‘बाबू जी! मंदिर के बगल वाला मकान बिलकुल खंडहर-सा हो गया है।अगर आप सहमत हों, तो उसे मेरे मित्र संतोष बाबू खरीदना चाहते हैं।उसकी मुंह मांगी कीमत भी देने को तैयार हैं।’

‘वह उस खंडहर क्या करेंगे बेटे?’ पिता ने पूछा।

‘हमें इससे क्या लेना-देना बाबू जी…! वह कुछ भी करें, हमें बेकार पड़ी चीज का अच्छा दाम तो दे रहे हैं न!’

‘ठीक है, अगर तुम बेचने पर तुल ही गए हो, तो… वैसे भी वह जमीन एक जमाने में संतोष की ही तो थी।’   

‘वो कैसे?’

‘आज से २२ साल पहले वह पुस्तैनी मकान संतोष के इलाज के लिए उसके पिता ने मेरे पास गिरवी रखी थी, ज्यादा रुपयों की जरूरत पड़ने पर मुझे बेच दिया था!’

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