वरिष्ठ लेखिका

‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।

बारिश की रिमझिम फुहारें… झूमतीं डालियाँ… हरे चिकने पत्तों से भरीं लताएँ… आपके चेहरे को! पूरे शरीर को! मृदुल आघातों से छू-छूकर उड़ जाती हों… आकाश एक साथ ही नीला और श्यामल हो रहा हो… लहरातीं लताएँ और झूमते पेड़ों से जैसे सैकड़ों सितारों पर मल्हार राग गूँज रही हो! यदि ऐसे में! ऐसे में!! नवयुवाओं का कलरव आपकी कर्णेन्द्रियों को और भी रससिक्त करे, तो स्वभावत: आँखें उस सृजनहार की प्रकृति से मुँह मोड़ कर, उसकी श्रेष्ठतम कृति मानव की ओर घूम जाएँगी, जिसने उसके ‘अनाहत नाद’ को अपने सुरीले स्वरों में बाँध कर उसे ‘शोर’ से ‘राग-रागिनियों’ के पद पर आसीन कर दिया है।

आपके आँख और कान एकाकार होकर उस ‘छवि’ को निहारने को बाध्य हो जाएँगे, जिसमें चित्रित है एक ‘पालकी’, जिसके मध्य ‘राजसिंहासन’ पर विराजित है ‘जड़ समेत आम्र पल्लव’। सत्रह से इक्कीस वर्ष के, चैत की लाल टहनी-से लम्बे क़द के आठ-दस युवा, इस पालकी के वाहक हैं। …उन्होंने सिर पर छोटा सा ‘फेंटा’ कस रखा है, जिसमें आम के ‘मौर’ की कलगी सजी है। ‘बातिक’ चित्रकारी से सज्जित उत्तरायण कंधे पर है और कमर पर है पीले रंग की घुटनों तक धोती। उनके चेहरे प्रेम की कांति से दमक रहे हैं। वे पानी की लहर की तरह बहुत ही सहज गति से आगे बढ़ रहे हैं… एक लय में; एक तार में; एक ऐसे अलौकिक संगीत में; मानों उनके तार धरती से नहीं, आकाश से जुड़े हैं। …न उन्हें बदन पर पड़तीं बौछारों की परवाह है, न कड़कड़ाते बादलों की- वे इन्द्रलोक के गंधर्व-से गाते-मुस्कराते पालकी को ही नहीं, पेड़-पौधों को… बारिश की बूँदों को… बलुई मिट्टी को… आकाश को… धरती को… हम सबको… दोलायमान कर आंदोलित कर रहे हैं। उनके मुखारविंद गा रहे हैं- ‘मरुविजय केतन ओड़ावो…’। इतने में उनकी ताल में ताल मिलातीं, स्वरों में अपने स्वरों से उत्ताप लातीं षोडशी कन्याएँ सिर से पैर तक फूलों के गहने पहने वनदेवी-सी नृत्य करती हुईं उस ‘छवि’ में प्रवेश कर जाती हैं। ‘छवि’ का ‘फ़लक’ गतिमान होकर विस्तार ले लेता है और अब एक ऐसे विचित्र चित्र की सृष्टि हो जाती है, जिसे फुटों और गज़ों में नहीं मापा जा सकता, न शब्दों में बाँधा जा सकता है। दर्शक और प्रदर्शक का भेद मिट जाता है… वे एकात्म होकर एक लय में लयबद्ध हो, मंत्रमुग्ध-से उस चित्र में प्रवेश कर जाते हैं। …लोक की सत्ता समाप्त हो जाती है, अलौकिक का साम्राज्य छा जाता है। आप ‘सर्पबिद्ध’-से वाणीहीन उस दृश्यावलि को आत्मसात् करते रहते हैं। यह सारी क्रिया आपके अनजाने ही आप में अन्तर्लीन होती जाती है।

अब नृत्य और गीत की धुन बदलती है और उस पर थिरकते हाथ-पैर मन्द से मध्यम होते हुए द्रुत लय पकड़ लेते हैं। सामने लगे अशोक वृक्ष की परिक्रमा कर यह दल! नहीं, अब दल नहीं, एक छोटा सा जुलूस! ‘गौड़-प्रांगण’ के एक किनारे पर पहुँच कर थम जाता है। (अशोक वृक्ष के प्रसंग में याद आती एक इतर घटना-  ‘अज्ञेय जी’ ने मेरे भेजे अशोक फूल के पौधे पर धन्यवाद में मुझे लिखा था कि उन्होंने उसे ‘सुंदरलाल बहुगुणा’ से ‘रोपवा’ लिया है। मैंने उनसे हँसकर कहा कि ‘किंवदंती तो यह है कि अशोक पर सुंदर नवयौवना आघात करे, तब उसमें पुष्प आते हैं, आपने ‘सुंदरलाल जी’ को यह सौभाग्य कैसे प्रदान किया?’ उनका उत्तर था- ‘वे प्रकृति-पुत्र हैं और अभी इसे वृक्ष तो बनने दीजिए… फिर देखेंगे।’

युवाओं का दल आगे बढ़ने से थमा है, पर नाचने से नहीं। सौदो सौ युवायुवतियाँ अभी भी थिरक रहे हैं और उसी मुद्रा में पालकी में विराजित उस आम्र मूलको नवजात शिशु की तरह आदर से उठाकर, वृक्षारोपण हेतु उपस्थित विभूति के करकमलों में रख देते हैं।

विभिन्न रागों में गुँथे, प्रकृति के इस गर्भधारण की गरिमा को दिव्य शब्दों में भव्यता प्रदान करते ‘रवीन्द्र गीतों’ के बीच वृक्षारोपण होता है। हँसते, किलकारियाँ भरते बच्चे-युवा लौटने लगते हैं अपने छात्रावासों में। वे कल पुन: इसी तरह नाचते हुए लौट कर आएँगे; ताकि धरती माँ पर ‘हल’ चला कर, उससे अन्नदान की भिक्षा माँगें… उसकी चिरौरी कर ‘सर्वेभवन्तु सुखिन:…’ की प्रार्थना करें। …ग़रीब सांथालों को नि:शुल्क उत्तम बीज प्रदान कर कृषि को समृद्ध करवाएँ और वर्षा मंगल के गीतों से आकाश, पाताल, जल, सबको गुंजरित कर दें।

मित्रो, इस ‘बाइसे श्रावण’* (8 अगस्त)  का  यह एक संक्षिप्त-सा कार्यक्रम है। उस विराट सोच का एक किंकणमात्र नमूना… जिसे इस धरती पर 22 दिसम्बर 1901 को रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 5 बच्चों के विद्या-दान से मूर्त्तिमंत किया था।

ज़रा सोचिए! चारों ओर मरुभूमि की बलुई मिट्टी बिखरी हो, ‘भाँय-भाँय’ कर लू चल रही हो; ऐसे परिवेश में उस महामना देवेन्द्रनाथ को उस ज़मीन पर शांतिनिकेतन बनाने की कैसे सूझी? क्या यह बात हमारी साधारण बुद्धि के परे नहीं है? मनुष्य इतना चतुर प्राणी है कि वह इस धरती से अपने लिए श्रेष्ठतम चुनता है और उसे निकृष्टतम वापस देता है। ऐसे में उस ज़मीन को हरा-भरा करने की सूझ क्या पागलपन नहीं? पर इतिहास गवाह है कि कोई भी असाधारण काम करने के लिए एक उदात्तता आवश्यक होती है, जैसी ‘भगीरथ’ में रही होगी। महान दृढ़ता की वह उन्मादी मानसिकता ही पहाड़ चीर कर गंगा बहा सकती है;… और बोलपुर (शांतिनिकेतन) की मरुभूमि को नन्दन-कानन में परिवर्तित कर सकती है। देवेन्द्रनाथ ठाकुर ने इस तपभूमि के लिए पुत्र रवीन्द्रनाथ का आह्वान किया। और उस तप:पूत ने अपनी अनन्त-असीम-कल्पनातीत कल्पना से इसे एक ऐसी रंगभूमि बना दिया कि जन्मदाता, पोषक और संहारक; तीनों की त्रिमूर्ति, वहाँ अपनी नाना भंगिमाओं में इसमें चिरंतन वास करे।

एक समय में एक प्राणी किसी भी एक गुण के चरम शीर्ष पर पहुँच सकता है। बंट्रेन्ड रसेल, आइंस्टीन, दार्शनिक-विज्ञानी माने जा सकते हैं, एडीसन सफलतम वैज्ञानिक या इसी प्रकार के अन्यान्य अनेक उदाहरणीय व्यक्तित्व हैं; जिन्होंने  अपनी क्षमता से अपने गुणों को शीर्ष पर पहुँचाया है, लेकिन कभी ऐसा भी होता है कि इसमें व्यतिक—म होकर एक चमत्कार हो जाए? …एक असंभव सुंदर व्यक्ति, चौंसठ कलाओं को अपने में समेटे अप्रतिम चित्रकार, कालजयी कवि, लेखक, नाटककार, अभिनेता, निर्देशक, संगीतकार, पत्र-लेखक तो हो ही, पर इन सबके साथ ही इस धरती पर एक ऐसा अनूठा अंकन करे कि दसों दिशाएँ, वायुमंडल, हवा, नक्षत्र और आकाश उसे साधुवाद दे और उस कृति को शांतिनिकेतन नाम दे दे। हो सकता है, बहुतों को यह शब्दाडम्बर लगे या अतिशयोक्ति…, पर मेरा विश्वास है, जो भी इसकी तह में जाएगा, वह इसका समर्थक बन जाएगा।

जिस प्रकार गाँधीजी ने एक के बाद एक क—ांतिकारी विचारों को अपने कार्यों से चरितार्थ किया; उसी प्रकार रवीन्द्रनाथ टैगोर ने भी उन 5 बच्चों की तपोभूमि को आज की तारीख़ (8.8.07) में साढ़े चार हज़ार विद्यार्थियों की विद्याभूमि बना दिया। पाँच वर्ष की आयु का बच्चा यहाँ से स्नातकोत्तर उपाधि से लैस पच्चीस वर्ष का युवा बनकर निकलता है। इस ‘मार-काटी युग’ में भी उसके चेहरे पर एक अद्भुत शांति रहती है। उसकी गति अलस और बातचीत मीठी होती है। वह आपके बचकाना प्रश्नों का जवाब पूर्ण शांति, गंभीरता और प्रेम से देता है। वह उस ऊब और झुँझलाहट से वंचित है, जो बूढ़ों को देखते ही युवाओं के चेहरे पर आ जाती है। लगता है आप उससे अन्तहीन बातें कर सकते हैं, क्योंकि वह किसी ‘हड़बड़ी’ में नहीं है।

याद आता है मणि सुब्रह्मण्यम (प्रख्यात चित्रकार) का यह कथन कि ‘हर बड़े चित्रकार का स्वप्न शांतिनिकेतन से मान्यता प्राप्त करना होता है। निश्चित रूप से यहाँ आकर मुझे आनन्द आ रहा है, और मैं अब इसे अपना ‘वतन’ ही बना लूँगा।’

प्रश्नों का अंबार साल रहा हैक्यों इस विश्वविद्यालय के बच्चे दंभी नहीं हैं? …कैसे ये पूर्व के सारे मूल्यों को मुँह बिचका कर अस्वीकार नहीं करते? …कैसे ये पश्चिमी चकाचौंध से प्रभावित नहीं होते? …जब एक ओर अमेरिकी विश्वविद्यालय लाखों रुपये छात्रों से लेते हैं, तब मात्र सात सौ रुपये वार्षिक (पढ़नारहना समग्र) देकर ये छात्र कैसे सूर्य की किरण’-से बन जाते हैं?… कैसे? कैसे? कैसे?…

इसका उत्तर देते हैं- उस वातावरण में व्याप्त शांति और प्रेम, जो आपके कानों में फुसफुसा कर कहते हैं- ‘यहाँ पढ़ा नहीं जाता- गुणा जाता है।… यहाँ शब्द नहीं हैं… अर्थ हैं।… यहाँ दमन नहीं… दान है।…  कृतघ्नता नहीं… कृतज्ञता है।…दण्ड नहीं… क्षमा है।… घृणा नहीं प्रेम ही प्रेम है।… ऐसे में कौन शिक्षक कौन शिक्षार्थी?… कौन दाता… कौन ग्रहणकर्त्ता?… दोनों एक ही हैं।

यह मेरे साथ हो क्या रहा है?.. क्या यह इस बलुई मिट्टी का पागलपन है, जो मेरी बुद्धि को शिथिल कर रहा है?.. बात एक साधारण से विद्यालय की है और मुझे लग रहा है मानों यह किसी और ही लोक की बात है!… क्या यह कोई तिलस्म है…?

शायद यह इस तिलस्म का ही जादू है, जिसने अमर्त्य सेन, सत्यजित रे, विनोद बिहारी मुखर्जी, यामिनी राय, नन्दलाल बोस, क्षितिमोहन सेन, हजारी प्रसाद द्विवेदी, सोमनाथ होर, जोगेन चौधुरी, शिवानी, इंदिरा गाँधी, मणि सुब्रह्मण्यम, ऐन्ड्र्यूज, रामकिंकर बैज जैसी अनेकानेक विभूतियों को या तो जन्म दिया या संस्कारित किया या वे ज्ञान-चक्षु दिए, जो क्षितिज को ही नहीं, पूरे ब्रह्माण्ड को पार कर आकाशगंगा से वार्तालाप कर सकें।…

यह इस मिट्टी का ही जादू है कि यह प्रेम करने वालों का तीर्थ और शरणस्थली बन गया है। एक सच्ची घटना- इंदिरा गाँधी के ‘फिरोज़ प्रेम’ से जवाहरलाल जी नाख़ुश थे। इंदिरा जी भागकर शांतिनिकेतन आ गईं। इस पर जवाहरलाल जी आग-बबूला हो गए। तब श्री सीतारामजी सेकसरिया और शायद जमनालाल जी बजाज भी उन्हें समझाने यहाँ आए। सोचिए! इंदिरा जी ने शांतिनिकेतन ही क्यों चुना? कोई पश्चिमी देश क्यों नहीं? क्या यह इस भूमि का ही तिलस्म या प्रताप नहीं?

यह जानना दिलचस्प होगा कि बचपन से ही रो कर, गा कर रवीन्द्रनाथ को पढ़ना एक बाध्यता थी, इसलिए हम उनसे ‘अकता’ (चिढ़)-से गए थे और बड़बड़ाने लगे थे- ‘बड्डो नाटोक करे ऐरा… गाये हाथ रेखे-रेखे… दीर्घो सास टेने, भाई-रे भाई कोरे कोथा बोले! कि जे नैका?’ ( ये शांति निकेतिनिया एक नम्बर के नौटंकीबाज़ हैं। आपके कंधे पर हाथ रख कर धीमी-धीमी लय में ‘भाई-बीरा’ करते हुए बात करते हैं। हुँह ज़रा नखरा तो देखो !)

कर्मकांडों को दक़ियानूसी मानता हमारा आधुनिक मन, शांतिनिकेतन की ‘होली’ को… ‘वृक्षारोपण’ को… ‘पौष मेला’ को… पेड़ों के नीचे होतीं कक्षाओं को… बीचों-बीच उगे पेड़ के चारों ओर घेर कर बनाए गए ‘कलागृह’ को… चीनी प्रार्थना मंदिर को, जापानी, चीनी आदि कई विदेशी और भारत की सम्पूर्ण भाषाओं की शिक्षा को- सिरे से नकार कर, एक ख़ब्त का दर्जा दे देता था और इसे स्वयं को अनोखा दिखाने का प्रदर्शन मानता था।

वही आधुनिक मन आज लौट-लौटकर वहाँ जाना चाहता है। सिर धुन-धुनकर पछताता है कि क्यों नहीं हमें भी यहाँ रचने-बसने का सौभाग्य मिला?… क्यों नहीं हम उस ‘कबीर’ के साथ जिए, जो वहाँ के हिन्दी भवन की दीवारों में ‘विनोद बिहारी’ ने उगा दिया है? …क्यों नहीं हमने रामकिंकर बैज को वे अमर मूर्तियाँ बनाते देखा, जो वहीं की बलुई मिट्टी से बनकर शाश्वत और कालजयी कृतियाँ कहलाईं?… क्यों नहीं हमने भी जया अप्पास्वामी की तरह ‘सुजाता’ बनने का अवसर पाने की कोशिश की?… क्यों हमने यह याद नहीं रखा कि कई बार कर्मकांड ही संस्कृति के रक्षक बनकर अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत कर देते हैं?…

अभी भी वहाँ सिद्धार्थ जैसे लोग हैं, जो पंद्रह वर्षों से एक आश्रमनुमा होटल ‘छुट्टी’ घाटे में इसलिए चला रहे हैं कि उनके प्रपितामह रवीन्द्रनाथ के ज़माने में बांग्ला पढ़ाते थे। वे इसे अपना देय मानते हैं। ‘सबुजकली’ पेरिस से डॉक्टरेट कर, शिमला उच्च शिक्षा संस्थान में शोध कर उन सभी के वहाँ रहने के आग्रह को ठुकरा कर इसलिए यहीं रह गईं कि वे कुछ ॠण चुका सकें। मंजुरानी सिंह हिन्दी भवन की गरिमा को अक्षुण्ण बनाए रखने के प्रयास में अहर्निश रत हैं। ये आधुनिक समर्पित लोग भी तो उस महामना का ही ‘सरजन’ हैं, जिसने हमें हमारा राष्ट्रगीत दिया, जिसे इस पन्द्रह अगस्त को हम सब उच्च स्वर में गाएँगे।

यह चर्चा मरुस्थल के अंतस में उपजे एक ‘विशाल वटवृक्ष’ की प्रशाखा ही है। इस वृक्ष के बहुतेरे रंग हैं… बहुतेरी धरती… बहुतेरे आकाश।… ऐसा आकाश भी… जिसमें कभी-कभी ‘कंचनजंघा’ की पहाड़ी उग आती है और आपसे बतियाने लगती है…

संपर्क सूत्र : 3 लाउडन स्ट्रीट, कोलकता-700017

image : Mauritius Photo Safari by Joseph Manglaviti