युवा लेखिका और अनुवादक। ‘ एक थी इंदिरा’ किताब का लेखन। प्रमुख अनुवाद : ‘भारत का इतिहास’ (माइकल एडवर्ड), ‘मत्वेया कोझेम्याकिन की ज़िंदगी’, स्वीकार’ (मैक्सिम गोर्की), ‘ग्वाला’ (अन्ना बर्न्स)आदि।
1-अकेली सांझ में लड़की
अकेली सांझ में लड़की
अकेली नहीं होती
वह पूछती है
चांद का पता
आसमान के आंगन में खेलती पतंग से
और नाप आती है उसी के साथ
हज़ारों आकाशगंगाएं
अपनी खाली आंखों में
वह छिपाए रखती है
मृणाल की आंखें
अशोक की करुणा
और तिश्यरक्षिता का प्रतिशोध
वह हो जाना चाहती है
भामती का दीया
गार्गी का अति प्रश्न
और यशोधरा की नींद
वह मीरा बनकर खोजना चाहती है
राबिया की सुई
ताकि सी सके
समय की हर उधड़न
अकेली सांझ में लड़की
अतीत के दंडकारण्य से
फैल जाना चाहती है
शाहीन बाग तक
और लिखना चाहती है
एक नया व्याकरण
कि अकेली सांझ में लड़की
अकेली नहीं होती!
जीवन–मृत्यु
आज अचानक चुपके से
वह आ खड़ी हुई मेरे सामने
बिना किसी आहट के
बिना किसी पूर्वाभास के
मैंने उसे देखा
उसकी उपस्थिति को महसूस किया
मै भागना चाहती थी सत्य से
अस्वीकार करना चाहती थी
उसका अस्तित्व
क्योंकि मैं जानती थी वह आई है
ले जाने के लिए
अपने अंक में समेट कर
मेरा अतीत, वर्तमान और भविष्य
वह आई है मुझे सहेजने और
किसी अज्ञात, अनंत, अपरिमित से
एकाकार कराने
वह आई है मुझे ले जाने के लिए
जहां आनंद है सत्य है, मुक्ति है
किंतु इतना सरल नहीं होता
आनंद सत्य और मुक्ति के लोभ में
सौंप देना अपना कल, आज और कल
अपना अस्तित्व अनजान हाथों में
इसलिए जब निश्चित है
उसका आना और मेरा जाना भी
तो अब न डर है न कोई पालयन
‘बिकॉज आई वाज इवर ए फाइटर
सो वन फाइट मोर, द बेस्ट एंड द लास्ट…’ *
(*रॉबर्ट ब्राउनिंग की प्रसिद्ध कविता Prospice की इन पंक्तियों पर आधारित)
चांद के ठिकाने बहुत हैं
मेरे हिस्से का चांद
बचपन की एक कविता है
जिसके आंगन में उतरता है
रोज एक नया कौतूहल
और लिखता है
एक नई कहानी हर रोज
मेरे हिस्से का चांद
मेहनतकश के माथे पर
पसीने की चमकती बूंद है
जो गिरती भी नहीं,
मिटती भी नहीं
बस अक्तूबर की किसी रात
सुर्ख हो जाती है
साथी के झंडे की तरह
गोया यह भी एक रस्म हो
जिसे पूरा किए बगैर
नहीं चढ़ेगा नाम
लाभार्थियों की फेहरिस्त में
मेरे हिस्से का चांद
आदमकद आईने के कोने पर
चस्पा एक पुराना दिन है
जिसे दिन भर उठाए फिरने के बाद
चिपका दिया था
मां ने माथे से उतारकर
तब से वो दिन
वैसा का वैसा
वहीं चिपका हुआ है
रीतता भी नहीं,
बीतता भी नहीं।
विकास के दौर में भूख, चांद और हम
1 चांद
नींद में लिखी जा रही
एक सीधी कहानी है
जिसे आप उर्दू की तरह उल्टा भी पढ़ सकते हैं।
2 कभी-कभी सोचती हूँ कि
चांद की रोटी
जब आधी रह जाती है,
तब आधी भूख कहां जाती है?
3 चांद किसी रोज पूरा डूबना भी चाहे
तब भी डूब नहीं पाएगा
छिपाकर रख लेंगी मजूर की पीढ़ियां
इसकी कलाएं
और इस्तेमाल करेंगी सदियों तक
अपनी भूख भुलाए रखने के लिए।
4 भूख मुद्दा हो
तब चांद की बात करना गलत है
ठीक वैसे ही जैसे
जब चीख रहा हो सच
तब गलत है कहानी लिखना।
5 आसमान डुबो देता है आधा चांद
समंदर के पानी में
और बुझ जाती है
उम्रदराज मछलियों की आधी भूख
धरती भी भिगोना चाहती है इंसान को इस तरह
लेकिन नहीं भिगो पाती
पूरा छूट जाता है चांद अक्सर
जैसे पूरी छूट जाती है भूख।
संपर्क: ईमेल : upma.vagarth@gmail.com
कवित बहुत ही गहराई लिये हुऐ हैं
इनका बार – बार पाठ करना भाता है
लेखिका की सोच व समझ को नमन 🙏🙏