लेखक, भाषाविद और अनुवादक

(1949-2014)। प्रसिद्ध मराठी कवि। दलित पैंथर आंदोलन के संस्थापक। अपने प्रथम कविता संग्रह ‘गोलपीठा’ से ही चर्चित।

 

मैं भाषा के गुप्तांग में
यौन रोग से पैदा हुआ घाव हूँ
हजारों उदास दयनीय आंखों से
झांक रही जीवित आत्मा ने
मुझे कंपकंपा दिया है
अपने भीतर के विद्रोही विस्फोटों से
मैं बिखर गया हूँ
कहीं नहीं कोई चांदनी
कहीं नहीं कोई पानी
एक उग्र हिंसक लोमड़ी अपने दांतों से
नोच रही है मेरी देह का मांस
एक भयानक जहरीली क्रूरता
फैल जाती है चारों ओर मेरी शरारती हड्डियों से
मुझे मेरी नारकीय पहचान से मुक्त करो
मुझे इन सितारों से करने दो प्यार
एक खिलता हुआ नीलपुष्प
फैलने लगा है क्षितिज की ओर
दरके हुए चेहरे पर उभरने लगा है
एक नखलिस्तान
फैले हुए भगद्वारों पर उठने लगा है चक्रवात
एक बिल्ली व्यथा के बालों में
करने लगी है कंघी
रात ने मेरे क्रोधोन्माद के लिए
पैदा कर दिया है अवकाश
एक आवारा कुत्ता
खिड़की की आंख में नाचने लगा है
एक शुतुरमुर्ग की चोंच
बिखरे कचड़े को खोद रही है
एक मिस्री गाजर
दैहिक यथार्थ का मजा लेने लगा है
एक कविता एक लाश को
उसकी कब्र से जगा रही है
आत्मा के दरवाजे जोर से किए जा रहे हैं बंद
अब सभी सर्वनामों के भीतर से
खून की धाराएं बहने लगी हैं
मेरा दिन व्याकरण की चौहद्दियों से
बाहर निकलने लगा है
ईश्वर का मल सृष्टि के बिस्तर पर लगा है
दर्द और रोटी एक ही तंदूर में सिंक रहे हैं
नंगी देह के शोले
मिथकों एवं लोकगीतों में दहक रहे हैं
वेश्यावृत्ति की चट्टान पर
हो रहा है जीवंत जड़ों का मिलन
एक आह लंगड़े पांवों पर खड़ी है
शैतान ने लंबे खोखलेपन का
ढोल पीटना शुरू कर दिया है
एक जवान हरी पत्ती
कामनाओं की डाल पर झूलने लगी है
हताशा की लाश सिली जा रही है
एक विकृत सोच अमरत्व की मूर्ति उखाड़ रही है
धूल कवच के रेशे उघार रही है
अंधेरे की पगड़ी उतरने लगी है
तुम, अपनी आंखें खोलो : ये सारे शब्द पुराने हैं
नाली में भर रही है एक उफनती हुई ज्वार
विकराल लहरें तट को छूने लगी हैं
फिर भी, मेरी शरारती-हड्डियों से
फैलती है एक जहरीली क्रूरता
स्वच्छ और निर्मल, जैसे नर्मदा नदी का पानी।

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