राजस्थान की चर्चित लेखिका।हिंदी के साथ राजस्थानी में भी लेखन। ‘पिघलते लम्हों की ओट से’ तथा ‘बूंद भर सावन’ (हिंदी कथा संग्रह), ‘दोस्त का जादू’ (हिंदी बाल कथा संग्रह) प्रकाशित।साहित्य अकादेमी बाल साहित्य पुरस्कार से सम्मानित।शिक्षा विभाग में वरिष्ठ अध्यापिका।
दुष्यंत की आंखों में नींद नहीं थी।रात अपने सफर पर होले-होले नाप-तौल कर कदम रखते हुए बढ़ रही थी।करवट के साथ शिखा का चेहरा मिश्रित द़ृश्यों के साथ उसके सामने आता रहा।क्या वे इतना भी नहीं जानते कि करवट बदलते रहने से कहीं मन के हालात भी बदलते हैं!
आंखों में तैरते द़ृश्य और द़ृश्यों से भिन्न हकीक़त के मंज़र दोनों में तालमेल नहीं है।वे पुन: विचारों में डूबकर हर एक स्थिति को बारीकी से जानना चाहते हैं, जिससे वे कुछ समाधान निकाल सकें।मन के रंग हजार हैं, फिर भी शिखा का चेहरा बेरंग, बेनूर क्यों है? क्या करूं! कैसे कोई राह निकालूं! दुष्यंत का स्वयं के विचारों पर अंकुश नहीं रहा।बीते दिनों की बातें आंखों में बोलते मंजर के बिंब रचती रहीं और वे उन बिंबों को समझने की कोशिश करते रहे।
वे उठे, आंगन में चले आए।आंगन की मंद रोशनी उन्हें भली लग रही थी।कुछ घटनाएं मस्तिष्क में घूमने लगीं।
उनकी गली में वर्मा जी का मकान प्रिंसिपल शिखा द्विवेदी खरीद रही हैं।जब यह खबर सुनी तो सोचा बंद मकान में परिवार के रहने से रौनक होगी।पड़ोसी से भी बढ़कर अपनत्व देने वाले केदार वर्मा जी की गत वर्ष मृत्यु हो गई थी।बेटे अपने-अपने व्यवसाय के कारण बाहर सैटल थे।मकान किराए पर देने के बजाय किसी अच्छी फैमिली को बेचना स्वीकार किया गया।
देखते-देखते दुष्यंत के घर के सामने वाली पंक्ति में एक मकान छोड़कर अगले वाले मकान में शिखा अपने बेटे-बहू, पोता-पोती के साथ रहने आ गई थीं।
दुष्यंत के घर की बालकनी से उनके घर की बालकनी और लॉन साफ दिखलाई देता है।उन्होंने सोचा, एक बार वे भी मिल आएं, पर संकोचवश जा न सके।
फर्स्ट फ्लोर से जब-तब उनकी नजरें शिखा के घर की तरफ उठ जातीं।शिखा अपने छोटे-से गार्डन में फूलों के बीच चेयर पर बैठी अखबार पढ़तीं, कभी-कभी सुबह तुलसी का पौधा सींचतीं, रात को उसके नीचे दीपक जलातीं नजर आ जातीं।
कलफ की ग्रीन लाइनिंग केसरिया फूलों से सजी साड़ी पहने, पीछे गूंथी लंबी चोटी, भरा-भरा चेहरा शिखा की उम्र को कम कर देते।दुष्यंत की सभी बैठकें इसी खुली, बालकनी में ही होतीं।लगभग दो-ढाई माह का समय बीतने को था।शिखा के घर की तरफ देखना दुष्यंत की आदत बन चुकी थी।जान न पहचान, न मुलाकात फिर भी एक अपनत्व उनके मन में जड़ें जमा चुका था।
आखिर एक दिन मॉर्निंग वॉक से घर आते ही शिखा के घर चाय पीने के लिए जाने का मन बनाया।वहां न जा पाने का संकोच कुछ दिन पहले था, पर अब जाने के लिए जाने कितने बहाने तक दुष्यंत ने ढूंढ़ लिए थे।
लगभग दस बजे वे शिखा के घर मुख्य दरवाजे पर थे।डोरबेल बजाई।सामने शिखा थीं।
‘आप! आइए न…!’ शिखा की मधुर आवाज और मुस्कान के मिश्रित स्वर ने दुष्यंत को गर्व से भर दिया।
‘सोचते-सोचते आखिर चला ही आया।नए पड़ोसी हैं, मिलना जरूरी है।’ दुष्यंत ने अपनी बात कही।
‘हां, क्यों नहीं।मैंने भी आपको अक्सर बालकनी में बैठे देखा है।’ शिखा ने सहज भाव से कहा।
‘हां, वह मेरी फेवरेट जगह है।रिटायरमेंट के बाद पिछले छह वर्षों से वहीं बैठता हूँ।’
‘बैठिए…क्या पिएंगे? चाय-कॉफी?’ शिखा ने शिष्टाचारवश पूछा।
‘चाय! बस, और कुछ नहीं।’ दुष्यंत ने भी बेतकल्लुफी से कहा।
‘जी… अभी आई।’ कहते हुए शिखा भीतर चली गईं।
दुष्यंत ने कमरे में नजर दौड़ाई।इन दरो-दीवारों पर चारों ओर कितना सुकून है।धैर्यपूर्ण खामोशी, जो स्वत: ही अपनेपन का अहसास करवाती है।कमरे में की गई बेहतरीन सजावट दुष्यंत का मन मोह रही थीं।
‘लीजिए…।’ शिखा ने ट्रे मेज पर रखते हुए कहा।ट्रे में चाय के साथ एक गिलास पानी और कुछ मीठा-नमकीन था।
ट्रे देखते ही दुष्यंत के मुंह से अनायास निकला, ‘अरे! इतना कुछ?’
‘लीजिए न, घर में ही बना है।’ शिखा ने आग्रह किया।
‘बहू ने बनाया है या आपने?’
‘बहू को कहां फुर्सत है! ये सब तो मैं ही बनाती हूँ।’
‘अब आप सर्विस से फ्री हैं तो बना लेती होंगी।’
‘नहीं, फ्री वाली कोई बात नहीं है।उस समय भी व्यस्तता से समय चुराकर ये सब बनाया करती थी।अब तो सबको बना-बनाया रेडिमेड चाहिए।’ शिखा ने बताया।
घर पर बनी स्वादिष्ट नमकीन और लड्डू खाकर दुष्यंत का मन तृप्त हो गया।
‘ये कलात्मक वस्तुएं घर को एक अलग वैभव प्रदान करती हैं।वाकई मोहक हैं।’ दुष्यंत ने चारों तरफ नजर घुमाते हुए कहा।
‘इन सबका शौक मुझे हमेशा से रहा है।लकड़ी और पत्थर से बनी नक्काशीदार कलात्मक वस्तुएं मुझे बहुत आकर्षित करती हैं।नीरज को भी इन सब वस्तुओं का बहुत शौक रहा।’ कहते हुए शिखा की आंखें खालीपन से भर आईं।दुष्यंत ने भी महसूस किया कि जीवन का खालीपन पल भर में शिखा पर हावी हो गया था।
थोड़ी देर की बातचीत के बाद दुष्यंत ने विदा ली।कमरे से बाहर निकलते वक्त अपनी भावनाएं दबा नहीं पा रहे थे।बरसों से खाली–खाली इस दिल में जैसे अब कुछ भरा–भरा है।पर क्यों! अब ऐसा क्या हुआ कि घर की जो दीवारें उन्हें खामोश नजर आती थीं, वे आज बोलती प्रतीत होती हैं।कहीं भीतर की मधुर हलचल बाहर उत्सव तो नहीं मना रही।छियासठ की उम्र में वे चालीस साल के युवा जैसे हैं।तन–मन दोनों तंदुरुस्त।हों भी कैसे नहीं, उन्होंने सदैव अपने आपसे प्यार किया है।
आठ साल पहले मधु इस दुनिया से चली गई थी, उन्हें तन्हा कर गई थी।मधु के लिए उनका दिल बहुत रोता है, क्योंकि वह अपना जीवन स्वयं के लिए नहीं, बल्कि औरों के लिए जीकर गई।
दुखते मन की पीड़ा को झटकने के लिए दुष्यंत ने रेडियो ऑन किया, ‘तुम न जाने किस जहां में खो ए…’ स्वर लहरी कानों से टकराई।दो पल ठिठक कर वहीं बैठ गए।मन से मन की बात गीत में चली आई।आंखें बंद करके एक-एक अल्फाज को साज की झंकार के साथ पीते रहे।
कन्हैया ने अपना काम निपटा लिया था।कहने को तो कन्हैया घर का नौकर है, पर उससे भी कहीं बढ़कर बरसों का निरंतर साथ है।साफ-सफाई से लेकर चाय-नाश्ता, लंच, डिनर सब कुछ बड़ी मुस्तैदी से संभालता है।
दुष्यंत कुछ देर बाद अपने कमरे में बनी लाइब्रेरी में किताबें टटोलने लगे कि कौन सी किताब पढ़ी जाए।यही तो दिनचर्या है उनकी।मॉर्निंग वॉक, योगा, साहित्य, संगीत, इवनिंग वॉक और कभी मार्केटिंग।शांति मंच पर होने वाले विभिन्न कार्यक्रम देखने का भी बहुत शौक है पर तब, जब दोस्तों का साथ हो।कभी-कभी पुरानी फिल्म देखना नहीं भूलते।साल में एक या दो बार भारत के किसी हिस्से की यात्रा करना भी उनकी आदत में शामिल है।चार-पांच दिन कहीं प्रकृति की हसीन गोद में बिताकर जैसे अपने जीवन को पुनर्जीवित कर लेते हैं।वे नवीन ताजगी-स्फूर्ति से भर उठते हैं।वे यही ताजगी भरा उत्साहित जीवन मधु को देना चाहते थे।जब-तब उसे बहुत समझाते थे, ‘मधु, गृहस्थी, बाल-बच्चों के लिए पल-पल बहुत जी ली।अब तो अपनी सेहत, अपनी ख्वाहिशों का भी कुछ ख्याल करो।’
‘दुष्यंत! गृहस्थी और बच्चों के लिए मैं नहीं करूंगी तो कौन करेगा! मेरा घर मेरे बिना पल भर आगे नहीं बढ़ सकता।’
‘तुम गलत सोचती हो, बात को गलत अर्थ देती हो।मैं तुम्हें रोक नहीं रहा।सिर्फ इतना कह रहा हूँ कि खुद के लिए भी वक्त निकालो।’
‘मैं गलत सोचती हूँ! आपने मेरी भाग-दौड़ देखी कहां है!’
‘देखी है मधु! तुम मेरी बात का मर्म नहीं समझ रही।स्वयं के लिए जीने में इन सबको छोड़ना, इन जिम्मेदारियों से दरकिनार होना नहीं है।व्यस्त जीवन जीते हुए खुद के लिए फुर्सत के पल निकालने की बात कर रहा हूँ।बात का मर्म समझो मधु।’
‘ठीक है, बाद में सोचूंगी।अभी मुझे बहुत काम निपटाने हैं।’
‘बाद में क्यों! आज से, अभी से अपने लिए सोचना शुरू करो।’ दुष्यंत ने जोर देकर कहा।
समझाने की कोशिश बेकार गई।मधु अपने विचारों के दायरे के साथ घर की चहारदीवारी में हर एक जिम्मेदारी ओढ़कर जीती रही।
लंबी श्वास के साथ दुष्यंत ने एक किताब निकाली और पन्ने पलटने लगे।
मधु चली गई पर वे चाहकर भी उसे अपने मुताबिक जिंदादिली से जीवन जीने का बेहतरीन सलीका नहीं सिखा पाए।
दुष्यंत को लगा कि ये अतीत के उलझे जाल उन्हें एकाग्र नहीं होने देंगे।उपन्यास में मन लगाने की जुगत करने लगे।पढ़ना शुरू किया।
‘सुनिए, आप सच ही कहते थे।मुझे अतृप्त जीवन की टीस साल रही है।’
‘मधु, तुम यह सब क्या कह रही हो!’
‘सच कह रही हूँ…काश! मैं पुनर्जीवित हो पाती और चुन-चुनकर हर एक पल भरपूर जी लेती।’
‘अब ऐसा क्यों कह रही हो।मेरी बातें तुम्हारी समझ से परे थीं।तुमने जितना त्याग किया, कोई करता है भला!’
‘ऐसा मत कहिए।जो भी वक्त दिया, बच्चों को दिया।क्या गलत किया? ममता ऐसी ही होती है।मैं नहीं करती तो कौन करता?’
‘क्या सिर्फ तुमने ही सब कुछ किया? मैंने कुछ नहीं किया? सर्विस के साथ घर-बाहर के सभी कार्य संभालता था।लेकिन मैं इन सबके होते हुए भी अपनी सेहत, शौक, मन की ख्वाहिशों को साथ लेकर चला।स्वयं के लिए भी जिया…।लेकिन तुम…, तुम तो!’
‘आप तो यही कहेंगे?’ मधु सिसक उठी।
‘मधु, तुमने जो किया, हो सकता है, सब कुछ करके भी मैं उसके मुकाबले कहीं नहीं ठहरता।मुद्दा कम या अधिक करने का नहीं है।मुद्दा है अपनी रुचि, अपनी सेहत, अपनी ख्वाहिश के साथ जीने के लिए वक्त निकालने का।’
दुष्यंत को लगा, वह यह क्या पढ़ रहा है, जहां पात्र वह स्वयं और मधु हैं।परंतु वह तो पहले पन्ने पर ही अटका है।
एक दिन दोस्त रक्षक का फोन आया…
‘हेलो!’
‘दुष्यंत, कैसे हो यार!’
‘अरे, रक्षक तू? बहुत दिनों बाद याद किया!’
‘आज एक खास खुशी के लिए याद किया है।’
‘क्या?’ दुष्यंत ने जिज्ञासावश पूछा।
‘शांति मंच पर तीन दिन बड़ी रौनक होने वाली है।तीनों शाम अलग-अलग प्रस्तुतियां।मैं तेरा टिकट ले आया हूँ।’
‘वाह! यह हुई न बात।बहुत दिन हुए दोस्तों संग कहीं जाना नहीं हुआ।’
अचानक
‘रक्षक, तू एक टिकट और ले सकता है?’
‘क्यों? क्या कन्हैया के लिए?’ रक्षक हँसते हुए बोला।
‘नहीं, कोई नई पहचान है?’
‘ठीक है, ले लूंगा।याद रखना, परसों शाम सात बजे।’
दुष्यंत शिखा को साथ ले जाना चाहते हैं।पर आज की एक ही मुलाकात के बाद क्या ऐसा करना उचित रहेगा?
शाम को मार्केट जाते समय दुष्यंत ने देखा, आगे कुछ ही दूरी पर शिखा मध्यम चाल से चली जा रही हैं।
शिखा को देखते ही दुष्यंत की आंखों में चमक उभरी।उन्होंने पदचाप की तीव्रता बढ़ा दी।नजदीक जाकर धीरे से बोले, ‘मार्केट जा रही हैं या कहीं और?’
‘अरे आप! बस जरा मार्केट तक ही।कुछ सामान लाना था, सोचा ले ही आऊं।’
‘मैं भी वहीं जा रहा हूँ, लाइए, मैं ला देता हूँ सामान।’
‘नहीं, नहीं।आप रहने दें।इस बहाने ही सही, मैं घर से बाहर तो निकली।वरना पिछले महीनों से घर में कैद होकर रह गई हूँ।’
‘आज आपसे मिला।बहुत बातें अधूरी रह गईं।घर आकर जाने क्या-क्या पूछना याद आया।’
शिखा ने आश्चर्य से दुष्यंत की ओर देखा।शिखा का इस तरह देखना दुष्यंत को अपनी गलती का अहसास करवा गया।सोचा, वे कैसे अनायास सब कुछ सहज रूप से कह गए।
‘मेरा मतलब बस इतना था कि अभिरुचियों के बारे में चर्चा करनी थी।अब आप फ्री हैं, अपनी रुचियों को समय दे सकती हैं।’
‘हां, आप सही कह रहे हैं।’
‘शांति मंच में आगामी दिनों में तीन दिन तक लगातार अलग-अलग कार्यक्रमों की प्रस्तुतियां हैं।यह सब देखना मेरी गहन रुचि में शामिल हैं…।’ दुष्यंत बात पूरी करते कि…
‘यह सब तो मुझे भी बहुत पसंद है।भागदौड़ की जिंदगी से परे पहले मनोरंजन के ये सब सभ्य साधन रहे हैं।मेरी बड़ी ख्वाहिश रही है यह सब देखने की।’
‘सच!’ दुष्यंत खुशी से उछल पड़े।
‘परसों शाम से प्रोग्राम शुरू है।मैंने आपका ख्याल करके एक अतिरिक्त टिकट भी मंगवा लिया है।’
शिखा ने पुन: आश्चर्य से दुष्यंत की तरफ देखा लेकिन इस बार बेफिक्र दुष्यंत के चेहरे पर खुशी का लिबास था।सोचा था कल आपसे मिलकर टिकट और प्रोग्राम के बारे में बताऊंगा।पर आप आज ही मिल गईं।’ दुष्यंत के मन का उत्साह उनके चेहरे से झलक रहा था।
‘आप किधर जाएंगे? मुझे तो रश्मि मॉल जाना है।’
‘मुझे लाइब्रेरी।वहां मेरा समय अच्छा व्यतीत हो जाता है।’
शिखा मुस्कुरा दीं, ‘आपके शौक मेरे शौक से कितने मिलते हैं।फर्क बस इतना है कि मैं जीवन में व्यस्तताओं के चलते पूरे नहीं कर पाई और आप शायद पूरे करते रहे।’
आज शिखा का मन अरसे बाद राहत भरी खुशी स्वत: ही महसूस कर रहा था।कोई कैसे इतना सहज, सरल अपनापन लिए जीवन में चला आता है।
इधर दुष्यंत के मन में खुशी के साथ किसी कोने में एक बात बार-बार गूंज रही थी-
‘मेरे शौक व्यस्तताओं के कारण मन में ही पलते रहे।’
‘मधु, मैंने तुम्हें कितनी बार समझाया था कि शौक, ख्वाहिश पालो मत, पूरे करो।पर मेरी समझाइश बेअसर रही।’
‘आप भी जब देखो, तब मेरे पीछे पड़े रहते हैं।मैं अपने शौक, अपनी ख्वाहिशें पूरी कर लूंगी।जिंदगी से थोड़ी फुर्सत तो लेने दीजिए।’
‘फुर्सत और वह भी जिंदगी से मांगती हो।पागल मत बनो।फुर्सत के पल तुम्हें स्वयं निकालने होंगे।’
‘बस दुष्यंत।बच्चों को अपने जीवन की डगर पर आगे बढ़ जाने दो।फिर देखिएगा मेरे शौक, मेरी ख्वाहिशों की उड़ानें फुर्र…से उड़ेंगी।’
सोचते हुए दुष्यंत की आंखें नम हो गईं। ‘मधु, तुमने भारी गठरी सिर पर लाद रखी थी।उसे फुर्सत में खोलने की बात करती थी।उस गठरी को बंधी की बंधी अपने संग ले गई।वर्तमान पर अपना सर्वस्व लुटाती तुम खुद से हार गई।मुझे अपार दर्द दे गई।तृष्णा तुम्हारी थी पर अतृप्त मैं हूँ।यह दुनिया देखता हूँ, वैसी ही है पर तुम नहीं हो मधु।
एक दिन बीता।अगले दिन शाम को लगभग पांच बजे दुष्यंत शिखा के घर…
दरवाजा खुला था।अंदर चले आए।शिखा को देखकर बोले, ‘अरे, आप तैयार नहीं हुईं? क्या आप भूल गईं कि…।’
‘नहीं, नहीं…भूली नहीं हूँ।परंतु बेटा-बहू किसी रिश्तेदार के घर गए हैं।बच्चों के साथ मेरा घर पर रहना जरूरी है।ट्यूटर आएगा।’ शिखा की आवाज से उदासी झलक रही थी।
‘क्या?’ दुष्यंत की आवाज अनचाहे डर से कांप गई।
फिर कत्ल, फिर घुटन, एक बुदबुदाहट, ‘आपने उन्हें बताया नहीं कि आपको कहीं जाना है?’
‘बताया था, पर उन्होंने कहा कि उनका जाना ज्यादा जरूरी है।तब मैंने उन्हें जाने दिया।’
‘बहुत गलत किया मधु।आज फिर तुमने अपनी इच्छाओं का गला घोंट दिया।एक और अर्थहीन कुर्बानी।’ दुष्यंत मन ही मन बुदबुदा रहे थे।
‘आप क्या सोचने लगे? कल भी तो है प्रोग्राम।’ भावों की मायूसी को मुस्कान के मुखौटे से ढकने की नाकाम कोशिश की शिखा ने, ‘आप जाइए, मैं कल अवश्य चलूंगी।’
‘सोच रहा था, क्यों न आपके हाथ की बनी चाय पी ली जाए।’ शिथिल थकान भरे डूबते जज्बातों पर काबू पाते हुए दुष्यंत जैसे सारा आवेग चाय की प्याली में उंड़ेल कर पी जाना चाहते थे।
शिखा हँस पड़ी, ‘बैठिए, अभी लाई।’
‘कुछ खाने के लिए भी ले आइएगा।’ अनौपचारिक व्यवहार दुष्यंत की अपनी लय-ताल है।
दुष्यंत ने शिखा के चेहरे पर हँसी देखकर राहत की सांस ली, ‘मधु, तुम उदासी में भी अच्छा हँस लेती हो।’ लेकिन मन में अजीब कसमसाहट थी, कुछ छूट रहा था।ये वक्त जो बीत रहा है।किसी के लिए जीवन के पल रिक्त कर रहा है।पर वह अनजान इस व्यूह में फंसी जा रही है।
चाय-नाश्ते के दौरान…।
‘शिखा जी, आपको कार्यक्रम में नहीं जा पाने का अफसोस नहीं?’
‘क्या करूं? हमेशा ऐसा होता है।बच्चों की खुशी से बढ़कर क्या है?’
‘और आपकी खुशी? तो क्या कभी आपकी खुशी से बढ़कर भी किसी के लिए कुछ और नहीं रहा होगा।’
असहज हो उठीं शिखा।क्या जवाब दें।फिर धीमे स्वर में बोलीं, ‘कोई बात नहीं, फिर कभी सही।मौके मिलते रहेंगे।’
‘फिर कभी सही, ऐसा कहते-कहते कितने मौके गंवा दिए होंगे।’
‘हां, ऐसा तो होता ही है।शादी के बाद अपनी लाइफ कहां रहती है।जाने कितनी धाराओं में बंट जाती है जिंदगी।फिर सर्विस… इन सब में खुद का वजूद कहां रह पाता है? खुद को भूल ही जाते हैं।’
जिंदादिल इंसान दुष्यंत के कानों में शिखा के कहे शब्द पिघले गर्म शीशे की तरह बूंद-बूंद रिस रहे थे।भीतर सीने को जलाते हुए अमिट फफोले पैदा कर रहे थे।
‘मधु, प्लीज मधु, अब तो संभल जाओ।अब तो अपनी गठरी खोल दो।’ भीतर की गूंज चोट कर रही थी।
रक्षक के फोन ने झकझोर कर रख दिया।
‘आप तो जाइए, अफसोस कि आज एक टिकट बेकार गया।’
‘कभी-कभी इस तरह कुछ बेकार जाना भी जीवन का टर्निंग प्वाइंट होता है।’ शिखा कुछ समझ पातीं, इससे पहले ही दुष्यंत उठकर चल दिए।
मंच पर चल रहा कार्यक्रम देखते हुए भी दुष्यंत का मन बेचैन रहा, ‘मधु! जब मुझे पहला प्रमोशन मिला, सोचा था तुम्हारे साथ किसी हिल स्टेशन घूमने जाऊंगा।जब अकेला जाता हूँ तो तुम्हें बहुत मिस करता हूँ।’
‘मधु, बैग वगैरह तैयार कर लो।’
‘क्यों?’
‘मेरे प्रमोशन की खुशी में दो-चार दिन कहीं घूमकर आएंगे।’
‘मैं कैसे जा सकती हूँ! पीछे घर, बच्चे कौन संभालेगा?’
‘बच्चे अब बड़े हो गए हैं।अपनी देखभाल खुद कर लेंगे।’
‘नहीं, नहीं।कल को कोई अनहोनी हो गई तो!’
‘हद करती हो तुम।कैसी मानसिकता है तुम्हारी।’
कार्यक्रम कब खत्म हुआ, दुष्यंत को पता ही नहीं चला।आंखों के आगे अतीत के चित्र छाए रहे।
किसी कार्यक्रम से वापस आने पर उसकी खुमारी कुछ दिन तक दिलो दिमाग पर छाई रहती थी।आज न कार्यक्रम में मन लगा और न कलाकारों में।मन में उम्मीद की किरण जल रही थी कि कल शिखा अवश्य आएगीं।
अगले दिन शाम को जब शिखा के घर गए तो शिखा तैयार थीं, लेकिन अभी काफी समय पड़ा था।दुष्यंत यह सोचकर चले आए थे कि कहीं शिखा किन्हीं अन्य कामों में फंसकर जाना फिर से कैंसिल न कर दें।
‘बड़ी खुशी की बात है कि आज आप समय से पहले तैयार हो गईं।’
दुष्यंत को अचानक घर आया देखकर शिखा सकपका गईं।
‘क्या बात है, यूं हैरान क्यों हैं?’
‘नहीं तो, ऐसा कुछ नहीं।आइए, बैठिए न।’
‘बैठूंगा नहीं, याद दिलाने चला आया कि हम छह बजे चलेंगे।’
‘मम्मी जी, मैं तैयार हूँ।चलिए, चलते हैं।’ शिखा की बहू अमृता ने अचानक अंदर से आते हुए कहा।
दुष्यंत अकस्मात हुई इस बात से अवाक रह गए।पल गंवाए बिना वहां से चल पड़े थे।शिखा तेज कदमों से पीछे–पीछे बाहर आई, ‘आज बहू के साथ जाना जरूरी था।कार्यक्रम कल भी तो है।कल अवश्य चलेंगे।मैं खुद शाम को छह बजे आपके घर आ जाऊंगी।’
‘आपकी व्यस्तताएं हैं।मैं समझ सकता हूँ।’ कहते हुए दुष्यंत घर की ओर चल पड़े।
‘फिर आत्महत्या… फिर घोंट दिया गला।कुचल कर रख दी ख्वाहिशें।’ मन ही मन बुदबुदाते हुए दुष्यंत घर पहुंचे।अचानक मन में द़ृढ़ भाव उभरे, ‘मरने नहीं दूंगा मैं, जीवन की जिजीविषा में लिपटी परंतु दम तोड़ती, सिसकती इन अतृप्त इच्छाओं को…।’
अगली शाम इंतजार में बीती।शिखा नहीं आईं।शाम जहां बेचैनी में बीती, वहीं रात जाते हुए गुजरी।दुष्यंत को अब बीतता समय सालने लगा था।वे कुछ दिनों के लिए कहीं बाहर घूम आना चाहते थे।लगभग दो माह का समय बीत गया।शिखा कभी-कभार नज़र आ जातीं।उनकी निगाह भी दुष्यंत की बालकनी की ओर उठ जाती थीं।कभी दोनों की नजरें एक-दूसरे को एक साथ देख भी लेतीं पर मिलने की, बतियाने की कोशिश किसी ने नहीं की।
कुछ दिन और बीते।इन दिनों शिखा नज़र नहीं आई।दुष्यंत को अपनेपन की भावना में लिपटी चिंता होने लगी।अब मन बस में नहीं था।सोचा आज जाकर देखता हूँ।मन सोचता, शिखा ने कभी तुम्हें तवज्जो नहीं दी।बहुत आग्रह के बावजूद नहीं आई।तुम्हें नहीं जाना चाहिए।फिर भी मन में पनपे अपनेपन ने उन्हें शिखा की दहलीज पर ला खड़ा किया।
दरवाजे पर छोटी कुंडी लगी थी।उसे हटाकर अंदर चले गए।अंदर के मुख्य दरवाजे को धकेला तो वह खुला ही मिला।उन्होंने आवाज लगाई, ‘अंदर कोई है?’
‘हां, कौन?’ एक बहुत थकी हुई-सी आवाज दुष्यंत के कानों में पड़ी।
चारों तरफ फैले सन्नाटे के बीच शिखा की बीमार-सी आवाज सुनकर वे अंदर चले गए।शिखा बेड पर लेटी हुई थीं।
‘क्या बात है? तबीयत ठीक नहीं? कई दिनों से आप दिखी नहीं तो मैं पता करने चला आया।’
जब इस घर में आई थीं तब में और आज में कितना अंतर आ गया है।यह अंतर नकारात्मक क्यों है? सर्विस की भागदौड़ के बाद आराम के क्षणों में यह अंतर सकारात्मक होना चाहिए था।थोड़ा अपने लिए भी जी लेतीं।
दुष्यंत अपने विचारों के उभरते तूफान को भरसक प्रयास के रोकना चाहते थे कि शिखा कहीं यह अपनापन भांप न लें।फिर भी-
‘जीना नहीं आया।’ अंदर का दर्द आखिर छलक ही पड़ा।
‘क्या मतलब? क्या कह रहे हैं?’
‘आपकी हालत देखकर कह रहा हूँ कि जीना नहीं आया आपको।’
‘जिया ही तो है।तभी तो उम्र के इस पड़ाव तक पहुंची हूँ।’
‘जिया नहीं, ढोया है।अगर जिया होता तो हालात ये नहीं होते।मैंने भी अवसर दिए कि आप अपने लिए कुछ जी लें।पर जाने कितने कार्य, उलझनें आपको घेर लेती हैं।स्वयं को दरकिनार कर अन्य कार्यों में बढ़-चढ़कर उपस्थिति देती रहीं।अपने ही जीवन में अपने लिए जीने की आपकी उपस्थिति नगण्य है, शून्य है।’
शिखा की आंखें भर आईं।इतना अधिकार, अपनापन कहां से आया।मैंने तो हमेशा ही इन्हें नकारा है।
‘आप बैठिए।’ कहते हुए शिखा बेड से खड़ी हो गई।
‘अरे आप खड़ी क्यों हो गईं?’ दुष्यंत ने सहज भाव से शिखा के माथे पर हाथ रखा।उनका माथा गर्म था।
‘पल-पल आत्मदाह कर लीजिए, स्वाह कर दीजिए खुद को।अब बेड से हिलिएगा नहीं।मैं अभी आया।’ कहते हुए दुष्यंत बाहर निकलने लगे।उनके मन में विचार उमड़ने लगे, ‘यूं तो तुम तिल-तिल कर खुद को खत्म कर लोगी।मैं यह होने नहीं दूंगा।’
‘डॉक्टर मत लाइएगा, दवा है, मैं ले रही हूँ।’ शिखा की बात अनसुनी कर दुष्यंत जा चुके थे।
डॉक्टर को दिखाया।चेकअप करवाकर दवाएं भी ला दी।शिखा की एक नहीं सुनी।
‘मधु, मैं तुम्हें बार-बार मरने नहीं दूंगा।’ दुष्यंत का मन द़ृढ़प्रतिज्ञ था।
दो दिन समय पर दवा, खाना-पीना करने पर शिखा अब बिलकुल ठीक थी।चेहरे पर रौनक और राहत दोनों चली आई थीं।कन्हैया ने भी अपनी ड्यूटी बड़ी मुस्तैदी से की थी।शिखा दुष्यंत के व्यक्तित्व की ओर जाने-अनजाने खिंचती चली गईं।
अगले दिन दुष्यंत ने शिखा को लॉन में बैठे देखा तो चले आए।
‘कैसी हैं आप?’
‘बिलकुल तंदुरुस्त!’
‘आपको तंदुरुस्त देखकर बड़ी प्रसन्नता हो रही है।’
दुष्यंत की बात सुनकर नज़रें नीची कर शिखा मुस्करा दीं।
‘एक बात कहूं, मानेंगी?’
‘हां, कहिए न?’ उत्सुक शिखा ने कहा।
‘चलिए, कहीं घूम आते हैं।मैं तो जाता ही रहता हूँ।लगता है आप काफी समय से बाहर नहीं गईं।मन बहल जाएा।’
‘पर…।’ शिखा ने कुछ कहना चाहा।
‘पर…पर क्या? घर कौन रहेगा? जब बेटा-बहू लौटकर आएंगे, उन्हें पता चलेगा तो क्या होगा! पास-पड़ोस वाले क्या कहेंगे! मैं किसी अन्य पुरुष के साथ यूं अकेले कैसे जा सकती हूँ! लोग क्या कहेंगे! क्या सोचेंगे! वगैरह-वगैरह हैं न! बहुत-से कारण खोज लिए होंगे, खुद को समय न देने के।मन मुताबिक न जीने के फिर बहाने! फिर स्वयं को दरकिनार किया।ओह! बेवजह कितनी बंदिशें, आवरण ओढ़ लिए आपने।अर्थहीन, खोखले आवरण।’ कहते हुए दुष्यंत ने शिखा की ओर पीठ फेर ली।वे अपने आवेग को रोक नहीं पा रहे थे।भोगा हुआ आवेग, जीवन का यथार्थ आवेग…मधु, उफ! तुम कब समझोगी?
‘रहने दीजिए…मैं घर पर ही ठीक हूँ।’ शिखा ने धैर्य से कहा।
अपने आवेग पर काबू पाते हुए दुष्यंत को शिखा के ये शब्द अंदर तक लहूलुहान कर गए।उन्हें अपनी कही बातों पर अफसोस होने लगा।नासमझ कभी नहीं समझते।क्या करें वे भी।
‘जैसी आपकी मर्जी…।’ बनावटी मुस्कराहट के साथ खड़े होकर दुष्यंत चलने लगे।दरवाजे तक पहुंचते कि…
‘आप घर चलिए।मैं तैयार होकर आती हूँ।’
दुष्यंत के मन का अथाह दर्द एकाएक खुशी में बदल गया।एक नजर शिखा पर डालते हुए मुस्कुरा दिए।दर्द और खुशी में क्या कोई फासला नहीं होता! शिखा की ‘न’ अथाह दर्द और ‘हां’ असीम खुशी!
आधे घंटे बाद गुलाबी साड़ी, जिसमें हरे गुलाबी रंग की रेशमी कढ़ाई थी, ग्रीन बॉर्डर पर सुनहरी रंग की लाइन बनी थी, में लिपटी सामने खड़ी थी।ढीली गूंथी हुई लंबी चोटी, बिना मेकअप के सादी की मूर्ति वे अधिक खूबसूरत लग रही थीं।दुष्यंत को यह छवि अपने भीतर उतरती हुई महसूस हुई।
थोड़़ी देर बाद गाड़ी मुख्य मार्ग पर दौड़ने लगी।
‘हम पहले सुनहरा गार्डन चलते हैं, वहां से पायल रेस्टोरेंट और क्यों न छह बजे वाला फिल्म शो देखकर घर चल पड़ेंगे।श्याम टॉकीज में अच्छी फिल्म चल रही है।’
‘इतना लेट! नौ बजे तक बाहर रहना! बहुत देर हो जाएगी।रेस्टोरेंट से सीधे घर चलते हैं।’ शिखा असहज हो गईं।
‘फिर घिर गईं जंजालों में…।आप इस दायरे से बाहर निकलिए।देखिए, यह दुनिया आपके लिए भी है।आप भी किसी विश्वस्त अपने के साथ एंजॉय कर सकती हैं।स्वयं को किंतु-परंतु जैसी भ्रामक घुटन से आजाद कीजिए।स्वस्थ मन से जीवन का आनंद लीजिए।मैं कभी आपके साथ कुछ गलत नहीं करूंगा।मेरा ऐसा कोई इरादा नहीं है।विश्वास रखिए।’
‘फिर भी, इतनी रात गए बाहर…।’
‘क्यों? किसने कहा है कि रात नौ बजे के बाद शिखा का घर से बाहर रहना, सिनेमा देखना वर्जित है?’
शिखा चुप थीं।गृहस्थी, सर्विस के चलते वे कभी नीरज के साथ भी घूम-फिर नहीं पाईं।जीवन का लंबा हिस्सा कब बीत गया, पता ही नहीं चला।वे जीवन को ठहरा मान बैठी थीं।पर वह तो उसे कहां से कहां ले आया।
‘आप परेशान मत होइए।आप कहेंगी तो घर चलेंगे।वह घर वहीं मिलेगा।वैसे उस घर के वहीं मिलने की गारंटी मैं देता हूँ।’
दुष्यंत के बात कहने के अंदाज पर शिखा हँस पड़ी, ‘आप बातें बहुत अपनेपन से करते हैं।आपकी बातों में यथार्थ और सुकून दोनों होते हैं।न चाहते हुए भी आपके तर्कों से परास्त हो जाती हूँ।जैसा आपने कार्यक्रम तय किया है, वैसा ही करते हैं।’
‘मैं समझता हूँ आपकी उलझनें, मन की झिझक, परंपरागत मर्यादा की बेड़ियां, आस-पड़ोस की प्रतिक्रियाएं, बहू-बेटे की अनुपस्थिति आपके मन को असहज, उद्वेलित करते हैं।लेकिन आप घुटन भरे थोपे गए भ्रमजाल से बाहर निकलिए।’ गाड़ी ड्राइव करते हुए दुष्यंत ने सहज भाव से कहा।
‘आप अपनी बात इस तरह कहते हैं कि मन स्वीकृति दे ही देता है।’ शिखा मुस्करा उठीं।
बेटा कुणाल, बहू अमृता यात्रा से घर आ गए।शिखा को स्वस्थ देख खुशी जाहिर की।लेकिन दो-तीन दिन बाद ही दोनों का व्यवहार शिखा के प्रति उखड़ा-उखड़ा हो गया।शिखा ने महसूस किया कि कहीं कुछ तनाव का वातावरण बनता जा रहा है।उन्हें घुटन होने लगी।
‘क्या बताएं मम्मी जी, बाहर निकलते हैं तो शर्म आती है।आप दुष्यंत अंकल के साथ घूमने-फिरने लगी हैं।वे भी घर आते रहे हैं।लोग बातें बनाते हैं।नए मोहल्ले में यही छवि बनाई।उम्र का तो ख्याल किया होता!’
शिखा अवाक थीं।उन्हें लगा जैसे किसी ने बहुमंजिला इमारत से यकायक धक्का दे दिया हो, पर वे गिरी नहीं, बीच में ही झूलने लगीं।
‘ऐसी तो कोई बात नहीं अमृता! पड़ोसी हैं, हाल-चाल पूछने चले आए।मेरी हेल्प की।एक दिन घूमने चले गए।’ शिखा ने अटकते हुए अपने स्वाभिमान को चिथड़े-चिथड़े करते हुए कहा।
‘गलत है न मम्मी जी…पड़ोस में अलका आंटी, सुलोचना दीदी, ये सब भी तो हैं।इन्हें बुला सकती थीं।’ अमृता आवेश में उठकर चली गई।
शिखा के कदम स्थिर हो गए।विचारों के तूफान शक्तिहीन मनोबल को झकझोरते हुए निकलने लगे।संवेदनाओं की बूंदें रह-रहकर जेहन में रिस रही थीं।ये सब क्या है? मेरे प्रति ऐसी सोच? उम्रभर की सेवा का यह प्रतिफल? ये कौन से पल हैं जीवन के, जो मुझे इतना नीचे पाताल तक धकेल गए।ऐसा क्यों हुआ? आखिर क्यों?
ओह! मेरे हाथ से जाने क्या-क्या फिसल गया! उम्रभर जिन्हें बांधकर रखा, वह भ्रम था, हकीकत यह है! जब विश्वास ही फिसल गया, शेष क्या रहा? सिर्फ छाया! दुनियावी दकियानूसी सोच ने दुष्यंत जैसे नेक, साफ दिल इंसान को भी लपेटे में ले लिया।
शिखा अमृता को बहुत कुछ कहना, समझाना चाहती थीं पर फिर उसे सब व्यर्थ लगने लगा।उन्होंने चुप्पी साध ली।वे टूटकर बिखर गईं।बेबुनियाद इल्जाम, वह भी अपनों द्वारा इस उम्र में! ओह! शिखा इतनी आहत हुईं कि घर के लॉन में बैठना ही बंद कर दिया।मन के बावरे पंछी ने उड़ने से पहले ही अपने पंख समेट कर गर्दन भी उनमें छिपा ली।
दिन भर घर के भीतर कार्यों में उलझी रहतीं।उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि यह कैसा जीवन है? इस पड़ाव पर, इस जीवन की तो कल्पना ही नहीं की थी।गहरा दुख-तनाव यह कि उनकी इस स्थिति से किसी को कोई फर्क नहीं पड़ा, बल्कि उपेक्षा बढ़ती जा रही थी।
हफ्ताभर निकल गया।दुष्यंत खुश थे कि अब शिखा प्रसन्न और स्वस्थ होंगी।
‘मधु, तुम अब मेरी बातों का कुछ-कुछ मर्म समझने लगी हो।क्यों मधु, अच्छा लगा न?’
सब बातों से अनजान दुष्यंत ने दो-चार दिन और बीतने के बाद जब शिखा को लॉन में बैठे नहीं देखा तो मिलने की सोची।
डोरबेल बजाई।दरवाजा खुला।शिखा सामने थीं।शिखा पर एक गहरी नजर डालते हुए दुष्यंत अंदर चले गए।
‘क्या हुआ? क्या तबीयत फिर खराब हो गई थी? इतनी शिथिल क्यों हैं? सब ठीक तो है? इन दिनों व्यस्त था, आना नहीं हो पाया।माफी चाहता हूँ।’
शिखा ने जवाब नहीं दिया।उसकी आंखों में पानी उतर आया था।
‘क्या हुआ? बताइए न!’ दुष्यंत का मन शिखा की निर्दोष आंखों में पानी देखकर अनजानी बात से आशंकित हो उठा।
‘कुछ नहीं, आप यहां मत आया कीजिए।शेष क्या कहूं, आप खुद समझदार हैं।’
दुष्यंत को अनुमान लगाते वक्त नहीं ला।संयत होकर ठहाका लगाते हुए बोले, ‘बस… इतनी-सी बात! मैं जानता था ऐसा ही होगा।इससे अधिक और हो भी क्या सकता है!’
‘मैंने कहा था मैं नहीं जाऊंगी।पर आप…।’
‘पर आप नहीं माने, कहिए न…।’ दुष्यंत ने कुछ रुककर बेचैनी भरे मगर ठहरे स्वर में कहा, ‘मार दीजिए खुद को कोड़े, कर लीजिए तन-मन लहूलुहान।किसी ने अपनी सोच के दायरे में गढ़कर कुछ शब्द आपसे कहे, आपने अपने आत्मसम्मान, विश्वास को दरकिनार कर उन शब्दों को उनके अर्थ सहित अपना लिया।क्यों? ऐसा क्यों किया? जिंदगी भर दूसरों की खातिर जीने वाली शिखा ने खुद को खुद की ढाल नहीं बनाया! हँसना-बोलना छोड़ दिया।शिखा जी जीवन छोड़ दीजिए! यहां किसी को कोई फर्क नहीं पड़ेगा।बताइए, किसी को कोई फर्क पड़ा?’
‘आप नहीं समझेंगे।आपका न आना, न मिलना ही समाधान है।’
‘मोम की गुड़िया हैं या मिट्टी की मूर्ति जो पिघल गईं, खत्म हो गईं! क्या कोई वजूद नहीं है आपका! कभी स्वयं को महसूस किया! पहचाना कि आप भी इंसान हैं! जीवन भर में कुछ तो पूंजी अपने लिए संचित की होंगी? कुछ आत्मबल तो अपने भीतर रखती होंगी?’’
शिखा बुत बनी खड़ी रहीं।क्या जवाब दें! वे कितनी कमजोर हैं।दुष्यंत के कहे वाक्य कितने सही और जीवन को द़ृढ़ बनाने वाले हैं…!
‘क्या कहूं? मेरा मन मौन है! मेरी सोचने-समझने की शक्ति जाने कहां खो गई है! मुझसे इस तरह की बातें, इस उम्र में…!’
‘बस कीजिए! आखिर कितना कोसेंगी अपने आपको! बेवजह परेशान मत होइए आप।उन्हें जो कहना था, कह दिया।उनकी सोच व समझ का दामन इतना ही है, लेकिन आप इस तरह परेशान होकर उनकी सोच को सच साबित कर रही हैं, जो आपको नहीं करना चाहिए।’
शिखा चुपचाप सुन रही थीं।
‘बताइए, क्या गलत किया आपने! मेरे साथ शहर में घूमकर ही तो आई हैं।पड़ोसनें जब आपकी अपनी हो सकती हैं तो मैं क्यों नहीं! मैं भी तो पड़ोसी हूँ।मैंने कभी आपके साथ कुछ गलत किया? कभी गलत कहा? सीमाएं स्त्री–पुरुष की बीच की नहीं, बल्कि सीमाएं उनके अनुचित व्यवहार की होनी चाहिएं।स्त्री का सम्मान करना मैं जानता हूँ।हमारे बीच सम्मान की सीमाएं सदैव रही हैं।’
शिखा फिर भी चुप थीं।दो कोमल नमकीन पानी की बूंदें आंखों के बंधन से निकल कर अंतहीन लुढ़क गईं।
दुष्यंत का मन यह सब देखकर अंधेरी कोठरी की घुटन में उठी चीत्कार से पागल होने लगा।
‘अच्छा, मैं चलता हूँ।जब आपने आत्महत्या का फैसला कर ही लिया है तो मैं कौन हूँ बचाने वाला! फिर भी यही कहूंगा जीवन के आने वाले लम्हों को समझिए, उनकी हँसी दामन में भरिए।किसी ने आपको गलत कहा तो आप गलत कैसे हो गईं।इसका उत्तर खोजिए।’
कहते हुए दुष्यंत मुख्य दरवाजा लांघकर गली में आ गए।
शिखा को लगा कोई घनिष्ठ उन्हें तन्हा छोड़कर जा रहा है।वे लड़खड़ाईं लेकिन फिर बोझिल कदमों से मन की टूटन लिए अपने कमरे की ओर चल दीं।
शिखा उदास कोने में बैठी खुद को टटोल रही थीं।अपनी ताकत बटोरते हुए सिसकियों का सहारा लेकर बुदबुदाने लगीं, ‘नीरज, क्या मैं जी लूं? मेरा दम घुटता है।लगता है मेरी जिंदगी किसी कैदखाने में कैद है।तुम सच कहते थे, ‘जीवन की जिम्मेदारियों के साथ खुद के लिए भी जीना सीखो’।तुमने कहा था- ‘जब अपने लिए कुछ नहीं करती।फिर सबके लिए करना व्यर्थ है।व्यर्थ ही जीवन ढो रही हो।प्लीज शिखा, संभल जाओ।बाद में अगर संभली भी तो वक्त हाथ से फिसल चुका होगा।’ …‘अब जी लूं नीरज? भीतर की घुटन मुझे खत्म कर देगी।मुझे बचा लो नीरज!’ वे फफक पड़ीं।
अंतर्मन की गूंज तेज होने लगी।उस गूंज को सुनने का प्रयास करती रहीं।शायद यही है खुद से खुद का मिलन।शिखा ने करवट बदली… यकायक वे लम्हें याद हो आए, जिन्हें वे बार-बार जीना चाहती हैं।
पिछले दिनों जब वे मंदिर से वापस आ रही थीं, तब बालकनी में खड़े दुष्यंत ने उसे देखकर आवाज ला दी, ‘शिखा जी…।’
उसने ऊपर की ओर देखा।दुष्यंत ने थमने का इशारा किया।वे पल भर ठिठकी ही थीं कि दुष्यंत गली में आ गए और आग्रहपूर्वक कहने ले, ‘आज हमारे घर चाय पीकर जाइए।’
दुष्यंत का आग्रह सहज आग्रह नहीं था।अपनेपन की मिठास थी।उन्होंने गली के इस छोर से दूसरे छोर तक नजरें घुमाते हुए कहा था, ‘नहीं, आज नहीं।फिर कभी।आज सब घर पर हैं।’
‘फिर तो अच्छी बात है।चिंता किस बात की! आइए न!’
शिखा टाल न सकी।उन्होंने हामी भरते हुए कहा, ‘पूजा की थाली रखकर अभी आई।घर पर बता भी आऊं, वरना चिंता रहेगी।’
दस मिनिट बाद अपने वादे के मुताबिक दुष्यंत का मन रखने के लिए शिखा चली आईं।
दुष्यंत की खुशी का ठिकाना नहीं था।शिखा को अपने घर आया देखकर उनके पांव जमीं पर नहीं पड़ रहे थे।उन्हें यूं लग रहा था जैसे वे गुलाब की पंखुड़ियों से भी हल्के हवा में उड़ रहे हैं।
छोटे-छोटे वाक्यों में बंधी औपचारिक बातों के साथ शिखा ने घूमकर देखा।एक कमरे में प्रवेश करते ही शिखा के कानों में दुष्यंत की पंक्तियां गूंजी, ‘यह है मेरा कमरा, मेरा सुकून।’
शिखा यकायक लगाव महसूस करते हुए बड़ी आत्मीयता से निहारने लगी।एक ओर की पूरी दीवार पर बड़ी लकड़ी से बनी रैक, जिसमें करीने से किताबें सजी थीं।इतनी किताबें? निहारती रहीं।जाने कितने किस्से, कहानियां, कोमल शब्दानुभूति चारों ओर तैरती प्रतीत हुईं।
‘आगे बढ़िए।’ वे दुष्यंत के आग्रह से चौंक पड़ीं।एक ओर वाद्ययंत्र रखे थे।दूसरी ओर एक कोने में मेज पर खेल का कुछ सामान रखा था।शायद इनके बच्चों के बचपन की यादें हैं…।शिखा ने सोचा।
‘आप सोच रही होंगी, ये खेल का सारा सामान बच्चों का होगा! लेकिन नहीं, ये सब मेरे ही साथी हैं।’
वे आश्चर्य से भर उठीं।हकीकत में ऐसा कैसे हो सकता है।ये सब एक साथ, एक जगह!
शिखा का मन खुशी से भर उठा।सांसें फूलने लगीं, धड़कनें तेज हो गईं।वे अपने भीतर की प्यास को बाहर देख स्थिर नहीं रह पा रही थीं।ये सब तो उनकी भीतरी ख्वाहिशें हैं, जिन्हें वे बरसों से अपने भीतर ही भीतर जीती रही हैं।अनायास ही उनके मुंह से निकला, ‘वाह…’ इसके साथ ही उन्होंने दोनों हथेलियों से अपना मुंह ढांप लिया।फिर कुछ संकोच और हैरानी से पूछा, ‘क्या आप इन सबके शौकीन हैं? ये सब चीजें एक जगह, एक व्यक्ति में कैसे हो सकती हैं?’
दुष्यंत शिखा की हालत देखकर बड़ी आत्मीयता से मुस्कराकर बोले, ‘शौकीन नहीं, बल्कि यूं कहिए कि ये मेरी आत्मा की सुकून भरी अभिव्यक्ति हैं!’
‘आप खुशकिस्मत हैं कि आपने अपने सभी शौक पूरे किए।’
‘आपको यह सब पसंद है?’ दुष्यंत ने शिखा के चेहरे के पास थोड़ा झुककर पूछा।
शिखा के भीतर की तड़प, अतृप्त आशाएं, ख्वाहिशें एकत्र होकर मन की रिक्त धरती को कंपायमान कर रही थीं।
‘हां, ये सब शौक मुझे भी हैं…।’ अटकते हुए कंपित शब्दों में शिखा बस इतना ही कह पाईं।
‘बहुत प्यारे शौक हैं ये…अगर कोई सलीके से इन्हें संजोए।’ दुष्यंत कहने लगे, ‘जीवन में कैसी भी विकट परिस्थितियां आईं, उतार-चढ़ाव आए, कठिनाइयां, अवसाद, संघर्ष के वक्त मैं इन्हीं का दामन थाम लेता था।इनका सान्निध्य मुझमें सुकून भर देता था।अपनी रुचि को जीना जीवन की कठिनाइयों में भी अपार सुकून देता है।मेरे लिए ये सब वाद्ययंत्र मात्र नहीं हैं, जीते जागते इंसान हैं, जो दुनियावी इंसानों से अधिक खरे और सच्चे हैं।’
दुष्यंत बहुत धैर्य के साथ ठहरे-ठहरे शब्दों में अपनी बात कह रहे थे।शिखा भी ध्यान से उनकी बातें सुन रही थीं।फिर पूछा, ‘आप यह सब बजा लेते हैं? कहीं सीखा होगा?’’
‘सीख तो ज्यादा नहीं पाया पर अभ्यास, लगन से बहुत कुछ सीख गया हूँ।सुनाऊं कुछ?’
‘मुझे सिखाएंगे?’
‘आ पाएंगी, रोज सीखने?’
‘पता नहीं, कह नहीं सकती!’
‘फिर कैसे सीखेंगी?’
‘यह भी पता नहीं…।’ कहते हुए शिखा की आंखों में सूनापन उभर आया।
‘यूं उदास क्यों हो गईं? बताएं क्या सुनाऊं?’
‘कुछ भी…।’
‘बैठिए, तार छेड़ता हूँ।’
शिखा मंत्रमुग्ध-सी दुष्यंत की अंगुलियों का जादू देखतीं-सुनतीं रहीं।भीतर उठने वाली भावुक तरंगों को व्यक्त नहीं कर पा रही थीं, क्योंकि कुछ भी स्थिर नहीं था।आवेग की आवृत्ति में सबकुछ घुलमिल गया था।कैरम की बाजी का लोभ छोड़ न सकीं।समय का पता ही नहीं चला कि कब बीत गया था।
स्त्री-पुरुष के बाह्य आवरण छूट-से गए थे।वहां जो कुछ था, वह सब भावात्मक और बालमन में लिपटा स्वछंद बचपन का सुनहरा वक्त था।किसी स्त्री-पुरुष के बीच सम्मान और आत्मीयता की पराकाष्ठा क्या होती है, वे पल उस स्थिति को उद्घाटित कर रहे थे।
अचानक शिखा उठीं और आनंदमय चित्त से चकित–सी मन के उमगते, चंचल भावों को स्थिर करते हुए उन्होंने वीणा के तारों को कोमल अंगुलियों से नजाकत के साथ छुआ।छूटी झ…न…न…न… की झंकार ने रोम–रोम की जाने कितनी परतों को छूते हुए अनगिनत सपने एकत्र कर पुन: बिखेर दिए।
उम्र से परे बच्चों जैसे बने दोनों के आस–पास कोई तनाव नहीं था, था तो सिर्फ अपनत्व और हँसी के सुरीले सुर।
उमंग और उच्छ्वास से भरी शिखा के घर पहुंचते ही सारी खुशी काफूर हो गई।घर पर ताला था।वे क्या करें! उनके पास चाबी भी नहीं।फोन भी नहीं।कम से कम मुझे बताकर या चाबी देकर जाते।शिथिल कदमों से पुन: दुष्यंत के घर चली आईं।
‘क्या हुआ?’
‘घर पर ताला है, मैं फोन भी नहीं लाई थी।वे सब कहीं बाहर गए होंगे! सुबह तक तो ऐसा कोई कार्यक्रम नहीं था उनका।’ शिखा के चेहरे पर गहन उदासी, अफसोस छा गया था।
‘आप तो कह रही थीं कि वे इंतजार कर रहे होंगे!’
शिखा की गरदन झुक गई।
‘आप मेरे घर आने का कह कर आई थीं।कहीं जाना था तो कहकर जा सकते थे।’ दुष्यंत ने कुछ रुखाई से कहा।
शिखा बहुत असहज महसूस कर रही थीं।कुछ देर पहले के चंद घंटे उसके जीवन के बहुत कीमती आत्मीय पल थे और अब…।
रात को जब सब डिनर पर बैठे तो उन्होंने अपनी नारागजी बहुत विनम्र शब्दों में व्यक्त की थी, ‘बाहर जाना था तो चाबी देकर, कह कर जाते।’
‘कहना क्या था, आप थोड़ी देर का कहकर गई थीं लेकिन चार घंटे नहीं आईं।वहां इतना समय! हमें क्या पता था कि इतनी देर आप वहीं थीं या कहीं और…आप तो सब कुछ भूल कर स्वच्छंद हो गईं।’’
‘बस करो अमृता!’ कहते हुए शिखा खाना छोड़कर उठकर चली गईं।दिन-ब-दिन उनकी मानसिक हालत बिगड़ती गई।
वे बार-बार सोच रही थीं कि दुष्यंत को फोन कर मन हल्का कर लें।घर से बाहर जाने का तो उनका मन कतई नहीं था।
उन्हें सहज याद आया कि एक दिन दुष्यंत ने बड़े संकोच से उससे मोबाइल नंबर मांगे थे।उन्होंने हँसकर कहा था, ‘यूं तो आप मुझसे बेझिझक बतिया लेते हैं, अधिकार से समझा भी देते हैं और मोबाइल नंबर मांगने में इतनी झिझक?’
‘सही कहा आपने!’ दुष्यंत ने जवाब दिया था, ‘सोचता हूँ कि आपको ऐसा न गले कि मैं आपके जीवन में अधिक दखल देने लगा हूँ।’
वे हँस पड़ी थीं और उनकी हँसी के बीच अपने मोबाइल नंबर दुष्यंत को दे दिए थे।साथ ही उनके भी नंबर ले लिए थे।
उदास शिखा के चेहरे पर मुस्कान फैल गई।दोनों ने एक-दूसरे के मोबाइल नंबर सेव कर लिए थे।उन्हें लगा जैसे स्वयं किसी सुरक्षित जगह सेव हो गए हैं।जाने क्यों उस दिन दोनों को अपार खुशी मिली थी।
बहुत दिन बीत गए।वे दुष्यंत से नहीं मिल पाईं, न बात कर पाईं।वे अब कुछ नहीं करेंगी।बस यूं ही चुपचाप अपना जीवन बिता देंगी।जब बच्चे ही उसके लिए ऐसा सोचते हैं, उसका कोई ख्याल उन्हें नहीं है तो फिर…सोचते हुए वे सिसक पड़ीं।
अवसाद के पलों को जीती शिखा और अधिक विचलित होकर स्वयं को ढूंढने लगीं, जब उन्हें पड़ोस वाली सुलोचना की कही बातें याद हो आईं।अमृता इस तरह दो रूप रख सकती है! उन्हें आश्चर्य हुआ।
उन्होंने अमृता से पूछा था, ‘क्यों अमृता, सिन्हा जी ने तुम्हारी कजिन की मम्मी से शादी की है, वह भी बासठ की उम्र में।इस शादी में तुम ही सर्वेसर्वा थी! सब कुछ बड़ी खुशी से संभाल रही थी!’
‘हां, तो क्या हुआ? वे दोनों बरसों से एक-दूसरे को जानते थे।अच्छी अंडरस्टैंडिंग थी तो शादी कर ली।’
‘उनके बच्चों ने कुछ नहीं कहा?’
‘क्यों कहेंगे? उनका अपना जीवन है, वे निर्णय लेने को स्वतंत्र हैं।’
अमृता की बातें सुन कर शिखा स्तब्ध रह गई थीं।उन्होंने कुछ ऐतराज भरे शब्दों में कहा था, ‘तुम इन सबको सही कहती हो।फिर मेरे दुष्यंत के घर जाने पर तुमने कितना हंगामा किया!’
‘सही किया! आप ऐसा कैसे कर सकती हैं! लोग क्या कहेंगे! सोसायटी में हमारी क्या इज्जत रह जाएगी! और अब किसी के साथ मेल-जोल बढ़ाने का क्या मतलब! हमारी नाक कटवा कर रख दी।कुछ तो शर्म कीजिए!’ कहते हुए अमृता पैर पटकते हुए वहां से चल दी थी।
उस घटना के बाद शिखा का मन घर से उचाट हो गया।उन्हें लगा कि उन्हें बोलना चाहिए।चुप रहकर वे स्वयं को दोषी, गुनहगार बना लेती हैं।रिश्ते निभाने, सब कुछ सही चलते देने की आड़ में खुद का जीवन घुटन से भर देना कहां का न्याय है।
मैं जीना चाहती हूं।दुष्यंत की कई कॉल आ चुकी थीं।मिलें, बतियाएं, कई दिन और बीत गए, पर वे अभी भी अपने घर की चहारदीवारी से अथाह प्रेम किए बैठी अपने वजूद के लिए छटपटा रही थीं।बहुत मन है खुली हवा, खुले गगन में सांस लेने का।दुष्यंत के साथ कहीं घूमकर आने का।वे चाहती हैं कि दुष्यंत आग्रह करें और वे साथ चल पड़ें।
आखिर उसने ओढ़े हुए नित्य के कार्यों से खुद को दरकिनार किया।मोबाइल पर दुष्यंत के मैसेज पढ़े।बार-बार एक ही मैसेज, ‘आप बहुत दिनों से दिखाई नहीं दीं।आप ठीक तो हैं? आप मेरे मैसेज का जवाब नहीं देतीं।क्या बात है? कोई विशेष बात हो गई क्या? प्लीज, बताइए क्या हुआ? आप कहां और कैसी हैं?’
ये सब मैसेज पढ़कर शिखा की आंखें भर आईं।उन्हें लगा कि कोई है, जो उनकी फिक्र करता है।अपनत्व की एक हिलोर उन्हें छूकर चली गई।यकायक दुष्यंत की कॉल आई।उन्होंने अविलंब उसे अटैंड किया, ‘हेलो…!’
‘कैसी हैं आप? क्या बात है, दिखाई नहीं दीं।आप ठीक तो हैं! घर ही हैं या मुझे इत्तिला किए बगैर कहीं बाहर चली गई हैं।’
‘घर ही हूँ।कहीं नहीं गई।’
‘फिर दिखाई क्यों नहीं दीं? आप तो संगीत सीखने का कह रही थीं और उसके बाद जाने कहां गुम हो गईं!’
मौन…
‘कुछ कहेंगी नहीं! मैं सब समझ गया हूँ।आप आइए, कोई समस्या है तो मुझे बताइए!’
फिर मौन…।
‘मैं जान गया! आपने परंपरात विचार ओढ़कर स्वयं को कैद कर लिया है।दूसरी बात, आपने आज तक जो कुछ किया, मन उसकी गणना कर रहा है कि क्या कुछ गया और क्या कुछ बचा! इस वक्त आपके पास सब कुछ रिक्त है, आपने जो संचित करना चाहा, वह सब टुकड़ों में बंटा तमाम उम्र की तपस्या साथ ले गया है।अभी वक्त है संभल जाइए।’
‘मैं क्या करूं? मैं इस घुटन भरी अविश्वास की स्थिति से स्तब्ध हूँ।मैं कुछ और नहीं तलाश रही हूँ।मैं तो शिखा को ढूंढ रही हूँ…।’
‘वह ऐसे नहीं मिलेगी! आपने उसे बरसों से परत-दर-परत जाने कितनी परतों के नीचे दफन कर दिया है! एक-एक परत उतारिए, उन परतों को जीवन से दूर कीजिए और फिर शिखा से मिलिए!’
‘बिलकुल ठीक कहते हैं आप, पर कैसे?’ शिखा का असमंजस में डूबा स्वर सुनाई दिया, ‘मुझे कुछ समझ नहीं आता।’
‘जीवन में जिम्मेदारियां सहज होकर निभाई जाती हैं, वजूद भुलाकर, खुद पर ओढ़कर नहीं।इस तरह तो इंसान अपनी जिंदगी कभी जी ही नहीं पाएगा।विडंबना देखिए शिखा जी, वह औरों से अपने लिए अपेक्षाएं रखता है, और स्वयं दूसरों के लिए खुद को खत्म कर देता है।’
‘आप तो तटस्थता की बात कर रहे हैं।यह सब बहुत मुश्किल है, जब हम अपने बच्चे और परिवार पाल रहे होते हैं।’ शिखा ने दुष्यंत की बात को नकारते हुए कहा।
‘बिलकुल इसी स्थिति में तटस्थता की, निर्लिप्तता की अधिक आवश्यकता होती है।यही तो गलती करते हैं हम कि यह तो हमारी जिम्मेदारी है, हमारा दायित्व है, ऐसा होता ही है या ऐसा तो करना ही पड़ता है…जाने क्या-क्या सोचकर जीवन को जटिल बना लेते हैं और उस जटिलता में सबसे बड़ी एवं पहली आहुति स्वयं की देते हैं।जीवन का फलसफा समझिए शिखा जी…।’
‘जी…।’
‘हम परिवार या औलाद के लिए जो भी करते हैं, बदले में आशा लगा लेते हैं।बच्चों से भविष्य की अनेक आशाएं पालकर उन्हें बांध देते हैं और खुद भी उसी दायरे में बंध जाते हैं।बच्चे बड़े होकर बदलते वक्त के साथ स्वयं जीवन की जटिलताओं, आपाधापी में घिरकर संघर्षरत होते हैं, उन्हें जिम्मेदारियां बोझ लगने लगती हैं।इसलिए कहता हूँ, स्वयं भी मुक्त रहो, उन्हें भी मुक्त रखो।’
‘फिर तो परिवार नामक संस्था ही टूटकर बिखर जाएगी!’
‘परिवार नामक संस्था सदस्यों के एक छत के नीचे साथ रहने से नहीं, बल्कि खुशहाल आत्मीय रिश्तों से सजीव रहती है और अगर सजीव नहीं है तो मृत को कितने दिन ढोएंगे!’
कुछ क्षण फिर मौन छा गया।शिखा से जवाब देते नहीं बना।
‘एक बात कहूं शिखा जी! बात बड़ी गंभीर है।कहने से पहले मैं आपसे माफी मांग लेता हूँ।’ दुष्यंत कुछ रुके।
‘कहिए न! अब किस बात की माफी! आप निःसंकोच कहिए…।’
‘मैं तमाम उम्र के लिए आपका साथ देना चाहता हूँ और आपका साथ स्वयं के लिए मांगता हूँ।उम्र के इस दौर में आने वाले भविष्य के एक निर्मल, सुद़ृढ़ मानसिक साथ चाहिए।इस उम्र में सच्चे सहारे की जरूरत होती है।जीवन का यह पड़ाव जितना सच्चा और शुद्ध होता है, उतना ही खोखली दुनिया के तजुर्बों से एकाकी और तन्हा।सब कुछ होते हुए भी मानसिक, आत्मिक पूर्ति के लिए साथी की जरूरत होती है।क्या मेरे साथ मेरी हमसफर बनकर रहना चाहेंगी।’
शिखा स्तब्ध रह गईं।उनके मुंह से स्वर ही नहीं निकला।
‘क्या हुआ? हेलो…हेलो…हेलो…कहिए न कुछ!’
अप्रत्याशित प्रस्ताव! दो विपरीत धु्रवों के बीच फंसीं शिखा के मन में एकाएक अनेक तूफान, एक साथ उठे।किसकी सुने! वे ऐसा कैसे कर सकती हैं? घर–गृहस्थी में कभी खुशी, कभी तनाव चलता ही है, बच्चे आज खफा हैं, कल सब सही होगा।मुझे धैर्य रखना है।कोई भी गलत कदम नहीं उठाना…।नहीं, नहीं।ऐसा–वैसा कुछ भी नहीं करना।
‘क्या हुआ? आप चुप क्यों हैं? अगर आपको ठेस लगी तो प्लीज क्षमा कर दें।जानता हूँ, फिर कहीं उलझ गईं आप।अंत में इतना ही कि बच्चे अपने जीवन में काफी आगे निकल चुके हैं और वे अपनी दुनिया में मस्त हैं।उनकी आपके प्रति बंधी-बंधाई सोच है कि मम्मी को अब क्या चाहिए! पूरा जीवन तो जी लिया, अब अंतिम पड़ाव पर घर में आराम से रहें।घर की रखवाली करें, खाएं, पीएं, भजन करें! उन्हें पता नहीं है कि कितनी ख्वाहिशें आपके सीने में दफन हैं, जिन्हें आज के फुर्सत के वक्त के लिए संभाल रखी हैं।शायद किसी के लिए उनके होने न होने से कोई फर्क नहीं पड़ता।’ कहते हुए दुष्यंत ने फोन काट दिया।
शिखा के सीने में आग सुलगने लगी।बिछड़ी शिखा से मिलने को आतुर हो उठीं।दो विपरीत ध्रुवों, दो विपरीत रास्तों में से एक को चुनना था।
आखिर कुछ दिनों की ऊहापोह यथार्थ स्थिति से रूबरू होती शिखा एक दहलीज छोड़ दूसरी दहलीज की तरफ बढ़ चलीं।जेहन में शब्दों के तीर चलते रहे-
‘बुढ़ापे में यह महिला अपने परिवार, बेटे-पोतों की परवाह किए बगैर प्रेमी के घर जा बसी।उम्र का ख्याल न करते हुए बेशरमी की हद पार कर दी।परिवार कहीं मुंह दिखाने के लायक नहीं रहा।बेटा-बहू ऐसी मां को कोस रहे हैं…।’
इन तीरों से बिंध, छलनी होती शिखा पसीने से तर-बतर हो गईं।ऐसे ही तीर क्यों? कुछ ऐसे सुकून भरे शब्द भी हो सकते हैं-
‘आज समाज को ऐसे ही उचित कदम की दरकार है।उम्र के इस पड़ाव में अकेलेपन को मिटाकर खुशहाल जीवन जीने का सही कदम, सही निर्णय है।जीवन की घुटन से निकल कर जिंदादिली से जीने का हक हर इंसान को है।एक सराहनीय कदम है ये।’
सराहनीय कदम के साथ प्रसन्न मुद्रा में शिखा ने अपने कदम दुष्यंत के घर की दहलीज पर रखे-
‘नीरज, जी लूं न, जी भरकर?’ मन ही मन नीरज से इजाजत लेते हुए शिखा कदम बढ़ा रही थीं।
उस घर के अंदर बसी अपार खुशियां उनका इंतजार कर रही थी।उन्होंने अपना निर्णय खुद लिया है, यह खुशी उनके मन में नहीं समा रही थी।डोरबेल बजाई।दुष्यंत ने जैसे ही दरवाजा खोला, फोहे-सी हल्की जिंदगी को दामन में लिए वे आगे बढ़ीं और दुष्यंत के कुछ भी कहने से पहले ही कंधे पर सिर रखते हुए उनका हाथ थाम लिया।
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All Paintings : Gautam Mukharjee
खूबसूरत कहानी। एक श्रेष्ठ निर्णय। जीवन एक बार मिलता है और बुढ़ापे में जीवनसाथी का न होना सच में कष्टकारी। औरत के जीवन में त्याग के साथ ऊर्जा भी प्रति क्षण क्षीण हो कर केवल एडजेस्टमेंट में खर्च हो जाती है।
बहुत प्यारी कहानी। पहल करनी चाहिए समाज को भी इस निर्णय में साथ देने की। बधाई कीर्ति शर्मा जी💐
शानदार और असरदार भी।