कवि, कथाकार और समीक्षक। गंभीर कविताओं के अलावा बच्चों के लिए कविता लेखन। कविता संग्रह ‘इ इत्ता है, उ उत्ता है’ प्रकाशित। संप्रति गवर्नमेंट कॉलेज ऑव एडूकेशन, वर्धमान में एसोसिएट प्रोफेसर।
पिता : चार कविताएं
(एक)
पिता जानते थे
कि हर आदमी को एक दिन मरना पड़ता है
पिता जानते थे
हर जवान आदमी एक दिन बूढ़ा हो जाता है
पिता जानते थे
समय कभी एक सा नहीं रहता
पिता सचमुच सबकुछ जानते थे
लेकिन उन्होंने हमें या किसी और को
कभी बताया ही नहीं
कि वे बूढ़े हो गए हैं।
(दो)
पिता खाने के शौकीन थे
ऐसा नहीं कि ज्यादा खाते थे
लेकिन जब भी खाते थे
जो भी खाते थे
जितना भी खाते थे
खूब रस लेकर चबा चबाकर खाते थे
पिता खाना खाने बैठते तो मगन हो जाते
जैसे साधना में बैठे हों
कुछ सोचते रहते हों तो पता नहीं
लेकिन बोलते बहुत कम थे
पिता अन्न और धरती के संबंधों को जानते थे
इसलिए सामने रखी थाली को ऐसे देखते
जैसे किसी दुर्लभ वस्तु को निहार रहे हों
भात को दुलारकर हिलाते डुलाते
उसमें दाल मिलाते
फिर दाल भात को इतने उत्साह से सानते
कि मेज पर रखी थाली थरथराने लगती
कौर को हाथ से समेटकर मुंह तक ले जाते
अब मुंह में रखे अन्न को
चबाने पीसने का काम शुरू होता
दांत उनके मजबूत थे
पहलवानों की तरह आपस में भिड़ जाते
गुत्थम गुत्था होकर उठने बजड़ने लगते
मानो बहुत सी तलवारें एक दूसरे से टकरा रही हों
दांतों की रगड़ से कमरा गूंज उठता
पिता अन्न और रक्त के संबंधों को पहचानते थे
इसलिए खाना ऐसे खाते थे
जैसे नहा धोकर पूजा पर बैठे हों
कभी कभार दाल में नमक तेज होता
या सब्जी कुछ लग गई होती
वे मुंह खोलकर शिकायत नहीं करते थे
घर के बांकी लोग दबे छिपे भुनभुनाते
नाराज होकर नाक भौं चढ़ाते
लेकिन वे
जैसे कुछ हुआ ही न हो
अपनी धुन में मस्त चुपचाप खाते रहते थे
अंत में केवल इतना कहते
नमक हो या कुछ और
मात्रा का ज्ञान बहुत जरूरी है!
(तीन)
पिता कभी यह जताते नहीं थे
कि वे पिता हैं
जैसे धूप पानी और हवा थी
हमारे इर्द-गिर्द वे भी थे
अनिवार्य अटूट सुरक्षा कवच की तरह
हमें घेरे हुए
पिता हमारे आसपास होते थे
वगैर यह जताए कि वे हैं
पिता हमें बाजार ले जाते
और खिलौना हम खुद पसंद करते
पिता हमें बाजार ले जाते
और मिठाई हम खुद पसंद करते
पिता हमें बाजार ले जाते
और कपड़े हम खुद पसंद करते
पिता अपना मनपसंद रंग उठाते
और हमें अपना चुनने देते
पिता किसी तानाशाह की तरह
अपना शासन नहीं चलाते थे
अनुशासन था जरूर
पर उतना ही
जितना कि आंखों के लिए पलकों का होता है
पिता हमारे हुकूम नहीं थे
न ही भाग्य विधाता
वे तो बस ऐसे पिता थे
जैसा कि एक पिता को होना चाहिए
और हम उन्हें बिना डरे
पप्पा जी कहकर बुलाते थे।
(चार)
पिता को न खरीदना आता था
न बेचना
मोल-तोल करना न जानते थे
मां उन्हें खूब सिखा-पढ़ाकर बाज़ार भेजती
लेकिन उनके पल्ले कुछ पड़ता नहीं था
जब कभी सौदा-सुलूफ करने निकलते
कुछ न कुछ नुकसान करके ही वापस आते थे
मां कहती, ‘अहां लेक्चर ते बहुत दै छियै
केना पढ़वै लिखवै छियै कॉलेज में
कुछ समझ में नै आवै छै’
पिता जवाब में केवल मुस्कराते
बैठे बैठे पैर हिलाते रहते
पिता साहित्य खूब समझते थे
क्लास में विद्यार्थियों को समझा भी देते थे
पर गणित उनका हमेशा कमजोर रहा
जोड़ घटाव गुणा भाग में
अक्सर गलतियां कर जाते
जोड़-तोड़ कुछ आता न था
गोटी-ओटी बिठाना जानते नहीं थे
जमाने भर में मिसफिट थे
जहां कहीं बैठते
आसानी से अलग पहचान लिए जाते थे।
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