस में शिक्षा प्राप्त करने के दौरान वे अनेक बार सारनाथ गए हैं। इसके संकेत इस संग्रह में संकलित ‘बुद्ध से’ शीर्षक कविता में हैं। कवि बुद्ध से संवाद करते हुए उन्हें आज की संवेदनहीनता, जड़ता और निरंतर बढ़ती जा रही हिंसा की घटनाओं से जोड़ देते हैं। तथाकथित सभ्य समाज किस तरह कमजोर- कोमल चीजों को अपनी स्वार्थ-सिद्धि के लिए तहस-नहस करता जा रहा है, कवि उसे रेखांकित करता हैः

अभी पिछले ही सप्ताह मैं सारनाथ गया था-
वही आपका प्रिय मृगदाव –
और हैरान रह गया यह देखकर
कि वहां के सारे हिरन मार डाले गए हैं
और अब वहां सिर्फ एक मादा घड़ियाल है
जो अपने अंडों की तलाश में
हिंडोर रही है रेती।

केदारनाथ सिंह जिस क्षेत्र के रहने वाले थे तथा जहां रहकर उन्होंने अध्यापन-कार्य शुरू किया, उसके समीप ही कुशीनगर है। यहां बुद्ध ने अपना अंतिम समय बिताया था। यहीं उनकी मृत्यु हुई थी। यह स्थान भी केदारनाथ जी को प्रिय था, बल्कि एक समय वे यहां बसना चाहते थे। ‘कुशीनगर की शाम’ कविता में वे लिखते हैं :

वे मिले नहीं पर लगता था
सारा खंडहर वह भरा-भरा
वह भरा-भरा-सा-पन लेकर
छानता रहा मैं कुशीनगर

तीसरी कविता ‘बुद्ध की मुस्कान’ बुद्ध के उपयोग- दुरुपयोग से संबंधित है। यह बेचैनी पैदा करने वाली कविता वास्तव में पोकरण परमाणु बम परीक्षण से जुड़ी हुई है। हमारे देश में पहली बार परमाणु बम विस्फोट परीक्षण 1974 में हुआ था और उसे सरकारी कूट भाषा में ‘बुद्ध की मुस्कान’ नाम दिया गया था। उसी क्रम में 1998 में दूसरा परीक्षण पोकरण में फिर किया गया। इसे भी ‘बुद्ध की मुस्कान – दो’ नाम दिया गया। कवि इससे भन्ना उठता है। उसकी समस्या यह है कि भाषा का वह कौन-सा नियम है कि विश्व के इस सबसे अधिक विध्वंसक हथियार को राजकीय कूट भाषा में शांति और करुणा की मूर्ति कहे जानेवाले बुद्ध और उनकी मुस्कान से जोड़ दिया जाता है। दरअसल सत्ता में बैठे लोग भाषा को अपने हिसाब से इस्तेमाल कर लेते हैं। पर दुनिया भर के कवि-कलाकार इससे चीत्कार कर उठते हैं। वे इसे मानवता के विरुद्ध षड्यंत्र और मनुष्य और उसकी भाषा के विरुद्ध विध्वंस मानते हैं। केदारनाथ सिंह कहते हैं :

‘ध्वंस है –
यह भाषा का सरासर ध्वंस है’
बुदबुदा रहा था कवि
और कभी वह किताब के पास जाता था
कभी खिड़की के पास
कि अचानक खुशी से चीख उठा वह-
वो देखो वो देखो
उन परों का हिलना भी
एक छोटा-सा विस्फोट है
दुनिया के सारे विस्फोटों के खिलाफ
मैंने देखा वह एक तितली थी
पीली – सी
जिसके छोटे – छोटे पर
बार – बार टकरा रहे थे कवि की दीवार से
जैसे उसे तोड़ना चाहते हों

तितली के पर तो घर की दीवार को भी तोड़ देना चाहते हैं। तभी तो वास्तव में विश्व एक नीड़ बन पाएगा। भेदभाव कुछ कम हो सकेंगे।

संपर्क: ए 49, दिल्ली सिटिजन सोसाइटी, सैक्टर-13,  रोहिणी, दिल्ली 110085 मो.9818443264 ईमेल : hmsharmaa@gmail.com