वरिष्ठ लेखिका
‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी-सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्या’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।
एक दस-बारह वर्ष का छोटा-सा लड़का अपने पितामह की धू-धू जलती चिता को देख रहा है, लेकिन उसकी आँखों से आँसू की एक बूँद भी नहीं टपक रही।बच्चे की समझदारी का कारण है, घर में रोती-बिलखती विधवा दादी और बिसूरती हुई जवान विधवा माँ! इनके सामने उसे घर के एकमात्र पुरुष सदस्य की भूमिका निबाहनी है।वह स्तब्ध खड़ा आकाश छूती लपटों को आँखें फाड़ कर देख रहा है, मानों भविष्य में अंकित अपने भविष्य को पढ़ रहा हो।
चिता की अग्नि समाप्त होते ही पास के गाँव के एक वृद्ध व्यक्ति उस बालक का हाथ पकड़ कर कहते हैं- ‘‘ऐ छोरा! मै तेरो नानो लागूँ हूँ।थारा दो हजार ‘रिपिया’ मेरै पास है, जिक्को ब्याज ‘एक रिपियो चौदह आने’ तन्नै हर महीने मिल जास्सी।बिन्नै चाहे तू खा, चाहे उड़ा।’’ यह आँखों देखा क़िस्सा भागीरथ जी कानोड़िया ने बताया, जो सीताराम जी के प्राण-सखा थे।आगे उन्होंने यह भी कहा कि सीताराम जी उसमें से एक रुपए का गेहूँ लाकर महीने भर का अनाज सांच लेते थे; एक आने का चना भिगो कर बन्दरों को खिला देते थे, और प्रत्येक महीने एक आना पुस्तकालय को दे देते थे, जिसके लिए गाँव के लोग सीताराम जी का मखौल उड़ा कर कहते कि ‘ख़ुद के खाने के लाले और चला है बंदरों और पुस्तकालय को दान देने।’ लेकिन जो जीवात्मा इस धरती पर दान का ही संस्कार लेकर आती है, वह भला किसी के थामे थमती है? इसीलिए उम्र और सुविधा के साथ-साथ इस दान का आकार बड़ा होता चला गया।
उस छोटे से लड़के ने कमाई के लिए एक गद्दी में भी बैठना शुरू किया, पर इसी बीच माँ और दादी का भी देहांत हो जाने से उसका मन अपने गाँव से उचाट हो गया।
सीताराम जी ने उस छोटी सी उम्र में ही निर्णय लिया, ‘‘मुझे कलकत्ते जाकर कमाई करनी होगी, ताकि कुछ दान–धर्म भी किया जा सके, क्योंकि सिर्फ पेट भरने के लिए कमाना तो मनुष्य–जीवन को धिक्कारना है।’’
विस्मयकारी है यह जानना कि वही छोटा लड़का जब कलकत्ते शहर के आँगन में समाज–सुधार की अलख जगाता है, तो उसके कर्तृत्व से आकाश भी छोटा पड़ जाता है।
सीताराम जी सेकसरिया में बचपन से ही शिक्षा के प्रति, विशेष कर स्त्री-शिक्षा के प्रति गहरा रुझान था।इसलिए सीताराम जी ने समाज-सुधार के कार्यक्रम के साथ-साथ कलकत्ते में अनेक विद्यालयों, अस्पतालों और संस्थाओं का निर्माण किया।उनकी ख़ास बात यह थी कि वे समय की माँग के अनुरूप ढल जाते थे।एक सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में स्थापित हो जाने के बावजूद उन्होंने तय किया कि वे मध्य वर्ग की लड़कियों के लिए एक हिन्दी भाषी स्कूल मध्य कलकत्ते में खोलेंगे।उस समय कलकत्ते के एक श्रेष्ठी ने उनसे कहा कि यदि वे इस स्थान पर स्कूल खोलेंगे, तो उनसे किसी चंदे की उम्मीद न रखी जाए।इसपर सीताराम जी ने विनम्रता से उत्तर दिया ‘‘जी, ठीक है।’’
वह स्कूल केवल बना ही नहीं! बल्कि ऐसा बना कि आज उसमें लगभग ७ हज़ार लड़कियाँ पढ़ रही हैं और सीताराम जी की दूरदर्शिता की इंतिहाँ देखिए कि उन्होंने आज से ५६ वर्ष पहले उसमें महिलाओं के लिए एक ‘संतरण-ताल’ बनवाया था, जिसने आज तक कम से कम ३० हजार महिलाओं और लड़कियों को संतरण में प्रशिक्षित कर दिया।सोचने की बात है कि आख़िर ‘सीताराम सेकसरिया’ नामक जीव में वह कौन सा अनोखा तत्व था, जिससे वह बचपन से ही अपनी अलग पंक्ति रचता था और उसपर चलकर सफलता के शिखर छू लेता था।
सीताराम जी न केवल मानसिक रूप से, बल्कि देखने-सुनने में भी संवेदना, करुणा आदि तरल तत्वों से रचे हुए लगते थे।उन्हें देखकर ऐसा लगता था जैसे वे मनुष्य नहीं गंधर्व हैं और इस धरती के होते हुए भी उनके सारे अवयव किन्हीं अलौकिक तत्वों से बने हुए हैं।
आश्चर्यजनक है यह जानना कि वे विभिन्न धुरों के शिखर पुरुषों, जैसे- गांधी जी, सुभाषचन्द्र बोस, रवींद्रनाथ ठाकुर आदि सभी के अत्यंत क़रीब थे।
सीताराम जी ने राष्ट्रीय स्वाधीनता संग्राम एवं सामाजिक जागरण में सक्रिय भाग लिया, उन्होंने नारी–उत्थान के लिए कई स्मरणीय कार्य किए।उन्होंने ज़मीन से जुड़कर खादी का प्रचार–प्रसार किया, साथ ही बंगालियों की कला और संस्कृति से प्रभावित होकर हिंदी भाषी लड़कियों के लिए कई स्कूल खोले जिनमें गायन, नृत्य आदि की भी कक्षाएँ होती थीं।
सीताराम जी के सद्प्रयासों से शांतिनिकेतन में हिंदी भवन खुला एवं उसके प्रथम शिक्षक के रूप में हजारी प्रसाद द्विवेदी की नियुक्ति हुई।
सीताराम सेकसरिया द्वारा किए गए सामाजिक कार्यों की सूची इतनी बड़ी है कि यदि उन्हें एक के ऊपर एक रखा जाए तो उनकी ऊँचाई शायद सर्वाधिक ऊँचे स्तूप से भी ऊँची होगी।
सीताराम सेकसरिया जी की करुणा के विस्तार का दायरा इतना बड़ा था कि हर कोई उन्हें अपना मानने लगता था।सुबह से शाम तक उनके यहाँ बेघर लोगों का ताँता लगा रहता था, जिनकी वे यथाशक्ति मदद करते थे।एक ख़ास क़िस्सा बंगाल के तत्कालीन राज्यपाल श्री एच.सी.मुखर्जी का हैः ‘‘एक दिन शाम की चाय के वक़्त सीताराम जी के दरवाजे की कुंडी खटखटाती है।दरवाजा खोलने पर सामने दिखते हैं, हाथ में टीन का एक तुड़ा-मुड़ा बक्सा लिए एक कृशकाय वृद्ध व्यक्ति! उनके आने का कारण पूछने पर जवाब मिलता है कि ‘‘साहब भी आए हैं, वे बाहर खड़े हैं।’’ सीताराम जी बदहवास से बाहर जाकर मुखर्जी साहब को अन्दर लाते हैं और उनसे आने का प्रयोजन पूछने पर वे कहते हैं, ‘‘आज उनका कार्यकाल खत्म हो गया है और उन्होंने राजभवन छोड़ दिया है, पर अब उनके सामने निवास की समस्या है।यदि सीताराम जी कम दाम में कोई कोठरी दिला दें, तो वे उपकृत होंगे।’’
बात स़िर्फ राज्यपाल महोदय की ही नहीं थी, दरअसल सीताराम जी का दरवाजा सबके लिए हर समय खुला रहता था और उनके दरवाजे से कोई भी खाली हाथ नहीं लौटता था।
‘कोहिनूर’-से सीताराम सेकसरिया पर लिखना ‘महाकठिन’ है, क्योंकि जब मैं उनके एक कोण को पकड़ने का प्रयास करती हूँ, तो उसी क्षण दूसरा कोण उससे दूनी चमक लिए दमकने लगता है, और जब उस दूसरे कोण को पकड़ने दौड़ती हूँ, तो ऐसा ही आभास अन्य कोणों को भी देखकर होता है।
‘‘दरअस्ल क़िस्सा उस ‘सीताराम’ का है जिसकी स्वयं की दौड़ का भी कोई अंत नहीं था।इसलिए मैं यह क्षमा याचना करने को बाध्य हो जाती हूँ कि ‘सीताराम जी’ की कीर्तियाँ अनंत-असीम हैं और मेरी कलम एवं बुद्धि ससीम!’’