जन्म 1963, अवध के प्रतापगढ़ जिले के एक गांव जोखू का पुरवा में| नौकरी के दौरान करीब 30 वर्षों से बुंदेलखंड के बाँदा जिले में रहवास| कविता की तीन पुस्तकेंइस मिट्टी से बना’, ‘आसान नहीं विदा कहना’, ‘तो काहे का मैं’|

ये चैत है कि
जंग लगी कटार

जिसे बिल्ली काट गई
कल पता चला
उसके ठीक दाहिने कोने खड़ा
एक उम्रदराज गुलमोहर
इस चैत के आते ही चला गया
जीवन संगीत
किसी जोगी की झांझ की तरह
बज रहा था
हर बात में मिट्टी की कसम खाने वाले
किसना आखिरकार मिट्टी
में ही मिल रहे थे
भांड थे मिरासी थे
सूअर थे भेड़िए थे
कवि थे कीर्तनिए थे
सबसे तेज गाड़ी में बैठने के
इंतजार में प्रेमिकाएं थीं
हां, उनकी आंखों में अपने ठहरे सहमे
प्रेमियों का दर्द भी था
जैसे चैत की एक जंग लगी कटार
भीतर तक भुकी हुई|

न चाहते हुए भी

कुछ मित्र बहुत संघर्ष में थे
साथ साथ संघर्ष की
कविता लिखते
धीरे-धीरे संवाद में नहीं रह गए
निर्मल आनंद की आखिरी खबर
कहीं चौकीदारी करते थे
चोरों से लड़ते उनके सर पर
लगी थी चोट
इटारसी से गुजरो तो लगता है
विनय जरूर यहीं के
सहेली गांव में अब भी होगा
लगता स्टेशन का कर्मचारी
लाल झंडी दिखा हमें ही
उतर जाने को कह रहा है
कोई जैसे हाथ पकड़-पकड़
रोक रहा हो
कुछ मित्र उनके शहर से गुजरो तो
स्टेशन पर पूड़ी-सब्जी लिए मिलते थे
असंवाद स्मृतियों को
प्राणलेवा बना देता है
कभी-कभी किसी के कहीं होने की
भनक भी लगती
मन और उदास हो जाता है
अभी हाल में अचानक
उसके गांव के एक व्यक्ति से पता चला
राजकुमार एक्सीडेंट में नहीं रहा
पिता थाने में उठाने भी नहीं गए
उसकी मोटर सायकिल
सफल मित्र और निकट बने रहे
अपनी सफलता की चकाचौंध करते
और असफल मित्र
आह किस अंधेरे में कहां होंगे..!
अच्छा लगता है
कभी-कभी घर-गांव जाओ तो
कोई पुराना पूछते-पूछते आ जाता है
मैं उन तमाम घूसखोरों को जानता हूँ
जो सरकारी नौकरी से रिटायर हो
गांव आते-जाते हैं
गांव में छूट गए मित्रों को
किसी के खेत से चना उखाड़ने
किसी के आम तोड़ने के जुर्म में
चोर-लिहाड़ा और क्या क्या कहते सुनता हूँ
कहने वालों के मुंह पर
थूक देने का मन होता है
क्योंकि मुझे उनके बारे में
पता है सब कुछ
यह अजनबीयत हमारे रिश्तों
को और-और दूर बढ़ाएगी
न चाहते हुए भी हमें फिर-फिर
लिखनी पड़ेगी
ऐसी ही कितनी और कविताएं|

कुछ सम्मतियां मेरे पास भी हैं

कोहरा है धुंध बहुत गहरी है
पदचाप और गुजरते लोगों
की दूर गूंजती बोलचाभर
कभी दूर जाती कभी पास आती
लग रही है
जब कुछ साफ नहीं दिखता
तो आंख और कान ज्यादा ही
काम करते हैं
और भी ज्ञानेंद्रियां आंख और
कान में तब्दील हो जाती हैं
बगल कुड़िया तालाब से
आ रही है धोबियों की
हच्छु-हच्छु की आवाज
कहीं आसपास उनके गधों की
भी चर्र-चर्र घास चरने की
निकट से ही कहीं नवजात कुतिया
के बच्चों के कुकवाने की आवाज
किसी पेड़ के पत्ते पर
कुहिरा चूने की टप-टप
अचानक कोई पक्षी पंख फड़फड़ाता है
पास से ही एकदम प्रकट हो
बगल से भागते निकला सांड
गूंजता है दूर कहीं सामूहिक शोर
बस भहराने से बचे हम
मौसम को कोसता बूढ़ा
बुद-बुदा ज्यादा बोल कम रहा है
अभी और गिरेगा कुहिरा
ता लेगा खेत
पला जाएगी मटर
उसके पास घाघ और भड्डरी की सम्मतियां हैं
अपने कहे के पक्ष
कुछ सम्मतियां मेरे पास हैं
कुहासों की उम्र को लेकर
पर फिलहाल का सच तो यही है
कोहरा घना से घना हो रहा है|

अकाल

धरती का दुख है ये
परती का दुख
मिट्टी का दुख है
पानी का दुख
भाषा से कहो कि
बड़े अदब से जाए इनके पास
विचार तो बहुत ही सतर्क होकर
तालों से लटक रहा है सन्नाटा
पास से ही कहीं आ रही है
बाघ की भी दुर्गंध|

कुछ ने मश्क मांगी

आखिर क्या मांगा था मीर ने
यही न कुछ देर चैन से सोना चाहता हूँ
कुछ थोड़ी सी शराब मांगते चले गए
कुछ थोड़ा सा आसमान
कुछ ने मश्क मांगी
तो कुछ ने कम्पास
जब कभी पिघला भी प्रभुओं का मन
तो दरबारियों ने किया सतर्क
आपको नहीं मालूम
ये क्या मांग रहे हैं|

पाठा में चैत

गली-गली अटी पड़ी है
महुवा की महक
उतर रही है पहली धार की
घोपे के पीछे
रात गुजरती है कभी इस कभी उस
डाकू की वीरगाथा में
चटकती चिलम के साथ
आ रही हैं हत्या की खबरें
चैत और चुनाव आते ही
जवान हो जाती हैं रंजिशें
गेहूं की सुनहली आभा में ही नहीं
कई-कई परतों में ढंका है यहां चैत
चढ़ते चैत के बीच निछक्क
घूम रहा है दस्यु ददुआ का हाथी
उसके आतंक-सा भारी
भजन-कीर्तन मंडली के साथ
खेत खरिहान
धारकूड़ी के सुलगते धधकते
जंगलों के बीच भटक रहा है चैत इन दिनों
कभी पके कैथे की महक के बीच विचरता था
बरदहा में नहीं है एक बूंद पानी
उसे असाढ़ का इंतजार है|
पाठा = पठारी
(चित्रकूट जिले का पठारी क्षेत्र पाठा कहलाता है)

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