वीनेश अंताणी |
कुशल खंधार लंदन-स्थित लेखक और अनुवादक। गुजराती, हिंदी, उर्दू, फ्रेंच तथा अंग्रेजी में लेखन और अनुवाद-कार्य। |
कोई बैठा था। बरामदे में। पिताजी की आरामकुर्सी के पास। आंगन में अंधेरा था। मैं गेट खोलकर गाड़ी अंदर ले रहा था तब रोशनी की लंबी किरण बरामदे तक पहुंची थी। मुझे उस वक्त दिखा था, कोई पिता जी की आरामकुर्सी के पास बैठा है। स्वाति की नज़र भी पड़ी थी, ‘वहां कौन बैठा है?’
हम गाड़ी से नीचे उतरे तब तक आकार स्पष्ट हो गया। वह खड़ी हो गई थी। मैं उसके पास पहुंच सकूं उसके पहले स्वाति पहुंच गई। सामने खड़ी औरत उसे देख रही थी। स्वाति भी जरा ठिठककर उसे देखती रही। दूसरे ही क्षण स्वाति ने पीछे मुड़कर मेरी ओर देखा। उसके बाद कुछ भी पूछने की जरूरत न रही हो वैसे स्वाति ने बरामदे की बत्ती जलाई। मैं भी उसके पास पहुंच गया। उसे पहचान न सका हूँ, वैसे खड़ा रहा। न पहचानने जैसा कुछ नहीं था, पर वह यहां कैसे हो सकती है, यह खयाल खटक रहा था। वह भी मुझे पहचान न सकी हो वैसे देखती रही- उसकी नजर में भी न पहचानने जैसा कुछ न था, शायद वह भी खुद यहां क्यों थी इस असमंजस में होगी।
मैं वहीं ठहर गया था, सीढ़ी के नीचे। वह दो कदम ऊपर खड़ी थी। इस क्षण मैं उसे यहां से चले जाते देख रहा था। उसकी पीठ, जरा झुके हुए कंधे। वह छाती से उठती सिसकियां दबाते जा रही थी। मैं उसके पीछे दौड़ा था, फिर आगे नहीं बढ़ सका था। बरामदे के खंभे के पीछे छिप गया था। उस रात ठंड थी। उसकी लपेटी हुई शाल का छोर हवा में उड़ रहा था। मैं उसके पास जाकर उसे रोकना चाहता था। मां के रोने की आवाज सुनाई दे रही थी। थोड़ी देर पहले सुनाई दिए गए पिता जी की चीखों के टुकड़े हवा में लटक रहे थे। मैं कुछ भी नहीं कर सका था। केवल उसे जाते देख रहा था। वह गेट बंद किए बिना चली गई थी, ठंडी रात के अंधेरे में खो गई थी।
और आज, अभी, अचानक, वह मेरे सामने खड़ी थी। मेरा गला सूख रहा था। उसने पीछे देखा। बरामदे के बल्ब की रोशनी उसके चेहरे पर पड़ी। शायद वह घर के बंद दरवाजे को देख रही थी। फिर वह मेरी ओर मुड़ी। हाथ आगे किया। मैं कुछ करूं उसके पहले उसने मेरे पीछे खड़े संकेत के बालों को सहलाया। संकेत मेरे पीछे छिप गया।
‘यहां आओ, क्या नाम है तुम्हारा?’
उस रात उसकी आवाज रुदन में दब गई थी, अब वहां रुदन नहीं था। एक स्थिर, बीते हुए सालों की गर्मी में तपकर पक चुकी आवाज सुनाई दी।
वह बरामदे के अंधेरे को ताकते खड़ी रही। सीढ़ी पर उसका छोटा-सा सूटकेस और एक थैला पड़ा था।
‘तेरा बेटा है?’
मैंने सिर हिलाया। उसने पीछे देखा। स्वाति ताला खोल रही थी।
‘वह?’
‘स्वाति…’
‘अच्छा? स्वाति नाम है उसका?’
कुछ क्षण वैसे ही बीत गए।
‘कब आई?’
‘कुछ, एक घंटा हुआ होगा। ट्रेन देर से चल रही थी।’
हम उसके आगमन के बारे में जानते हों वैसे उसने देर से आने का कारण बताया। इसकी कोई जरूरत नहीं थी। जहां उसके इधर होने की बात दिमाग में ठीक बैठ नहीं रही थी, वहां वह जल्दी आई हो या देर से- या आई ही न हो, इसका जरा भी महत्व नहीं था।
‘कैसे हैं अब?’ उसकी आवाज हवा में लटकती-सी लगी, मानो कोई पक्षी बीच रात को जग गया हो और फड़फड़ाकर फिर से अपनी जगह ढूंढ़ रहा हो। एक लंबी सांस जैसे दस-बारह साल की लंबी यात्रा, फिर विराम। उसने अधूरा छोड़ा हुआ प्रश्न पूरा किया, ‘पिताजी?’
तो उसे ख़बर मिल चुकी थी। कैसे? किसने बताया होगा? घर से किसी ने उसे खबर नहीं दी थी। उसके जाने के बाद घर में जो कुछ हुआ है, उसमें से उसे किसी ने कुछ भी नहीं बताया था। पिता जी ने सरासर मना किया था – वह अब मेरे लिए मर चुकी है…। वह कहां थी, उसके बारे में भी हम नहीं जानते थे। बस इतना ही पता था, शुरू-शुरू में, वह और सुरजीत पंजाब चले गए थे। वह भी हमारा अनुमान था। मां के अवसान के वक्त मैंने रेणुका से कहा था- हमें उसे बताना चाहिए। रेणुका ने बरामदे में आरामकुर्सी में बैठे हुए पिता जी पर नजर डाली थी, फिर मेरी ओर देखते हुए बैठी रही थी। उस पल रेणुका और मेरे बीच दो तरह के दर्द थे – मां अब नहीं रही थी। और वह कहीं थी, पर कहां थी उसका हमें पता नहीं था। हमारे परिचित व्यक्तियों में से भी किसी को पता हो ऐसी संभावना नहीं थी। तो फिर पिता जी की तबीयत की खबर उसे कैसे मिली? कोई है – और उसे खबर मिलती रहती है?
‘ठीक है, आज सुबह ही आई.सी.यू. में से बाहर आए।’
‘डॉक्टर क्या कहते हैं?’
‘कुछ कह नहीं सकते, फिलहाल तो स्टेबल लग रहे हैं…।’
‘कौन-से अस्पताल में हैं?’
‘डॉ. अवस्थी के अस्पताल में।’
‘उसे पता नहीं होगा। डॉ. अवस्थी का अस्पताल शुरू हुआ तब वह यहां नहीं थी।’
‘जिमखाना के पास की गली में। शायद कोई जगह उसके मन में आ जाए, पिता जी हर शाम जिमखाने में जाते थे, यह शायद उसे अब भी याद हो…।’
‘याद? वह कुछ भी भूली होगी? जिस घर में चौबीस-पच्चीस बरस गुजारे हों, उस घर की कोई भी बात जल्दी भुलाई नहीं जा सकती – और घर से अचानक चला जाना पड़े तब तो जरा भी नहीं… सिवा इसके कि उसने हठ करके सब कुछ मिटा दिया हो।’
स्वाति पानी ले आई। वह पानी पीने लगी।
‘थैंक्यू स्वाति!’ उसकी आवाज गले में बाकी रह गए पानी की वजह से जरा भीगी लगी।
‘आप लोग… अस्पताल में थे?
‘मैं… मैं खाना खाने आया हूँ। फिर लौटूंगा।’
‘तो इस समय वहां कौन है?’
‘रेणुका।’
एक पुरानी पहचान उसकी आंखों में चमक उठी।
‘रे… णु… का…’ उसके बंद होठों के बीच से दबी सांस जैसा एक नाम सुनाई दिया। वह सिर हिला रही थी, ‘वह कब आई?’
मैंने नजर झुका ली। पिता जी को अस्पताल ले जा रहे थे तब मैंने रेणुका को फोन किया था और वह अगले ही दिन सुबह आ गई थी। हमने रेणुका को खबर दी थी, पर उसे नहीं दी, यह सच पूरी तरह प्रकट हो गया।
‘अकेली आई है?’ उसने पूछा।
‘योगेश जी आए थे, आज शाम को ही लौट गए।’
‘हां योगेश… योगेश जी…!’ उसकी आवाज ढलती जा रही थी। जैसे वह नाम भी कोई गुफा के अंधेरे में से बाहर आ गया हो और वह उसे पूरे उजाले में देख सकती हो। शायद प्रतिध्वनि भी सुनाई दी होगी।
– तू समझती क्यों नहीं? योगेश जैसा लड़का…
– सवाल योगेश का नहीं, मेरा है…
– तेरा सवाल? तेरा कैसे? सवाल इस घर का है… तू उस पंजाबी लड़के के लिए योगेश को…
स्वाति सूटकेस और थैला उठाने लगी। उसने स्वाति के हाथ में से सूटकेस खींच लिया। स्वाति ने हिचकिचाकर मेरी ओर देखा।
‘अंदर आइए’, स्वाति ने अनुरोध किया।
मुझे लगा, वह चौंक गई, जैसे उसे इस घर में आने के लिए किसी का कहना अजीब बात हो। वह किसी भी जगह को देखे बिना चारों तरफ़ देखने लगी… आज के बाद मेरे घर में पैर भी रखा तो… पिता जी की चिल्लाहट में बरसों तक जो घर उसका भी था वह एक ही पल में उसका नहीं रहा। मां के दबे गले से लंबी चीख निकली थी। मैं बैठक के कोने में खड़ा कांप रहा था। रेणुका अंदर के कमरे में घुस गई थी। उसने भी उसे जाते देखा होगा, वह भी उसके पीछे दौड़ी होगी, फिर उसने उसी वक्त कमरे के बीच मां को फिसलते हुए देखा होगा और वह बाहर नहीं आ सकी होगी। पिताजी अपने कमरे में चले गए थे।
‘प्लीज़… तू… अंदर…’ मैं इतना ही बोल सका। इसमें उस रात जो मुझसे बोला न गया वह सब मुझे सुनाई दिया। उसने भी वही सुना होगा? वह पीछे खिसकी। कुछ देर के लिए खंभे के बल खड़ी रही। पास में पड़ी आरामकुर्सी पर उड़ती नजर डाली। फिर उसने स्वाति को सूटकेस दिया। संकेत को पास खींचा, ‘मेरे पास नहीं आएगा, मंदा फूफी के पास?’
‘रेणुका…!’ मैंने बहुत हल्की आवाज में कहा। पिता जी सो रहे थे। कमरे में महीन उजाला था। ए.सी. की यांत्रिक आवाज और पिता जी के श्वासोच्छ्वास एक दूसरे में घुल जाते थे। मैंने रेणुका को बाहर आने का इशारा किया। वह खड़ी हुई।
हम गलियारे में आए।
‘मंदा आयी है।’
रेणुका के होंठ जरा खुल गए। उसने झट से पिताजी के कमरे के बंद दरवाजे की ओर देख लिया, जैसे उसे डर हो कि कहीं वे उठ कर बाहर आ गए हों और मैंने जो कहा उसे सुन लिया हो। हल्के आतंक का आभास उसके चेहरे पर उभर आया।
‘क्यों?’ अगले ही क्षण उसका सवाल असंगत होकर लुढ़क गया। उसने लंबे गलियारे में नजर फेरी, कहां है?’
‘नीचे वेटिंग रूम में।’
पल भर के लिए थोड़ी राहत। रेणुका बेंच पर बैठ गई।
मैंने कहा, ‘ऊपर चल, नहीं आई।’
‘हां… उसे पता है? किसने बताया?’
‘मैंने पूछा नहीं। वह बरामदे में बैठी थी।’
रेणुका मेरी तरफ स्थिर आंखों से ताकती रही। उसके मन में भी अनेक सवाल उठते होंगे और उसे भी कुछ सूझा नहीं होगा।
‘पिता जी उसे देखेंगे तो…’ कुछ देर पहले का हल्का आतंक अब दहशत बन गया था, ‘हम तो जानते हैं, उनकी ऐसी हालत में… अगर उन्हें ग़ुस्सा आ गया तो…।
डॉक्टर अवस्थी ने कहा था, बहुत संभालना पड़ेगा। दूसरा अटैक आया तो…
अचानक रेणुका खड़ी हो गई। भौचक। उसकी नजर सामने थी, मानो न देखने जैसा कुछ दिख गया हो। मैंने भी उस तरफ देखा। मंदा धीरे-धीरे आ रही थी। रेणुका उसके सामने गई और तकरीबन उसके गले मिल गई। वह उसे गले लग रही थी या आगे जाने से रोक रही थी?
‘मंदा…!’ रेणुका की बहुत धीमी आवाज सुनायी बड़ी – दबी हुई। शायद वह रो रही थी और किस लिए रो रही थी, यह उसे समझ नहीं आ रहा होगा। मंदा बेंच पर बैठी। उसने दोनों हाथों से अपना मुंह ढांका। वह रो नहीं रही थी, केवल बैठी थी, जैसे किसी चीज के बहुत नजदीक आने के बाद थक गई हो। आगे कहीं जाना भी था या नहीं, इसकी उसे सूझ नहीं होगी। मैं पिता जी के कमरे का दरवाजा खोलकर देख आया। वे पहले जैसे ही सो रहे थे। मैंने दरवाजा बंद किया।
‘रात को तुम यहां ठहरने वाले हो?’ मंदा ने पूछा। मैंने हां में जवाब दिया।
‘और रेणुका?’
‘घर जाएगी।’
मंदा ने बंद कमरे की तरफ़ देखा, ‘क्या कर रहे हैं?’
‘अभी तो सो रहे हैं।
‘मैं… मैं जरा उनको देख आऊं?’ वह इजाज़त मांग रही थी या खुद को पूछ रही थी? उसे किसकी इजाजत लेनी थी? मेरी या रेणुका की तो बिल्कुल नहीं। भीतर जो सो रहे है, जो हमारे हैं वे उसके भी थे… थे नहीं, हैं… हमें जवाब नहीं देना था। हम बस उसे देखते रहे। अब भय भी नहीं था। कोई कुछ कर भी नहीं सकता था – न मैं, न रेणुका, न तो मंदा। जिन्होंने किया था और जो कर सकते थे वे अब कुछ भी कर सकने की स्थिति में नहीं थे।
उलझन ने हमें घेर लिया था। हम तीनों उससे मुक्त होना चाहते थे और मुक्त होने का कोई रास्ता दिख नहीं रहा था। मेरे सीने में भावनाओं का सैलाब तैरने लगा – वह इस क्षण के कारण नहीं था। यह उभरता सैलाब उन सभी क्षणों के लिए था, जब मंदा घर छोड़ कर चली गई थी और उसके बाद घर में किसी ने उसका जिक्र तक नहीं किया था, कर भी नहीं सकते थे।
मुझे पता था, मां अंत तक उसके बिना तड़पती रही। मैंने उसे कितनी बार शाम के अंधेरे में सीढ़ी पर बैठे-बैठे दरवाजे की ओर ताकते हुए देखा था। पिता जी शाम को जिमखाने में गए होते थे, उतने समय के लिए जैसे मां आजाद हो जाती। उसे जो करना हो, अपनी मर्जी से कर सकती थी- और वह कुछ भी नहीं करती थी। सीढ़ी पर बैठी रहती। किसी के साथ बात कर रही हो कुछ वैसे उसके होंठ फड़फड़ाते रहते। उस रात के बाद वह कभी रोई नहीं थी। किसी भी बात की शिकायत नहीं की थी। पिता जी ने मंदा नहीं तो रेणुका के लिए योगेश के पिता जी के साथ बात की, फिर भी उसने कुछ नहीं कहा। रेणुका की और उसके चार साल बाद मेरी शादी हुई तब हमारे परिवार के सभी सदस्य एक साथ मिले थे। उस वक्त भी मां चुपचाप खुद के काम करती रही थी। उसने पिता जी के साथ भी उस विषय को छेड़ा नहीं होगा।
सिर्फ एक बार, आखिरी बार बीमार पड़ी, तब मां ने स्वाति से कहा था : उनकी इच्छा के खिलाफ मैं कभी कुछ नहीं कर सकी। मंदा ने हिम्मत की तो उसे घर से निकाल दिया… जैसे वे वैसी ही मंदा… वह कभी भी इस घर में लौटेगी नहीं…
स्वाति ने मुझसे पूछा था : ‘मुझे आश्चर्य हो रहा है, जो बात मां ने आप सभी में से किसी को नहीं कही, वह मुझे कैसे कह दी?’ शायद मां को घर के किसी भी व्यक्ति पर भरोसा नहीं था। वह मरने के पहले, बरसों से अपने मन में दबा कर रखा हुआ, किसी को कह डालना चाहती थी। इसके लिए उसने स्वाति को चुना था। वैसे भी स्वाति बाहर की थी, उसने कुछ भी देखा नहीं था- वह न ही साक्षी थी, न ही सहभागी।
‘लेटे हैं या सो रहे हैं?’ मंदा ने पूछा।
‘सो रहे हैं।’
उसके बाद मंदा ने हमसे कुछ भी नहीं पूछा। अगर वे सो ही रहे थे तो उसे किसी की इजाज़त की जरूरत नहीं थी। उसने धीरे से दरवाजा खोला, पूरी तरह नहीं, बस थोड़ा-सा ही। बाहर खड़ी रही। दरवाजे के कोने से अंदर देखने लगी।
कुछ देर बाद, वह घर लौटने लगी। रेणुका से पूछा, ‘तू आ रही है?’
उस रात के बाद मंदा हर रोज अस्पताल आती, पर बाहर बेंच पर बैठी रहती। वह अधखुले दरवाजे के पास भी नहीं आई। उसने पिता जी की तबीयत के बारे में डॉक्टर के साथ किसी भी तरह की चर्चा नहीं की। वह किसी भी निर्णय में भाग नहीं लेती थी, मानो वह यहां आ गई है इतना ही उसके लिए पर्याप्त हो। वह घर में होती, तब भी घर के किसी मामले में भाग नहीं लेती थी। वह संकेत के साथ बातें करती, उसे बाहर ले जाती, कहानी सुनाती। स्वाति उसके पास बैठती, तब उनके बीच इधर-उधर की बातें होती और फिर अचानक वह चुप हो जाती।
उसका और रेणुका का कमरा ऊपर था। पिता जी का कमरा नीचे था। एक दिन सवेरे मैं अस्पताल से लौटा तब मैंने उसे पिता जी के कमरे में खड़ा देखा था। वह वहां कुछ कर नहीं रही थी। बस कमरे के बीचोबीच खड़ी थी। फिर पिता जी की किताबों की अलमारी के पास गई थी। अस्तव्यस्त हो गई किताबों को करीने से रख रही थी। मुझे याद आया था, पिता जी का सब काम वह करती थी। पिता जी लिखते-लिखते उसे पुकारते और उन्हें जो किताब चाहिए होती वह मंदा ढूंढ़ निकालती।
कई बार पिता जी पढ़ रहे होते और मंदा सुन रही होती। मंदा हर सवेरे पिता जी की मेज साफ करती, वहां पड़ी सभी चीजें करीने से रखती। ऐसा कभी नहीं हुआ था कि पिता जी को मंदा की जरूरत हो और वह हाजिर न हो। मां तो कहती, उनको मुझसे ज्यादा मंदा की जरूरत पड़ती है। पिता जी शाम को जिमखाने से लौटकर, खाना खाकर, आरामकुर्सी पर बैठते। मंदा सीढ़ी पर बैठी होती और वे दोनों कुछ बातें कर रहे होते।
उस पूरे समय हमें क्या पता था कि पिता जी के अलावा दूसरा कोई व्यक्ति मंदा की जिंदगी में आ गया है। हमें पता चला, तब बहुत देर हो गई थी। शायद मां जानती थी, उसने मंदा को रोकने की कोशिश की होगी, शायद न भी की हो। मंदा और पिता जी के बीच जो भी होता था और जो होना था उसमें मां कहीं नहीं थी।
मैं पिता जी के पास अस्पताल के कमरे में बैठकर उन्हें देखते रहता और बाहर बेंच पर बैठी मंदा के बारे में सोचता रहता। हल्की-सी आवाज दूं और मंदा अंदर आ सके, इतनी दूरी पर होती थी। बता दूं पिता जी को कि बाहर मंदा बैठी है। रेणुका ने भी कहा था, मुझे लगता है, पिता जी को बता देना चाहिए। ज्यादा से ज्यादा क्या होगा- शायद वे चिढ़ेंगे, गुस्सा करेंगे, थोड़ी तबीयत बिगड़ेगी और फिर ठीक हो जाएगी। हम डॉक्टर अवस्थी की सलाह भी ले सकते हैं। ये केवल विचार थे। हम कुछ कर नहीं सके थे। इस बारे में मंदा से भी नहीं पूछ सकते थे। हम यह भी नहीं जानते थे कि वह क्या करना चाहती है। हम बस इतना ही जानते थे कि वह अचानक कहीं से आ गई है और बाहर बेंच पर बैठी है।
पिता जी की तबीयत अब बेहतर थी। डॉक्टर ने कहा था कि उनको एक–दो दिन में घर ले जा सकते हैं। यह आनंद और राहत की खबर मंदा को दी, तब वह मुसकुराती रही। कहा कुछ नहीं। मैंने स्वाति को कहा था, पिता जी अस्पताल में हैं तब तक सब संभल गया, पर वे घर आएंगे उसके बाद…
कल पिताजी घर आनेवाले थे। स्वाति और संकेत दोपहर को उनके पास अस्पताल में थे। मैं, मंदा और रेणुका घर में बैठे थे।
‘रेणुका, योगेश जी आनेवाले हैं?’ मंदा ने पूछा।
‘नहीं, क्यों? आज सुबह ही उनके साथ बात हुई। काम से फुर्सत कहां, इयर एंडिंग में उलझे हैं!’
मंदा रेणुका को देख रही थी।
‘सब ठीक है न तुम्हारे घर में?’
‘हां, ठीक है। पैसे पहले से ही थे। अब फैक्टरी और ऑफिस सब योगेश ही संभालते हैं।’
‘बड़ौदा में?’
‘हां, बड़ौदा में।’
‘योगेश को पता है, मैं यहां आई हूँ?’
‘हाँ, मैंने बताया था। तुम पूछ रही थी कि वे आनेवाले हैं क्या – कुछ काम था?’
‘काम?’ मंदा आंखें मलने लगी, फिर हल्की-सी मुस्कान उसके होंठों पर आ गई, ‘मुझे उनसे माफी मांगनी थी।’
‘माफी?’
मंदा ने सिर हिलाया, ‘शायद मैंने उन्हें हर्ट किया हो।’
रेणुका हँसी नहीं। उसने कुछ कहा भी नहीं। मैं मंदा को देखता रहा। यहां आने के बाद मंदा ने पहली बार कोई पुरानी बात याद की थी।
‘मुझे तुमसे भी माफी मांगनी है, रेणुका!’
‘क्यों?’
‘मेरी वजह से तुम्हें…’
रेणुका ने आंखें फेर ली, ‘इन सब बातों का अब क्या मतलब है, मंदा?’
‘मुझे लगा, तुमसे मिलना हुआ तो इतना तो कर ही सकती हूँ।’
किसी ने कुछ नहीं कहा, कुछ कहा भी नहीं जा सका। यकायक मुझे लगा, हमारे पुराने दिन फिर से लौट आए – जब मैं, मंदा और रेणुका ऊपर के कमरे में सोते थे, देर रात तक बातें करते और जोर-जोर से हँसते रहते थे। कभी-कभी मां नीचे से ऊपर आकर दबे आवाज में डांटती : ‘पता नहीं चलता, तुम्हारे पिता जी सो रहे हैं और तुम तीनों…’, हम मुंह छिपाकर शांत होने की कोशिश करते। मंदा कहती, ‘मां, तू भी हमारे साथ बैठ न, पिता जी तो सो गए हैं।’
‘रेणुका…’ मंदा की आवाज सुनाई दी, बहुत दूर से। रेणुका ने उसकी ओर देखा।
‘वह कहां है?’
‘कौन?’
‘रोहित’
मैं चौक गया। रोहित कौन? मंदा के अनपेक्षित सवाल से रेणुका भी चौंक गई थी। वह थोड़ी देर बाहर देखती रही। शायद वह कुछ देख नहीं रही थी, मंदा की नजर से बचने की कोशिश कर रही थी।
‘वह… वह अब… मुझे कैसे पता होगा…’ रेणुका की आवाज स्थिर नहीं थी, उसकी आवाज में से कुछ झड़ रहा था।
‘तूने कभी उसके बारे में मां को नहीं बताया? तूने मुझे तो कहा था…।’
‘बात करने से क्या हुआ होता, मंदा? क्या हासिल होता?’
‘हाँ, मेरे… मेरे जाने के बाद कोई संभावना भी नहीं रही होगी।’
रेणुका उठने लगी, ‘मैं चाय बनाती हूँ।’
मंदा ने उसका हाथ पकड़ लिया, ‘नहीं, अभी नहीं, थोड़ी देर बाद।’
मैं भौचक्का बैठा था। बहुत कुछ था इस घर में और मैं उसके बारे में कुछ भी नहीं जानता था। जो बीत चुका है उसके अलावा भी बहुत कुछ हुए बिना घर की ख़ामोशी में जीता रहे…। मेरी ही दो बहनें, एक दूसरे के सामने बैठी थीं, फिर भी मानो वे जहां थीं, वहां नहीं थीं। एक के साथ इस घर में जो हुआ उसके बारे में मैं जानता था और दूसरी के साथ जो नहीं हुआ, उसके बारे में मैं कुछ नहीं जानता था।
‘मंदा… मैंने गला साफ़ किया, तू कैसी है?’
वह हँस पड़ी, ‘ठीक हूँ!’
मैं जो पूछ नहीं सकता था वह रेणुका ने पूछ लिया, ‘वह… सुरजीत कैसा है?’
‘वह छह साल से यूएस में है।’
‘और तू?’
‘मैं? मैं हूँ तो सही… देखो, तुम्हें दिखाई भी देती हूँ…’
‘ऐसे नहीं, मंदा…’
वह हँसने लगी, ‘तो कैसे?’
‘अपने बारे में बता, प्लीज़!’
वह खड़ी हो गई, ‘मैं चाय बनाकर लाती हूँ… याद है तुम्हें, हमारे घर में सबसे अच्छी चाय मैं बनाती थी और पिता जी मेरी बनाई चाय ही सब से ज्यादा पसंद करते थे…।’
हम कुछ कहते उसके पहले वह रसोई में चली गई। उसके बाद कोई बात नहीं हो सकी।
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रेणुका और मैंने रात अस्पताल में ही बिताई। सुबह उठकर पिता जी को घर लाना था। हम दस बजे के आस-पास उन्हें लेकर घर आ रहे थे। रेणुका पिता जी के साथ एम्बुलेंस में थी। मैं उनके आगे गाड़ी में था। घर पास आया, तभी स्वाति का फोन आया।
‘मंदा दीदी आपके साथ हैं?’
‘नहीं, क्यों?’
‘तो कहाँ गईं? अब तक नीचे नहीं आईं तो मुझे लगा वे आपके साथ ही होंगी। मैं उनके कमरे में आई तो… उनका सूटकेस, थैला कुछ भी नहीं है…!’
आखिरी मोड़ और हमारे घर का गेट सामने आ जाएगा, मैंने क्षणभर के लिए आंखें बंद की- मंदा की लपेटी हुई शाल का छोर हवा में उड़ रहा था।
मैं गेट खोलकर अंदर गया। पीछे आई एम्बुलेंस घर के गेट में प्रवेश कर रही थी। मैं गाड़ी से उतरकर खड़ा रहा। देखा, पिताजी अस्पताल गए तब घर को जैसे छोड़ गए थे, वैसे ही घर में वे लौट रहे थे।
विनेश अंतानी : फ़्लैट 93, ए/2 मैनेजमेंट एन्क्लेव, वस्त्रपुर, अहमदाबाद – 380015 गुजरात
कुशल खंधार : ए-43 हाईवे अपार्टमेंट, ईस्टर्न एक्सप्रेस हाइवे, सायन (पूर्व), मुंबई – 400022
गहराई से छूनेवाली कहानी का सक्षम अनुवाद
बहुत ही मार्मिक कहानी !
बहुत पसंद आई है
दो बार पढ़ लिया
बार बार पढ़ने का मन कर रहा है।