वरिष्ठ आलोचक और कवि। प्रमुख कृतियाँ : ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘महादेवी के काव्य का नेपथ्य’। भवानी प्रसाद मिश्र और नंददुलारे वाजपेयी ग्रंथावली का संपादन।

साहित्य के समीकरण

बीसवीं सदी में आजादी से पहले और बाद के दिनों में या इधर लिखे गए साहित्य को देखता हूँ तो जैसी लोकप्रियता मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन या सुभद्राकुमारी चौहान को मिली या फिर इनसे पहले भारतेंदु को, वैसी और उसी मात्रा में प्रसाद-निराला-पंत और महादेवी को क्या मिल पाई? क्या अपने समय और समाज में ये उतने लोकव्यापी हो सके जिस तरह पहली वाली धारा के कवि? उत्तर होगा-नहीं। फिर भी विदग्ध-प्रवर समुदायों में इनकी प्रतिष्ठा तुलनात्मक तौर पर अधिक ही रही। पहले के कवियों के संदर्भ में सुनी जानेवाली प्रवृत्ति खूब थी, जो छायावाद तक आते-आते प्रायः नहीं बच सकी। एक और बात है, पिछले खेमे की कविता के पाठकों और श्रोताओं को अपनी ओर से कल्पना करने या सोचने की जरूरत कोई खास नहीं थी, पर हाल के कवियों के संदर्भ में वह लगभग अनिवार्य-सी हो उठी। फिर इन कवियों का अर्थ-संस्कार अपने भाव-संसार के साथ तुलनात्मक रूप से हमसे एक ऐसी सांस्कृतिक सचेतनता और सूक्ष्म संवेदनशीलता की मांग करता था, और आज भी करता है, जिसकी पूर्ति वह पाठक वर्ग तो नहीं ही करता, जिसने साहित्य को मात्र एक श्रवण-व्यापार मान रखा है।

इधर जबसे जरूरत से ज्यादा गंभीर साहित्य लिखा जाने लगा है, उसके पाठकों की संख्या बेहद कम हो गई है। कविता के संकलन तो पांच सौ या तीन सौ से अधिक नहीं छपते। अगर पाठ्यक्रमों में स्थान पा गईं किताबों की बात छोड़ दें तो इससे बाहर रह जानेवाली किताबों में से बहुत कम ऐसी हैं जिनका दूसरा या तीसरा संस्करण हो पाता हो। दूसरी ओर, ऐसे लेखक रहे हैं जिनकी किताब का प्रकाशन हजारों में होता है, पर दस-बीस या तीस सालों के बाद न कोई पाठक उन्हें खोज कर पढ़ना चाहता है न प्रकाशक छापना। तब यह सोचना होगा कि ऐसी निराधार लोकप्रियता किस काम की? मेरे किशोर और यौवन काल में गुलशन नंदा, कुशवाहा कांत, प्यारे लाल ‘आवारा’, गोविंद सिंह, प्रेम वाजपेयी जैसे लेखक थे, जिन्हें आम लोग जमकर पढ़ते थे। आज की पीढ़ी ने उनका नाम शायद ही सुना हो, सुना भी हो तो उन्हें पढ़ना अब शायद ही कोई चाहे। इधर के सालों में अंग्रेजी में चेतन भगत, अमिष त्रिपाठी जैसे लोकप्रियतावादी लेखक कुछ उसी तरह पढ़े जाते हैं।

उन लेखकों के बारे में सोचता हूँ तो लगता है कि वे अपने-अपने जमाने के ऐसे मनोरंजक लेखक हैं जिनमें कथा की रोचकता और किस्सागोई तो खूब है, पर हमारे यथार्थ जीवन के प्रश्नों और उनसे मुठभेड़ करते पौरुषपूर्ण उद्यमों की इबारतें नहीं के बराबर हैं। चूँकि मनोरंजन-खोजी पाठक-समूह देर तक एक ही प्रकार का भोजन हर रोज पसंद नहीं करता, उसके स्वाद को प्रायः नए-नए चटखारेदार व्यंजन चाहिए, अतः वह पिछले को त्याग कर आगे बढ़ जाता है।

तब क्या मान लें कि जीवन में मनोरंजन सबसे बेकार की चीज है और सुसंस्कृतों के समाज के लिए घटिया और अविचारणीय। मेरी समझ में तथाकथित भद्र या सुसंस्कृतों के समाज को भी अपनी एकरसता और ऊब से मुक्ति पाने के लिए, साथ ही स्वयं को दुबारा-तिबारा तरोताजा करने के लिए मन का यह रंजन आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है। पारंपरिक काव्य-शास्त्र में इसे ही पुनर्नवता का रस कहा गया है। इसलिए मनोरंजनात्मकता को भी जीवन की सहज मांग मानकर चलना होगा। कहानी में कौतूहल या जिज्ञासा का तत्व यही काम तो करता है।

गंभीर कहे जानेवाले साहित्य में ये तत्व नहीं हैं, ऐसा कहना सच नहीं है। रामायणमहाभारत, कुमार संभव, रघुवंश या अभिज्ञान शाकुंतल में भी यह है। पर संबंधित रचनाकारों ने अपनीकृतियों को प्रयोजनों से जिस तरह जोड़ रखा है, उससे इनकी अपनी उपयोगिता, चमक और मूल्य बढ़ गया है। ऐसा मनोरंजन हमारे लिए केवल नींद लाने का काम नहीं करता, बल्कि हमारी पीढ़ियों को सदियोंसदियों तक जगाए रखता है।

इसलिए मनोरंजन को तिरस्कार की निगाह से क्यों देखा जाए। वह जितना जीवन के लिए जरूरी है, उतना ही साहित्य के लिए। शरतचंद्र या प्रेमचंद जेसे बड़े लेखकों में भी अगर हर पीढ़ी के लिए पठनीयता बनी रहती है तो कारण यही है। प्रेमचंद के लगभग समकालीन कुशवाहा कांत, गोविंद सिंह और प्यारेलाल आवारा को आज कोई नहीं जानता, जबकि उनको और शरतचंद्र को आज भी स्वयं को धन्य करने के लिए पढ़ा जाता है। साहित्य से प्रेमचंद की बस दो ही मांगे थीं। पहली यह कि उसका प्रभाव ठोस हो और दूसरी यह कि वह अपने पाठकों को निरंतर जगाए रखे। पस्तहिम्मती और परिस्थितियों के सामने लाचार होकर बैठ जाना और रोना, प्रेमचंद का साहित्यिक स्वभाव नहीं था। इस संदर्भ में उन्हें कल्पना के घोड़े दौड़ाना या जीवन की यथार्थ भूमियों को छोड़ देना, पसंद नहीं था।

यहां पहुँच कर हम उस लोकप्रियता पर विचार कर सकते हैं जो दस-बीस या तीस साल तक किसी मौसम या महामारी की तरह पाठकों के चित्त पर घूम-फिर कर आकाश-बेलि सी छाकर हमेशा-हमेशा के लिए हवा हो जाती है या फिर एक पीढ़ी को, फसल की तरह टिड्डियों-सी चाट कर बरबाद कर जाती है। यह लोकप्रियता मनोरंजन के नाम पर एक ऐसा निकम्मापन पैदा करती है जो समाज और उसके सांस्कृतिक जीवन के लिए बेहद खतरनाक साबित होता है।

बीसवीं सदी में आजादी से पहले और बाद के दिनों में या इधर लिखे गए साहित्य को देखता हूँ तो जैसी लोकप्रियता मैथिलीशरण गुप्त, माखनलाल चतुर्वेदी, नवीन या सुभद्राकुमारी चौहान को मिली या फिर इनसे पहले भारतेंदु को, वैसी और उसी मात्रा में प्रसाद-निराला-पंत और महादेवी को क्या मिल पाई? क्या अपने समय और समाज में ये उतने लोकव्यापी हो सके जिस तरह पहली वाली धारा के कवि? उत्तर होगा-नहीं। फिर भी विदग्ध-प्रवर समुदायों में इनकी प्रतिष्ठा तुलनात्मक तौर पर अधिक ही रही। पहले के कवियों के संदर्भ में सुनी जानेवाली प्रवृत्ति खूब थी, जो छायावाद तक आते-आते प्रायः नहीं बच सकी। एक और बात है, पिछले खेमे की कविता के पाठकों और श्रोताओं को अपनी ओर से कल्पना करने या सोचने की जरूरत कोई खास नहीं थी, पर हाल के कवियों के संदर्भ में वह लगभग अनिवार्य-सी हो उठी। फिर इन कवियों का अर्थ-संस्कार अपने भाव-संसार के साथ तुलनात्मक रूप से हमसे एक ऐसी सांस्कृतिक सचेतनता और सूक्ष्म संवेदनशीलता की मांग करता था, और आज भी करता है, जिसकी पूर्ति वह पाठक वर्ग तो नहीं ही करता, जिसने साहित्य को मात्र एक श्रवण-व्यापार मान रखा है।

इस अर्थ में छायावादी साहित्य और नई कविताएं अपने पाठकों से गंभीर और सक्रिय विदग्धता की मांग करती हैं। इसके अभाव में सामान्य दर्शक या पाठक की हैसियत भूलेबिसरे उस दर्शक समूह जैसी होती है। क्या कलाफिल्मों और नए आधुनिक कवियों की रचनाशीलता में मनोरंजन के तत्वों का निषेध हाता है। उत्तर होगा नहीं। पर इसे प्राप्त करने में जैसी तैयारी की जरूरत और सजगता की कीमत चुकानी पड़ती है, उसके लिए बहुसंख्यक साक्षर समाज तैयार नहीं दिखता।

नए ढंग का कवि तब भी रचनात्मक वैदग्ध्य और संवेदनात्मक प्रखरता में अपनी प्रतिभा का सौरभ बिखेरता ही रहा है। अज्ञेय, शमशेर, मुक्तिबोध, नागार्जुन और भवानी प्रसाद मिश्र या इनके साथ और आगे-पीछे के जैनेंद्र, यशपाल, राहुल, रेणु, निर्मल वर्मा, मोहन राकेश, भारती, श्रीलाल शुक्ल या परसाई, शरद जोशी जैसे कुछ और बड़े और विलक्षण नाम हैं जिनमें गंभीर किस्म की बौद्धिकता, विलक्षण रचनात्मकता के साथ भरपूर पठनीयता भी है। शमशेर जैसों के लिए तो ‘कवियों का कवि’ कह कर सचेत-सा भी कर दिया गया है कि यहाँ कुछ विशेष किस्म की अधिक तैयारी की जरूरत है। कुछ-कुछ वैसी विदग्धता आवश्यक है जैसी महादेवी जैसी कवयित्री के संदर्भ में जरूरी हो उठती है।

इन नए ढंग के कवियों के संदर्भ में लोकप्रियता का प्रश्न कुछ अधिक गंभीर हो उठता है और मनोरंजन की मांग एक हद तक उपहासास्पद हो उठती है। तब भी इनका लेखन नीरस है, ऐसा तो कदापि नहीं कहा जा सकता। इनका रचना-रस कुछ-कुछ उसी शर्त पर पा सकना संभव है, जिसे घनानंद जैसे कवियों ने अपने कवि-कर्म के संदर्भ में पहले से मांग रखी है – ‘हिय आँखि नेह की पीर तकी’। मैं इसमें कुछ और जोड़ कर कहना चाहूंगा केवल ‘हृदय की आँख’ ही नहीं, जागरूक बौद्धिकता या बुद्धि का भी भरपूर सहयोग। यानी कि एक ऐसा पाठक जो कला-विदग्ध हो और जिसमें प्रखर लोकसजगता और समय-सचेतनता भी कम न हो। जमाने के आगे-पीछे की खबरों से भी जो वाकिफ हो। यानी एक ऐसी संवेदनात्मक सजगता जो उसे देश और काल से एक साथ जोड़े रहती है।

वैसे, लेखकों के इस नए आधुनिक समूह को न कभी अपनी गंभीरता का दावा करना पड़ा, न अन्यों को हल्का और सतही कहने की जरूरत पड़ी। इन्हीं के बीच बच्चन की लोकप्रियता फूलती-फलती रही और नीरज जेसे कवि भी पनपते रहे। भवानी प्रसाद मिश्र और नागार्जुन, दिनकर आदि भी आते-जाते रहे। अपनी अलग अदा रखनेवाले भवानी प्रसाद मिश्र तो यह मांग भी करते रहे कि हमारे शब्दों में श्रव्यता होनी ही चाहिए, क्योंकि हमारी चेतना की स्मृतियों में हजारों सालों की क्षव्यता के संस्कार काम कर रहे हैं।

यह भी अजीब बात है कि मुशायरों में सभी तरह के शायर मंचों पर शिरकत करते रहे हैं, पर नई कविता या फिर इधर के कविगण उन मंचों पर जाने में अपनी हेठी प्रदर्शित करते रहे। जहाँ तक जीवनाचार का प्रश्न है, मंचीय कवियों से इनकी भिन्नता बस इतनी है कि ये व्यावसायिकता में उनसे पीछे थे या जानबूझ कर इनसे दूर रहे और अपना एक विशिष्ट अभिजात वर्ग बनाकर जनता की बात की। जबकि जनता ने इन्हें अपना कवि मानना मंजूर ही नहीं किया और जनता भी कौन सी? वह जो विश्वविद्यालयों से लेकर संसदों, विधानसभाओं, आफिसों और वैज्ञानिक संस्थानों में अपनी ऊँची उपाधियाँ लिए सक्रिय थी। बीच में संस्कृति की अगुवाई करते अशोक वाजपेयी ने कवियों और श्रोताओं का एक चुनिंदा समूह बनाने की पहल की और इसमें उन्होंने एक हद तक सफलता भी प्राप्त की।

प्रश्न उठता है कि ऐसी गंभीरता किस काम की, जिससे न कवि का कुछ बनता-बिगड़ता हो, न उसके श्रोताओं का। उल्टे कभी भयानक ऊब और काव्य-विमुखता पनपने लगती हो। स्वयं को गंभीर माननेवाले कवियों और लेखकों को क्या इस पर कुछ सोचना नहीं चाहिए? कहीं यह भी एक प्रकार का सवर्णवाद नहीं है? क्या इन्हें यह भी नहीं सोचना चाहिए कि ‘प्रियता’ में ‘लोक’ भी जुड़ा हुआ है? लोक की अंध-उपेक्षा कर ये केवल आलोचकों के बल पर कब तक जिंदा रहेंगे? क्या आलोचकों का समूह कभी किसी कवि या कथाकार को देर तक जिंदा रख पाएगा, जब तक कि वह लोकरुचि का भी पात्र न बना रहे।

सोचना यह भी होगा कि हम अब सामंती युग में नहीं हैं, जनतांत्रिक युग के रचनाकार हैं। अगर हमारी आस्था इस विशाल बहुसंख्यक साक्षर अवाम में है तो उससे संवाद करने योग्य कला-कौशल भी हमारे सृजनात्मक दायित्व का हिस्सा है। यह इसलिए कि बासमती धान और शरबती गेहॅूं जैसी हमारी प्रजाति अति अभिजात के दावे को जीती हुई कहीं अपनी उन जमीनों के प्रति ही उत्तरदायी होना भूल जाए। और परिणामतः वहाँ गाजर घास की फसल लहलहाने लगे। हमें अपने जन-संवाद को लेकर क्यों नहीं सोचना चाहिए? याद आता है कभी तुलसी-सूर आदि ने संस्कृत का रास्ता छोड़कर ब्रज और अवधी में उतरना जरूरी माना था। गालिब जैसे सामंती धारा के लोग फारसी को एक ओर कर रेखतागोई पर उतर आए थे। हमारे अपने जमाने के स्वयं को अति गंभीर और अति विशिष्ट समझनेवाले रचनाकारों को एक दिन सोचना जरूर पड़ेगा कि हमारे शब्द विशाल जन-समूहों की खुरदरी जमीनों पर उतरकर संवाद कर सकने के योग्य कब होंगे?