सुपिरिचित कवि। अद्यतन कविता संकलन ‘इन हाथों के बिना’। केदारनाथ अग्रवाल स्मृति शोध संस्थान से जुड़े।
जब मैं पैदा हुआ था
चांद में बैठी एक बुढ़िया की चर्चा हो रही थी
बुधिया के काम के बारे में
हर आदमी के अलग-अलग विचार थे
पचास साल के आस-पास थे पिता
इन दिनों काफी हलकान थे
औरगांव में चर्चा में थे
देश में इन दिनों चर्चा में थे पंचशील
जिन्हें लेकर नेहरू हर हफ्ते विदेश जाते थे
बदले में ले आते थे गेहूं
हम लगातार पंद्रह साल तक
अमेरिका का गेहूं खाते रहे और
अपने खेतों के कांस-कुश से जूझते रहे
धीरे-धीरे नेहरू बूढ़े हुए और हमारी चिंता में
घुलते हुए खत्म हो गए
नेहरू जब खत्म हुए उस समय हम
भांखडा नांगल का पाठ
अपनी कक्षा में पढ़ रहे थे
खेतों में गेहूं उगने की शुरुआत हो गई थी
इन पंद्रह सालों के बीच में
मुझे जहांतक याद है
गांव का एक भी आदमी
अपने खेतों में फाँसी लगा कर नहीं मरा था
भूख थी लेकिन भूख की चिंता
आंखों में दिखाई नहीं देती थी
आंखों में भूख से लड़ने के सपने थे
भूख हमारी थी तो सपने भी हमारे थे
भूख और सपनों से मिला जुला मन
हमें फाँसी लटकने से बचाता रहा
हम सब कुछसहते हुए
अपने सपनों को बचाए हुए थे
धीरे-धीरे हमारी आंखों के सपने
खेतों में न उगकर
बाजार में उगने लगे
तो किस बूते अपनी धरती पर टिकते
हमारे पैर
जब आंखों के सपने चुक जाते हैं तो
आंखें बंद हो जाती हैं
इसे हत्या कहें तो ठीक और
आत्महत्या कहें तो आपकी मर्जी।
संपर्क: डी. एम. कालोनी, सिविल लाइन, बांदा-210001 मो, 9450169568
यथार्थ है
‘भूख हमारी थी तो सपने भी हमारे थे’…….समसामयिक और यथार्थ की धरातल पर उभरी बेहद मार्मिक कविता है। नरेन्द्र सर को साधुवाद। आजकल की जो समस्याएं हैं, उससे मनुष्य और उसकी मनुष्यता समाप्त होती जा रही है और इंसान का अंतर्मन तो कब का आत्महत्या कर चुका है। इसे भी हम ‘मौन की मृत्यु’ कह सकते हैं।
एक कविता जिसमें नेहरू के समय से आज के समय तक की अद्भुत तुलना है और इसके विषय में कहा गया है कि उस समय भूख से लडने का सपना था पर अब भूख बाजारों में उतर गया है बेहद आसान भाषा में बेहद सुंदर और वजनदार बात कही है कवि ने। कवि ने अनाज को सपना कहकर कविता को चमत्कृत कर दिया है और प्रसंग और कविता की यथार्थता के बीच बहुत ही पतला और अटूट रिश्ता रखा है जिससे कविता जीवंत हो उठी है। वाह बहुत सुंदर। हृदय को छू लेने वाली कविता है यह।
कृषक हत्या के संदर्भ में बहुत सुंदर अभिव्यक्ति ।
संवेदनशील एवं संदेशवाहक 👏👏👏
Antim Chhand …Jab Aankho Ke Sapne Chuk Jate Hain To Aankhe Band Ho Jati Hain…Amezing … Awesome…Mind Blowing Lines…
“भूख हमारी थी तो सपने भी हमारे थे’ समसामयिक और यथार्थ की धरातल पर उभरी बेहद मार्मिक कविता है। नरेन्द्र सर को साधुवाद। आजकल की जो समस्याएं हैं, उससे मनुष्य और उसकी मनुष्यता समाप्त होती जा रही है और इंसान का अंतर्मन तो कब का आत्महत्या कर चुका है। इसे भी हम ‘मौन की मृत्यु’ कह सकते हैं।