युवा कहानीकार और पत्रकार

सफर धनबाद तक का है। वहाँ तक मेरे घर से डायरेक्ट कोई फ्लाइट नहीं जाती। ट्रेन से रिजर्वेशन कराया है। कोई ख़ास दूर नहीं है धनबाद। आराम से जाया जा सकता है ट्रेन से। मगर मसला ये है कि ट्रेन का नाम सुनते ही मुझे घबराहट होने लगती है। ट्रेन को, रेलवे प्लेटफार्म को, प्लेटफार्म पर भीड़ और ट्रेन से उतरती और चढ़ती भीड़ को देख कर, या फिर ट्रेन के दरवाजे के हैंडल्स को छूने के बाद हाथों में जो लोहे की सी मुश्क आती है उस से, न जाने किस वजह से ट्रेन से सफर करने के तसव्वुर से ही मुझे चक्कर आने लगते हैं, हाथ और पैर लरज़ने लगते हैं, सांसें फूलने लगती हैं, बदन एकदम से गर्म हो जाता है और दम घुटने लगता है। ऐसा लगता है जैसे मैं मदद के लिए पुकारना चाहती हूँ मगर किसी तरह से ऐसा मुमकिन नहीं हो पाता और मैं किसी गहरी सुरंग में दाख़िल हो जाती हूँ। इस अज़ीयतनाक कर्ब से निजात पाने के लिए मुझे चाहिए ताज़ा हवा। एक तो सुरंग की तारीकी ऊपर से ग़शी की सी हालत, मैं इधर उधर भागने लगती हूँ, हवा को ढूंढने, हवा को पकड़ने, हवा को अपने जिस्म में लपेटने और हवा को खाने, और मेरे हिस्से आती हैं दीवारें, सुरंग की तारीक दीवारें। गर्मी इस क़दर महसूस होती है जैसे मैं पिघल जाऊंगी, जैसे लोगों की परवाह किए बग़ैर मैं अपने कपड़े फाड़ डालूंगी, जैसे… जैसे…

नहीं ये कैफ़ियत बयान करना मेरे लिए आसान नहीं। ऐसा मेरे साथ कई दफ़ा हुआ है। मगर हर बार ऐसा हो ये ज़रूरी नहीं, और हर बार ट्रेन में हो ऐसा भी ज़रूरी नहीं। एक दफ़ा मुंबई से गोवा जाते हुए वॉल्वो बस में हुआ था, फिर दो बार लिफ्ट में, और एक बार ट्रेन में। मगर ये जिंदगी है और सफ़र तो करना ही पड़ता है। शुक्र है मेरे माली हालात अच्छे हैं, तंग हाल होती तो क्या होता? मैंने अपने आपको समझाया। फिर सोचने लगी क्या मुफ़लिसी में किसी को इस तरह के हालात से गुज़रना पड़ता है? या ये सिर्फ अमीरों के चोंचले हैं? मगर मुझे बचपन से ही ऐसा महसूस होता आया है और मासूम बचपन अमीरी और ग़रीबी के दायरे से परे होता है जैसे कोई आज़ाद परिंदा। मगर उस आज़ाद परिंदे को क़ैद कर दिया जाए तो? क़ैद! कई दफ़ा हम अपने आपको भी क़ैद कर लेते हैं। हाँ, इंसान में अफ़सोस कि इस तरह की कुव्वत मौजूद है। बहरहाल!

मैंने एक इस तरह की ए.सी. सुपरफ़ास्ट ट्रेन में टिकट बुक की जिसमें ज्यादा स्टोपेज नहीं थे। बेचैनी की वजह से कई घंटों से सोई नहीं हूँ, लिहाज़ा सोते-सोते सफ़र कट जाएगा, ये सोचकर मैं रात के आठ बजे वाली ट्रेन, जो अपने निर्धारित समय पर चल रही थी, में जा बैठी और दस मिनट में ही सो गई।

मेरी बेचैनी का सबब ग़लत साबित हुआ। ऐसा कुछ भी नहीं हुआ जिसका मुझे डर था, अभी तक तो कुछ नहीं हुआ। मैं पांच-छह घंटे सोई रही। अब मुझे सुकून है, बस थोड़ी ही देर में धनबाद पहुँच जाऊंगी। इत्मीनान की सांस ली ही थी कि ट्रेन किसी स्टेशन से थोड़ी दूर रुक गई। रात के दो बजे थे। सर्दियों के दिन थे। ज्यादातर मुसाफ़िर सो रहे थे, कंपार्टमेंट की बत्तियां गुल थीं। मैंने मन ही मन में कहा, कौन सा स्टेशन होगा? मैं चश्मा ढूंढने लगी। चश्मा मिले उस से पहले ही मैंने बग़ल की सीट पर बैठी औरत, जो इयर फोंस लगा कर गाना सुन रही थी, से पूछा, ‘कौन सा स्टेशन है?’

उसने इयरफ़ोन्स निकाले, खिड़की से बाहर देखा, और कहा, ‘बोकारो है शायद, मगर ट्रेन प्लेटफार्म से अभी थोड़ी दूरी पर है।’

मैंने सोचा, बोकारो पर तो ये ट्रेन दो मिनट से ज्यादा नहीं रुकती या बोकारो का तो स्टोपेज है ही नहीं इस ट्रेन का, फिर आधे घंटे से यहाँ कैसे रुकी है? मैंने परेशानी ज़ाहिर करते हुए वाशरूम की तरफ जाते हुए एक पैसेंजर से पूछा, ‘आख़िर बात क्या है, ट्रेन क्यूँ रुकी हुई है?’

उस आदमी ने बताया, ‘कोई ट्रेन के नीचे आकर कट गया है शायद, उसी की लाश निकालने में देर हो रही है।’

मैंने अफ़सोस ज़ाहिर किया और उसने भी अपने चेहरे पर उदासी-सी तारी कर ली, मगर हम दोनों ही जानते थे ये महज़ एक फॉर्मेलिटी है। हम सबको, जो पैसेंजर्स जाग रहे थे, जिस किसी भी कंपार्टमेंट में, ट्रेन के चलने भर से मतलब था। उन सबको कहीं पहुँचने की जल्दी थी और मुझे… मुझे उसी अंधेरी सुरंग में दाख़िल होने के डर से बचना था।

मुझे अफ़सोस सिर्फ ट्रेन के रुके रहने का था। नफ्सियाती तौर पर मैं अवसाद-ग्रस्त हो गई थी। मैंने इस कैफ़ियत से घबरा कर खिड़की से बाहर झांका तो पाया एक बूढ़ा लकड़ी का गट्ठर लिए जा रहा था। मैंने उसे गौर से देखने की कोशिश की। आख़िरकार चश्मा बैग में से टटोल कर निकाला और पहन ही लिया, फिर गौर से देखा, ‘हाँ, मेरा शुब्हा सही निकला, ये तो रामो सेठ ही है।’ मैंने मन ही मन में कहा। मगर, रामो सेठ यहाँ?

रामो सेठ को आख़री बार मैंने तब देखा था जब मैं आठ साल की थी। कितने साल हो गए होंगे? मैंने हिसाब लगाना शुरू किया। ग़ालिबन चालीस साल पहले की बात है! हम राउरकेला में रहा करते थे। वहां का लेबड़ीया खानदान मशहूर था। वे मध्य प्रदेश के एक छोटे से गांव लेबड़ से आए थे और राउरकेला में रिहाइश इख्तियार कर ली थी। किसी ज़माने में उनके पास इतनी दौलत, शोहरत हुआ करती थी कि तीज त्योहार या ब्याह शादी के वक़्त नौकरों को भी चांदी के बर्तन और सोने का कोई ज़ेवर मिलता ही था। कपड़े लत्ते की तो पूछिए ही मत। लेबड़ीया खानदान के कई कारख़ाने थे, राइस मिलें, तेल मिलें, क्रशअर, और कई और धंधे थे। उम्र भी सबने कमाल की पाई थी, कोई मर ही नहीं रहा था। उस घर में जितने बूढ़े थे, उतने ही बच्चे भी थे। बच्चे बड़े हो रहे थे, और बूढ़े और बूढ़े हो रहे थे। इस तरह ख़ानदान में मज़ीद इज़ाफा होता चला जा रहा था। खैर!

हमारा मतलब यहाँ रामो सेठ से है। रामो सेठ के चार भाई थे और एक भाई की औसतन सात औलादें। रामो सेठ के चार बच्चे थे, दो लड़के और दो लड़कियां। बड़ा बेटा अभी दस का भी नहीं हुआ था कि रामो सेठ का दिल उसकी मुलाज़्मा पर आ गया। और एक दिन यूँ हुआ जैसा कि लोग कहते हैं वो सब कुछ छोड़-छाड़कर मुलाज़्मा के साथ निकल लिया। ये तब की बातें हैं जब मैं पैदा भी नहीं हुई थी। माँ और आस पड़ोस की औरतों में जो बातें होती थीं उसी से जो मैंने समझा, वही बयान कर रही हूँ।

मुलाज़्मा में मेरी दिलचस्पी इस वजह से हुई कि रामो सेठ को जायदाद से बेदख़ल कर देने के बावजूद भी वो रामो सेठ के साथ जाने के लिए राज़ी हो गई थी। ज़ाहिर है रामो सेठ में रईस होने के अलावा कोई तो ख़ास बात ज़रूर रही होगी और रामो सेठ भी अपनी बीवी, (जो दिखने में ख़ासी अच्छी थी, बस फ़रबा बदन थी और हो भी क्यूँ ना आख़िर चार बच्चे जन चुकी थी और घर में करने को कुछ काम था नहीं, बस ठाट बाट थे) चार बच्चे और बेशुमार धन-दौलत छोड़कर मुलाज़्मा के साथ ख़ाली हाथ चल दिया, तो मुलाज़्मा में भी कोई कमाल तो ज़रूर होगा। रामो सेठ चाहता तो अपने भाइयों की तरह अपने जायक़े के मुताबिक औरतें या लड़कियां मंगवा कर अपनी ख्वाहिशें पूरी कर सकता था। फिर उसकी बीवी भी यूँ हर तीज त्योहार पर न रोती। वो भी उन सेठानियों की तरह झूठी शान में मगन रहती। रामो सेठ की बीवी से सबको हमदर्दी थी। चार बच्चे थे संभालने को, जायदाद में जहां बाक़ी भाइयों को पुश्तैनी हवेली में दस-दस कमरे नसीब आए, वहाँ रामो की बीवी को दो कोने वाले कमरे दे दिए गए। उसके बच्चों के नाम एक कारख़ाना कर दिया गया। और बस, कुछ नहीं। वहां बाक़ी भाइयों के नसीब में अलग-अलग शहरों में कई ज़मीनें, राउरकेला में ही बने दूसरे मकान और कई राइस मिलें और बाक़ी कारोबार आए। उनकी बीवियां ठाठ से बाहर निकलतीं। उधर रामो सेठ की बीवी पर कोई बुरी नज़र न डाले इसलिए उसे घर पर ही रहने की हिदायत दी गई थी। वो ख़ुद भी कम ही निकलना चाहती कि कोई तानाकशी न हो।

ये सब सुनने के बावजूद एक लड़की होने के नाते मुझे रामो सेठ से किसी तरह की नफरत न हुई, उल्टा मुझे उसकी तरफ की कहानी का क्या अंजाम हुआ, जिसकी कोई बात नहीं करता था, में ज्यादा दिलचस्पी थी। सो मैंने अपनी माँ से कई दफ़ा पूछा, ‘क्या रामो सेठ ने उस नौकरानी से ब्याह किया?’

मेरी माँ ने कहा, ‘पता नहीं, कहाँ गए दोनों किसी को ख़बर नहीं। उसके भाइयों ने तो उसकी तेरहवीं भी कर दी। ऐसे लोगों का क्या होगा? मर खप गया होगा अब तक तो।’

अब रामो सेठ के बच्चे बड़े हो चुके थे। रामो सेठ के बच्चे चेहरे-मोहरे में रामो सेठ पर गए थे। मैंने एक दिन माँ से कहा था, ‘जूही दीदी और रंजन भैया कितने ख़ूबसूरत हैं न!’ माँ ने बताया था वे दोनों अपने बाप पर गए हैं। मतलब ये कि रामो सेठ दिखने में ख़ासा अच्छा था। मेरे ज़हन में यूँ ही एक सवाल आया और मैंने पूछा, तो क्या वह नौकरानी भी ख़ूबसूरत थी?

माँ ने कहा, ‘ऐसी भी कौन सी हूर परी थी। दूसरा कर लिया होगा जब ये पता चला होगा कि रामो सेठ को जायदाद से कुछ न मिला। नौकरानियों का क्या है? इसी फिराक़ में होती हैं कि कोई फंसे तो इस्तेमाल किया जाए। मुलाज़्मा का काम यहाँ ज्यादातर आदिवासी औरतें करती हैं, न कपड़े पहनने का ढंग और न बोल चाल का। एक तो ऊंची साड़ी पहनती हैं, उसके साथ ब्लाउज भी नहीं पहनतीं और कनाल से भी नहा कर गीले लिबास में सरे राह लोगों को रिझाती चलती हैं।’

‘मगर ज़रूरी तो नहीं रिझाने के मक़सद से ऐसा करती हों। हो सकता है ब्लाउज पहनना उनकी संस्कृति से बाहर की चीज़ हो। उन्होंने इससे पहले कभी नहीं सोचा होगा गीले कपड़े में लोग इस तरह घूरेंगे? मारवाड़ी लोगों ने ऐसी औरतें नहीं देखी थीं इसका ये मतलब तो नहीं कि उनके आदिवासी मर्दों के लिए भी ये कोई अनोखी बात हो!’

‘कैसे नहीं पता? ये तो हर औरत को पता होता है।’

औरत का ज़िक्र आते ही मैं चुप हो गई, मुझे नहीं मालूम था औरत को क्या-क्या पता होता है और मुझे मेरे ही ख्यालों में उलझा छोड़, माँ वहां से चली गई।

पश्चिम ओड़ीशा की उन आदिवासी औरतों के चेहरे का रंग सांवला या काला होता था मगर उनके चेहरे पर नमक होता था। जंगलों में, कारख़ानों में, अपने घर में और कुछ हद तक दूसरों के घरों में और खेतों में भी काम कर-कर के उनका जिस्म लचीला और सुडोल हो चुका था, न कि हमारे घर की और घर पर आनेवाली औरतों के बदन की तरह गोल-गोल, स़फेद और बेरौनक़। शायद वे मारवाड़ी औरतें भी अच्छी लगतीं अगर जिंदगी में कुछ न कुछ काम कर रही होतीं। उनके पास कोई काम न था। बच्चों के लिए तक नौकरानियां लगा रखी थीं। आख़िर बोरियत भी कभी नमकीन हो सकती है? बोरियत न जाने कब इंसान की जिंदगी में दाख़िल हुई और धीरे-धीरे उसको दीमक की तरह खाने लगी! बोरियत कुरूप है और हमेशा कुरूप ही रहेगी।

मैं माँ से फिर पूछने चली गई, ‘अगर ऐसा होता तो रामो सेठ वापस न आ गया होता, माँ?’

माँ ने चिढ़ कर जवाब दिया, ‘किस मुंह से वापस आएगा? मुंह दिखाने लायक बचा है?’

मैंने फिर पूछा, ‘मगर माँ, अपने भाइयों से तो ठीक ही है, कम से कम एक औरत के साथ गया है। आख़िर कोई तो बात होगी उस मुलाज़्मा में… रामो सेठ के भाई तो…’

मैं कुछ कहूँ उससे पहले माँ ने मुझे एक थप्पड़ जड़ दिया, ‘कहाँ-कहाँ से सुन लेती हो ये सब?’

‘मगर सच ही सुना है न, माँ, वे सब कहाँ मुंह दिखाने के क़ाबिल हैं?’ अपने गाल पर हाथ रख मैं ये कहती हुई कमरे से बाहर निकल गई।

माँ नहीं चाहती थीं समाज के स्ट्रक्चर के साथ कुछ भी छेड़छाड़ हो। ढके-छुपे सब चलता रहे मगर खुले आम कुछ न हो। उन्होंने मुझे बातें बतानी बंद कर दीं। उन्हें मेरा सवाल करना पसंद नहीं आया। वे उन औरतों में से थीं जो रामो सेठ से नफ़रत करतीं और साथ ही साथ उसकी बीवी की बेबसी पर तरस खाने में एक किस्म की लज़्ज़त महसूस करतीं। अब हमारे आंगन में बैठी औरतें रामो सेठ की बात इतनी धीमें से करतीं कि मेरे कानों तक कम ही पहुँचती।

एक बार गणगौर के त्योहार पर सारी औरतें मेरे घर पर इकट्ठा हुईं। गोर ए गणगौर माता खोल ए किवाड़ी… के दरमियान मैंने सुना उस मुलाज़्मा की बात फिर निकल आई थी।

एक ने कहा ‘उसे क्या मालूम तीज त्योहार?’

दूसरी ने कहा, ‘आई थी झाड़-पोंछ करने, उनके घर तो कितनी पतली-सिकुड़ी थी और फिर महीने भर में किस तरह दूध-मलाई खा कर रूप निखर आया था। काले रंग पर भी गुलाबीपन झलक रहा था।’

तभी दूसरी औरत ने उसको टोका और तंज़ भरी मुस्कराहट के साथ बोली, ‘अरे, दूध-मलाई नहीं, किसी और ही चीज़ से रंग चढ़ आया था। देखा नहीं, गाल इतने उभर आए थे कि आंखें तक कलमुंही की अंदर धंसने लगी थीं।’

मैं सोचने लगी, ऐसी क्या अनोखी चीज़ उसके हाथ लग गई थी? वह चीज़ शायद इन औरतों को भी हासिल है, इसलिए तो ये लोग इतनी भारी हैं। मगर इस दफ़ा मुझे उनसे कुछ कहने या पूछने की हिम्मत ना हुई। माँ ने दूर रहने को कहा था। जब उनकी सहेलियां आतीं तो वे कहती, ‘जा, जा कर खेल। बाक़ी किसी भी वक़्त वह खेलने पर ज़ोर नहीं देतीं थीं। आख़िर खेलती भी किसके साथ? न मेरे कोई भाई-बहन थे और न ही कोई दोस्त।’

इस दफ़ा मुझे रामो सेठ की बीवी का भी ख़याल आया था, वह न गणगौर पर आती थी और न ही अग्रसेन जयंती में दिखती, अलबत्ता उसके बच्चे अग्रसेन जयंती में बराबर शरीक होते थे। मैं सोचने लगी, क्या वह वाकई में तन्हाई में दिन गुज़ारती है या फिर उसने भी ढंके-छुपे कोई रास्ता अपना लिया है? समाज में तो वे ही बदनाम हैं जो समाज से सामने से लड़कर अपनी मंजिल हासिल करते हैं। बहरहाल!

वक़्त के साथ-साथ मैं रामो सेठ के किस्से को फरामोश कर गई।

एक दिन मैं अपने बाबा के साथ रेलवे स्टेशन किसी को सी-ऑफ करने गई थी। रामो सेठ लकड़ी का गट्ठर उठाए ट्रेन से उतरा। ये लकड़ियां शायद खाना पकाने में इस्तमाल की जाती थीं। वे उन दिनों लकड़ी के खिलौने भी बेचा करता था। बाबा यूँ तो उस ज़माने में 555 सिगरेट पिया करते थे मगर उसको बीड़ी जला कर दी। यूँ एक मामूली से फेरीवाले को बीड़ी थमा कर उसको लाइटर भी दिया, ये बात मुझे हज़म न हुई। बिना पूछे ही उन्होंने मुझे बताया, ‘ये रामो सेठ है। अब ये हाल है उसका। तरस आता है।’ बाबा के ‘तरस’ और माँ के ‘तरस’ में फ़र्क़ था। मुझे फिर वह बात याद आ गई और मैंने मन ही मन में कहा, ‘अगर नौकरानी ने कोई और आदमी कर लिया होता तो वह यक़ीनन वापस आ गया होता और हमारा समाज उसे क़बूल भी कर लेता। एक बार को मान लें कि समाज क़बूल न भी करता तो यक़ीनन उसकी बीवी उसे अपना लेती।’ इतनी समझ उस वक़्त मुझ में थी।

मुझे रात भर नींद न आई। मुझे ये मालूम हो कि ये शख्स रामो सेठ है, उससे पहले ही चुपके से एक लकड़ी का घोड़ा मैंने रामो सेठ की टोकरी से उठा लिया था। वह ट्रेन से उतरकर लकड़ी के गट्ठर को किनारे रख, एक छोटी-सी टोकरी में रखे लकड़ी के खिलौने बेचने लगा था। मेरे बाबा ने भी उसे उस वक़्त नहीं पहचाना था। बाबा ने एक लकड़ी के घोड़े का दाम पूछा। उस ज़माने में वह घोड़ा सत्तर रुपये का था। बाबा को घोड़ा महंगा मालूम हुआ, वह जाने को ही थे कि रामो सेठ ने एक बीड़ी मांग ली। तभी बाबा उसे पहचान गए।

‘अरे रामो सेठ! सब ठीक है? कैसे हो?’

रामो सेठ ने हाथ मिलाया और सर हिला कर बता दिया कि सब ठीक है। बाबा ने अब एक बीस रुपए का खिलौना ले दिया, वह भी सिर्फ रामो सेठ का एहतराम कर। वरना कोई और फेरीवाला होता तो ये खिलौना भी नसीब न होता। हमारे घर के लोग हिसाब के पक्के थे, घाटे का सौदा कभी नहीं होने देते थे, चाहे वह अपनी इकलौती बेटी के लिए कोई तोहफ़ा ही क्यूँ न लेना हो। बहरहाल! मेरा दिल तो लकड़ी के घोड़े पर ही था, और मैंने ये घोड़ा तब उठाया, जब बाबा से बीड़ी मांगने के लिए रामो सेठ थोड़ा आगे बढ़ा था।

रामो सेठ इतना कमज़ोर था कि उसका पेट उसकी पीठ के अंदरूनी हिस्से को छू रहा था, उधर लेबड़ीया ख़ानदान के बाक़ी लोगों की तोंद ज़मीन को छूने को थी। घर में हर डाइनिंग टेबल पर ड्राई फ्रूट्स रखे होते। हम उनके घर जाते तो बादाम और तरह-तरह के शरबत पेश किए जाते। तरह-तरह की मिठाइयाँ मिलतीं, बेल्जियम और न जाने कहाँ कहाँ की चॉकलेट मिलतीं, जिनका पहले जिक्र भर ही सुना था हमने।

कुछ दिनों बाद ख़बर मिली कि रामो सेठ भूख से मर गया। यह सुनकर मेरी आंखों के आगे अंधेरा छा गया।

‘कितने दिन खाना न खाने से आदमी मर जाता है? दो दिन? नहीं पांच दिन? हो सकता है।’ मैंने मन ही मन में कहा।

रामो सेठ की क्या इतनी भी आमदनी नहीं थी? और अगर ये सत्तर रुपए का खिलौना चुराने के बजाय ख़रीदा गया होता तो…? तो कम से कम चार दिन तक पखाल भात तो खा ही पाता। मगर अकेला थोड़े था, वो मुलाज़्मा भी तो होगी उसके साथ, और बहुत मुमकिन है कि बच्चे भी हों। तो उस सत्तर रुपए से दो दिन पखाल तो सब कोई खा सकते थे। तो क्या रामो सेठ की मौत की ज़िम्मेदार मैं हूँ? नहीं। नहीं। वो मुलाज़्मा भी तो कुछ न कुछ काम करती होगी। पहले भी तो काम करती थी। हाँ और नहीं के दरमियान मुझे चक्कर आने लगे थे।

मैंने पढ़ाई-लिखाई छोड़कर अपने आपको एक कमरे में बंद कर लिया। मुझे बत्ती से डर लगने लगा था कि कहीं जलती लाइट में घर के लोग मेरे चेहरे को देख कर पढ़ न लें कि रामो सेठ मेरी वजह से मरा है। मैंने तीन दिन खाना नहीं खाया। फिर घरवालों ने ज़बरदस्ती खिला दिया।

मैंने उस रात फिर एक चोरी की। अपने बाबा की अलमारी से मैंने एल्प्राक्स की गोलियां चुराईं। मैंने एल्प्राक्स की चार गोलियां खा ली, मगर मैं जितना सोती थी, उस से भी कम सो पाई। मुझे बेहद अफ़सोस हुआ कि मैं मरी कैसे नहीं।

फिर दूसरे दिन अपने घर के मुलाज़िम से वालियम टेन की गोलियां मंगवा लीं। मुलाज़िम जोख़िम उठाते हुए केमिस्ट से दवाई ले आया, ये कह कर कि साहब ने मंगवाई हैं। मैंने दूसरी रात वालियम टेन की दस गोलियां खाईं मगर फिर भी मैं नहीं मरी। इसी तरह बंद कमरे में मुझे एक महीना गुज़र गया। मैं खाना खाती और फिर कमरे में बंद हो जाती। उन्हीं दिनों हमारी एक हमसाया, जो मेरी हम उम्र भी थी, मलेरिया से चल बसी थी। घरवालों ने सोचा मैं उसी के सदमे से कमरे में बंद हूँ। मगर सच बताऊँ तो मैंने उस लड़की को कभी ठीक से देखा तक नहीं था, उसका जीना या मरना मेरे लिए बराबर था।

मेरे घर में यूँ भी लड़की का परदे में रहना बेहतर माना जाता था। एक तो लड़कियों की ज़रूरत नहीं होती थी हमारे मुआशरे में, मगर अब जब कोई दूसरी संतान नहीं है, लड़की पैदा हो ही गई है तो घर में बैठी रहे, बाहर न निकले, पढ़ाई-लिखाई न करे- इस तरह के ख़यालात मौजूद थे। मैं बंद कमरे में बैठने की आदी हो गई थी। यूँ कई साल बीत गए। ख़ुदकुशी की सारी कोशिशें नाकामयाब साबित हुईं। और रामो सेठ के लकड़ी के घोड़े को देख-देख मैं पहले कुछ महीने खूब रोई। मेरा दम घुटता था उस बंद कमरे में, मगर मैं उस दर्द को महसूस करना चाहती थी। भूखी मुझे घरवाले रहने नहीं देते थे। मैंने बचपन से सिर्फ आज़ाद परिंदों को पसंद किया था, खुला आसमान मुझे बेहद भाता था। बंद कमरे में क़ैद होना मैंने अपने लिए ख़ुद सज़ा मुक़र्रर की थी क्यूंकि और कोई नहीं जानता था कि रामो सेठ ग़ालिबन मेरी वजह से ही मरा था। वह घोड़ा अब हर रात मुझे अपने पैरों तले रौंद-रौंद कर मार डालता और हर सुबह मैं वापस जिंदा हो जाती। आख़िर मेरे जैसे जोंक आसानी से थोड़े मरते हैं!

ट्रेन चल पड़ी थी। मैं अपने माज़ी से बाहर निकली।

‘रामो सेठ बोकारो कैसे पहुँच गया?’ मैंने सोचा।

फिर अगले ही पल याद आया वह तो मर चुका था। मेरा दम फिर घुटने लगा। मुझे महसूस हुआ अचानक ट्रेन की सारी बत्तियां बुझ गई हों। जैसे मैं एक गहरे कुएं में हूँ। मैं एक अधेड़ उम्र की औरत न होकर एक आठ-दस साल की बच्ची मालूम हो रही हूँ। मैं चिल्ला रही हूँ कि कोई मुझे बचाए, मगर वह कुआं किसी वीरान जगह में है। धीरे-धीरे रात गहराने लगी है और मेरी अपनी चीख़ जो पहले कुएं की दीवार से टकरा कर वापस आ रही थी, अब मेरे अपने जिस्म के अंदर टकरा कर अंदर ही इको हो रही है, जिससे मेरा पूरा बदन कांप उठा है। मेरे पैर धीरे-धीरे गलने लगे हैं। उधर कुएं के पास के दरख्तों ने कुएं को ढकना शुरू कर दिया है। कहीं रोशनी नहीं है। अब कुआँ मुसलसल अंधेरे से घिरा हुआ है। और कुएं को घेरने वाले दरख्तों की डाल रफ्ता-रफ्ता हौले-हौले मेरी तरफ बढ़ रही हैं। बिलआख़िर वे डाल किसी अज़गर की भांति मेरे जिस्म से लिपट गईं और मेरी हड्डियों का चूरा बन रहा है। मेरी जान निकल रही है मगर मैं जीना चाहती हूँ। मुझे बचा लो, कोई तो मुझे बचा लो!

मैं हड़बड़ा कर अपने वहमो गुमान से बाहर निकली। आख़िर मैं जीना क्यूँ चाह रही थी? इस तरह किसी अंधेरे कुएं में इतना लंबा अरसा गुज़ारने के बाद जीना कौन चाहेगा? कुछ देर की तकलीफ़ फिर तो मुक्ति थी। मैं नौसिआटिक महसूस करने लगी, सो ट्रेन के दरवाज़े पर जा कर गहरी सांस के साथ ताजा हवा को अपने अंदर भरने लगी। अब मुझे बेहतर महसूस होने लगा। आउटर था और ऊपर से सर्दियों की बाद-ए-नसीम। फिलहाल तो बस यही चाहिए था जिंदगी से।

मगर फिर दफ्फतन रामो सेठ नज़र आया, लकड़ी का गट्ठर सर पर लादे हुए। ट्रेन में फिर से बत्तियां गुल हो गईं। ट्रेन अब किसी सुरंग-सी मालूम हो रही थी और मुझे सांस लेने में ख़ासी तकलीफ़ होने लगी। मैंने देखा ट्रेन के बाहर रोशनी है, और मैं रामो सेठ के पीछे भाग रही हूँ।

‘मैं’ यानी कि अपने बचपन की मैं, रामो सेठ के पीछे भागती रही, ‘ओ रामो सेठ, तुम्हारा लकड़ी का घोड़ा, ये लो तुम्हारा लकड़ी का घोड़ा!’

अगल दिन बोकारो में चर्चा थी- ‘बोकारो स्टेशन पर थोड़े ही फ़ासले के दरम्यान दो शव बरामद हुए- पहला एक घोड़े का और दूसरा एक औरत का, जिसके बैग में खिलौनेवाला एक लकड़ी का घोड़ा पाया गया।

संपर्क सूत्र : 801, सीब्लॉक, पामग्रीन्स सुपरटेक, दिल्ली रोड, मुरादाबाद, उत्तर प्रदेश244001 मो.7452005251