वरिष्ठ पत्रकार और कवि।
कोरोना महामारी में वे सब अपने गांव पैदल ही चल पड़े थे। महामारी में उनके जैसे कई मजदूरों का काम छिन गया था। वैसे कुछ सामाजिक संस्थाओं द्वारा सहायता दी जा रही थी और गुरुद्वारों से लंगर भी मिल रहा था, लेकिन उनकी घर जाने की इच्छा बलवती हो उठी।
परमेसरा किसी तरह कई दिनों तक पैदल चलकर अपने गांव पहुंच चुका था। लेकिन उसकी आंखों के सामने का हादसा ताजा था, जब रेल लाइन पर उसके कई साथी कट मरे थे। वह तथा और चार-पांच साथी बच गए थे, क्योंकि वे पटरियों से थोड़ी दूर सो रहे थे।
गांव आए चार महीने गुजर चुके थे। घर का अनाज तथा पैसे खत्म होने को थे। उसके परिवार की परेशानी बढ़ती जा रही थी। वह चिंतित मुद्रा में अपने घर के बाहर बैठा था। तभी उसके करीब एक चमचमाती मोटरसाइकिल आकर रुकी। उस पर काला चश्मा लगाए एक युवक बैठा था।
-परनाम परमेसर चचा।
-कौन? परमेसरा ने सर उठाकर देखा।
-मैं भोलू हूँ, आपके संघतिया चिथड़ू का बेटा।
-हां, भोलू बिटवा, तुम्हारा रंग-ढंग देखकर मैं पहचान नहीं सका। ये नई मोटरसाइकिल किसकी ले आए?
-मेरी है चचा, नई ली है। आपको तो पता है, बाबूजी गांव आते समय रेल लाइन में कट गए थे। केंद्र और राज्य सरकार से सब मिलाकर पांच लाख रुपया मिल चुका है। शायद और भी कहीं से मिले।
परमेसरा उसे विस्फ़ारित आंखों से देखे जा रहा था।
नेताजी टावर, 278/ए,एन एस सी बोस रोड, कोलकाता-700047
मो. 9434198898 ईमेल : rawelpushp@gmail.com