‘भैया..! जरा कंबल दिखाइए।’
‘कैसा कंबल चाहिए भाई साहब…? कितने तक का दिखाऊं, ओढ़ने के लिए या बिछाने के लिए?’
‘अपने यूज़ के लिए नहीं चाहिए।’
‘फिर? भिखारियों को दान-वान के लिए तो नहीं चाहिए न…?’
‘हां… बिल्कुल सही, दान के लिए ही चाहिए था।’
‘तो ऐसे कहिए ना बाबूजी, उसे छोड़ दीजिए।’
‘रामू…!’
‘आया मालिक।’
‘साहब को दान करने वाले कंबल दिखाओ।’
‘आइए बाबू जी, इधर आइए।’
अरे ये क्या दिखा रहे हो…? ये तो बहुत हल्के हैं।’
‘दान वाले तो यही हैं सर…! बाकी मालिक से बात कर लीजिए।’
‘क्या हुआ रामू…?’
‘साहब कह रहे हैं कि ये बहुत हल्के हैं।’
‘पहली बार दान कर रहे हैं क्या बाबूजी…?’
‘जी…। पहली बार ही समझिए।’
‘भिखारियों को दान करना है तो ये कंबल ठीक हैं। लोग यही ले जाते हैं और अगर उनकी सर्दी दूर करनी है तो आपकी मर्जी!’
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