वरिष्ठ लेखिका।‘सच कहती कहानियाँ’, ‘एक अचम्भा प्रेम’ (कहानी संग्रह)। ‘एक शख्स कहानी–सा’ (जीवनी) ‘लावण्यदेवी’, ‘जड़ियाबाई’, ‘लालबत्ती की अमृतकन्याएं’, ‘मारवाड़ी राजबाड़ी’ (उपन्यास) आदि चर्चित रचनाएँ।
हमारे सीमित ज्ञान में उत्तरी ध्रुव की यात्रा की कल्पना भी कल्पनातीत थी; हमने दूसरी-तीसरी जमात की, भूगोल की किताब में पढ़ा था कि वहाँ ब़र्फ ही ब़र्फ है। वहाँ के निवासी ‘एस्किमो’ नामक बौने हैं। कुप्पीनुमा ब़र्फ के घरों में रहते हैं। ब़र्फ को खोद कर कच्ची मछली खाते हैं और उसकी चर्बी का दिया जलाते हैं… आदि-आदि! बचपन की परीकथा और तीसरी-चौथी कक्षा में पढ़ा भूगोल चाहे जितना दिलचस्प और लुभावना लगे, पर वहाँ की यात्रा की सोचना भी मेरी हद से परे था। देश-देशान्तर की क़ाफी घुमक्कड़ी करने के बावजूद यह ‘उत्तरी धु्रव’ खुद की जद से बाहर ही लगता था।
समय का कमाल और विज्ञान का चमत्कार… कि उसने पूरी दुनिया हमारी हथेली पर धर दी। देखते ही देखते उत्तरी धु्रव की यात्रा का मामला सुलभता और सोच के दायरे में आ गया था। लेकिन एक दिक्कत थी, वहाँ केवल नैसर्गिक और प्राकृतिक सौन्दर्य के दीवाने ही जाने का मन बनाते हैं इसलिए साथी??… फिर रास्ता भी तो सीधा नहीं, यहाँ से कैनाडा, फिर वहाँ से समुद्री जहाज़ और कई छोटी-मोटी हवाई यात्राएँ… सब मिलाकर श्रम एवं व्यय दोनों ही ज़्यादा थे। लेकिन जैसा कि कहा जाता है कि मन-प्राण से पुकारने पर भगवान भी दर्शन दे देते हैं- बस कुछ-कुछ वैसे ही हम अलास्का (उत्तरी धु्रव) के प्रवेश द्वार ‘वैन्क्यूवर’ जा पहुँचे।
वैन्क्यूवर एक बहुत प्यारा शहर है। यहाँ के पहाड़, समुद्र, पेड़, रास्ते, झीलें, आकाश, मकान, आदमी, बातचीत, रहन-सहन, सभ्यता, संस्कृति आदि सब चीज़ें… अमेरिका एवं अन्य यूरोपीय देशों से भिन्न हैं। भारत की माटी से मिलती-जुलती उष्मा और अपनापन यदि विदेश में कहीं मिला तो वैन्क्यूवर में ही। सरकार के अप्रतिम योगदान से यहाँ के आम आदमी की खुशहाली एक ऐसा सच है जो असम्भव लगता है, एकबारगी भरोसा ही नहीं होता कि साधारण आदमी को भी कहीं आदमी समझा जाता है। सरकार की ईमानदारी इतनी पारदर्शी है कि यहाँ ग़रीबी रेखा खींचने की नौबत ही नहीं आती। बहरहाल! इस प्यारे शहर ने साँझ के झुटपुटे में हमें एक बड़े से पानी के जहाज़ में बैठा कर अलास्का की ओर विदा कर दिया।
जहाज़ अभी चला ही था कि सामने ‘थर्डब्रीज़’ अड़ा दिखा। 2800 आदमियों से लदी-फँदी यह दैत्याकार जहाज़ इस पुल के नीचे से निकलेगा कैसे? सोचने के पहले ही जहाज़ का हरहरा कर निकल जाना काफ़ी रोमांचक था। जहाज़ बेहिचक तेजी से निकला और गहरे नीले सिलवट-रहित (शांत समुद्र) मखमली कालीन पर बिना हिचकोले तैरने लगा। चन्द्रकिरणों ने मुट्ठी दर मुट्ठी,… टोकरी दर टोकरी… हीरे; उस नीले परिधान पर यूँ बिखेरने शुरू कर दिये मानों अभिसार करने निकली प्रकृति-प्रिया पर आकाश-पुरुष सुगंधित कामिनी के फूल छिटका रहा हो।
धवल चाँदनी में दूर खड़े 10 हजार फीट ऊँचे बर्फ़ीले पहाड़ और नैसर्गिक हरापन लिए घने जंगल हमें आमंत्रित करने लगे। चाँदनी इतनी अधिक थी कि यह पूरा दृश्य पानी में प्रतिबिम्बित हो रहा था ‘फ़ोटो फ्रेम’ की तरह।… रात की अठखेलियाँ बढ़ती जा रही थीं कि अचानक आँखें स़फेदी के आगोश में खो गईं। हाथ भर की दूरी पर खड़ा था… झकाझक ब़र्फ का स़फेद पहाड़,… हमारी साधारण आँखों को वह हिमालय सरीखा लगा, … लेकिन यह क्या? वह जादुई पहाड़! पलक झपकते ही न जाने कहाँ गायब हो गया। हम ‘ऊकचूक’ (हैरान) कि इतना बड़ा पहाड़ आखिर गया कहाँ? पूछने पर पता चला कि यह भी रेगिस्तान की ‘मृग मरीचिका’-सा एक छलावा है जो समुद्र और चाँद दुरभिसंधि कर यात्रियों के साथ खेलते हैं। जहाज़ के एक विशेष कोण से चाँदनी के चंदोवे से आच्छादित वह पहाड़,… अक्सर ऐसा भ्रम पैदा कर देता है मानों हमें वह छू रहा हो। प्रकृति की कभी-कभार की गईं ये रसिक शरारतें हमें बरबस स्मित हास्य से भर देती हैं।
अभिसार का समय प्रभास की गुलाबी आलोक पंक्ति से समाप्त होने लगा। क्रमश: यह पंक्ति, पंक्तियाँ बन गईं और फिर वे गुलाबी धारियाँ चौड़ी होकर पूरे क्षितिज पर यों छा गईं मानों राज-राजेश्वर के आगमन में तोरण द्वार सजाए गए हों, और यह गुलाबीपन बिखर कर सारी पहाड़ियों पर…जल पर… और आकाश पर छा गया। हवा, पत्ते, पक्षी, लहरें, चाँद, तारे सब चुप होकर दुबक गए… किसी आसन्न घटना की प्रतीक्षा में… और!!… देखते ही देखते उस विजेता ने मदिर अलसाए दरख्तों को, आकाश को, जल को, स्थल को और दसो दिशाओं को अपने पूरे शरीर की चौंध में लपेट लिया। पलक झपकते ही जल कलकल करने लगा, पक्षी कलरव करने लगे… पत्ते बजने लगे और फूल झरकर उसे अभिसिक्त करने लगे। वह स्वर्ण-सम्राट अंगड़ाई लेकर उठा और जगमगाता हुआ सबके अभिवादन स्वीकार करता आगे बढ़ गया।
उसने अपनी बाईं ओर ब़र्फ के सोये पहाड़ों को ऐसा घूरा कि वे टूट-टूट कर बड़े-बड़े शिलाखंडों में विभक्त हो; कभी लक्ष्मी के हाथी का… तो कभी विष्णु के गरुड़… और कभी मत्स्य, कच्छप और वराह आदि का रूप धरकर समुद्र की सतह पर तैरने लगे।
रात के हीरे अब बसरा के मोतियों के गुच्छे बनकर लड़ियों से अपने महाराजश्री के चरणों में चढ़ावा अर्पित कर रहे थे। चारों ओर की सघन हरियाली पृष्ठभूमि की सुघड़ भूमिका निबाह रही थी। आसपास की पर्वत-चोटियाँ सिरों पर शुभ्र मुकुट धारण किए अवनत-सी शुभ्रता अपने नीचे की ओर के गह्वरों में भर रही थ।
जहाज के अयन के साथ शुभ्रता के धवल खंड बढ़ रहे थे, लगा कि गजमुक्ताओं की तरह बिखरे इन शिलाखंडों का विशाल हार पिरोकर प्रकृति-रानी उठेंगी और शिव सरीखे ‘कर्पूर गौरं’ प्रेमी को यह हार पहना कर वरित कर लेगी।… क्यों ये सारी उपमाएँ-उपमान हिमालय के ही उभर रहे हैं(?) हमारे संस्कार(!!)… हमारी संस्कृति(!!!)… हमारी शिराओं के रक्त में प्रवाहित होकर हमारे मस्तिष्क को इतना आच्छादित कर देती है कि सर्वप्रथम तो किसी और प्रतिमान के लिए वहाँ अवकाश ही नहीं होता। यदि कुछ सूझे भी तो हमारा मानस उन्हें स्वीकार नहीं करता। ‘शरीर सितार’ के तारों पर गूँज रहा है-हिमगिरि के उत्तंग शिखर पर/ बैठ शिला की शीतल छाँह/एक पुरुष भीगे नयनों से/देख रहा था प्रलय प्रवाह/नीचे जल था, ऊपर हिम था/एक तरल था, एक सघन…
पृथ्वी का वृहत्तम और गहनतम सागर है यह प्रशांत महासागर… जो अलास्कन पर्वत-शृंखलाओं के चरण पखार रहा है- पर मुझे केवल और केवल दिख रहा है- केदारनाथ, उफरैखाल, गंगोत्री, जमुनोत्री का हिमालय, संदकफू की ऊँचाइयों से दिखती कंचनजंघा एवं नन्दा पर्वत श्रेणियाँ दिख रही हैं। उनके चरणों में बहतीं अनगिनत नदियाँ- गंगा-यमुना-मंदाकिनी-ब्रह्मपुत्र-अलकनन्दा-तिस्ता आदि।
वैसे ईमानदारी से पूछें तो यह सौन्दर्य भी खास कमतर नहीं है…
मंथर गति से बढ़ते हमारे जहाज़ ने बीच की घाटी में सेंध लगा दी है और दोनों ओर की पहाड़ियों से अपने शरीर को बचाते हुए उस घाटी में धीमे से उसका प्रवेश करना किसी कुमारी के अक्षत कौमार्य को भंग होने से बचाने का प्रयास-सा लग रहा है।… जहाज एक सच्चे प्रेमी की तरह बहुत ही सावधानी, सुन्दरता, शांति और भावुकता से उस कन्या के क्षेत्र में प्रवेश करने की अनुमति माँग रहा है।… वह संवेदना से पूरी तरह सराबोर है और उसका आग्रह किसी कामुक व्यक्ति की कामुकता के पूर्णत: विपरीत है। उसका पदक्षेप ॠषियों सरीखा है जो कन्याओं को अपने वरदान से पुन: कुमारीत्व प्रदान कर देते हैं।
ब़र्फ के पहाड़ को छू रहा है जहाज़!… ऊपर की ठोस चोटियों की तुलना में नीचे इकट्ठा ब़र्फ के बड़े ढूहों में उसी तरह की विनम्रता है, जैसे साम्राज्य से धकियाये हुए किसी राजपुरुष में होती है। अचानक बादलों में गड़गड़ाहट होती है और आँखें दूर क्षितिज के नीचे की पहाड़ी की ओर देखती हैं…। दिखता है… देवताओं की सत्ता से धकेले गए एक और देवता का स्खलन… ज़ोरों की ध्वनि करता हुआ… कराहता-सा ब़र्फ का एक दैत्याकार गोला… चोटियों से गिरकर पहाड़ों की गलियों में दाएँ-बाएँ चपेट खाता, चीखता-चिल्लाता धड़ाम से नीचे आ गिरता है।
जहाज़ के डेक पर झूलते दर्शक सहमकर पीछे हट जाते हैं, मानों 3डी सिनेमा की तरह वह उन पर ही आ गिरा हो।… चारों ओर ब़र्फ के धुएँ की सृष्टि करता वह बड़ा सा शिलाखंड भुरभुरी ब़र्फ में बदल जाता है। ‘फूट कुंभ जल जल ही समाना’ की तरह…! हालांकि यह गर्जन, तर्जन, खंडन, मंडन हमसे मीलों दूर था, पर अपने बड़े आकार के कारण एकदम पास लगा था। भुरभुरी ब़र्फ की बड़ी मात्रा के कारण सागर की ऊपरी परत ब़र्फमय हो गई थी । मन में क्षणिक विचार आया कि क्या कभी पूरा प्रशांत महासागर फिर वैसा ही जम जाएगा जैसा आदि-सृष्टि में था? …तभी बुद्धि ने चपत जड़कर समझाया- हे मूर्ख! जो बड़े हिमखंड हैं, वे ही गले जा रहे हैं और तू उस पवित्र आदि-सृष्टि की कल्पना में पड़ा है! आदि/ अलौकिक/ भव्य/ अविश्वसनीय/ कल्पनातीत हैं ये ‘हिमखंड’…
बाईं ओर की ये बर्फ़ीली पर्वत श्रेणियाँ लगातार साथ चल रही हैं।… क्या ये भी उसी तरह मेरे प्रेम में पड़ गई हैं, जैसी मैं इनके (?)… क्या इनमें भी वही मानवीय रागात्मक स्पंदन सृजित हो गया है, जैसा मुझमें अभी बज रहा है?…
सुना है पत्थर भी बड़े होते रहते हैं… क्योंकि उनमें भी वृक्षों की तरह प्राण है…। सुना यह भी है कि अमुक दरख्त किसी के ग़म की गाथा सुनते-सुनते उसके साथ ही मर गया था…!! तो क्या ये बर्फ़ीले पहाड़ भी अचानक सजग होकर उठ बैठेंगे (?)… और अपने कपड़ों से ब़र्फ की धूल झाड़ कर मुझे अपने आलिंगन में भर लेंगे?… क्या सूरज के चौंधपन का यह प्रतिबिम्ब इनमें प्राण-ऊर्जा भर देगा? ये हैं क्या(?) सदियों से सोए हुए विशाल हिम मानव हैं(?)… या तुरीयावस्था में पहुँचे हुए महर्षि(?)… या ये कोई शापग्रस्त देवता हैं(?) मुझे इनकी अलौकिकता लौकिकता में परिणत होकर ऐन्द्रिक होती प्रतीत हो रही है- क्या है यह माया जाल? क्या यही है शमशेर का कालोपरि भाव/भावोपरि सुख/आनंदोपरि सत्य/ सत्योपरि मैं (?)…
असंख्य सूर्य–रश्मियाँ पानी के साथ अठखेलियाँ कर रही हैं। वे कभी उसे इन्द्रधनुष का सतरंगी जामा पहना देती हैं– तो कभी सिर पर नीलम–सा नीला या पन्ने–सा हरा मुकुट पहना देती हैं। प्रकृति ‘प्रिज्म’ (समपार्श्वी) काँच से यह खेल खिला रही है। सागर आकाश और हिमालय… अपनी उम्र ताक पर रख बच्चों की तरह आँखमिचौली खेल रहे हैं।… लुकाछिपी का यह खेल कभी सघन वनों की अनन्त हरीतिमा में खो जाता है… तो कभी गहरी हरी अथाह गहराइयों में… कभी शुभ्र नीलिमा के संजाल से आच्छादित व्योम वितान में।…
सूरज थक रहा है। उसके दोस्त आकाश और सागर भी अलसा रहे हैं। तेज हवा थम सी गई है। सूरज भारी मन से दोस्तों को विदा दे रहा है, पर दोस्त उसका हाथ छोड़ना नहीं चाहते, किन्तु यह काल का चक- है जिसका दस्तूर मानने को सब बाध्य हैं। सूरज… आहिस्ता-आहिस्ता पश्चिम की ओर चला जा रहा है। वह बादलों को उनकी अरुणिमा वापस कर अपने गेह लौट रहा है। पत्ते, पेड़, पक्षी, पानी, हवा, पहाड़ सब!!… उसकी विदाई में मौन हैं… पर इस ‘पुनर्नवा’ प्रकृति में उदासी की जगह कहाँ (?)… यह तो सर्वदा से ही ‘स्मितमयी’ ठहरी। दूसरे ही क्षण सुनहरी कांगनी की एक डोर क्षितिज पर खिंच जाती है… सूर्य का सहभागी- चन्द्र… धीमे से ऊपर उठता हुआ सबको सान्त्वना देता है… पेड़-पानी-आकाश आदि से वादा करता है कि अब घर के मुखिया की ज़िम्मेदारी उसके कंधों पर है और उसे अपने कर्त्तव्यों का पूर्ण भान है…
अलास्कन शृंखला में तक़रीबन एक हज़ार बड़े ग्लेशियर (हिमनद) हैं। और छोटे तो अनगिनत। दीर्घ समय से दूर से दिखते उस अनछुए सौन्दर्य को जब स्पर्श करने की इच्छा बलवती हो उठी तो हमने ढेरों उपत्यकाओं के बीच से उड़कर पहाड़ की शिखर वाली ब़र्फ पर चलने की ठान ली।
हेलिकोप्टर ने जब हमें ‘जूनो’ के बर्फ़ीले शिखर पर उतारा, तो चारों ओर पसरी उस स्तब्ध सत्ता ने, उस सन्नाटे ने… उस अखंड-अनन्त मौन ने हमें… कुछ अलग ही प्रतीति कराई। उस क्षण में! मैं!!… मेरा!! तो दूर… हमारा अस्तित्व तक हवा में विलीन हो गया था,… अपने होने का भान ही जैसे तिरोहित हो गया था।… लग रहा था… इस विराट अलौकिक सत्ता में हम हैं क्या?… कितना बौना है हमारा कद!!… शायद एक कीड़े-मकोड़े सरीखा(?) या उससे भी कम!! एक अजीब क़िस्म का वायवीय सम्मोहन हमें जकड़ रहा था।…
कभी केदारनाथ के परे के ब़र्फ ढके पहाड़, कभी पोखरा (नेपाल) की ‘मत्स्यपुच्छ’ (मछली की पूंछ) पहाड़ी याद आती… तो कभी पटल पर खिंचता तिब्बत का पथरीला पठार… आँखों पर तिलिस्म का जादू चढ़ गया था… हालाँकि न तो इन पर्वत-श्रेणियों की ऊँचाई हिमालयी पहाड़ियों से ऊँची है, न ही यहाँ एल्प्स के पहाड़ों-सी साफ़-श़फ़्फ़ाफ़ बुर्राक ब़र्फ ही है… पर यहाँ का यह नीरव एकांत!! और यह घनघोर निविड़ शान्ति(?)…शायद यही इस सारे इन्द्रजाल की सृष्टि कर रही है। ब़र्फ के बीच में जगह-जगह प्राकृतिक नालियाँ बन गई हैं जिनमें से लगातार ग्लेशियर का पानी धारा बाँध कर यों नीचे आ रहा है मानों ऊपर आकाश में बैठी परी राजकुमारी दिव्य कपड़े धो रही है… पानी का रंग ऐसा गहरा नीला है… जैसे नील का पूरा डिब्बा इसमें लगातार घोला जा रहा है।
नीचे आते वक्त लाल, पीले, नीले, कत्थई, तँबई, तिरंगे, पंचरंगे पत्तों वाले हज़ारों मैपल (चिनार) के पेड़ चारों ओर खड़ी स़फेद सादी पहाड़ियों को शोभित करते दिखे। इन पेड़ों ने सारी पहाड़ियों को ऐसा रंग-बिरंगी धारियों वाला लहरदार लहँगा पहना दिया था, मानों पुरुष चितेरे ने प्रकृति-प्रिया को चित्र-विचित्र घाघरा पहना दिया है और रात को आदेश दिया है कि जब आएँ तो उसे तारों भरी चूनर ओढ़ा दे।
‘जूनो’ द्वीप अपनी ग्लेशियर सम्पदा के कारण पर्यटकों का ‘मनचीता’ है। यहीं की ‘ईगल ट्रामवे’ में जब 12 मील की ऊँचाई का सफ़र तय किया तो ब़र्फ के बीच असंख्य हिमनदियों और हरीतिमा के संसार में आँखें खो-सी गईं।
पहाड़ की चोटी पर पहुँचकर उतरे तो आँखें जहाँ तक जाएँ ब़र्फ ही ब़र्फ। ताज़ा स़फेद ब़र्फ पर पड़ा है आकाश का ‘अ़क़्स’, और उसे अपने में समेट वह शर्म से हल्की नीली हो गई है- ‘श्याम हरित द्युति’ की तरह।… पर यही स़फेद ब़र्फ बीच से चटककर जब दरार बनाती है तो उसमें से बहता पानी गहरे नीले रंग का दिखता है, पर पानी हाथ में उठाकर देखो तो एकदम स़फेद… हमारे चकित चेहरों को समझ ‘गाइड’ ने बताया कि यह नीलापन ऑक्सीज़न की पूर्णता और शुद्धता के कारण है;… पर ऐसा गहरा!… आँखों से न देखें तो यकीन ही न हो। दरार के साथ कुछ आगे बढ़ने पर उसका पानी ‘क्रीक’ (संकीर्ण नदी) से बहकर नीचे जाता दिखता है। पास से जो नाला गहरा नीला था दूर से उसी का रंग झक़ स़फेद दिखता है॥ वाह! यही तो है प्रकृति का खेल … एक ही सत्ता, पर स्थान के अनुरूप रूप …!!
इस अपरूप रूप में खोई आँखों में अचानक घबराहट भर गई।… माथे पर पसीना आ गया और हाथ सहारा ढूँढ़ने लगे। क्षणमात्र में ही सुन्दरता कुरूप लगने लगी। दरअस्ल हमारे पैरों की ज़मीन (ब़र्फ) ज़ोर से हिलकर दरकी थी और कमजोर मानव मन मृत्यु-भय के सामने सारे आस्वादों को भूल गया था। हमारी इस हालत पर ‘गाइड’ को हँसता देखकर उसे एक चपत ज़ोरों से जड़ने का मन हो रहा था। इतने में कानों के पर्दों को भेदती एक भयंकर आवाज़ ने हम दहशतज़दों की दहशत को और बढ़ा दिया…
अधमरे तनों में जान आने पर हमने ‘गाइड’ को घूर कर डाँट पिलानी चाही तो वह हँसते हुए यह कहता नज़र आया कि ‘अरे, भाग्यशाली हैं आप! जो ‘आइसबर्ग’ (हिमखण्ड) के टूटने-बिखरने की लीला देखी!!… बेफिक्र रहिए॥… यह ब़र्फ यहाँ लाखों वर्षों से है और ऐसे ही नित नूतन टूटती-बनती रहती है। हर वर्ष यहाँ 15 लाख पर्यटक आते हैं। 1000 झरनों के मालिक जूनो और केचिकेन में आपको बिल्कुल डर नहीं लगना चाहिए।… यहाँ तो चारों ओर अमृत बरस रहा है।’
उसके प्रवचन को अनसुना कर हम उसे मुँह फुलाए घूरते रहे और कहते रहे कि ‘पहले बताया क्यों नहीं?’ उसकी यह कैफ़ियत हमने कानों के नीचे ही मार दी कि यह सब बहुत ही आकस्मिक होता है।
जहाज़ के भोंपू पर घोषणा हो रही है, ‘हज़ारों मीलों में फैला यह ब़र्फ का साम्राज्य आपके स्वागत में पलक पाँवड़े बिछाए है। आपको जो अनुभव अलास्का में होंगे वे और कहीं भी सम्भव नहीं हैं। यहाँ की चील, कीलर व्हेल (हत्यारी), सील मछलियों की जमात, डॉलफिनों की कतार और ग्रिज्ली भालू अनोखे हैं। हम केचिकन पहुँच रहे हैं जहाँ विश्व के श्रेष्ठतम टैटमपोल और मिस्टी जोर्ड्स हैं। यहाँ के आदिवासी आपको सर्वदा स्मरणीय रहेंगे।’
घोषणा के बन्द होते ही पूछा, भाई! यह ‘मिस्टी जोर्ड्स’ क्या है? पता चलने पर कि पहाड़ों पर नक्काशी है!!… हमने डपट के साथ कहा, “हमारा ‘भेड़ा-घाट’ तो पूर्णत: नक्काशीदार है!! फिर इसमें क्या ख़ास बात है?” जवाब मिला, “इन्हें किसी नदी के पानी ने नहीं तराशा; बल्कि सदियों से जमी ब़र्फ से टूटे ढोंकों ने इन पहाड़ियों पर लुढ़क-पुढ़क कर छेनी सरीखी नक्काशी की है।” ‘केचिकन’ तट से मोटरबोट द्वारा जाकर इन पहाड़ियों को पास से देखा तब उपर्युक्त कथन की सत्यता पर विश्वास हुआ।
कुछेक सालों पहले तक सब यही मानते थे कि उत्तरी धु्रव के लोग ‘इग्लू’ में रहते हैं, और ‘एस्किमो’ कहलाते हैं। उनके पास रेंडियर नाम का एक जानवर रहता है… और वे गड्ढा खोदकर उसमें से मछली निकाल कर कच्ची खा लेते हैं। उन मछलियों की चर्बी का ही दिया जलाते हैं और हुडदार फर का आपादमस्तक कोट पहने रहते हैं- आदि-आदि! हमारी नन्हीं आँखें उन चित्रों को बहुत ही हैरत भरी नज़रों से देखती थीं, लेकिन हक़ीकत एकदम विपरीत है। केचिकन में कई ‘एस्किमों’ से मुलाकात हुई। उनका नाच भी देखा। बातचीत के दौरान उन्होंने अत्यन्त सहजता से बताया कि हज़ारों हज़ार वर्ष पहले उनके आदिपुरुष ऊपर रहते थे, पर ब़र्फ के सरकते पहाड़ों और मुँदतीं कंदराओं ने हज़ारों वर्ष पहले उन लोगों को केचिकन, जूनो, स्टिका आदि-आदि स्थानों पर रहने को बाध्य कर दिया। दस-पन्द्रह व्यक्तियों का यह एस्किमो परिवार फ़र्राटेदार अँग्रेजी बोल रहा था। हमें दिखाने को उन लोगों ने अपने परम्परागत वस्त्र और तीर-कमान आदि धारण कर रखे थे और उनका चेहरा-मोहरा भारत के आदिवासियों सरीखा ही था, सिवा उनके गुलाबी गोरे रंग के। अण्डमान-निकोबार के आदिवासियों की तरह ही पहले उनका खानपान भी पूरी तरह प्रकृति से जुड़ा था… जिसमें फल-फूल, मांस, मधु आदि की बहुतायत थी, पर अब यहाँ के एस्किमो ग्रामीण अमेरिकन सरीखा जीवन यापन करते हैं। उनसे मिलकर कई मतिभ्रमों का जाल परिष्कृत हुआ। केचिकन अपने ‘टैटमपोल’ के कारण प्रसिद्ध है। उत्तरी अमेरिका की माचोपीचू सभ्यता के प्रभाव से यहाँ ऊँचे-ऊँचे खम्भों पर चित्र चित्रित किए जाते हैं। ये चित्र अपनी सामयिक घटनाओं का दस्तावेज़ भी होते हैं।
टैटमपोल का शरीर लम्बा और संकड़ा होता है। भारत की कठपुतलियों की तरह ही लाल, हरे, स़फेद और नीले रंगों से इनका चेहरा-मोहरा आँका जाता है। इन्हें देख सहज ही पुरी के जगन्नाथ याद आ जाते हैं। ‘केचिकन’ में ही ज़ीपलाइन से ‘रेन फॉरेस्ट’ (नैसर्गिक जंगल) में जाकर ‘स्लाइड माउन्टैन’ (फिसलता पर्वत) के झरनों के बीच से तेज़ गति से ऊपर जाना या कि ‘हरिंग-कोव’ में घुसकर समुद्र तट पर गुरिल्ला सरीखे काले भालुओं को पानी से मछली पकड़ कर खाते देखना, या पानी में सीटी बजाकर जल के फव्वारे ऊपर उड़ातीं व्हेल मछलियों को निहारना एक सुखद अनुभव है।
इनकी पूँछ हवाई जहाज की पूँछ की तरह एक लय में उठकर पानी में वापस घुसती है, सीटी बजती है और पानी का फ़व्वारा छूटता है। बड़ी संख्या में स़फेद, काली व्हेलें 30 मील की ऱफ़्तार से भाई-भतीजों को साथ लिए आगे बढ़ती दिखती हैं। इस ओर की पहाड़ी पर ऊपर से नीचे तक सैकड़ों की संख्या में ‘डॉल्फिन’ धूप सेंकतीं और कुछ ही दूरी पर ढेरों-ढेर ‘सील मछलियाँ’ अपनी चिकनी-चुपड़ी त्वचा से सबको मोहती नज़र आती हैं।
प्रकृति चाहे जितनी नव्या हो मनुष्य उसे क़ैद कर ही लेता है। एक महिला डेक पर रंगों का ख़जाना फैलाए गहनों के डिजाइन बना रही है। उसने बताया कि जहाज़ की गति से उसके चारों ओर जो पन्ने जैसी लहरें पैदा हो रही हैं… उन पर झाग (फेन) स़फेद हैं और बगल में ही गहरा नीलम–सा जल बिखरा हुआ है। मैं मरकत मणि (हरी) को स़फेद सोने की जाली में बाँधकर उसके इर्द–गिर्द नीलम सजाऊँगी– पन्ने, नीलम और स़फेद झाग का ऐसा संगम मैंने पहले कभी नहीं सोचा था, पर आज इसे देखकर लगता है कि यह नमूना तो ‘क्रिस्टी’ (विश्व प्रसिद्ध गहना कम्पनी) अवश्य खरीद लेगी।
हमारी बातचीत चल ही रही थी कि उस महिला ने हड़बड़ा कर आवाज़ दी- “ऐ! ऐ!! यह क्या कर रहे हो जॉन? देखो! … प्लीज़ कोई बदमाशी मत करना!! पर जब तक वह दौड़कर उस नटखट बच्चे को पकड़ती, जॉन ने चिपकने वाले काग़ज़ पर जो राक्षसी चेहरा बनाया था, उसे, पास ही डेक पर खर्राटे लेते एक गंजे वृद्ध के सिर के पिछले हिस्से पर चिपका दिया… वे भद्र पुरुष वैसे ही मजे में सोते रहे। … थोड़ी देर बाद जब उनकी पत्नी ने आकर उन्हें झकझोरा तो वे चौंक कर उठे। … उनकी हालत देखकर और तो और उनकी पत्नी भी अपनी हँसी नहीं रोक पाई और ठठाकर हो-हो करती हँसने लगी। मुझे डर लग रहा था कि ये भद्र पुरुष अब जॉन की कस कर खबर लेंगे, पर उन्होंने उसे पास बुलाकर पुचकारा और गोद में उठा कर कहा, ‘थैंक्स टु मेक सो मेनी पीपल लाफ़’ (धन्यवाद कि तुमने इतने लोगों को हँसाया)।
तभी जहाज़ के भोंपू ने आवाज़ लगाई, “केचिकन के बाद हम अब हैन्स और स्टिका होते हुए फेयर बैंक्स जाएँगे।” ‘फेयर बैंक्स’ अर्थात् हमारा गंतव्य हमारा इष्ट, ‘अरोरा बोरियलिस’ का ठाँव।
हैन्स और स्टिका की ओर जाता जहाज़ ऐसा लग रहा था जैसे चाँदी पर तैर रहा हो। चमकते सूरज ने समुद्र की सत्ता को विलीन कर अपनी प्रभुता की घोषणा कर दी थी। चमचमाता आलोक आँखों को चुँधिया रहा था। वहाँ केवल एक ही सत्ता विद्यमान थी- प्रकाश की।…
सूरज समुद्र को मुँह चिढ़ा रहा था, “बड़ी धौंस में थे कि तीन चौथाई धरती पर तुम हो, पर आँखें खोलकर देखो, कहीं हो तुम?” पर ‘चार दिन की चाँदनी’ वाली कहावत की तरह ही सूरज की यह बदमिज़ाजी कुछ ही क्षणों में धूमिल हो गई- समुद्र ने न तो उसे धकियाया न ही धमकाया!! ठंडे देश के सूरज की बिसात का उसे अंदाज़ था इसलिए वह ‘स्थितप्रज्ञ’-सा ‘समलय’ में स्थित रहा।
हालाँकि सूरज ठहरा सूरज!! डूबता हुआ भी चौंधिया रहा है पूरी धरती के सम्पूर्ण जल-थल-वनस्पति को, दक्षिण आकाश को स्वर्णमय करता हुआ मद्धिम गति से चला जा रहा है… बाईं ओर से हल्का गुलाबी चन्द्रमा उग रहा है, फिर भी शीतल है। वह बिना आहट के प्रवेश करता है … आकाश पर सूरज का आधिपत्य स्वीकार करता हुआ… सहमता-सा… ऐसी ध्वनिरहित पदचाप से आ रहा है कि सूरज के अहं को ज़रा भी ठेस न लग जाए और उसके राज में चाँद का हस्तक्षेप हस्ताक्षरित न हो जाए!!… मदिर… शीतल… धीमा… 600 के कोण पर झाँक-झाँक कर आहिस्ता-सा आ रहा है।… आकाश के पल्लू के दोनों ही सिरों पर खचित हैं- उगता चाँद… डूबता सूरज।
बहरहाल, अभी तक अलास्का के किसी गाँव में इतनी बड़ी संख्या में पशु नज़र नहीं आए थे जितने ‘हैन्स’ और ‘स्टिका’ में। यहाँ के लोग इन्हें पाल ही नहीं रहे हैं, बल्कि उनके साथ एकमयता से रह रहे हैं। ऊँचे-बड़े बारहसिंगों (अँग्रेजी सिनेमा के सेन्टा क्लॉज के रेंडियर-से) से लेकर बड़ी गिलहरी, भालू के आकार की जंगली बिल्ली और भी न जाने क्या-क्या यहाँ दिखाई देती है।
1898 में बनी यहाँ की रंग-बिरंगी रेल जब अंधेरी सुरंगों से गुज़रती है, बच्चों की तरह चीखने का मन करता है। सिसकारी तो निकल ही जाती है। यहाँ का अजीब अज़ायबघर ‘हैमर म्यूज़ियम’ (हथौड़ा) है, जिसमें सैकड़ों तरह के हथौड़े सजे हुए हैं। हेन्स में एक और अजूबा देखा। जैसा कि बहुविदित है कि रूस ने 20 जून 1867 के दिन अलास्का को 7.2 मिलियन डॉलर में अमेरिका को बेच दिया था। अब अलास्का पूर्णत: अमेरिकन है, किन्तु विस्मयकारी था यह देखना कि कई रूसी सांस्कृतिक रंगकर्मी अपने दलों के साथ वहाँ रहकर मनोहारी रूसी नृत्य और लुभावने नाटकों के द्वारा वहाँ अपनी संस्कृति का प्रतिनिधित्व करते हैं। अमेरिकन सम्पत्ति पर रूस का यह सांस्कृतिक आधिपत्य क़ाबिले तारीफ़ था।
हर व़क़्त तौल में भारत का बटखरा भारी मानने के बावजूद मुझे यह स्वीकार करना ही पड़ा कि हमसे ज्यादा विदेशियों में अपने देश के प्रति सम्मान है। यायावरी के अनेकानेक छोटे-छोटे अनुभवों ने दिखाया कि ये लोग काग़ज़ की एक चिंदी भी दूर चलकर कूड़ेदानी में फेंकते हैं,… कभी पंक्ति नहीं तोड़ते… सार्वजनिक सम्पत्ति की सार-सम्भाल निजी सम्पत्ति की तरह करते हैं। पर्यटकों हेतु सुविधाओं का तो पारावार ही नहीं है।… बीहड़तम जंगल हो, या उच्चतम ऊँचाई, ऐसी कोई जगह नहीं मिलेगी जहाँ प्राथमिक सुविधाएँ न हों। सघन जंगल और बर्फ़ीले शिखर पर ऐसा प्रसाधन शौचालय मौज़ूद है कि पाँच सितारा होटलों को मात दे। प्राथमिक चिकित्सा का तो कहना ही क्या… काफ़ी कुछ अस्पताली सुविधाओं आदि की सुलभता देख अचरज होता है।
समापन की ओर बढ़ती यात्रा का लक्ष्य था ‘फेयर बैंक्स’, जहाँ सम्भावना थी कि हमें उस अलौकिक आलोक के दर्शन हो जाएँ, जिसकी आकर्षण शक्ति हज़ारों मिलों से हमें वहाँ खींच लाई है। बस से अड्डे की ओर जाते समय गाइड की आह्लादित चीख सुनाई दी- “लकी! लकी! जस्ट टेक ए लुक” (आप भाग्यशाली हैं, ज़रा यह नज़ारा देखें।) कैसा नज़ारा? हमारे हिसाब से तो अरोरा बोरियालिस का आलोक मध्य रात के पहले सम्भव नहीं है, फिर यहाँ ऐसा क्या है? बस झटके से रुकी और हम सब उस जंगली सड़क पर बिना आहट के उतर गए।… देखा कि गहरे काले रंग का शरीर और बुर्राक स़फेद गरदन धारण किए एक गिद्ध के आकार की चील ऊँचे पेड़ के बीचों-बीच अपने घोंसले में गरदन ताने बैठी थी। उससे कुछ दूरी पर एक छोटी पहाड़ी पर पचासों चीलें कभी छोटी हिमनदियों में चोंच डुबोतीं तो कभी घास से कीड़े खातीं मटरगश्ती कर रही थीं। वे बेफ़िक्र बेख़ौफ़ इधर से उधर इठलाती घूम रही थीं। ऊपर बैठी वह महारानी सबकी चौकसी तो कर ही रही थी, लगता था वहीं से बैठी वह इन पर हुक्म भी चला रही है। हालाँकि पक्षी सभी सुन्दर होते हैं, पर जैसा पागलपन अमेरिकनों में इस चील के लिए है उसे देखकर हँसी आई… मन में आया कहूूँ, यह चील आपका ‘राष्ट्रीय पक्षी’ है, पर ज़रा हमारे ‘मयूर’ से मिलाकर देखिए!
समापन की ओर बढ़ती यात्रा के उगते सूर्य ने आज दिखाया ‘फेयर बैंक्स’ का किनारा। अर्जुन के लक्ष्यभेद की तरह, यही तो था हमारा एक मात्र असली आकर्षण, हज़ारों मीलों की यात्रा कर जिस अलौकिक आलोक के दर्शन करने हम आए थे उसी इष्ट का तीर्थ स्थल।… तट से कुछ ऊँचाई पर बने ‘काँचघर’ में हम रात की प्रतीक्षा करने लगे। होंठों पर प्रार्थना के स्वर बुदबुदा रहे थे…। मन कसमें खा रहा था भविष्य में अच्छे कर्म करने की। संस्कार दुहाई दे रहे थे, अपने संचित पुण्यों की।… हे परमपिता! बस एक ही कृपा करो… उस भव्य-दिव्य अलौकिकता का दर्शन हमारी इन्द्रियों को करने दो। हमारी इस मनोदशा को गिड़गिड़ाने या रिरियाने से भी निरीह कोई शब्द ही व्यक्त कर सकता है।
हालाँकि गाइड कह रहा था कि आज मौसम अनुकूल है… आप सौभाग्यशाली हैं … आपको ‘अरोरा’ जरूर दिखेगा!! पर हम अपने बचपन में लौट कर भगवान को रिश्वत पर रिश्वत दिए जा रहे थे। हमारी मन्नतों के अम्बार में शायद वह असीम भी दब गया होगा। … मन की छटपटाहट और हृदय की धड़कन कम नहीं हो रही थी… अंगुलियाँ अनदिखे मनके फेर रही थीं, होंठों पर अजपा जाप चल रहा था, और आँखें तो पश्चिमी आकाश पर ही जा चिपकी थीं। हम टकटकी बाँधे देख रहे थे, कब शाम हुई, कब रात ढली… सब दिख कर भी अनदिखा था… रात गहरा रही थी।
हमलोगों ने मनसा वाचा कर्मणा तीनों को हरकतहीन कर दिया था। हमारा सारा वज़ूद आँखों में सिमट आया था… हमारा रोम-रोम आँखें बन प्रतीक्षा कर रहा था उस अमृतमय घड़ी की जिसके लिए हम पृथ्वी के दूसरे छोर से यहाँ आकर ठण्ड में ठिठुरते हुए प्रतीक्षारत हैं…आधी रात बीत चली थी!… कहीं कोई आसार नहीं!… आकाश में चिड़िया भी दिखती तो झुंझलाहट होती थी… कई जोड़ी आँखें एक-दूसरे के हाथों को छुए हुए लरज़ रही थीं- बेबसी से देखे जा रही थीं… कि एक सीत्कार-सी हुई और पश्चिम का क्षितिज चमकते हरे (फलोरोसेंट) रंग से भर गया.. एक किरीट की तरह ऊपर उठता वह रंग नीचे अनुराग के लाल रंग से भरा था। उस शुभ्र प्रकाश में कहीं कोई धूमिलता नहीं थी- वह पवित्र था, सच्चा था। तेजी से ऊपर उठता वह प्रकाश पुराने रंगों से अलग था। उसका हरा हरा नहीं और लाल लाल नहीं लग रहा था। यह क्या? पीली, नारंगी, बैंगनी, गहरी लाल और हरे रंग की लम्बी पट्टियों से सजा यह झीना परदा पूरे आकाश को आवृत्त करता, परी के कलीदार घाघरे की तरह थिरकता, अचानक पास आता और पल भर में ही दूर चला जाता। रंग-बिरंगी चमकती किरणों से रचा बुना यह विचित्र आवरण पहनकर पृथ्वी की सतह से 70 मील की ऊँचाई पर परियाँ नाच रही हैं- लहँगे को घुमातीं, मरोड़तीं, बलखातीं ये अदृश्य दिव्य बालाएँ वातावरण में लगभग 12 मिनट तक छाई रहीं और फिर कत्थक के चक्कर पर चक्कर खाती हुईं एक विशाल हरे किरीट का रूप धर कर धीरे-धीरे अपने केन्द्र बिन्दु पर पहुँचकर गायब हो गईं। …
क्या है यह! क्या यह केवल हमारी आँखों का भ्रम है? एक-दूसरे को टटोलकर हम वापस क्षितिज को अनिमेष तकते रहे। एक चुम्बकीय आकर्षण था… उस सौन्दर्य में… जिसने हमें जकड़ लिया था और जो हमें धुरी से ज़रा भी हिलने नहीं दे रहा था। आदित्यरुद्र और विष्णु सहस्रनाम में जितने भी प्रकाश के नाम हैं सब मस्तिष्क में डोलने लगे। क्या है यह? क्या कोई वायवीय शक्ति (?) जो हमें सम्मोहित कर रही है।… या हम सचमुच ऐसा घटित होता देख रहे हैं…?
कहते हैं ग्रीस में इसका नाम ‘परियों का नृत्य’ है। रोम में प्रभात की देवी उषा को ‘अरोरा’ कहते हैं और पश्चिमी हवा को ‘बोरियालिस’। शायद इसीलिए इसका नाम ‘अरोरा बोरियालिस’ पड़ा हो, वैसे इस झिलमिलाते जादुई प्रकाश की उत्पत्ति और अवतरण पर अनेक वैज्ञानिक-शोधें हो चुकी हैं और हो रही हैं। वैज्ञानिकों ने इसकी उत्पत्ति को प्रकृति का क़रिश्मा तो माना ही है, पर उसमें ढेरों रूखे-सूखे तथ्य भी ठूँस दिए हैं। हम मंद बुद्धियों के लिए तो यह एक अनुभवातीत अनुभव ही था, उस अनन्त, अखण्ड, असीम का एक जलवा ही था। हमारी मान्यता है कि क्या कभी असीम को सीमा में बाँधा जा सकता है? क्या लावण्य और कांति को परिभाषित किया जा सकता है? दरअस्ल अमूर्त्त को मूर्त्त में बाँधने का प्रयास उस हज़ारों कोणों वाले हीरे के मध्य को खोजने जैसा है जो हर स्थान से बराबर लगता है। इसे स़िर्फ उस लीलामय की अद्भुत-अनोखी-अनूठी लीला मानकर गूँगे के गुड़ की तरह अनुभूत किया जा सकता है।… वरना तुलसी को क्यों कहना पड़ता ‘गिरा अनयन नयन बिनु बानी’।
निविड़ मध्यरात्रि के उस गहन अंधकार को भेद कर झाँकता हुआ वह दिव्य अलौकिक प्रकाश हमारे रोम-रोम को सिहरा रहा था,… हम पलट कर कभी उसे देखते,… कभी धन्यवाद की मुद्रा में आकाश को,… तो कभी एक-दूसरे को।… पुलकावलि क्या होती है(?) रोमांच क्या होता है (?) आनन्द क्या होता है (?) उसका एक छोटा सा अनुभव हमें हुआ था। हम एक लोकातीत, अनुभवातीत, ज्ञानातीत- अनुभव से गुज़रे थे और ‘ट्रान्स’ (उत्कर्ष) की स्थिति में थे।
बिना कुछ बोले,… बिना स्पर्श किए, हम एक-दूसरे के मन को जान रहे थे। हम गूँगे और अंधे-से धीमे से उठे और गहरे क़दम रखते हुए लौटने लगे।… हमारे हाथों ने जब अपने चेहरों को छुुआ तो अनजाने में ही गीले हुए उन कपोलों का स्पर्श हुआ जो आनन्द के अतिरेक में अश्रुजल से भीग गए थे।…
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