युवा लेखक। प्रकाशित पुस्तक : ‘शेर–ए–गढ़वाल’ (आत्मकथात्मक जीवन वृत्त)। कुछ पत्र–पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित।
हे लछमा! उठ भुली (बहन)! उठ! ‘भारे सुंगर (सूअर)!’
लछमा नीचे खेत में निढाल पड़ी थी और उसे ऐसी अवस्था में देख रुक्मणी ऊपर खेत में खड़ी विक्षिप्त-सी होकर चीख-चिल्ला रही थी। शायद घंटे भर से बेहोश पड़ी रही होगी। रोज ही तो वह घाम निकलने से पहले घास के लिए निकल पड़ती है खेतों की तरफ। अब अकेले इतनी सुबह जंगल की तरफ जाना सुरक्षित भी तो नहीं। सरकार ने बाघों को बचाने के लिए शहरी सूअर जो छोड़ दिए हैं; और ये तृतीय अवतार शहरों के संकरे नालों से निकलकर खुले पहाड़ों पर बेतहाशा फलफूल रहे हैं। इतना कि अब इंसान इनके डर के मारे सिमटने लगे हैं। भेड़-बकरियों से लेकर गाय के बछड़ों तक, खेत में खड़ी फसलों और यहां तक कि धरती में रोपे गए बीजों तक को खोदकर चट कर जाने वाले वराह अब अपने ही भक्तों के लिए संकट बन बैठे हैं।
पलायन के कारण पहले ही गांव खाली पड़े थे तिस पर ऐसे खूंखार जानवरों का कहर। सूअर से बच भी जाओ तो सुअरों के पीछे आने वाले बाघ से कौन बचाए! रिक (रीछ) और मैस्वाग (आदमघोर बाघ) अब घरों तक आने लगे हैं। कभी भोर होते ही इंसानी चहल-पहल से गुंजायमान हो जाने वाले लछमा के गांव के वन-उपवन और खेत-खलिहान अब मरघट की भांति डरावने हो चले हैं।
डर लगे तो लगे! मौत आए तो आए! बाघ झपटे, चाहे सूअर फाड़ दे! आखिर लछमा जैसी अभागन करे तो क्या करे? कैसे अपना गुजारा करे? कमाई का कोई और जरिया है भी नहीं इस अधेड़ विधवा के पास! ऊपर से दो-दो बेटियों की शादी का खरचा जुटाना है।
दोनों बेटियों से बड़ा था संजू (संजय सिंह नेगी)। दसवीं करके फौज में लग गया था। बाप उसी बरस गुजर गया तो संजू के लाख मना करने पर भी मां ने बखत पर शादी करने के नाम पर ब्याह दिया तेईस की उमर में ही। इधर बरस भर में ईश्वर ने संजू के घर बेटी पठाई और उधर उसी को अपने पास बुला लिया। पोती और उसकी मां अर्थात शहीद संजय सिंह की वीरांगना मायके क्या गईं कि फिर कभी न लौटीं। कोरट का क्या, उसने तो ऑर्डर! ऑर्डर! कर दिया। बहनें बालिग, मां अधेड़! सबका सब मिल गया बीबी को। और जिसने पाला-पोसा, फौज के लिए तैयार किया; उसको मिला गुंठा (अंगूठा)!
मुंसिफ महोदय को कागजों में जमीन दिखी। लेकिन सुअर, बांदर और रिख-बाघ नहीं दिखे। कुलां (चीड़) के बेकाम जंगल और बंजर खेत नहीं दिखे।
इन्हीं रूखे जंगलों और बंजर खेतों में घास लेने गई थी लछमा। वह गांव में अकेली औरत थी, जिसके गुठ्यार (बाड़ा या गौशाला) में भैंस बंधी थी। बाकी सब अब एक छोटी-सी गाय भी बमुश्किल संभाल पाते हैं… बशर्ते फोन से फुर्सत मिले! वरना असली-नकली जैसा भी मिले गुजराती पैकेट जिंदाबाद!
खैर, वह जोरदार चीख सुनकर रुक्मणी तेजी से लछमा के खेत की तरफ दौड़ी। जो दृश्य सामने था उसे देखकर उसकी आंखें फटी की फटी रह गईं। लछमा लगभग अचेत अवस्था में पड़ी थी। कुछ देर पहले काटी गई भीमल के पेड़ की कोमल टहनियां वहीं आसपास बिखरी हुई थीं। यह सब देखकर अंदाजा लगाना कठिन न था कि लछमा चारा काटने के प्रयास में पेड़ से फिसलकर धराशायी हुई होगी। घंटे भर से यूं ही पड़े रहने के कारण उसके सिर से बहने वाली रक्तधार थोड़ी बहुत सूखने लगी थी। लेकिन पैर की पिंडलियों पर एक ताजा दंत घाव था और बगल में ही खड़ा था एक अर्ध-वयस्क सूअर जो लछमा को मृत समझकर मांस उधेड़ने के लिए झुका हुआ था।
डर और क्रोध से भरी रुक्मणी की चीत्कार से पूरी घाटी गूंज पड़ी। अरे माजी! हे लछमा! उठ भुली (बहन)! उठ! भारे सुंगर (सूअर)!
रुक्मणी की चुनौती सुनकर वराह महाराज के रोएं खड़े हो गए। इससे पहले कि वह क्रोधवश लछमा पर एक और घातक आक्रमण करता, रुक्मणी का शोर सुनकर दूर ऊपर एक खेत से भी शोर गूंज उठा। दो-तीन किशोर बालक जो शौच के लिए खेतों की ओट में बैठे थे, वे अपनी पतलूनें संभालते हुए खेत की मुंडेर से चिल्लाए। ‘ए बोडी (ताई) क्या हुआ?’
उन किशोरों की आवाज सुनकर रुक्मणी का साहस बढ़ गया। उसने पत्थर उठाकर वराह महाराज की खोपड़ी झन्ना दी और पूरी ताकत से चिल्लाई, ‘भारे सुंगर!’ पंद्रह-पंद्रह बीस-बीस फुट ऊंचे दसियों सीढ़ीनुमा खेतों से कूदते हुए तीनों किशोर पल भर में ही वहां आ पहुंचे। आखिरकार, वराह महाराज को मैदान छोड़ना पड़ा।
‘अरे! भुपू फोन कर भाई! गांव में किसी को फोन कर।’ भूपेंद्र के दोनों साथी उस पर चिल्लाए। मास्टर जी के तीन बेटों में से पढ़ाई में सबसे नालायक लेकिन सबसे दयालु और सामाजिक बेटा भुपू उन किशोरों में सबसे बड़ा था। पिछले साल तक ही शहर में पढ़ रहा था लेकिन वहां दसवीं पास नहीं कर पाया तो गांव से जैसे-तैसे पास करवाने के लिए मास्टर जी उसे अपने साथ गांव ले आए। उसने गांव के बाल-मंगलदल के अध्यक्ष विष्णु को फोन लगा दिया।
गांव में अब पहले की तरह न भरापूरा बाल-मंगलदल था और न ही महिला-मंगलदल। कभी छोटे-बड़े बीस-तीस युवा इकठ्ठा हो जाते थे एक ही पुकार पर। लेकिन अब दो-तीन से अधिक स्कूली युवा भी नहीं बचे हैं पूरे गांव में। बाल मंगलदल के अध्यक्ष महोदय स्वयं चालीस बरस के हो चुके हैं। खूब होशियार होने के बावजूद उन्होंने गांव के प्रति अपने प्रेम और समर्पण के कारण शहर का रुख नहीं किया और अब रोज गृहलक्ष्मी के ताने व उलाहने हँसकर सहते हैं बेचारे।
खैर, विष्णु ने स्कूल के लिए तैयार हो रहे अपने चौदह बरस के बालक को साथ लिया और गांव में ढाकी (बुलावा) देते हुए फटाफट खेतों की ओर दौड़ पड़ा। युवाओं के नाम पर अब कुल मिलाकर चार किशोर और स्वयं अध्यक्ष महोदय खड़े थे। इसके अलावा, तीन-चार महिलाएं, एकाध अधेड़ पुरुष और उतने ही बुजुर्ग रहे होंगे।
बुजुर्गों के कहे अनुसार लछमा को खाट से बांधा गया और चढ़ाई भरे टेढ़े-मेढ़े रास्तों से बचते-बचाते जैसे-तैसे घर लाया गया। कमर पर हल्दी व सरसों तेल का लेप तथा फूटे कपाल पर सूखी हल्दी का पौडर मल दिया गया। पांव पर जहां सूअर ने दांत गड़ाए थे, वहां गाय के घी को सहनीय तापमान तक गरम करके सूती कपड़े से सेंक लगाई गई ताकि जानवर के दांतों का जहर कट जाए।
शाम होते-होते लछमा की पसलियों के आसपास सूजन फैल गई। सिर से रक्त का बहाव तो रुक गया लेकिन जख्म की लंबाई चौड़ाई मुंह बाए डराने लगी। पांव का घाव फूल गया और कमर व जांघ की चमड़ी नीली पड़ गई।
जब दर्द असह्य हो चला तो लछमा ने अपनी बड़ी बेटी से पड़ोस में जाकर सुभद्रा बामणी को बुला लाने और उस अकेली बुढ़िया के लिए घर पर ही दो रोटियां सेंक देने को कहा।
बामणी ने लछमा का निरीक्षण किया। पसलियों पर सूजन देखकर पसलियां टूटने की दृढ़ आशंका जताई और पांव पर लगे दंती घाव को लेकर भय प्रकट करते हुए बोली, ‘हम तो इस धरती पर सुअर अब इस सांध्य बेला में ही देख रहे हैं; यहां खेतों में सुअर कहां हुआ करते थे! कभी साल दो साल में कोई जंगली सूअर किसी खेत में फसल उलट-पुलट दे तो अलग बात थी। लेकिन ऐसा अत्याचार कभी देखने को नहीं मिला…। सांप-बिच्छू का मंत्र तो बामणी को कंठस्थ था लेकिन ऐसी भी कोई बला देखनी पड़ेगी उसे मालूम न था।’ बुढ़िया ने लछमा की पीठ और जांघ पर सेकन करने के लिए गरम पानी में नमक डलवाया और खुद ही अपने हाथों से धीरे-धीरे उपचार करने लगी। एक तरफ वह लछमा की कमर सेंक रही थी तो दूसरी ओर उसकी नजर उसके पांव पर लगे घाव पर टिकी हुई थी।
‘अरे! पतिठा (प्रतिष्ठा)? क्या नाम है रे छोरी तेरा! जा जरा संपति लोहारन को बुला ला। मुझसे पहले की ब्याही है वह इस गांव में, शायद उसने कुछ देखा सुना हो इसके बारे में!’ सुभद्रा ने गांव की सबसे बुजुर्ग महिला को बुलावा पठा दिया।
संपति लोहारन आई। अपनी अनुभवी आंखों से घाव की जांच-पड़ताल की और बिना कुछ कहे दोनों हाथों की उंगलियों से घाव के अगल-बगल में जोर से दबा दिया। रक्त जैसे उबलकर निकल पड़ा और लछमा चीख पड़ी। लछमा ने जब कराहना बंद किया तो लोहारन ने बामणी की ओर देखते हुए कहा, ‘दो-एक दांत अंदर की तरफ गहरे गड़े हैं; कोई देशी इलाज है नहीं मेरे पास और बाकी शरीर पर भी चोटें हैं और ढलता शरीर है। घाव अपने आप भरने मुश्किल हैं…।’
‘विष्णु को बुला ला। वही कुछ जतन करेगा; शायद ब्लॉक में सरकारी अस्पताल में होगा कोई इंजकसन-फिंजकसन…।’ लोहारन ने ‘पतिठा’ को दौड़ा दिया।
कुछ देर बाद विष्णु भी पहुंच गया और अंदर-बाहर महिला-पुरुषों की भीड़ लग गई। सरकार और गरीबी को कोसने की औपचारिकता पूरी कर लेने के बाद तय हुआ कि लछमा को फिर से खाट पर बांधकर सड़क तक ले जाया जाए और वहां से गाड़ी में ब्लॉक मुख्यालय स्थित अस्पताल में दिखाया जाए।
शुरू-शुरू में तो लछमा खूब जोर देती रही कि खुद ही ठीक हो जाएगी लेकिन जब पसलियां फूलने लगीं तो उसे साक्षात यमराज दिखाई देने लगे। आखिरकार, उसने बड़ी बेटी को प्रधान जी से घी की बिक्री के पैसे लिवाने के लिए भेज दिया। प्रधान जी ने भी पुराने पैसे के अलावा हजार रुपए एडवांस में देकर 108 नंबर पर फोन घुमा दिया। वहां से पता चला कि मरीज-वाहन सप्ताह भर से खुद मरीज बनकर किसी मैकेनिक की राह देख रहा है।
खैर, अगली सुबह के लिए प्रधान जी ने जैसे तैसे एक टैक्सी करवा दी। टैक्सी वाले ने भी कुछ रियायत के साथ ब्लॉक अस्पताल पहुंचा तो दिया; लेकिन डॉक्टर साहब की जगह हाजिरी दे रहे कंपाउंडर ने एक्सरे मशीन खराब होने की मुनादी कर दी। जिरह करने पर पता चला कि कल तक तो मशीन ठीकठाक चल रही थी। लेकिन कल शाम को ही बिगड़ गई। पांच बजे के बाद कंपाउंडर साब किसी का फोन उठाते नहीं, जो किसी मरीज को घंटों मशक्कत कर यहां अस्पताल लाने से पहले पता किया जा सके कि मशीनें ठीक हैं भी या नहीं।
आखिरकार, लाल दवाई से घावों की सफाई की गई और बीटाडीन की पट्टी कर दी गई। कमर पर सूजन के लिए एक दर्द निवारक मरहम बाजार से लिखवाकर कंपाउंडर ने अपने कक्ष में ताला लगवाया और आगे बड़े अस्पताल के लिए एक पर्चे पर सिफारिश लिखकर थमा दी।
इधर, सुबह अस्पताल आते समय रास्ते में ‘अंगरेजी शराब की दुकान’ के आगे जो थोड़ी देर के लिए गाड़ी रुकी थी, उसका माल खत्म हुआ तो तीमारदारों की तलब बढ़ गई। उस जर्जर अस्पताल के पिछवाड़े चमचमाती सरकारी मधुशाला की आंख-फोड़ू रोशनी और शोर के बीच बुखार व दर्द से कराहती लछमा को अकेलेपन के साथ-साथ अपनी दोनों बेटियों की फिक्र का दंश भी सताने लगा। रात भर अस्पताल के मैले-कुचैले बिस्तर में पड़े-पड़े न जाने क्या-क्या भला-बुरा उसके मन-मस्तिष्क में विषाद उत्पन्न करता रहा।
अगली सुबह जब विष्णु घर से अस्पताल के लिए निकलने लगा तो उसकी भार्या भड़क उठीं, ‘गांव ही देखना था तो गांव से ही कर लेते ब्याह। मुझसे क्यों रचा दिया ये स्वांग? आज ये! कल वो! इस गांव की परेशानियां कभी खत्म नहीं होंगी। लेकिन मेरा जीवन खत्म हो गया इस आवारा आदमी के साथ।’ वह गला फाड़-फाड़ कर चिल्लाती रही थी और विष्णु, ‘अरे कोई नहीं जाएगा तो फिर कैसे चलेगा। एक दूसरे को कौन देखेगा। दुख सबपर आते हैं…’ कहते हुए उसे टालने की कोशिश कर रहा था।
लेकिन जैसे ही विष्णु ने चौक से बाहर कदम रखा, वैसे ही उसे पीछे से ऐसा कुछ सुनाई दिया कि वह वहीं ठिठक गया, ‘जा निर्भगी (अभागे) जा उसी पतिठा के साथ चला जा जिसकी मां के लिए अपना घर-द्वार छोड़के जा रहा है। वैसे भी उसका तो कुछ हो नहीं रहा है, मेरा तो भाग फूट ही गया। किसी और का तो भला हो। एक को नहीं दोनों को रख लेना। दूसरी कहां जाएगी वरना…!’
विष्णु की आंखों में खून उतर आया। गुस्से के मारे वह कांप उठा; लेकिन किंकर्तव्यविमूढ़ और निरुपाय होकर, सारा गुस्सा पीठ पर टंगे बस्ते पर उतार लेने के बाद वह चुपचाप अपना गौवंश लेकर खेतों की ओर चल पड़ा।
रास्ते में विष्णु ने प्रतिष्ठा को कुछ रुपए थमाए जो पंचायत से लिए गए थे और आधी सच आधी झूठ अपनी मजबूरी बताकर आगे बढ़ गया। प्रतिष्ठा पैसे लेकर ब्लॉक अस्पताल के लिए निकल गई। अस्पताल में वही कंपाउंडर, वही रेफेरल की पर्ची और गांव के एक-दो वयस्क। सरकारी गाड़ी मिलने का तो कोई सवाल ही नहीं था। तो जो दो-चार हजार का जुगाड़ हो पाया था उससे एक प्राइवेट टैक्सी की गई। दूर जिला अस्पताल पहुंचते-पहुंचते सुबह से शाम हो चली। एक्स-रे मशीन तो थी लेकिन स्टाफ जा चुका था। अब एक ग्रामीण और प्रतिष्ठा बस यही दो बचे थे लछमा के पास; और दवाइयों की कुछ पर्चियां जो जाते-जाते डॉक्टर साहब लिख गए थे बाजार से लाने के लिए।
तीन दिन हो चले थे। लछमा का दर्द तिगुना बढ़ गया था। शाम को तो मौसम में ठंडक थी लेकिन दिन में धूप के कारण गर्मी रहती थी। ऊपर से गाड़ी में धूल धक्कड़ और पसीना। लछमा को पांव में अजीब-सी वेदना होने लगी थी, खुजली और अकड़न-सी थी। घाव सफेद होने लगा था। उससे मवाद भी पैदा होने लगा था।
ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर गाड़ी के धक्कों से कमर और पसलियों की हालत और अधिक बिगड़ गई थी। सिर के घाव पर खून का थक्का तो जमने लगा था लेकिन मक्खियों ने उसे कुरेद-कुरेद कर छलनी कर दिया था। प्रतिष्ठा लगातार अपने दुपट्टे से मां को पंखा झलती, मक्खियों को भगाती, लेकिन कितना!
चौथे दिन एक्स-रे हुआ। पांचवें दिन रिपोर्ट आने पर पता चला कि पांच पसलियां टूटी हैं। तीन पसलियों पर बाल के बराबर रेखाएं दिख रहीं थीं। लेकिन दो पसलियां एकदम अलग-अलग हो चुकी थीं। पहली तीन पसलियों के इलाज के लिए तो डॉक्टर साहब ने एक इंजेक्शन लगा दिया और कंप्रेशन रैप लपेट दिया। लेकिन बाकी दो के लिए यह कहकर प्रदेश की राजधानी की तरफ रेफर कर दिया कि इनके लिए ऑपरेशन भी करना पड़ सकता है और जल्दी नहीं किया गया तो फेफड़े को भी नुकसान हो सकता है और अंत में न्यूमोनिया होकर जान भी जा सकती है।
अपने केबिन में बैठकर एक्स-रे पर आंखें गड़ाए डॉक्टर साहब जब यह सब बता रहे थे, तब प्रतिष्ठा वहीं बैठी-बैठी सुबकने लगी थी। उसके पास अब घर की बचत के केवल दो तीन-हजार रुपए ही बचे थे जो भाड़े की टैक्सी से देहरादून जाने तक का किराया मात्र था। अंत में उसने मां को एक टैक्सी में डलवाया और गांव से लेकर शहर तक की सड़कों के किनारे जगह-जगह लगे करोड़ों-अरबों रुपए के अनगिनत होर्डिंगों व बैनरों पर हाथजोड़े माननीयों के बड़े-बड़े दावों तथा बधाई संदेशों को सजल आंखों से घूरती हुई देहरादून पहुंच गई।
छठे दिन शाम से देहरादून के सबसे बड़े सरकारी अस्पताल के बारामदे में स्ट्रेचर के लिए कराह रही लछमा रातभर वहीं गर्मी व उमस में तड़पती रही। एक डॉक्टर साब आए तो जरूर लेकिन इस तरह छूकर निकल गए मानों कोढ़ के मरीज को छू रहे हों। जाते-जाते दर्द का एक इंजेक्शन लगा गए और सुबह के लिए कुछ परीक्षण लिखवा गए। अब के एक्स-रे में छाती में पानी जमा होने के संकेत प्रकट होने लगे थे। पांव का घाव उबलने लगा था। प्रतिष्ठा निढाल थी और लछमा बेहोशी से उठ-उठ कर कभी प्रतिष्ठा! प्रतिष्ठा! चिल्लाती तो कभी अपनी छोटी बेटी का नाम लेकर रोने लगती। सूचना मिलने पर गांव के कुछेक देहरादूनी पहुंचे, अपनी-अपनी क्षमता अनुसार कोई बाजार से दवाई लाकर दे गया तो कोई दो-चार सौ रुपए पकड़ा गया।
प्रतिष्ठा का जैसे-तैसे चल गया, लेकिन लगातार पांच दिन तक बरामदे में लेटी-लेटी अस्पताल का बिस्तर खाली होने की राह देखती लछमा का नहीं चल पाया, धीरे-धीरे उसकी सांस उखड़ने लगी। डॉक्टर साब कोई एक टेस्ट करके बाजार से दवाइयां लिख देते तो पूरा दिन दवाइयां जुटाने में ही चला जाता। प्रतिष्ठा को कुछ समझ नहीं आ रहा था कि वह क्या करे। किसके पास जाए। कैसे हजारों की इस भीड़ के बीच अपनी मां के लिए बिस्तर लिवा ले। आखिर किसको धकेल दे। खैर, धकेलने वाले तुरंत आकर अपने मरीज को अंदर धकेल दे रहे थे लेकिन ऐसा धक्का देने वाले प्रतिष्ठा को कहां से मिलते? अंत में, उसे धक्का तब लगा जब मां अचेत हो गई और कई जतन करने पर भी उठ न सकी। प्रतिष्ठा के रुदन से अस्पताल भर्रा कर गिर ही पड़ता कि अस्पताल के स्टाफ ने संभावित बवाल से बचने के लिए मां को आईसीयू में पटक दिया। जिंदा या मुर्दा भगवान ही जाने। खबर मिली कि ठीक तेरहवें दिन लछमा अपनी छाती में भरे पानी और सिस्टम में पड़े मवाद में डूब गई!
संपर्क सूत्र : ग्राम व पोस्ट – कांडा मल्ला, ब्लॉक – बीरोंखाल, जिला – पौड़ी गढ़वाल, उत्तराखंड– 246276मो.8879615663